Book Title: Anekant 2006 Book 59 Ank 01 to 04
Author(s): Jaikumar Jain
Publisher: Veer Seva Mandir Trust
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Page #1 --------------------------------------------------------------------------  Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ கடகம் - 3|6qsladil II -- - * * - -- - - பாக, वीर सेवा मंदिर 21, fa fa -2 / Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वीर सेवा मंदिर का त्रैमासिक अनेकान्त प्रवर्त्तक : आ. जुगलकिशोर मुख्तार 'युगवीर' इस अंक में कहाँ / क्या ? 1 अध्यात्म पद 2 सम्पादकीय 3 प प्रवर सुमेरुचन्द दिवाकर की दृष्टि में भगवान् महावीर की जन्मभूमि - - डॉ राजेन्द्र कुमार बसल 12 4 दूध शाकाहार है वैज्ञानिक तथ्य - ऐलक निर्भयसागर महाराज 20 5 श्रावकाचार संग्रह में आवश्यकों का स्वरूप 6 श्री सोमदेवसूरि द्वारा प्रतिपादित अहिसा 7. 'केवलज्ञान' एक विश्लेषण 8 पचास वर्ष पूर्व - कविवर भूधरदास 10 आयुर्वेद के ग्रंथों की रचना प्रक्रिया में जैन मनीषियों का योगदान 1 2 - डॉ अनेकान्त कुमार जैन 30 - -डॉ जय कुमार जैन 62 - पकज जैन 'ललित' 72 जैन धर्म और बौद्ध धर्म एक नहीं - जगदीशचन्द्र जैन 84 9 सल्लेखना पूर्वक समाधि मरण – प सनत कुमार, विनोद कुमार जैन 94 • आयुर्वेदाचार्य राजकुमार 104 वर्ष - 59, किरण - 1-2 जनवरी-जून 2006 सम्पादक डॉ. जयकुमार जैन 429, पटेल नगर मुजफ्फरनगर ( उ प्र ) फोन : (0131) 2603730 सह सम्पादक संजीव जैन परामर्शदाता : पं. पद्मचन्द्र शास्त्री संस्था की आजीवन सदस्यता 1100/ अनेकान्त वार्षिक शुल्क 30/ इस अंक का मूल्य 10/ सदस्यों व मंदिरो के लिए निःशुल्क प्रकाशक : भारतभूषण जैन, एडवाकट मुद्रक मास्टर प्रिन्टर्स, दिल्ली-32 . विशेष सूचना : विद्वान् लेखक अपने विचारों के लिए स्वतन्त्र हैं। यह आवश्यक नहीं कि सम्पादक उनके विचारों से सहमत हो । वीर सेवा मंदिर ( जैन दर्शन शोध संस्थान ) 21 दरियागंज, नई दिल्ली- 110002, दूरभाष : 23250522 1 संस्था को दी गई महायता राशि पर धारा 80 जी के अंतर्गत आयकर में छूट (रजि. आर 10591 /62) Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 7056) अध्यात्म-पद अब मेरे समकित साबन आयो। बीती कुरीति मिथ्यामति ग्रीषम, पावस सहज सुहायो।। ।। अब. ।। अनुभव दामिनी दमकन लागी, सुरति घटा घन छायो। बोलैं विमल विवेक पपीहा, सुमति सुहागिन भायो। । अब.।। गुरु धुनि गरज सुनत सुख उपजै, मोर सुमन विहसायो। साधक भाव अंकूर उठे बहु, जित तित हरष सवायो।। ।। अब.।। भूल धूल कहि मूल न सूझत, समरस जल भर लायो। भूधर को निकसै अब बाहिर, निज निरचू घर पायो।। ।। अब.।। -कविवर भूधरदास Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्पादकीय मानव धर्म : समय की पुकार — डॉ. जयकुमार भवबीजाङ्कुरजनना रागाद्याः क्षयमुपागताः यस्य । ब्रह्मा वा विष्णुर्वा हरो जिनो वा नमस्तस्मै । । जैन आज चतुर्दिक् हिंसा का प्रसार बढ़ रहा है । पदलोलुपता एवं परिग्रहलिप्सा के चक्कर में फसा मानव सिद्धान्तहीन होकर जघन्य से जघन्य पाप करने में संकोच नहीं कर रहा है । जो वैज्ञानिक साधन मानवीय कल्याण के लिए हो सकते थे, उन्हीं से हिंसा को क्रूरतम रूप दे दिया गया है। मानव के जीवन में शान्ति ढूँढ़ने पर भी कहीं दृष्टिगोचर नहीं है । दैनन्दिन जीवन संघर्षमय हो गया है । शान्ति के नाम पर असीमित धन खर्च किया जा रहा है, नरसंहार जैसी अनैतिक प्रवृत्तियों का आश्रय लिया जा रहा है। फिर भी हिंसा, झूठ, चोरी, कुशील, जमाखोरी एवं शोषण जैसी दृष्प्रवृत्तियाँ बढ़ती ही जा रही हैं। आज मानव से ही मानव को जितना बड़ा खतरा उत्पन्न हो गया है, उतना बड़ा खतरा किसी प्राकृतिक आपदा से नहीं है । सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री विष्णु प्रभाकर ने लिखा है- “ आज देश में धन वैभव के मूल्य बढ़ गये हैं और नैतिकता के मूल्य शून्य हो गये हैं । गरीबी की गरिमा, सादगी का सौन्दर्य, संघर्ष का हर्ष, समता का स्वाद और आस्था का आनन्द-ये सब हमारे आचरण में से पतझर के पत्तों की तरह झर गये हैं । आज समाज की सारी अशान्ति, सारे संक्लेश, क्या इसी वैचारिक पतझर का परिणाम नहीं है?" I इस विषम परिस्थिति का इलाज केवल धर्मज्ञों के पास ही है । धर्म का एक पक्ष यदि व्यक्तिवादी हो सकता है तो उसके अनेक पक्ष सामाजिक हैं । सम्पूर्ण मानवों की पीड़ा की विमुक्ति धर्म का सामाजिक Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त 59/1-2 पक्ष है। पूर्वाग्रहों को छोड़कर यदि सभी धर्मों के जानकार समाज का मार्गदर्शन करें तथा बुनियादी रूप से अविवादित अहिंसा, अपरिग्रह, समन्वय, उदारता आदि उदात्त धार्मिक तत्त्वों की अनिवार्यता को समझायें तो कोई कारण नहीं कि मनुष्य पुन शान्तिपूर्ण जीवन न विता सके। धर्म से हमारे जीवन में मन्दिर, मस्जिद, गुरुद्वारा, चर्च जैसी पवित्रता एवं चन्दन जैसी महक आ सकती है। शान्त एवं तनावहिन जीवन जीने के लिए हमें अपना लक्ष्य निर्धारित करना होगा। महाभारत में तो कुरुक्षेत्र के युद्ध की वात हम केवल पढ़ते हैं, पर वास्तविकता यह है कि आज हम सभी का हृदय कुरुक्षेत्र बना हुआ है। इसका कारण तेरे-मेरे की विचारणा है। राग-द्वप आदि विकृतियों को हटाकर इसे धर्मक्षेत्र बनाने की आवश्यकता है। एक महापुरुप का यह कश। सर्वथा समीचीन ही है कि-"विचार कितने ही अच्छे क्यों न हों यादे तदनुकूल आचरण नहीं है तो वे निरर्थक हैं।' मानव सृष्टि का सबसे विवेकशील प्राणी है। इसी कारण उसमे सुख की आकांक्षा के साथ सुख प्राप्त करने का प्रयास भी पाया जाता है यही प्रयास जब व्यक्तिवादी पक्ष को छोड़कर सामाजिक सुख के लिए किया जाता है, तो वह मानव धर्म कहलाता है। यह दुराग्रह एव पथव्यामोह से रहित होता है। पंथव्यामोह का कोई विना मानव धम अपनी सार्थकता सिद्ध नहीं कर सकता। धर्म विराट हे ३२ हिन्दू, जेन वौद्ध, ईसाई, मुस्लिम की सीमाओं में नही वांधा जा सकता। जो बाधा जा सकता है, वह पथ या संप्रदाय हा सकता है, धर्म नहीं। धर्म तो सीमाओं से परे है। पथ को अपनी महत्ता हा सकती हैं, पर सामाजिक कल्याण के क्षेत्र में यह सीमा हितकारी नहीं है। दुनियाँ मे हिसा सबसे बड़ा पाप है। यदि धम के नाम पर हिता का आश्रय लिया जाये गा इससे बड़ा पाप तो काइ हो ही नही सकता, वह तो महापाप है। अहिंसा की प्रतिमा के बिना मानवीयता को कल्पना दुराशा मात्र है। अहिंसा एक सराफ एवं व्यावहारिक जीवन Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त 59/1-2 दर्शन है, इससे वैचारिक प्रदूषण का विनाश होता है तथा चित्त में निर्मलता आती है। अहिंसा की आराधना के लिए आहार शुद्धि आवश्यक है। शाकाहार अहिंसक प्रवृत्ति को जन्म देता है। जैन शास्त्रों में हिंसा के चार रूप वर्णित हैं-उद्योगी, विरोधी, आरंभी और संकल्पी। गृहस्थ अपनी भूमिका में मात्र संकल्पी हिंसा का त्याग करता है, तो भी वह अहिंसक कहलाने लगता है। अतः अहिंसा पर कायरता या पलायन का आरोप कथमपि सही नहीं है। अहिंसा मानवधर्म का प्रथम सोपान है। नारायण कृष्ण ने अहिंसा की स्थापना के लिए ही कौरवों के समक्ष आधे राज्य का प्रस्ताव रखा था। उन्होंने कहा "कुरूणां पाण्डवानां च शमः स्यादिति भारत। अप्रणाशेन वीराणाम् एतद् याचितुमागतः।।" जव उनका शान्ति प्रस्ताव सफल नहीं हुआ, तब उन्हें धर्मयुद्ध की प्रेरणा देनी पड़ी। महाभारत की तो स्पष्ट घोषणा है-“अहिंसा परमो धर्मः, यतो धर्मस्ततो जयः।" जैनधर्म में भावहिंसा का विशिष्ट कथन हुआ है। तेरे-मेरे की भावना के कारण हिंसा उत्पन्न होती है, अतः राग-द्वेष का अभाव ही वास्तव में अहिंसा है। श्री अमृतचन्द्राचार्य ने कहा है "अप्रादुर्भावः खलु रागादीनां भवत्यहिंसेति। तेषामेवोत्पत्तिः हिंसेति जिनागमस्य संक्षेपः।।" हिंसा के आश्रय से कभी भी किसी भी समस्या का ऐकान्तिक एवं आत्यन्तिक समाधान नहीं हो सकता है। तात्कालिक समाधान सा दिखाई देने पर भी वह नई-नई समस्याओं