SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 10
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ स्तर जैन साहित्य से संबंधित हैं। इनके अध्ययन का मतलब होता है हिन्दी की भाषिक पृष्ठभूमि को समझने का वस्तुनिष्ठ प्रयास । अभी इस दृष्टि से हिन्दी भाषा का व्युत्पत्तिक अध्ययन शेष है, जिसके प्रभाव में उसके बहुत सारे शब्दों को देशण पादि कह कर अव्याख्यायित छोड़ दिया जाता है , किन्तु जब प्राकृत/अपभ्रंश राजस्थानी के विविध व्यावर्तनों का. उनमें उपलब्ध जैन साहित्य का, शैली/भाषावैज्ञानिक अध्ययन किया जाऐंगा और कुछ प्रशिक्षित व्यक्ति इस दायित्व को संपन्न करेंगे सब हम यह जान पायेगे कि एक निवृत्तमूलक चिन्तन-परम्परा ने प्रवृत्तिपरक इलाके को क्या कितना योग दिया है ? किस तरह हिन्दी-साहित्य के विधा--विष्य *का विकास हुआ और किस तरह हिन्दी भाषा अभिवृद्ध हुई । इसना ही नहीं बल्कि मानना पड़ेगा कि द्राविड़ भाषानों के विकास में भी जैन रचनाकारों ने-विशेषतः साधुओं और भट्टारकों ने-विस्मयजनक योगदान किया था। एक तो हम इन सारे तभ्यों की सूक्ष्म छानबीन कर नहीं पाये, हैं, दूसरे कई बार हम अनुसंधान के क्षेत्र में भरपूर वस्तुनिष्ठा से काम करने निष्कर्ष लेने में चूक जाते हैं । हमारे इस सलूक से साहित्य के विकास को भलिभांति समझने में कठिनाई होती है। ___ जहाँ तक इतिहास का संबंध है उसके सामने कोई घटना इस या उस जाति अथवा इस या उस संप्रदाय की नही होती। उसका सीधा सरोकार घटना के व्यक्तित्व और उसके प्रभाव से होता है, इसलिए जो लोग साहित्य के वस्तून्मुख समीक्षक होते हैं वे किसी एक कालखण्ड को सिर्फ एक अकेला अलहदा कालखण्ड मान कर नहीं चल पाते वरन् तथ्वों का 'इन डेथ' विश्लेषण करते हैं और उनके सापेक्ष संबंधों अन्तः संबंधों को खोजने का अनवरत यत्न करते हैं। कोई बीसा 'फल' किसी उपस्थित 'श्रान' की ही परिमा ति होता है, और कोई प्रतीक्षित 'प्राज' किसी अागामी 'कल' में से ही जानता है। पानेवाले कल की खोज-प्रक्रिया नही कठिन होती है। एक तो जब तक हम वर्तमान को सापेक्ष नहीं देखते तब तक प्रागामी बल की सही अगवानी नहीं कर पाते, दूसरे हम प्रगने अतीत यानी विगत कल' की ठीक से व्याख्या भी नहीं कर पाते । प्रायः हमने माना है कि ये तीनों परस्पर विच्छिन्न चलते हैं, किन्तु दिखाई देते हैं कि ये वैसा कर रहे हैं, कर वैसा सकने नहीं हैं । कलाज कल एक तिकोन है बल्कि कहें , समत्रिभुज है जिसकी प्राचार-भुजा आज है । जो कौम अपने ‘बाज' को नहीं समझ पाती, वह भ तो अपने विगत 'कल' में से कुछ ले पाती है और न ही प्रतीक्षित 'कल' को कोई स्पष्ट प्राकार दे पाती है। धर्म/दर्शन/संस्कृति ही ऐसे अाधार हैं, जो आगामी कल को एक संलिष्ट प्राकृति प्रदान करने में समयं होते हैं । साहित्य अक्षर के माध्यम से प्रागामी कल * राजस्थान के शास्त्र-भण्डारों की ग्रन्थ-सूची, चतुर्थ भाग, डा० वामुदेव शारण अग्रवाल, पृष्ठ 4. (ix )
SR No.090103
Book TitleBhattarak Ratnakirti Evam Kumudchandra Vyaktitva Evam Kirtitva Parichay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKasturchand Kasliwal
PublisherMahavir Granth Academy Jaipur
Publication Year
Total Pages269
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth, Biography, & Story
File Size4 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy