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भट्टारक रत्नकोति एवं कुमुदचन्द्र : व्यक्तित्व एवं कृतित्व
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राग प्रमाती उदित दिन राज रुचि-राज सुविधाते ।
भाथ भावंच भावप मुभ जातं ॥ मुचहे मंद मंचकं नत सुरं।
भज भगवंत ममि भूरि भाभासुरं ॥ १ ॥ स्यक्त तारुण्य पुत तरुणी बर भोगं ।
योग युक्ता यति ध्यान धूत योगं ।। मु० ॥ २ ॥ धृतह सित बदन कज भविक पात शातं ।
विगत र नम जन संपातं ३ ।। सुरवर तुलि मुख र मुख भूरि मुखमा करं |
विश्व सुख भूमिनो वंधनत्व हरं ।। मु० ॥ ४ ।। विगत तारा वर विहत धन तेंद्र।
हंस मासा प्रमुद कुमुदचन्द्र ।। मुपहें मंदत्वं मंचकं नत सुरं ।। मु० ।। ५ ।। राग पंचम प्रभाती पावोरे साहेलो जहए यादव यणी ।
पाउले लागीने कीजे कीनती घणी॥ आवडो पाउँबर करी सेहने ते प्राध्या।
तोरण थी पाछा वली जाता लोक हसाव्या ॥ प्रा० ॥१॥ विण कि किम मूकी ने चाल्या रुड़ा सामला ।
मनुस्यु निमांसी जुयों मुकी धामला || प्रा० ॥ २ ॥ पीउद्धा पाखिरे किम मंदिर रहीद
कुमुदचन्द्र नो स्वामी कृपाल कहीइ ॥ या० ।। ३ ॥ राग वैशाष प्रभाती
जागि हो भोरु पयो कहा सोबत ।। सुमिरतु श्री जगदीश कृपानिधि जनम काधिक खोवत | जागि।। १ ।। गई रजनी रजनीस सिधारे, दिन निकसत दिनकर फुनि उक्त । सकुचित कुमुद कमलवन विकसत,
संपति विपति नयननी दोउ जोबत ।।जागि०।। २ ।। सजन मिले सब पाप सवारथ, तुहि बुराई प्राप शिर ढोबत । कहत । मुदचन्द्र यान भयो तुहि,
निकसत घीउ न नीर विलोबत जागि।। ३ ।।