को जन्म देती है। उसकी स्थिति तो ऐस वालक के समान है जो तैरना तो सीखना चाहता है, पर पानी छूना नहीं चाहता। अथवा ऐसी नारी के समान है जो अपने कपोल पर लगी काजल की कालिमा को दर्पण में देखकर दर्पण को साफ करके उसे मिटाना चाहती है। हमारी स्थिति बड़ी विचित्र है। हम फल तो Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त 59/4-2 अहिंसा का चाहते हैं और अहिंसा को पालते नही हैं। हिंसा का फल हम नहीं चाहते हैं, पर हिंसा में प्रयासपूर्वक प्रवृत्ति करते हैं कहा भी गया है "पुण्यस्य फलमिच्छन्ति पुण्यं नेच्छन्ति मानवाः । फलं नेच्छन्ति पापस्य पापं कुर्वन्ति यत्नतः।।" यह कथमपि संभव नही है कि हम बबूल का बीज बोयें और उससे उत्पन्न वृक्ष में आम के फल लगें। अतः हमें अहिंसा की सूक्ष्म विचारणा की अपेक्षा स्थूल रूप से अहिंसा का परिपालन करने के लिए तेरे-मेरे की भावना त्यागनी होगी। प्रसिद्ध मानवतावादी सन्त श्री गणेश प्रसाद वर्णी का कहना है कि- "जानने के लिए तीन लोक हैं। चाहे जितना जानते रहो। त्यागने के लिए तीन ही विकार हैं-राग, द्वेष और मोह। ये छूट जायें तो संसार की सारी व्याधियाँ छूट जायें।" धर्म की व्याख्यायें अव जन-हित में करने की आवश्यकता है। अन्य मनुष्यों के साथ वैसा व्यवहार करना धर्म है, जैसा व्यवहार हम दूसरों के द्वारा अपने साथ चाहते हैं। भगवान महावीर के उपदेश में पदे-पदे प्राणीमात्र के कल्याण का भाव है। आचार्य समन्तभद्र ने महावीर के धर्मसंघ को सभी प्राणियों के दुःखों का अन्त करने वाला तथा सभी का कल्याण करने वाला तीर्थ कहा है "सर्वापदाम् अन्तकरं निरन्तं सर्वोदयं तीर्थमिदं तवैव।" जैन आगमों में वर्णित कुलधर्म, ग्रामधर्म, नगरधर्म, राष्ट्रधर्म और गणधर्म धर्म की सामाजिक सापेक्षता को स्पष्ट करते हैं। सर्वोदय तीर्थ का तात्पर्य है समता। समता का भाव धर्म है और विषमता अधर्म । भगवान् महावीर समता के आराधक थे, कोई समाज सुधारक नहीं। अतः यह कहना कि जैनधर्म का उदय वैदिक धर्म के विरोध में हुआ, कथञ्चित् भी यथार्थ नही है। आचार्यों का कथन है कि जगत् में नाना Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त 59/1-2 जीव हैं, उनके नाना कर्म हैं और उनमें नाना योग्यतायें हैं अतः चाहे वे स्वधर्मी हों या अन्यधर्मी, उनके साथ विवाद मत करो। विषमता चाहे आध्यात्मिक क्षेत्र में हो या आर्थिक क्षेत्र में हो; वह कल्याण में बाधक है। अर्जन की शुद्धि, संग्रह की सीमा और उपभोग का सयम आर्थिक समता ला सकता है तो मानवमात्र को अपने समान मानना सामाजिक समता उत्पन्न कर सकता है। जन्मना जाति में विश्वास समता का विखण्डक विषमतापूर्ण सिद्धान्त था। किसी कारणवश इस सिद्धान्त ने समाज में जड़ें जमा लीं थीं। भगवान महावीर ने इसका विरोध किया। उन्होंने प्रचलित जातियों को अस्वीकृत नहीं किया किन्तु आचरण या कार्य के आधार पर मानने का सूत्र प्रतिपादित किया। आचार्य जिनसेन ने स्पष्ट घोषणा की है कि मनुष्य जाति एक ही है। मात्र आजीविका के भेद से वह चार प्रकार की हो जाती है। व्रतसंस्कार से ब्राह्मण, शस्त्रधारण से क्षत्रिय, न्यायपूर्ण धनार्जन से वैश्य और सेवावृत्ति से शूद्र कहा जाता है। अमितगति आचार्य कहते हैं कि ब्राह्मणादि की भेदकल्पना आचारमात्र से है कोई जाति नियत नही है। सदाचारी शूद्र भी शील, संयम आदि गुणों से स्वर्ग प्राप्त कर सकता है और दुराचारी ब्राह्मण भी कुशील एवं असंयम आदि दुर्गुणों से नरक जा सकता है। अन्य धार्मिक विचारधाराओं में भी ऐसी मान्यातायें हैं, पर उनके सम्यक् समुद्घाटन की आवश्यकता है। जातिवाद एवं वर्गवाद के प्रति दृष्टिकोण के परिवर्तन से अमानवीय व्यवहार घटेंगे, छुआछूत जैसी बीमारी समाप्त होगी तथा मानवधर्म की प्रतिष्ठा होगी। श्री रविषेणाचार्य ने सभी जातियों को समान मानते हुए कहा है "न जातिः गर्हिता काचित् गुणाः कल्याणकारणम् । व्रतस्थमपि चाण्डालं तं देवाः ब्राह्मणं विदुः।।" आज राजनीतिक गिरावट का प्रमुख कारण जातिवाद के समापन के नाम पर दिया जा रहा जातिवाद एवं वर्गवाद का बढ़ावा ही है। यदि Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त 59/1-2 कर्मणा जातिव्यवस्था का सूत्र मान लिया जाये तो विषमता मिट सकती है। क्योंकि एक परिवार में भी चारों वर्ण हो सकते हैं। तब घृणा, ऊँच-नीच या छुआछूत का कोई स्थान रहेगा ही नहीं। राजनीति की धर्मविहीनता ने राष्ट्र का जो नुकसान किया है, वह अकथनीय है। आज नेता से प्रजा का और प्रजा से नेता का विश्वास उठ गया है। फलतः जनतन्त्र में भी शासक और शासित की धारणा पुनः बलवती होती जा रही है। इस समय धर्म-विहीन राजनीति चौराहे पर खड़ी उस वेश्या के समान हो गई है, जिसका अपना कोई नहीं होता है तथा वह भी किसी की नहीं होती है। अतः सभी क्षेत्रों में समता की विचारणा की आवश्यकता है। फल तो व्यक्ति को अपने पुरुषार्थ से ही प्राप्त हो सकता है। धर्म और जीवन का गहरा सम्बन्ध है। धर्महीनता जीव को शव और धर्म जीव को शिव बना देता है। धर्म की संरक्षा में नारियों का विशिष्ट महत्त्व है। क्योंकि पारंपरिक तौर पर नारियों का मुख्य क्षेत्र गृहस्थी माना जाता है। नारी गृहस्थी की धुरी है। भ. महावीर का संघ चतुर्विध था। उसमें साधुओं की संख्या 14 हजार थी तो साध्वियों की 36 हजार। श्रावक कुल 1 लाख 59 हजार थे तो श्राविकायें 3 लाख 18 हजार थीं। कुल मिलाकर नारियों की संख्या दुगुनी से भी 8 हजार अधिक है। कालान्तर में नारी दुरवस्था को प्राप्त हो गई। यदि मानवधर्म की पुनर्प्रतिष्ठा करना है तो नारी को शिक्षित और सशक्त बनाने की आवश्यकता है। जब नारी धर्म के मर्म को हृदयंगम कर लेगी तो वह मानवमात्र को प्रेम के धागे में बाँध सकेगी तथा भावी सन्तान को ऐसे संस्कार दे सकेगी जिससे जगत् में 'वसुधैव कुटुम्बकम्' की भावना बलवती होगी। धर्म में प्रतिपादित 'परस्परोपग्रहो' की भावना से ही मानव का अस्तित्व कायम है। इस भावना की कमी ने पर्यावरण में असंतुलन पैदा Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त 59/1-2 किया है। प्रकृति के सभी घटक मानब का उपकार करते हैं मानव भी प्रकृति के सभी घटकों का उपकार करता हैं। प्रारंभ से ही जीवन और प्रकृति के मध्य गहरा संबंध रहा है। जैन धर्म में निष्प्रयोजन पृथ्वी को खोदने, पानी को बहाने, अग्नि को जलाने, वायु का संचार करने तथा वनस्पतियों को काटने में पाप माना गया है। गृहस्थों को आवश्यकता से अधिक इनके उपयोग का निषेध किया गया है। यदि मानव अपना धर्म मानकर इनका दुरुपयोग छोड़ दे तो पर्यावरण असंतुलन की समस्या स्वतः ही समाप्त हो जायेगी तथा मानव अपना विनाश स्वयं करने से बच सकेगा। वेदान्त के अनुसार पर्यावरण के सभी घटक ब्रह्म के ही अंश है। जैनाचार्यों ने भी पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और वनस्पति को एकेन्द्रिय स्थावर जीवों की श्रेणी में रखा है। जैनाचार्यों की यह अवधारणा प्रकृति के घटकों की संरक्षा का सुदृढ़ उपाय है। जैनाचार्यों ने न केवल मानव के प्रति अपितु जीवमात्र के प्रति मित्रता की कामना की है। जैन धर्म का उद्घोष है “खम्मामि सव्वजीवाणं सब्वे जीवा खमंतु मे। मित्ती मे सव्वभूदेसु वेरं मज्झं ण केणवि।।" “सत्त्वेषु मैत्री गुणिषु प्रमोदं, क्लिष्टेषु जीवेषु कृपापरत्वम् । माध्यस्थभावं विपरीतवृत्तौ, सदा ममात्मा विदधातु देव।।" दुराग्रह और हठवादिता मानव का सबसे बड़ा शत्रु है। मैं जो कहता हूँ, वही सच है-यह कथन हठ का द्योतक है। जो दूसरा कहता है वह भी सापेक्ष सत्य हो सकता है। एक वस्तु में अनेक धर्म या गुण हैं। उनका कथन अनेक प्रकार से हो सकता है। एक वस्तु में सापेक्षता से विरोधी धर्म भी रह सकते हैं। एक व्यक्ति अपने पिता की अपेक्षा पुत्र और पुत्र की अपेक्षा पिता है। अतः उसमें पितृत्व एवं पुत्रत्व दोनों विरोधी धर्म एक साथ रह सकते हैं। हठवाद नहीं अपनाना चाहिए। हठवाद अधर्म है और वह मानव-कल्याण में बाधक है। 