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भट्टारक रत्नकीति एवं कुमुदचन्द्र : व्यक्तित्व एवं कृतित्व
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भव सागरनां भमंता भमंता, नर भव दोहिलो मनियो रे । संपत्ति मति रुडूकुल पाम्यौ, तो धर्म विषय थी रलियो रे ।।अव॥ २ ॥
योवन जाय गरा नितु व्यापे, क्षण क्षरण प्रायुस धावे रे । .. रोग शोग माना दुख देखी, तोस्ये नहीं सान न आवे रे भव०॥ ३ ॥
क्रोध मान माया सहु मूको, परधन परस्त्री वर जोरे । चरचो चरण कमल प्रभु केरा, जिम संसार न सरजो रे ॥०॥४॥ दृढ पणे जप जप नहीं थाये, जीवन वय जाल विये रे। घर लागे कूउ खोदीने तो कहो किम घर उल्हविये रे प्रव०॥ ५ ॥ बहु परिवार घणी हुँ मोटो, मूरिख मोटि संझखी रे। स्वारथ बीते कोई नधि दीखे, तो जिम तरुवर ना पंजी रे ॥सव०॥ ६ || में में रत्तोरा माए तो, बृह्म तिजनिवारो रे। मन मरकट नो हठ वपि धारणो तो, नरभव कोकम हारो र अब ।। ७ ।। पर उपगार करी जस लीजे, पर निंदा नषि करीये रे। कुमुदचंद कहे जिम लीलाई, तो भवसागर उतरीये रे ॥अव०॥ ८ ॥
राग गोडी :
लालाद्यो मुझ चारिष चूनडी, येराग करारी रंग रे । व्रत भात भली घणी सोभती, वास समकित' पोत सुचंगरे ।। १ ।। रुडी सोहें माहि तप फूदडी, छ बयालि दयानि वेति रे । दशलक्षण शालि दीपती, शिल' पत्र तणी रंगरेलि रे ।। २॥ मूल गुणनी विराजे मंजरी, पंच समिति पांखडी सोहंत रे। उंची अण्व गुपति रेखा भजे, जेह्र जोता मन मोहंत रे ॥ ३ ॥ वर संवरनी तिहां चोकडी, वे ध्यान 'पालव सोहाय रे। रटिमालि रत्नत्रय कोर रे जोता मनुस्युतृपति न थाय रे ।। ४ ।। एह उही राजीमती सोचरी, तेरो मोरा सुरनर राय रे । मोही मुगति साहेली रूपनें, सूरो कुमुदचन्द बलि जाय रे ।। ५ ।।
इतिगीतः
(२४) ए संसार भर्मतहारे न ल ह्यो धर्म विचार || में पाप कर्म की धांधणी ते थी पाम्यो दुल अपार रे । मन मोहन ल्वामी मोरा अंतरयामी, नमु मस्तक नामी देवरे ।। १ ।।