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भट्टारक रत्नकीति एवं कुमुदचन्द्र : व्यक्तित्व कृतित्व
दिवस अंधारी रातडी बलि वाट घाटे नीर वापीयडो पिउ पिउ बोले किम घरु मन धीर तर तणी साखा करे भाषा सांजा सोहेत । रितुकाल मोर' फला करी मयूरी मन मोहेत । माज सखी अगास प्राव्यो उन्हई ने मेह । झबक सबके बिजली किम सेह कोमल देह प्रायो पणा से करें कामिनः लाड किम रह हूं एकलो रे भावयो पाषान ।
भाषा:-बारहमासा की भाषा पर गुजराती का अधिक प्रभाव है क्योंकि इसकी रचना भी घोघा नगर के जिन दैत्यालय में की गई थी । धोघा नगर १६वीं शताब्दी में भट्टारकों के बिहार का प्रमुख केन्द्र था। वहां श्रावकों की अच्छी बस्ती थी। जिन मन्दिर था। वह सागर के किनारे पर बमा हुमा था।
शेष रचना...-कवि की अन्य मभी रचना' गीत रूप में हैं जिनमें मेमि राज़ल प्रकरण ही प्रमुख रूप से प्रस्तुत किया गया है । उसके गीतों की प्रात्मा नेमि राजुल इसी तरह जिम तरह मीरा के कृष्ण रहे थे। अन्तर इतना सा है कि एक प्रोर नेमिनाथ विरागी जीवन अपनाते हैं। अपनी तपरया में लीन हो जाते हैं और राजुल उनके लिये तडकती । अपने विरह की व्य या सुनाती है, रोती है और मा में जब नेमि तपस्वी जीवन पर ही बने रहते हैं तो वह स्वयं भी तपस्विनी बन जाती है तथा भोगों रो निरन होकर जगत के समक्ष एक प्रनोखा उदाहरण प्रस्तुत करती है । नेमि राजल के प्रसंग में गट्टारक रन कीति अपने गीतों के माध्यम मे राजुल के मनोगत भायों का, जमको विरही जीवन का मोष चिय उपस्थित करता है जबकि मीरा स्वयं ही रागन बनकर कृष्ण के दर्शनों के लिये लालायित रहती है स्वयं गाती है, नाचती है और अपने प्राराध्य की भक्ति में पूर्णत: सपित हो जाती है।
भट्रारक रत्नपीति अपने समय के प्रमुख सन्त थे । उनका पूर्णतः विरागी जीवन था। साथ हो में ये लेखनी के भी धनी थे । अपने भक्तों, अनुयायियों एवं प्रशासकों के अतिरिक्त समस्त समाज को नेमि राजल के प्रसंग से जिन भक्ति में समर्पित करना चाहते थे। लेकिन जिन भक्ति का उद्देश्य भागों की प्राप्ति न होकर कों की निर्जरा करना था। इसलिये ये गीत १७वीं सदी में बहुत लोकप्रिय रहे और समस्त देश में गाये जाते रहे ।
वे अपने समय के प्रथम सन्त थे जिन्होंने नेमि राजुल के प्रसंग को अपने