'ही' के स्थान Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त 59/1-2 पर 'भी' की प्रतिष्ठा से हम 'अनायास ही अनेक समस्याओं से बच सकते हैं। संखिया आदि जो विष मारक हैं, उनका औषधि के रूप में प्रयोग' जीवन रक्षक भी बन जाता है। आवश्यकता इस बात की है कि विभिन्न धर्मों में प्रतिपादित बातों का हम मानव-कल्याण के लिए कथन कर सकें। पदलोलुपता आत्मकल्याण एवं सामाजिक कल्याण में बाधक है। अतः पदलोलुपता से बचने का प्रयास करना चाहिए। जैन धर्म में साधु के तीन रूप हैं-आचार्य, उपाध्याय और सामान्य साधु। तीनों को परमेष्ठी माना गया है। पर चार मंगलों में अहिरंत, सिद्ध, साधु एवं धर्म को परिगणित किया गया है। आचार्य और उपाध्याय को मंगल न मानने का एकमात्र कारण यही है कि पद एक उपाधि है। वह मुक्ति या आत्मकल्याण में बाधक है। मुक्त होने के लिए तो आचार्य एवं उपाध्याय को भी अपना पद त्यागकर साधुसामान्य की श्रेणी में उतरना पड़ता है। अतः पद को कल्याण में साधक न मानकर बाधक ही समझना चाहिएं तथा मानवधर्मी को पदलोलुपता के चक्कर में नहीं पड़ना चाहिए। भगवान् महावीर के शासन में भाग्य की महत्ता होते हुए भी यह समझने की आवश्यकता है भाग्य पुरुपार्थ के आधीन है। वर्तमान का भाग्य यदि पूर्व पुरुषार्थ का फल है तो वर्तमान का पुरुषार्थ भविष्य का भाग्य। वर्तमान में भी भाग्योदय को पुरुषार्थ द्वारा अन्य रूप में परिणमित किया जा सकता है। अतः पुरुषार्थ की महत्ता भाग्य से कदाचित् अधिक है। मानव को चाहिए कि वह फल की इच्छा के बिना पुरुषार्थ करे। पुरुषार्थ से ही अपना और अन्य मानवों का कल्याण हो सकता है। हमें अन्धविश्वास या रूढिवादिता को धर्म मानने की नासमझी छोड़ना होगी। ज्ञान का प्रचार-प्रसार इस दिशा में कारगर हो सकता है। Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 10 अनेकान्त 59/1-2 रूढिवादिता को धर्म मानने से मानव समाज की बड़ी हानि हुई है। अपनी संख्या बढ़ाने, सम्पत्ति या सत्ता हथियाने का हथकण्डा बनाकर धर्म जैसे पवित्र भाव को आधार बनाकर जिन्होंने जब कभी घृणा फैलाई है, वह हथकण्डा उन्हीं को आत्मघाती सिद्ध हुआ है। धर्म तो प्राणीमात्र का भला करने वाली औषधि है, उसे संहारक विष नहीं बनने देना चाहिए। पुराना अच्छा ही हो यह आवश्यक नही है। सब नया खराब ही हो यह भी सिद्ध नहीं है। सत्य की खोज में तर्क-वितर्क बुरे नहीं हैं, किन्तु उनका लक्ष्य मानव-कल्याण होना चाहिए। आचार में गिरावट को पञ्चाणुव्रतों-अहिंसा, सत्य, अस्तेय, अपरिग्रह एवं ब्रह्मचर्य के परिपालन से रोका जा सकता है। महर्षि पंतजलि ने योगसूत्र में इनकी महत्ता का प्रतिपादन किया है। अपरिग्रह को समझने की आवश्यकता है। जरूरत की चीजों को रखना गृहस्थ की प्रकति है, जरूरत से अधिक रखना विकृति है पर जरूरत होने पर भी स्वपर कल्याण हेतु अपनी प्रिय वस्तु का दान कर देना भारतीय संस्कृति है। यही मानवधर्म है। अपरिग्रह को न समझ पाने का ही यह दुष्परिणाम है कि एक बाप अपने तीन-चार बेटों की परवरिश अच्छी तरह से कर सकता है जबकि तीन-चार बेटे मिलकर भी एक बूढ़े बाप की परबरिश करने में आनाकानी करते हैं। मानवधर्म की संस्थापना के लिए आवश्यक है कि युवाओं को मानवधर्म का रसायन पिलाया जावे। क्योंकि बच्चों का अतीत नहीं होता है तथा बूढ़ों का भविष्य नहीं होता है, जबकि युवाओं का अतीत भी होता है और भविष्य भी। अतः मानवधर्म के सच्चे पात्र युवा हैं। जैन धर्म में प्रतिपादित मानव धर्म के कतिपय निष्ठा सूत्र इस प्रकार1. हिंसा सबसे बड़ा पाप है और अहिंसा एक सकारात्मक एवं व्यावहारिक जीवन-दर्शन है। 2. समता धर्म है और विषमता अधर्म है। मानव स्वरूपतः समान है, अतः ऊँच-नीच का वर्गभेद स्वार्थप्रेरित है। Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त 59/1-2 3. कोई जाति गर्हित नही है, गुण ही कल्याण में कारण हैं। व्रतस्थ चाण्डाल भी ब्राह्मण हो सकता है। 4. नारी धर्म की धुरी है। मानव में प्रेम एवं सन्तति में संस्कार का संचार नारी ही करती है। 5. परस्परोपग्रह की भावना से पर्यावरण संरक्षण होता है तथा पर्यावरण संरक्षण से मानव-कल्याण। 6. हठवादिता धर्म नही है। 'ही' के स्थान पर 'भी' की प्रतिष्ठा से अनेक समस्याओं का समाधान हो सकता है। 7. पदलोलुपता सामाजिक कल्याण में वाधक है। 9. रूढिवादिता धर्म नही है। तर्क-वितर्क भी वे ही अच्छे हैं, जिनका उद्देश्य मानव कल्याण हो। 10. पञ्चाणुव्रत या पंचशील आदर्श गृहस्थ की आचार संहिता है। अन्त में मानव कल्याण की भावना भाता हुआ विराम लेता हूँ"क्षेमं सर्वप्रजानां प्रभवतु बलवान् धार्मिको भूमिपालः, काले-काले च सम्यग्वर्षतु मघवा व्याधयो यान्तु नाशम् । दुर्भिक्षं चौरमारी च क्षणमपि जगतां मा स्म भूज्जीवलोके, जैनेन्द्रं धर्मचक्र प्रभवतु सततं सर्वसौख्यप्रदायि।।" Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंडितप्रवर श्री सुमेरुचन्द दिवाकर की दृष्टि में भगवान महावीर की जन्मभूमि __-डॉ. राजेन्द्र कुमार बंसल बौद्धिक प्रतिभा एवं प्रमाणिकता के धनी विद्वान् पंडित प्रवर श्री समेरुचन्द्र जी दिवाकर सिवनी ने भ. महावीर की जन्मभूमि की प्ररूपणा दि. जैन आगम एवं जैनेत्तर साहित्य के संदर्भ में अमर कृति 'महाश्रमण महावीर' में की है। 'महाश्रमण महावीर' का प्रकाशन सन् 1968 में हुआ था। इसका पुर्नमुद्रण वर्ष 2002 में दि. जैन त्रिलोक शोध संस्थान हस्तिनापुर एवं तीर्थंकर ऋषभ देव जैन विद्वत् महासंघ के सौजन्य से हुआ। पुस्तक में आमुख सहित 21 अध्याय हैं। अठारहवाँ अध्याय 'दया के देवता का अवतरण है, जो विवेच्य है। इसकी मान्यता दि. जैन आगम की निष्ठा/श्रद्धा है।' ___ आमुख के पृष्ठ 3 में 'जीवनी' के अर्न्तगत पं. जी ने स्पष्ट लिखा है कि भगवान् महावीर का जन्म बिहार प्रान्त के विदेह देश के कुण्डपुर नगर में ईसा पूर्व 599 में हुआ था-'सिद्धार्थनृपतितनयो भारतवास्ये विदेह-कुण्डपुरे' (आचार्य पूज्यपाद (देवनन्दि) दशभक्तिसंग्रह, निर्वाण भक्ति-4)।' जयधवला पृष्ठ 78 के संदर्भ "कुण्डपुरपुरवरिस्सर- सित्तत्थक्ख द्वियस्य णाहकुल" के अनुसार भगवान् महावीर का जन्म नाथकुल में हुआ था। उनके पिता को कुण्डपुर के स्वामी सिद्धार्थ क्षत्रिय लिखा है। अध्याय अठारह ‘दया के देवता का अवतरण' नाम से है। पृष्ठ 118 में ‘कुण्डपुर का भाग्य' शीर्षक में हरिवंशपुराण में उसे सुख रूपी जल से परिपूर्ण कुण्डतुल्य कहा हैसुखांभः कुंडमाभाति नाम्ना कुंडपुरं पुरम् ।। (सर्ग-2, श्लोक-5)। कुण्डलपुर-तिलोयपण्णत्ति में कुण्डपुर का नाम कुण्डलपुर आया हैकुण्डले वीरो (549-4) Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त 59 / 1-2 कुण्डलपुर जिस विदेह देश का अंग था उसके विषय में पं. जी ने हरिवंशपुराण श्लोक । सर्ग -2 का उल्लेख किया है 13 अथ देशोस्ति विस्तारी जंबुद्वीपस्य भारते । विदेह इति विख्यातः स्वर्गखंडसमः श्रियः । ( सर्ग - 2 श्लोक 1 ) जम्बूदीप के भारतवर्ष में विस्तार युक्त विदेह नाम का देश प्रसिद्ध था, जो लक्ष्मी से स्वर्ग के खण्ड समान शोभायमान होता था । विदेह देश का कथन वर्धमान चरित्र श्लोक - 1 सर्ग - 17 में हुआ है, जहाँ विश्व विख्यात कुण्डपुर नगर था 'ख्यातं पुरं जगति कुंडपुराभिधानं ( 7-7 ) 1 S विदेह देश की स्थापना एवं उसके वैभव के वर्णन के पश्चात् पं. जी ने उत्तर पुराण पर्व 74 के श्लोक 251-252 को उद्धृत कर लिखा कि 'जब अच्युतेन्द्र की आयु छह माह शेष रह गई थी और वह स्वर्ग से अवतार लेने के सन्मुख हुआ । उस समय भरत क्षेत्र के विदेह नाम के देश में कुंडपुर नगर के राजा सिद्धार्थ के भवन के प्रांगण में प्रतिदिन साढ़े तीन करोड़ मणियों की वर्षा होने लगी थी ।" रत्नों की वर्षा की पुष्टि वज्जिकांचल के वासोकुण्ड - वैशाली के लोक गीतों से भी होती है । विदेह देश की स्थिति / परिसीमा : पं. प्रवर दिवाकर जी ने 'महाश्रमण महावीर' पृष्ठ 120 में भ. महावीर की जन्म भूमि विदेह देश की चतुर्सीमा का निर्धारण 'बिहार थ्रो दि एजेज' पृष्ठ 51-55 के अनुसार निम्न प्रकार से किया ! " जिसे अभी बिहार कहते हैं उसमें कारूप, मगध, अंग, वैशाली आदि अनेक देश समाविष्ट थे। वर्तमान तिरहुत डिवीजन में विदेह अमूर्त है । विदेह की राजधानी मिथिला थी । वह नेपाल की तराई में विद्यमान जनकपुरी मानी जाती है। कुछ समय के अनंतर दक्षिण विदेह Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त 59/1-2 ने स्वतंत्र राज्य का स्वरूप प्राप्त कर लिया। उसकी राजधानी वैशाली हो गई, जो मुजफ्फरपुर से तेवीस मील पर स्थित है।' ___शक्ति संगम' के अनुसार गंडक नदी के तट से लेकर चंपारण पर्यन्त का स्थान विदेह अथवा तिरूमुक्ति कहा जाता था। उसके पूर्व पश्चिम तथा दक्षिण में कोसी, गंडक तथा गंगा तीन बड़ी नदियाँ हैं तथा हिमालय की तराई उत्तर की ओर है। इस क्षेत्र में मुजफ्फरपुर, दरभंगा, चंपारन, मुंगेर तथा पुरनिया ये वर्तमान जिले शामिल होते हैं।