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भट्टारक कुमुवष
तस १६ सुमुद कुमुवान, क्षमावंत गुरु गत तंद्र । मुनीन्द्र चंद्र समो यश उजलोए +- + + -- कुमुवचन्द्र जेहलो चांदलो, रत्नकीरति पाटे गोरह भलो । मोढवंश उदयाचल रवि, जेहना पचन बखाणे कवि ।
एक गीत में कुमुदचन्द्र की सभी दृष्टियों से प्रशंसा की गई हैं। गीत अनुसार पंचाचार, पांच समिति एवं तीन गाप्ति के वे पालनकर्ता थे। कोध कषा पर उन्होंने प्रारम्भ से ही विजय प्राप्त करली थी । कामदेव पर भी उनकी विज अदभुत श्री इसलिये वे शीलगार कहलाते थे । गीत में उनकी जन्मभूमि, मात पिता एवं वंश सभी का गणानुवाद किया है--यहीं नहीं उनकी शारीरिक विशेषता को भी गिनाया गया हैं ।
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समिति गपति प्रादि ए पाले चरित्र तेर प्रकार । क्रोध कषाय तजी रे वेगे जीत्यो रति भरतार । प्रील शृंगार सोहे रे वृद्धि जदयो अभयकुमार ।। + -- + + पाखड़ी कज पांवडी रे अधर रंग रहयो परवान राणी साभली रे लालीगई कोमल बन अंतराल । शरीर सोहामा रे गमने जीत्यो गज गणमान । को कहे गरु अवतारे देउ दान मान मोती भाल ।।
संवत् १६५६ बैशाख मास में बारडोली नगर में रत्नकीति ने स्वयं अपने शिव कुमुद चन्द्र को अपने ही हाधों से भटारक पद पर प्रतिष्ठापित कर दिया।' यह था भट्टारक लकीति वा त्याग । वे उनी समय से मूलसंघ सरस्वती गच्छ के श्रृंगार कहलाने लगे । शास्त्रार्थ करने में वे अत्यधिक चतुर थे।
विहार
कुमुदचन्द्र ने भट्टारक बनते ही गुजरात एवं राजस्थान में विहार किया और
१. संगत् सोल छपन्ने शाखे प्रगट स्ट्रीधर थाप्यारे ।
रनकीरति गोर बारडोली वर सर मंत्र शुभ आया रे ।। २. मूल संघ मगट मरिण माहत सरसति गच्छ सोहाये रे।
कुमुवचंट भट्टारक आगलि वादि को वा न माने रे॥