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भट्टारका रत्न नीति एवं कुमुदचन्द्र : व्यक्तित्व एवं कृतित्व
जय-जय भुजबलि नमित नरामर ।
सकल कलाधर मुगति वधूवर ।
रखना काल संवत सोलसमें सतसहे। ज्येष्ट शुकल पा तिथि छहें ॥ १५६ ।। कविवर बारें घोषा नपरें। अति उत्त'ग मनोहरु सुघरें। अष्टम जिनवर तें प्रासादे । सांभलीये जिन गान सुसादें । रतनकीरति पदवी गुण पूरे । रचिया छंद कुमुद शशि सूरे ॥ १६ ॥
कला उत्कट विकट कठोर र गिरि भंजन सत्पदि ।
विहत कोह संदोह मोह्तम अघ हरण रवि । विजित रूप रति भए चार गुगा रूप विनुत कदि ।
धनुष पांचस पंचवीश वर उव्य तनुछवि ।। १६१ ॥ संसार सरित्पति पार गप्त,
विध वृन्द बन्दित चरण । कहे कुमुदचन्द्र भुजबली जयो,
सफल संघ मंगल' करण ।। १६२ ।।
इति श्री बाहुबली छंद प्रक्षरी समाप्त