10 (वर्तमान में मुजफ्फरनगर-जिला में से वैशाली पृथक् जिला बना दिया गया है) जन्मभूमि के सम्बन्ध में पं. जी के निष्कर्ष : पं. प्रवर दिवाकर जी ने विदेह देश की उक्त-चतुर्सीमा निर्धारित कर महावीर की जन्मभूमि के सम्बन्ध में निम्न निष्कर्प ग्रहण किये “इस विश्रुत विदेह देश के कुण्डपुर में त्रिशलानन्दन का अवतरण हुआ था। कुछ लोग कुण्डपुर जिले को वैशाली नगरी का एक अंश कहते हैं। वे मुजफ्फरपुर के हाजीपुर सब डिवीजन में स्थिति बसाढ़ को वैशाली मानते हैं और उसके अंतरगत वासुकुण्ड को कुण्डग्राम कहते हैं।"] दिगम्बर जैन आगम में महावीर का नहीं, उनकी जननी प्रियकारिणी त्रिशला का भी वैशाली से सम्बन्ध पाया जाता है। (संदर्भ-हरिषेणचार्यकृत वृहत्कथा कोप श्लोक 165)।।2 श्री दिवाकर जी ने 'लाइफ आफ बुद्धा' के अनुसार वैशाली के वैभव का वर्णन पृष्ठ 121 पर किया और वैशाली को जन्मभूमि मानने की विशिष्ट परिस्थिति मजबूत बनने का उल्लेख किया जिसका आधार श्वेताम्बर आगम है। उनके इस संकेत से यह स्पष्ट है कि उन्हें जिस प्रकार मगध देश स्थित नालंदा-बड़गांव भ. महावीर की जन्म भूमि इप्ट नहीं है उसी प्रकार वैशाली भी इष्ट नहीं है। उन्होंने विदेह देश की परिसीमा में स्थित वासोकुण्ड के सम्बन्ध में अपनी असहमति व्यक्त नहीं की। उनकी यह मूक सम्मति वासोकुण्ड स्थित अढ़ाई बीघा अहल्लभूमि, वहाँ के लोक जीवन मे महावीर के दर्शन/शिक्षाओं का प्रभाव Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त 59/1-2 तथा लोकगीतों में महावीर की विद्यमानता आदि के परिप्रेक्ष्य में दिगम्बर जैन आगम के अनुरूप जन्मभूमि सिद्ध है। यहाँ पर प्रथम राष्ट्रपति राजेन्द्र प्रसाद जी ने दिनांक 23/4/56 को भ. महावीर जन्मभूमि स्मारक-पट्ट का अनावरण किया। कुण्डपुर (वासोकुण्ड) समर्थक पं. जी के अन्य संदर्भः 1. "भगवान महावीर और उनका तत्त्वदर्शन' सन 1974 में पूज्य आचार्य देश भूषण जी मुनिराज के मार्गदर्शन एवं प्रेरणा से यह बृहत्काय ग्रंथ दिल्ली से प्रकाशित हुआ। इसकी प्रस्तावना4 पं. श्री दिवाकर जी ने लिखी। ग्रंथ की सम्पूर्ण सामग्री भ. महावीर को समर्पित है। इसमें उनकी जन्मभूमि वासोकुण्ड निर्विवाद रूप से वर्णित है। यदि श्री दिवाकर जी को यह इष्ट नहीं होता तो वे इसकी भूमिका लिखने से इन्कार कर देते या वे इसके विरोध में अपना मत अवश्य व्यक्त करते। 2. 'चारित्र चक्रवर्ती' आचार्य श्री शांति सागर जी महाराज के मंगलमय जीवन चरित्र का विस्तृत वर्णन, तिथिवार श्री पं. दिवाकर जी द्वारा चारित्र चक्रवती (1953) पुस्तक में किया गया। आचार्य श्री का संघ शिखरजी से भागलपुर होता हुआ राजगृही पहुँचा। वहाँ से पावापुरी, गुणावा, गया होकर कटनी पहुंचा। 5 इस यात्रा में कुण्डलपुर-नालंदा का नाम नहीं है। यदि इसे महावीर जन्म भूमि के रूप में मान्यता होती तो आचार्य संघ की यात्रा में उसका अवश्य उल्लेख होता। ___3. श्री दिवाकर जी कृत 'जैन शासन' के पृष्ठ 253 में सं. 1867 (ई. 1810) में मैनपुरी के साहू धनसिंह जी के नेतृत्व में 250 बैल गाड़ियों में एक हजार यात्रियों के संघ की सम्मेद शिखर जी की यात्रा का उल्लेख है। यह संघ पावापुरी, राजगृही, गुणावा आदि स्थानों पर गया। किन्तु इस यात्रा में कुण्डलपुर-नालंदा का उल्लेख नहीं है। इससे स्पष्ट है कि कुण्डलपुर-नालंदा मगध क्षेत्र में तो है ही, आरोपित रूप से जन्म स्थली के रूप में बहुत पुराना नहीं है। Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त 59/1-2 4. अन्य पुष्ट कारण साक्ष्य/संदर्भ : नालंदा से 7 मील की दरी पर स्थित राजगृही मगध की राजधानी थी। मगध देश का विस्तार 833 वर्ग मील का। नालंदा उसका अंग था। नालंदा प्रथम शताब्दि से 13 वीं शताब्दि तक बौद्ध-विद्या का महान केन्द्र रहा जहाँ हुआन-सांग (सातवीं शताब्दि) ने विद्याध्ययन किया। चीनी यात्री हुआन सांग और फाहियान (5 वीं शताब्दि) के यात्रावृत्त और उनका भौगोलिक विवरण अकाट्य/ यथा-स्थान स्थिति है। इसका विवरण जनरल कनिंघम कृत 'दों एन्सियेन्ट ज्योग्राफी ऑफ इंडिया' में दिया है, जो मूलतः पठनीय है।17 श्री नन्दलाल दे के अनुसार वरगांव का प्राचीन नाम बिहार ग्राम था।18 डॉ. होर्नले ने यह सिद्ध किया कि भ्रमवश जैन समाज द्वारा बरगांव को कुण्डलपुर मानकर उसे महावीर की जन्मभूमि मान लिया गया; उसी प्रकार हिन्दुओं द्वारा उसे कुण्डिनापुर मानकर रुक्मणी की जन्मभूमि माना जाता रहा। यह दोनों मान्यताएँ भ्रम आधारित हैं। यथार्थ तथ्यों से उसकी पुष्टि नहीं होती। 5. इतिहासमनीषी डॉ. राधाकमद मुखर्जी का इतिहास के क्षेत्र में विशिष्ट स्थान है और वे एक प्रमाण के रूप में मान्य किये जाते है। आपकी अमर कृति 'हिन्दु सिविलाइजेसन्स' है जो सन 1936 में लोंगमेन ग्रीन एण्ड के. लंदन द्वारा प्रकाशित की गयी है। इसके संदर्भ प्रामाणिक माने जाते हैं। इस कृति के अध्याय सात में ईसा पूर्व 650-325 का उत्तर भारत काल के इतिहास का विस्तृत ससंदर्भ विवरण दिया है। इसमें बुद्ध के पूर्व के निम्न सोलह राज्य का वर्णन किया है____ अंग, मगध, काशी, कौशल, वज्जी, मल्ल, चेदी, विंसा (वत्स), कुरू, पंचाल, मच्छ (मत्स्य), सूरसेन, अस्क, अवंती, गांधार एवं कम्भोज!20 इन राज्यों का वर्णन तो हुआ है साथ ही उस समय की सामाजिक, धार्मिक और राजनैतिक व्यवस्था का वर्णन भी किया है जो मूलतः पठनीय है। पुस्तक में पृष्ठ 179 के वाद बुद्धकालीन मानचित्र भी दिया है। इसके अनुसार राजगृह नालंदा, चंपा और पाटलीग्राम गंगा नदी के दक्षिण में है और वैशाली लिच्छवी मल्ल, पावा आदि गंगा नदी के उत्तर Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त 59 / 1-2 में दिखाये गये हैं बुद्ध महावीर के समकालीन थे अतः बुद्धकालीन मानचित्र महावीर कालीन मानना सर्वथा उचित है । फाहियान के यात्रा वृत्त से भी मानचित्र में दर्शाये नगरों की भौगोलिक स्थति पुष्टि होती है । इस प्रकार नालंदा - कुण्डलपुर मगध क्षेत्र में होने के कारण उसे किसी दूर की कल्पना से भी विदेह - देश स्थित नहीं माना जा सकता। यही दृष्टिकोण पं. प्रवर सुमेरु चन्द्र जी दिवाकर सा. का रहा है। प. जी सा. के निष्कर्षानुसार प्रज्ञाश्रमणी आर्यिका चन्दनामती जी एवं त्रिलोक शोध संस्थान सन 2001 तक वैशाली के निकट कुण्डपुर को भ. महावीर की जन्म स्थली मानते हैं । 21 17 6. बिहार राज्य के पर्यटन विभाग ने सन 2003 में लघु पुस्तिका 'जैन सर्किट' प्रकाशित की है, जो सचित्र है । इस पुस्तिका में वासोकुण्ड - वैशाली को भ. महावीर की जन्म भूमि तथा नालंदा - कुण्डलपुर को भ. महावीर के प्रथम पट्ट शिष्य गौतम गणधर की जन्म भूमि होना दर्शाया है । यह ध्यातव्य है कि बरगवों में गौतम गणधर के वंशज अभी भी विद्यमान हैं और पुत्रोत्सव के सौहर गीतों में गौतम का स्मरण किया जाता है । 