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भट्टारक रत्नकोति एवं कुमुदचन्द्र : व्यक्तित्व एवं कृतित्व मंगसिर शुक्ला ५ के दिन कुकुम पषिका लिखी गयो । विभिन्न नगरों में स्वयं पंडितों को भेजा गया । रत्नकीति अपने विशाल संघ के साथ वहां पाये । प्रतिष्ठा की सभी विधियां-अंकुरारोपण, वास्तुविधान, नंदी, होम आदि सम्पन्न किये गये । जलयात्रा की गयी जिसमें स्त्रियां मंगलमीत गाती हुई चलने लगी। राजबाई के हर्ष का ठिकाना नहीं रहा । अंत में कलशाभिषक के पश्चात प्रतिष्ठा महोत्सव सम्पन्न हुमा । माघ शुक्ला ११ के दिन भ, रत्वकीर्ति ने महिलदास के तिलक किया तथा पंच महाचत अंगीकार कराये गये । उसका नाम जिनयन्द्र रखा गया ।
बेल लघु रचना अवश्य है फिर भी तत्कालीन धार्मिक समाज का अच्छा चित्र उपस्थित करता है । बेल का अन्तिम पार निम्न प्रकार है
मन वांछति फल पाय, ज्यो ए संपपति श्री मल्लिदास । ब्रह्म जयसागर इम कहेए, सोभागेण पोहोता पा सके ।
३. संघगीत
भट्टारक रत्नकोति ने अपने सब के साथ शय 'जय' एवं गिरिनार तीयों की यात्रा की थी। संघ में मुनि अपिका यावक श्रानिका पारों ही थे । रत्नकीर्ति सबके प्रमुख थे। तेजबाई सांघ की संचालिका थी। मंगसिर मुदी पंचमी के दिन भाणेज गोपाल एवं उसकी पत्नि वेजलदे को तिलक परके सम्मानित किया गया। रलकीर्ति पालकी में विराजते थे । गीत छोटा सा है लेकिन तत्कालीन सामाजिक व्यवस्था पर अच्छा प्रकाश डालता है ।
४. विधामन्दि पर
इस पद में मूलसंघ के भद्दारक देवेन्द्र कौति के शिष्य भट्टारक विद्यानन्दि का स्तवन किया गया है । विद्यानन्द ने गुजरात में धर्म की बड़ी प्रभावना की थी। वे भट्टारक होते हुए भी दिगम्बर रहते थे तथा कामदेव पर विजय प्राप्त की थी। पोरवाड मंश में उत्पन्न हरिराज उनके पिता का नाम था तथा चापू माता का नाम था।
५. प्रभाति
जयसागर ने अपनी प्रमाति गीत में भट्टारक रत्नकोति का गुणानुवाद
-- ---- १. बेल की पूरी प्रति प्रागे दी गयी है २. पुरा पक्षप्रागे विया गया है।