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भट्टारक रत्नकौति एवं कुमुदचन्द्र : व्यक्तित्व एव कृतित्व
बालपणे बुधिवत विचक्षण, विद्या चउद निधान ।
जैनागम जिन भक्ति करे एह, जिन सासन मह तान रे ।। ५ ।। व्याफर्ण तर्क वितझ अनोपम, पुराण पिंगल भेद । अष्ट सहस्री प्रादि गंथ अनेक जु, च्हों विद जाणो वेद रे ।। ६ ।। लघु दीक्षा लोधी मन, वाल जयकारी, नवल नाम सोहे अति सुन्दर, सहेज सागर ब्रह्मचारी रे || ७ || छण रजनी कर वदन विलोकित, प्रर्द्ध ससी सम भाल ।
पंकज पत्र समान सुलोचन, ग्रोवा कंबु विशाल रे ॥ ८ ॥ नांथा शुक चंचीसम सुन्दर अधर प्रवाली वृद।
रक्तवणं द्विज पंक्ति विराजित, नीरखंता आनन्द रे ॥ ६ ॥ रूपे मदन समान मनोहर, बुद्ध अभयकुमार ।
सीले सुदर्शन समान सोहे, गौतम सम अक्सार रे ।। १०॥ एकदा अति प्रानंदे बोले, अभय चन्द्र जयकार ।
सुणयो सह सज्जन मन रंगे, पाट तरणो सुविचार रे ॥ ११ ॥ सहेज सिन्धु सम नहीं को पतिवर, जगमा जारगो सार ।
पाट योग छ सुन्दर एहने, प्रापयो मछ नो भार रे ॥१२॥ संघपति प्रमजी हीरजी रे, सहेर वंश शृगार ।
एकलमल्ल प्रखई प्रति उदयो, रत्नजी गुरण भंडार रे ।। १३ ॥ नेमीदास निरूपम नर सोह, अब ई प्रबाई वीर ।
दुबड़ वंश शृंगार शिरोमणि, बाधजी संघजी थोर रे ॥ १४ ।। रामजीनन्दन गांगजी रे, जीबंभर वर्द्धमान ।
इत्यादिक संघपति ए सात भावा श्रीपुर गाम रे ।। १५ ॥ पाट महोछव मांड्यो रंगे, संघ चतुर्विध लाव्या। __ संघपति श्री जगजीवन रासो, संघ सहित ते आव्या रे ॥१६॥ दक्षण देशनो गछपती रे, धर्म भूयण तेडाव्या ।
अति भाडंबर साथे साहमो करीने तप धराध्या रे ॥ १७ ॥ शुभ मुहरत जो जिन पूजा, शांतिक होम विधान ।
जमएवार युग ते जल जागा, प्रापे श्रीफल पनि रे ॥ १८ ॥ संवत् सत एक बीरोरे, जेठ वदी पडवे चंग ।
जय जयकार करे नरनारी, काले कन्नश उत्तग रे ।। १६ ।।