7. जैन इतिहासकार डॉ. ज्योति प्रसाद जैन द्वारा 50 वर्ष पूर्व भारतीय इतिहास का जैनयुग आलेख / पुस्तिका लिखी थी। उसमें आपने वज्जी संघ के अर्न्तगत कुण्डलपुर स्थित होना मान्य किया है । कुण्डलपुर के ज्ञातृवंशी लिच्छवि- नरेश सिद्धार्थ के पुत्र (भगवान्) महावीर थे । वैशाली के राजा चेटक उनके नाना थे 123 उक्त परिप्रेक्ष्य में पं. प्रवर श्री दिवाकर जी की दृष्टि में भ. महावीर का जन्म विदेह देश स्थित कुण्डपुर नगर (वासोकुण्ड) में हुआ था । विद्यमान नालंदा-बड़गांव उदात्त आगमिक एवं भौगोलिक दृष्टि से विदेह देश में स्थित होना सिद्ध नहीं होता, भले ही उसकी सिद्धि हेतु कूट लेखन का आश्रय लें या विदेह को सम्पूर्ण बिहार राज्य मानें या फिर नालंदा को गंगा नदी के उत्तर में दिखाकर उसे विदेह में स्थित होना सिद्ध करें । प्रायोजित बौद्धिक कसरत से आगम वर्णित भौगोलिक स्थिति बदली नहीं Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त 59/1-2 जा सकती। इससे दिगम्बर जैन आगम के प्रति अश्रद्धा/अवर्णवाद अवश्य होता है। जन्मभूमि प्रतिष्ठा से कहीं अधिक, प्रतिष्ठा का विषय दिगम्बर जैन आगम एवं संस्कृति के प्रति हमारी निष्ठा का है आगम रक्षा एवं सम्मान में ही समाज की रक्षा और सम्मान है। संदर्भ ग्रंथ सूची: 1. महाश्रमण महावीर-पं. सुमेरुचन्द्र दिवाकर, पृष्ठ-आमुख 3 2. वही-आमुख पृष्ठ 3 3. वही-पृष्ठ 119 4. वही-पृष्ठ 119 5. वही-पृष्ठ 119 6. वही-पृष्ठ 119 7. वही-पृष्ठ 120 8. महाश्रमण महावीर-पं. सुमेरुचन्द्र दिवाकर, पृष्ठ 120 9. वही-पृष्ठ 120 10. वही-पृष्ठ 120 11. वही-पृष्ठ 120 12. वैशाली महोत्सव के 50 वर्ष-डॉ. जय श्री मिश्र, पृष्ठ 103 13. भगवान् महावीर और उनका तत्वदर्शन-सम्पादन पं. बलभद्र जैन-प्रस्तावना पृष्ठ-3 14. चारित्र चक्रवर्ती-प्रथम आवृत्ति, पं. सुमेरुचन्द्र दिवाकर, पृष्ठ 213-228 15. जैन शासन,-पं. सुमेरुचन्द दिवाकर पृ. 253 16. दॉ एनसिएन्ट ज्योग्राफी ऑफ इंडिया-जनरल अलेक्जेन्डर कनिंघम पृ. 327। 17. दॉ ज्योग्राफिक्स डिक्सनरी ऑफ एन्सिएन्टएन्ड मेडिकल इंडिया-दे नन्दलाल, पृ. 136 18. वही-पृष्ठ 137 19. हिन्दु सिविलाइजेसन्स-डॉ. राधाकुमुद मुखर्जी पृ. 179-189 20. माता त्रिशला के अनोखे सपने,-दि. जैन त्रिलोक शोध संस्थान हस्तिनापुर पुष्प नं. 214, पृ.-9 21. जैन सर्किट-बिहार पर्यटन, सचिव पर्यटन विभाग बिहार-पटना । 22. अनेकान्त-दिल्ली, 58/1-2/, भारतीय इतिहास का जैनयुग-डॉ. ज्योति प्रसाद जैन, पृष्ठ-114 Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त 59/1-2 हिन्दु सिविलाइजेशन डॉ. राधा कुमुद मुखर्जी; से उद्धृत CRY BUDDHIST INDIA En Mi मा M Milt .. .marmus Kantians hindi ANT AGADH Indian pure Range simma min KALAM CLA ASHA RAR) NRY TANRARARNE SIPYRENE Langude Last 7 Or wich वी 369 ओ.पी.एम. अमलाई, जिला-शहडोल (म.प्र.) 484117 Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दूध शाकाहार है : वैज्ञानिक तथ्य - ऐलक निर्भयसागर महाराज लेखक एम. एस. सी. पूर्वार्द्ध तक लौकिक शिक्षा प्राप्त कर दिगम्बर जैनाचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज से दीक्षित एक जैन संत हैं । ऐलक जी आध्यात्मिक, वैज्ञानिक, दार्शनिक शैली की त्रिवेणी से सहित उत्कृष्ट आत्मसाधक, लेखक और प्रवचनकार हैं। धर्म की बात वैज्ञानिक ढंग से व्याख्यायित करना आपकी विशेषता है। आपने मौन, उपवास, रात्रि, भोजन, शराब, पूजा विधि आदि पर विशिष्ट वैज्ञानिक साहित्य का सृजन किया है। वर्तमान में दूध को मांसाहार कहने पर उठे प्रश्न का जवाब वैज्ञानिक ढंग से प्रस्तुत आलेख में दिया है कि दूध शाकाहार की श्रेणी में आने वाला रस है । -सम्पादक I दूध शाकाहार की श्रेणी में है या मांसाहार की । ये आधुनिक युग के लोगों का प्रश्न हो सकता है, परन्तु यह अनादिकालीन शाश्वत सिद्धांत है कि सही रीति से प्राप्त किया गया दूध मांसाहार नहीं है बल्कि शाकाहार की श्रेणी में आने वाला शुद्ध रसाहार है, और वह स्तनधारी प्राणियों के जन्म से ही पोषण और तन्दरुस्ती के लिए प्रकृत्ति प्रदत्त लाभदायक पेय पदार्थ है । आज भौतिकवादी अर्थ प्रधान युग में दूध को पानी, तेल, यूरिया, साबुन आदि मिलाकर बेंचा जा रहा है या इंजेक्शन लगाकार निकाला जा रहा है, या बछड़े को दूध नहीं छोड़ा जा रहा है, तो इसका मतलब ये नहीं कि दूध अभक्ष्य और मांसाहार हो गया है। इस प्रकार की स्थिति से बचने के लिए घरों में गायों को पालकर न्याय-नीति और विधि पूर्वक शुद्ध दूध प्राप्त किया जाना चाहिए, न कि भड़काऊ, अश्रद्धा उत्पन्न करने वाले भाषण या आलेख लिखे जायें । Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त 59/1-2 दूध दर्द नहीं दवा है : एक आलेख में पढ़ा था कि दूध तरल मांस है और उसके सेवन से एसिडिटी, कैल्शियम की कमी, कैंसर और गुर्दे खराब होते हैं। ऐसा कहना सरासर गलत है क्योंकि दूध से एसिडिटी नहीं होती, बल्कि दूध से ऐसिडिटी कम होती है। इसको कोई भी व्यक्ति अपने ऊपर प्रयोग करके देख सकता है, जिसे एसिडिटी के कारण खट्टी डकारें, पेट में जलन आदि हो रही हो वह दूध में आधा या एक चौथाई पानी और मीठा मिलाकर, उसे अच्छी तरह से उबालकर फिर ठण्डा करके पिये तो ऐसिडिटी, मुँह और पेट के छाले समाप्त हो जाते हैं। दूध अम्लीय होता है परंतु जब वह पेट में जाता है तब पाचक रसों के मिश्रण से दही बनकर उदासीन हो जाता है, वह हड्डियों में कैल्शियम का क्षय करके उदासीन नहीं होता। अतः शरीर की हड्डियों से कैल्शियम के क्षरण द्वारा दूध का उदासीन मानना गलत है। इस प्रकार दूध से हड्डियाँ कमजोर नहीं बल्कि मजबूत होती हैं, यह अनुभव मैंने स्वयं किया है। सन 1987 में मुझे सफेद पेचिस पड़ने लगी थी, डॉक्टर की सलाह से दूध का सेवन प्रायः बंद कर दिया था। परिणाम स्वरूप रीढ़ की हड्डियाँ (कशेरूकाएं) कमजोर पड़ गईं, उनका क्षरण होने लगा। ब्लड सीरम में कैल्शियम की मात्रा 11% की जगह घटकर मात्र 6-7% रह गई। मैंने पुनः दूध पीना शुरू कर दिया तो एक वर्ष में सब ठीक हो गया। इस बीच मैंने यह जरूर देखा कि दूध के साथ दालों का प्रयोग करने से पाचन बिगड़ता है क्योंकि दूध और दाल दोनों के प्रोटीन भोजन में एक साथ लेने से डाइजेस्ट नहीं हो पाते। अतः दूध और दालों के सेवन में लगभग 5-6 घंटे का अंतर होना चाहिए। जव पाचन तंत्र कमजोर हो और आवश्यकता से अधिक दूध, घी, तेल, मिर्च, मसाला और दालों का सेवन किया जाता है तब उन्हें पचाने के लिए पाचन तंत्र और यकृत को अधिक कार्य करना पड़ता है, जो हड्डी, यकृत और पाचनतंत्र आदि के लिए हानि पहुँचाता है, परंतु Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त 59/1-2 संतुलित मात्रा में यथाविधि ग्रहण किये गये दूध में उपस्थित प्रोटीन और खनिज - कमजोरी, थकान, तनाव, और कैल्शियम आदि की कमी को दूर करते हैं । इसलिए दूध से नहीं बल्कि मिर्च मसाला, मांस, मदिरा आदि और प्रकृति विरुद्ध या अधिक मात्रा में भोजन करने से पाचन तंत्र और गुर्दे आदि खराब होते हैं । 22 दूध के गुण : दूध मधुर, स्निग्ध, रुचिकर, स्वादिष्ट और वातपित्त नाशक होता है। वीर्य, बुद्धि और कफ वर्धक होता है, शीतलता, ओज, स्फूर्ति और स्वास्थ्य प्रदायक होता है । माँ (स्त्री) और गाय का दूध गुण धर्म की दृष्टि से समान होता है । उसमें विटामिन ए और खनिज तत्व होते हैं जो रोगों से लड़ने की शक्ति (प्रतिरोधक क्षमता) प्रदान करते हैं और आँखों के तेज को बढ़ाते हैं । दूध रक्त नहीं शुद्ध रस है : दूध रक्त नहीं है इसका सबसे बड़ा वैज्ञानिक प्रमाण तो यह है कि दूध में जो केसीन नामक प्रोटीन उपस्थित रहता है वह खून और मांस में नहीं पाया जाता है। रक्त कणिकायें (डब्लू. बी. सी., आर. बी. सी) एवं प्लेटलेट्स जो खून में पायी जाती हैं वे दूध में नहीं पायी जाती हैं। यह बात वैज्ञानिकों ने दूध में बेजोइक टेस्ट (परीक्षण) करके बतायी है । यह परीक्षण कोई भी पैथोलॉजी लेब में किसी भी डॉक्टर से कराकर देख सकता है । अतः दूध एनीमल प्रोडक्शन होने पर भी रक्त मांस से बिल्कुल भिन्न एक शुद्ध रस है । वैज्ञानिकों का यह भी एक सार्वभौमिक सिद्धांत है कि माँस में जंतु कोशिकायें और वनस्पतियों में पादप कोशिकायें होती हैं, जबकि दूध में पादप (वनस्पति) कोशिकाओं के समान ही वैसीलस कोशिकायें होती हैं I उन दोनों के मध्य दीवार, रिक्तिकायें, सेंट्रिकायें, लवक और पोषण विधि Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त 59/1-2 B समान होती हैं और वे दोनों जंतु कोशिकाओं से बिल्कुल भिन्न होती हैं। इसलिए दूध तरल मांस न होकर वनस्पति स्वरूप ही शुद्ध रस है। यदि कोई कहे कि दूध में वे सभी प्रोटीन, कार्बोहाइड्रेटस और शर्करा आदि तत्व पाये जाते हैं जो खून में पाये जाते है अतः दोनों एक है। यदि यह तर्क सही है तो वे सभी तत्व हरे या भिगोये हुये सोया, गेहूँ, चना आदि अनाज में भी पाये जाते है फिर उन्हें भी मांसाहार कहना पड़ेगा। परन्तु नहीं कह सकते क्योंकि वे शुद्ध शाकाहारी पदार्थ ही हैं। यदि कोई तर्क करे कि नलिकाओं और उनकी झिल्लियों से होकर दुधारुप्राणी द्वारा खाये पदार्थों के रस से दूध बनता है, इसलिए वह रक्त मांस के समान है, तो ऐसा तर्क भी अनुचित है, क्योंकि ऐसा कहने पर हमारे शरीर के अंदर से रक्त, मांस और झिल्लियाँ से होकर पसीना और यूरिन आदि भी बाहर उत्सर्जित होता है फिर उसे भी रक्त मांस कहना पड़ेगा, लेकिन कोई अज्ञानी बालक भी ऐसा नहीं कह सकता। तो फिर क्या यूरिन, पसीना और भोजन से बचे अवशिष्ट पदार्थ भी भक्ष्य हैं? नहीं, क्योंकि वे मल हैं और मल द्वार से निकासित होते हैं, अतः वे पूर्णतः अभक्ष्य हैं। जबकि दूध मल न होकर रस है और दूध ग्रंथिं मल द्वार न होकर एक पवित्र ग्रंथि है, उससे निकाला गया दूध भक्ष्य है। दूध बनने की प्रक्रिया : अमेरिका स्थित वैवॉक इंस्टीट्यूट फॉर इंटरनेशनल रिसर्च एण्ड डेवलपमेंट विशेषज्ञ ‘माइकल वैटी ऑक्स' शोधकर्तानुसार जब 400 से 500 कि. ग्रा. रक्त दुग्ध ग्रंथियों से प्रवाहित होता है तब एक किलोग्राम दूध बनता है, बल्कि दुग्ध ग्रंथियों में बारीक-बारीक रक्त नलिकाओं का जाल बिछा रहता है, उन दुग्ध ग्रंथियों और रक्त नलिकाओं के बीच एक झिल्ली होती है। यदि बीच में झिल्ली नहीं होती तो दूध और रक्त . एक हो जाता और फिर दूध सफेद न होकर रक्त जैसा लाल हो जाता। अतः रक्त से दूध भिन्न है। Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त 59/1-2 दूध बनने की प्रक्रिया में माइकल वैरी ऑक्स ने जो विचार दिया है वह उनका अपना हो सकता है, परंतु सत्य बात तो यह है कि दूध बने या न बने, परन्तु समस्त प्राणियों के शरीर में रक्त प्रवाह होता ही रहता है। यदि प्रवाह रुक जाये तो प्राणियों का जीवन ही समाप्त हो जायेगा। मनुष्य के शरीर में हृदय द्वारा एक घंटे में लगभग 2 टन खून पंप किया जाता है, जो अंदर की रक्त नलिकाओं से प्रवाहित होकर बाहरी रक्त नलिकाओं से होकर हृदय तक पहुंचता है। वे बारीक रक्त नलिकाएं स्तनधारी प्राणियों की दुग्ध ग्रंथियों से होकर गुजरती है और लेक्टेटिंग हार्मोन्स से दूध का निर्माण होता है जो रस के रूप में दुग्ध ग्रंथि में संग्रहीत हो जाता है। __अत: दूध का निर्माण रक्त से नहीं होता बल्कि स्तनधारी प्राणियों के गर्भ धारण करने के उपरांत शाकाहारी की श्रेणी में आने वाले लेक्टेटिंग हार्मोन्स से होता है। वे हार्मोन्स रक्त से पूर्णतः अलग गुण धर्म वाले होते है। उनका एक निश्चित समयावधि में उत्पन्न होना प्रारम्भ होता है। उन्हीं की उपस्थिति में दूध का निर्माण और निकलना (सिक्क्रियेशन) होता है, न कि रक्त से। यदि रक्त से होता तो हमेशा ही सभी प्राणियो के होते रहना चाहिये, जबकि ऐसा नहीं होता। इसीलिए दूध रक्त मांस से अलग शुद्ध रस है। चिकित्सा शास्त्र में दुग्ध निर्माण : आयुर्वेदिक आदि चिकित्सा शास्त्रों में लिखा है कि मनुष्य तिर्यचादि प्राणी जो आहार ग्रहण करते है वह सबसे पहले रस और खल (मलमूत्र) में परिवर्तित होता है फिर रस से रक्त, मांस से मेद, मेद से अस्थि, अस्थि से मज्जा और मज्जा से शुक्र, क्रमशः इन सप्त धातुओं की उत्पत्ति होती है। इस प्रकार आहार से सर्वप्रथम रस बनता है और उस रस धातु से स्तन्य (दुग्ध) रूप, उपधातु की उत्पत्ति होती है इसलिए ग्रहण किये गये भोज्य पदार्थों की गंध दूध में आती है रक्त में नहीं। यदि रक्त से दूध बनता तो उसमें गंध नहीं आना चाहिए। Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त 59/1-2 दूध के संग्रह के लिए शरीर में ग्रंथियाँ होती हैं। उन दुग्ध ग्रंथियों और नलियों से लगी हुई झिल्लियों की दीवारों में बहुत सी रक्त शिराओं का जाल बिछा रहता है। उन्हीं शिराओं की दीवारों द्वारा जलीय अंश सोख लिया जाता है। वह वैसे ही सोख लिया जाता है जैसे कीचड़ से पेड़ की मूल शिरायें जलांश को सोख लिया करती हैं। इस प्रकार दूध एनीमल प्रोडक्ट होने मात्र से अपवित्र या अभक्ष्य नहीं हो जाता बल्कि वह शाकाहारवत् शुद्ध रसाहार के रूप में ग्राह्य है। सभी प्राणियों को दूध अनुकूल : ___ यह सत्य है कि जैनेटिक ब्लूप्रिंट के अनुसार अपनी-अपनी प्रजाति की माँ का दूध सर्वोत्तम होता है। इसलिए गाय का बछड़ा गाय का दूध, बकरी का मेंमना बकरी का दूध, बिल्ली का बच्चा बिल्ली का दूध और शेरनी का बच्चा शेरनी का दूध पीता है। इस प्रकार सभी स्तन धारी प्राणियों की माँ अपने बच्चों के पोषण और विकास के लिए दूध देती हैं। परंतु स्त्री, घोड़ी, बकरी, कुत्ती, बिल्ली और शेरनी आदि न हों तो उनसे जन्में शिशु जो गाय के दूध से पाले जाते रहे हैं और आगे भी पाले जाते रहेंगे, यह सारी दुनिया जानती है। क्योंकि गाय का दूध सभी प्राणियों को अनुकूल पड़ता है और पर्याप्त मात्रा में प्राप्त किया जा सकता है उसके आलावा अन्य प्राणियों का दूध प्रतिकूल और अपर्याप्त होने से सेवन नहीं किया जाता। दूध माँ का हो या गाय का उसके सेवन करने की एक निश्चित मात्रा होती है। यदि मात्रा से अधिक ग्रहण किया जायेगा तो लाभ की जगह हानि पहुंचाएगा। दूध ही क्यों अन्न, काजू, किसमिस, बादाम आम, केला गेहूँ, चना और गुड़, तैल आदि पौष्टिक पदार्थों का मात्रा से अधिक सेवन लाभ की जगह हानि ही पहँचाएगा। इसलिए “हितमित भुख" अर्थात थोड़ा और हितकारी भोजन करने को कहा है। यदि दूध 6 से 8 घंटे में पचता है, ऐसा तर्क देकर दूध को Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त 59/1-2 असेवनीय (अभक्ष) कहा जाता है तो फिर शक्ति वर्धक बादाम, काजू, मूंगफली आदि जो 10-12 घंटे में पचते हैं वह भी अभक्ष्य हो जायेंगे। क्योंकि जो-जो पाचन संबंधी परेशानियां दूध के पाचन से आती हैं, उससे कहीं अधिक परेशानियां फेटयुक्त ड्रायफ्रूट्स में आती हैं। अतः ऐसा कुतर्क उचित नही है। ___ यदि किसी के बेटे ने जन्म से दूध नहीं पिया और वह स्वस्थ 6 फीट का है तो यह भी देखना चाहिए कि वह खाता क्या क्या है। क्या वह सब एक गरीब आदमी के बेटे को संभव है? जिस मॉ ने बचपन से दूध नहीं पिलाया हो तो बड़े होने पर वह पचता भी नहीं, एसीडिटी होती है और गैस आदि की अनेक समस्याएं उत्पन्न होती हैं, इसका मतलब यह नहीं कि सभी के लिए नहीं पचता और सभी के लिए अभक्ष्य हो। इसमें दूध का दोष नहीं बल्कि पीने वाले का दोष है। मानव को दूध आवश्यक क्यों : शिशु अवस्था में लेक्टेस एंजाइम का पर्याप्त मात्रा में स्राव होता है। वे ही एन्जाइम दूध को पचाते हैं, इसलिए बच्चों को वह पूर्ण आहार होता है, लेकिन जैसे-जैस उम्र बढ़ती जाती है, वैसे-वैस लेक्टेस एन्जाइम के स्राव की मात्रा घटती जाती है। फिर भी निरंतर दूध पीने वालों को वह पचता रहता है। दुग्ध एक पूर्ण आहार है क्योंकि शरीर को पुष्ट और स्वस्थ रखने के लिए जितने प्रोटीन, विटामिन और खनिज तत्वों की आवश्यकता होती है, वे सभी दूध में पाये जाते हैं। यूनिवर्सिटी ऑफ कैलीफोर्निया में क्लीनिकल इम्यूनोलॉजी के प्रोफेसर डॉ. ट्यूबर कहते हैं कि जों वयस्क आदतन दूध और उससे बने उत्पादों का सेवन करते हैं, उनके लेक्टेस एंजाइम सक्रिय बने रहते हैं और दूध पचता रहता है, परंतु जो बाल्यावस्था के बाद दूध का सेवन बंद कर देते हैं उनके लेक्टेस एंजाइम का संश्लेषण बंद हो जाता है। ऐसे व्यक्तियों को डायरिया और पेट दर्द आदि बीमारी के लक्षण दूध Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त 59/1-2 पीने के बाद दिखते हैं। दूध नहीं पचा सकने वाला व्यक्ति यदि (चावल रोटी अदि के साथ) थोड़ा-थोड़ा बढ़ाते हुये क्रम से दूध का सेवन करता है, तो लेक्टेस एंजाइम की पर्याप्त मात्रा हो जाती है और परिणाम स्वरूप दूध पचने लगता है। जैनाचार्यों की दृष्टि में दूध : दिगम्बर जैनाचार्य सोमदेव सूरि महाराज ने यशस्तिलक चम्पू महाकाव्य के 7 वें अध्याय में लिखा है कि शुद्धं दुग्धं न गो मांसं वस्तु वैचित्र्यमीदृशम्। विवध्वं रत्न माहेयं विषं च विपदे मतः।। 354 ।। अर्थात्-दूध शुद्ध है मांस अशुद्ध है यही तो वस्तु स्वरूप की विचित्रता है। जैस साँप के फण में नागमणि होती है और विष भी होता है। विष तो प्राणी को मार देता है, जबकि नागमणि विष के जहर को मार देती है और प्राणी को बचा लेती है। इस प्रकार वस्तु स्वरूप के अनुसार जैसे साँप की मणि ग्राह्य है और विष त्याज्य है, वैसे ही प्राणी का दूध तो ग्राह्य है और मांस त्याज्य है। इसी बात को और स्पष्ट करने के लिए आचार्य महाराज दूसरा उदाहरण देते हुये कहते हैं कि हेयः पलं पयः पेयं सत्यपि कारणे। ____ विष दोरायुषे पत्रं, मूलं तु मृतये मतम् ।। अर्थात-जैसे विष वृक्ष का पत्ता और उसकी जड़ इन दोनों के उत्पादक कारण एक ही वृक्ष है फिर भी विष वृक्ष का पत्ता अमृत तुल्य और आयु रक्षक है और जड़ जीवन नाशक होने से अभक्ष्य और त्याज्य है। इसी प्रकार दूध अमृत तुल्य होने से भक्ष्य है और रक्त, मांस विष तुल्य होने से अभक्ष्य है, जैनाचार्यों ने गुड़, तैल नमक इन तीन रसों की श्रेणी में दूध, दही और घी इन तीन रसों को रखकर कुल 6 रस कहे Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त 59/1-2 हैं, अतः दूध, दही भी गुड़ आदि के समान सेवन करने योग्य रस है। दूध अमृत है ऐसा एक कथानक महाभारत में इस प्रकार मिलता है कि यक्ष ने युधिष्ठित से प्रश्न पूछा कि अमृत क्या है? युधिष्ठिर ने उत्तर दिया गोरस (घी, दूध, दही)। दिगम्बर जैनाचार्यों ने धवला आदि कई ग्रंथों में स्पष्ट उल्लेख किया है कि साग, अनाज, दूध आदि सचित्त पदार्थों को उबालकर जीवाणुरहित (अचित) प्रासुक किया जा सकता है, अतः दूध फलादि भक्ष्य है। मांस को अग्नि में भी रख देने पर भी जीवाणु रहित (प्रासुक) नहीं कर सकते, अतः मांसाहार अभक्ष्य है। अहिंसक व्यवसाय है पशु पालन : गाय, भेस आदि पशुओं को पालना उनका दूध दुहकर उपयोग में लाना और बैल आदि को खेती के काम में लाना जैन धर्म सम्मत है। दिगम्बर जैनाचार्य जिनसेन स्वामी ने आदि पुराण के 16 वें पर्व के 184 वे श्लोक में लिखा है कि प्रथम तीर्थकर आदिनाथ स्वामी के समय जब भोग भूमि के बाद कर्मभूमि प्रारंभ हुई तब आदिनाथ स्वामी ने वर्ण व्यवस्था करके प्रजा को अपनी आजीविका चलाने असि, मसि, कषि आदि षट्कर्म करने का उपदेश दिया। जो खेती, व्यापार और पशुपालन आदि करके आजीविका चलाते थे वे वैश्य कहलाये। अतः कृषि एवं पशुपालन करना एक अहिंसक और जैनागम सम्मत कार्य है। दूध दुहाना आवश्यक क्यों : दुग्ध ग्रंथि में संग्रहीत होने वाला अमृत तुल्य दूध दुहना अनिवार्य है। लेकिन दूध दुहने वाला यह ध्यान रखे कि पहले लगभग 1 माह तक बछड़े को पेट भरने तक दूध पिलाये और शेष दूध दुहले, उसके बाद जब बछड़ा बड़ा हो जाये और घास, रोटी आदि खाने लगे तब आधा या एक चौथई दूध पिलाये, शेष दुहले, परंतु इंजेक्शन लगाकर न दुहे। Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त 59/1-2 गायों पर अनुसंधान करने वाले हनाह शोध संस्थान के डॉ. वाईल्ड तथा उनके अन्य सहयोगी वैज्ञानिक कहते हैं कि दूध दुहना आवश्यक है। यदि नहीं दहते तो स्तन ग्रंथियों के ऊतकों पर हानिकारक प्रभाव पड़ता है। दूध न दुहने से वह शरीर द्वारा पुनः प्रयोग में ले लिया जाता है जिससे कोशिकायें मृत होन लगती हैं और कुछ ही समय बाद स्तन ग्रंथियों काम करना बंद कर देती हैं, जो गाय के लिये घातक है। गाय का दूध सर्वोत्तम क्यों : ___ गाय का दूध माता के दूध के समान ही होता है। वैज्ञानिक शोधों से ज्ञात हुआ कि गाय के दूध में 87.2 प्रतिशत जल, 3.5 प्रतिशत प्रोटीन, 3.7 प्रतिशत वसा, 4.9 प्रतिशत लेक्टोज, 0.71 प्रतिशत राख, 0.121 प्रतिशत कैल्श्यिम, 0.095 प्रतिशत फास्फोरस होता है एवं 73 किलो कैलोरी ऊर्जा होती है, जबकि माता के दूध में 87.5 प्रतिशत जल, 1.0 प्रतिशत प्रोटीन, 4.4 प्रतिशत वसा, 7.0 प्रतिशत लेक्टोज, 0.27 प्रतिशत राख, 0.35 प्रतिशत कैल्शियम, 0.013 प्रतिशत फास्फोरस एवं 70 किलो कैलोरी ऊर्जा होती है। अतः गाय का दूध माँ के दूध के समान होता है जबकि अन्य मवेशियों का दूध माँ के दूध से मेल कम खाता है इसलिए गाय का दूध मानव के लिए सर्वोत्तम है। अनादिकाल से दूध का उपयोग मानव करता रहा है, इसके प्रमाण प्राचीन पुराण, ग्रंथों में भरे पड़े हैं अनेक तीर्थकरों ने दीक्षा के बाद दूध चावल की खीर से पारणा की, और नारायण श्रीकृष्ण जैसे महापुरुषों ने दूध दही का सेवन किया। परंतु जिन्हें इतिहास का समीचीन ज्ञान नहीं है, वही कहते हैं कि घी के दीपक की बात तो सुनी है पर दूध पीने की नहीं। ऐसा कहने वालों को पहले इतिहास का ज्ञान प्राप्त करना चाहिये। Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रावकाचार संग्रह में आवश्यकों का स्वरूप -डॉ. अनेकान्त कुमार जैन भगवान् महावीर के शासन में श्रावक, श्राविका जो गृहस्थ हैं उन्हें प्रतिदिन किन कर्त्तव्यों को करते हुये अपना जीवन यापन करना चाहिए? इस विषय पर प्राचीन काल से ही चिन्तन चला आ रहा है। आरम्भ से ही एक सामान्य श्रावक की न्यूनतम आचारसंहिता और आवश्यक कर्त्तव्यों को निर्धारित करने हेतु विचार चला आ रहा है । यद्यपि श्रुतपरम्परा से प्राप्त श्रावकों के आवश्यक कर्त्तव्य सभी आचार्यों ने लगभग एक जैसे और एक उद्देश्य को लेकर गिनाये हैं । तथापि प्रत्येक काल में जैनाचार्यो ने युगानुकूल नयी व्याख्यायें, उनके मूल स्वरूप को सुरक्षित रखते हुये उनमें कुछ परिष्कार, तथा जहाँ आवश्यकता पड़ी वहाँ पर सार्थक हस्तक्षेप किये हैं । आवश्यक की परिभाषा : नित्य के अवश्य करणीय क्रियानुष्ठान रूप कर्त्तव्यों को 'आवस्सय' या आवश्यक कहते हैं। सामान्यतः 'अवश' का अर्थ (पाइसद्दमहण्णवो. पृ.83) अकाम अनिच्छु, स्वाधीन, स्वतन्त्र, रागद्वेष से रहित तथा इन्द्रियों की आधीनता से रहित होता है, तथा इन गुणों से युक्त अर्थात् जितेन्द्रिय व्यक्ति की अवश्यकरणीय क्रियाओं को आवश्यक कहते हैं। मूलाचार में आचार्य वट्टकेर ने कहा है 'ण वसो अवसो अवस्स कम्ममावासगं त्ति बोधव्वा' । ( 7 / 11 ) अर्थात् जो रागद्वेषादि के वश में नहीं होता वह अवश है तथा उस ( अवश) का आचरण या कर्त्तव्य आवश्यक कहलाता है । आचार्य कुन्दकुन्द (नियमसार - 141 ) आवश्यक का लक्षण करते हुये कहते हैं कि Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त 59/1-2 31 'जो ण हवदि अण्णवसो तस्स दु कम भणति आवासं। कम्मविणासणजोगो णिव्बुदिमग्गो ति णिज्जुत्तो॥ . अर्थात् जो अन्य के वश नहीं वह अवश है, उस अवश का कार्य आवश्य है जो कर्मो का विनाश करने योग्य एवं निर्वाण का मार्ग है। भगवती आराधना (वि.टी. 116) के अनुसार-आवासयन्ति रत्नत्रयमपि इति आवश्यकाः' अर्थात्-जो क्रियायें आत्मा में रत्नत्रय का आवास कराती हैं वे आवश्यक हैं। ये आवश्यक मुनियों, आर्यिकाओं, श्रावक, श्राविकाओं सभी को करणीय हैं। मुनिराज इन आवश्यकों को पूर्ण रूप से पालते हैं तथा श्रावक यथाशक्ति इनका एक देश पालन करते हैं। श्रावकों के षडावश्यक श्रावकों को प्रतिदिन करणीय छह आवश्यक बतलाये गये हैं। इन आवश्यकों में कालान्तर में परिवर्तन भी आये। षटावश्यकों/ कर्मों का संख्या सहित कई आचार्यों ने उल्लेख किया है। महापुराण में आचार्य जिनसेन (वि. 9 शती) ने श्रावक के करने योग्य षट्-आवश्यक क्रियाओं का वर्णन किया है इज्यां वार्ता च दत्तिं च स्वाध्यायं संयमं तपः। श्रुतोपासकसूत्रत्वात् स तेभ्यः समुपादिशत् ।। कुलधर्मोऽयमित्येषामहत्पूजादिवर्णनम् । तदा भरतराजर्षिरन्ववोचदनुक्रमात्।। (1/30, 31/24,25)* अर्थात्- 'भरतराज ने उपासकाध्ययन नामक अंग से उन व्रती लोगों के लिए इज्या (पूज्या), वार्ता, दत्ति (दान), स्वाध्याय, संयम और तप का उपदेश दिया। पूजादि षट्कर्म गृहस्थों का कुलधर्म है, ऐसा विचार कर * कोष्ठक संख्या-(श्रावकाचार संग्रह भाग संख्या पृष्ठ संख्या/श्लोक संख्या) Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त 59/1-2 भरतराजर्षि ने पूजादि षट्कर्मों का उपदेश दिया।' यहाँ विधिविधानपूर्वक जिनेन्द्र देव की आराधना को इज्या तथा कृषि आदि आजीविका के अनुष्ठान को वार्ता कहा है“वार्ता विशुद्धवृत्या स्यात् कृष्यादीनामनुष्ठितिः।' (1/31/35) आचार्य अमृतचन्द्र (वि. 10 शती) ने पुरुषार्थसिद्धि-उपाय में मुनियों के षड्ावश्यकों को ही यथाशक्ति गृहस्थों के लिए करणीय माना हैजिनपुङ्गवप्रवचनै मुनीश्वराणां यदुक्तमाचरणम् । सुनिरूप्य निजां पदवीं शक्तिं च निषेव्यमेतदपि।। (1/119/200) वे षट् आवश्यक हैं-सामायिक, स्तवन, वन्दना, प्रतिक्रमण, प्रत्याख्यान और कायोत्सर्ग इदमावश्यकषट्कं समतास्तववन्दनाप्रतिक्रमणम् । प्रत्याख्यानं वपुषो व्युतसर्गश्चेति कर्तव्यम् ।। यशस्तिलकचम्पू में श्री सोमदेव सूरि (वि. 11 शती) ने षटावश्यकों में 'वार्ता' को न रखकर 'गुरु की उपासना' को महत्त्व दिया। शेष आवश्यक आचार्य जिनसेन जैसे ही हैं। चारित्रसार (वि. 10 शती) में पूरे छह आवश्यक आचार्य जिनसेन की ही तरह हैं'गृहस्थस्येज्या वार्ता दत्तिः स्वाध्यायः संयमः तप इत्यार्य षट् कर्माणि भवन्ति। (1/258) किन्तु एक नयी बात चारित्रसार (1/259) में देखने को मिली वह यह कि इन षटावश्यकों को पालने वाला गृहस्थ दो प्रकार के होते हैंजातिक्षत्रिय और तीर्थक्षत्रिय। जातिक्षत्रिय-क्षत्रिय, ब्राह्मण, वैश्य और शूद्र के भेद से चार प्रकार के हैं। तीर्थक्षत्रिय अपनी आजीविका के भेद से अनेक प्रकार के हैं। अमितगतिश्रावकाचार (वि.11 शती) में ज्ञान के बिना आवश्यक को सम्यक् प्रकार से पाना असंभव बतलाया है Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त 59/1-2 'न सम्यक्करणं तस्य जायते ज्ञानतो विना। शास्त्रतो न विना ज्ञानं शास्त्रं तेनाभिधीयते।' (1/334/7) अमितगति आचार्य ने षट् आवश्यक पालन करने वाले के लक्षण बताते हुये कहा है कि जिसे उत्तम धर्म कथा सुनने में आनन्द आता हो, जो दूसरों की निन्दा को सुनने का त्यागी हो, लोभ-रहित हो, आलस्यरहित हो, निन्दा कर्म न करता हो, कालक्रम का उल्लंघन करने वाला न हो, उपशान्त चित्त हो और मार्दव गुण का धारक हो, ये षटावश्यक करने वालों के चिह्न जानना चाहिए। (1/336/27-28) - आचार्य अमृतचन्द्र की तरह आचार्य अमितगति ने भी यहाँ जो षट् आवश्यक स्वीकृत किये हैं वे वे ही हैं जो मुनियों के होते हैं-(मूलाचार 1/22 तथा 7/15) सामायिकं स्तवः प्राज्ञैर्वन्दना सप्रतिक्रिया। प्रत्याख्यानं तनूत्सर्गः षोढावश्यकमीरितम् ।। (1/336/29) अर्थात्-सामायिक, स्तवन, वन्दना, प्रतिक्रमण, प्रत्याख्यान और कायोत्सर्ग ये छह आवश्यक अवश्य करने चाहिए। पद्मनन्दिपञ्चविंशतिका (वि.12 शती) में भी देव पूजा, गुरु उपासना, स्वाध्याय, संयम, तप तथा दान ये छह कर्म ही बतलाये हैं। (3/427/7) सागारधर्मामृत (वि.13 शती उत्तराद्ध) में श्रावकों के पूजा, दान, स्वाध्याय, तप एवं संयम ये पांच कर्म माने हैं। (2/4,5/18) यहाँ पं. आशाधर जी ने वार्ता तथा गुरु उपासना इन दोनों में से किसी एक को भी नहीं लिया। यहाँ संख्या का भी भेद दिखायी पड़ रहा है। प्रश्नोत्तर श्रावकाचार (वि.15 शती) में यत्नपूर्वक, मृत्यु की कीमत पर भी षडावश्यक करणीय माने हैं। इन्होंने समता, वन्दना, दान, कायोत्सर्ग संयम, और ध्यान को अलग-अलग श्लोकों में षडावश्यक माना है। (2/430/100-113) धर्मसंग्रह (वि.16 शती उत्तराद्ध) श्रावकाचार में आचार्य जिनसेन के ही समान इज्या, वार्ता, तप, दान, स्वाध्याय तथा संयम इन छह कर्मों Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त 59/1-2 34 को प्रतिदिन करने वाले को गृहस्थ माना है । (2/154/26) व्रतोद्योतन श्रावकाचार (वि. 16 शती) में यद्यपि सभी आवश्यकों का वर्णन है किन्तु एक स्थान पर श्रावकों के लिए दो ही कार्यो को मुख्य माना है, दान देना और पूजा-पाठ करना - " श्रावकाणामुभौ मार्गी दानपूजाप्रवर्तिनी ।" (3 / 2256/184) कुन्दकुन्द श्रावकाचार में सबसे हटकर संख्या निर्धारित की और श्रावकों के दस गृहस्थ धर्म बतलाये हैं दया दानं दमो देव- पूजा भक्तिर्गुरौ क्षमा । सत्यं शौचस्तपोऽस्तेयं धर्मोऽयं गृहमेधिनाम् ।। (4/33/5) अर्थात् दया, दान, इन्द्रिय- दमन, देव-पूजन, गुरुभक्ति, क्षमा, सत्य, शौच, तप, अचौर्य यह गृहस्थों का धर्म कहा गया है । यद्यपि इन्हें यहाँ आवश्यक शब्द से नहीं कहा गया तथापि कहीं भी पडावश्यकों का पृथक् उल्लेख न होने से हम इन्हीं को दशावश्यक मान लेते हैं । 1. देव- पूजा देवदर्शन सम्यग्दर्शन का निमित्त है, फिर देव पूजा का क्या कहना ? शायद यही कारण है कि कालान्तर में देव पूजा को श्रावकों को प्रतिदिन करने वाले आवश्यकों में रखकर अनिवार्य माना गया । आचार्यों ने देव पूजा के बारे में एक स्वर में समर्थन दिया । देव पूजा की विधियों में यद्यपि कुछ अन्तर दिखायी देते हैं किन्तु वे सभी श्रावक को धर्म से जोड़े रखने हेतु आवश्यक जान पड़े इसलिए उनका समावेश किया गया। देव पूजा गृहस्थों का आवश्यक कर्त्तव्य है। आचार्य समन्तभद्र -गृहस्थ को आदरपूर्वक, नित्य सर्वकामनाओं के पूर्ण करने वाले और का विकार को जलाने वाले देवाधिदेव जिनेन्द्र भगवान् की पूजाअर्चना जरू करनी चाहिए । ( 1 / 14/119) कहते T महापुराण में आचार्य जिनसेन ने, अर्हन्त देव की पूजा के लिए पाँच प्रकार बतलाये हं वे पाँच प्रकार हैं Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त 59/1-2 1. नित्य-मह (सदार्पण)- प्रतिदिन अपने घर से जिनालय मे ले जाये गये गंध पुष्प अक्षत आदि के द्वारा जिन भगवान की पूजन करना नित्य-मह कहलाता है। भक्ति से जिन-विम्ब और जिनालय आदि का निर्माण कराना, तथा उनके संरक्षण के लिये ग्राम आदि का राज्य शासन के अनुसार, पंजीकरण करके दान देना भी नित्यमह कहलाता है। अपनी शक्ति के अनुसार, मुनीश्वरों की नित्य आहार आदि दान के साथ जो पूजा की जाती है वह भी नित्यमह कहलाती है। (1/31/27, 8. 29) 2. चतुर्मुख-मह (महामहा, सर्वतोभद्र)- महामुकुट-वद्ध राजाओ के द्वारा की जाने वाली महापूजा को चतुर्मुख-मह आदि नामों से जाना जाता है ।(1/31/30) ___. कल्पद्रुम- मह (कल्पवृक्ष-यज्ञ)- चक्रवर्तियों के द्वारा तुम लोग क्या चाहते हो" इस प्रकार याचक जनों से पूछ-पूछकर जगत की आशा को पूर्ण करने वाला किमिच्छक दान दिया जाता है, वह कल्पद्रुम मह या कल्पवृक्ष-यज्ञ कहलाता है। (1/31/31) ____ 4. आष्टान्हिक-मह- आप्टान्हिका पर्व में सामान्यजनों के द्वारा किया जाने वाला पूजन, आप्टान्हिक-मह कहलाता है। (131/32) ____5. इन्द्रध्वज-मह- उपर्युक्त चार प्रकार की पूजनों के द्वारा इन्द्रों के द्वारा की जाने वाली महान पूजा को इन्द्रध्वज-मह कहते हैं। आज के युग में प्रतिमा की प्रतिष्ठा के निमित्त प्रतिष्ठापार्यों के द्वारा जो पंचकल्याणक पूजा की जाती है, उसे भी इन्द्रध्वज- मह कहा जा सकता है। (1/31/32) ___इनके अलावा भी जो पूजने की जाती हैं, उन सबका समावेश इन पॉच भेदों में हो जाता है। आचार्य जिनसेन इस विधि से युक्त महान् पूजन को षट् आवश्यकों (कर्तव्यों) में इज्या-वृत्ति (देव-पूजन) कहते हैं। (1/31/33, 34) सोमदेवसूरि ने यशस्तिलकचम्पूगत उपासकाध्ययन में चार शिक्षाव्रतों Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त 59/1-2 के अन्तर्गत सामायिक शिक्षाव्रत में देवपूजा का वर्णन किया है। आचार्य कहते हैं कि सामायिक का अर्थ ही है 'जिनेन्द्र देव की भक्ति पूर्वक पूजा ।' जिनेन्द्र देव की पूजा करने का जो उपदेश है उसे समय कहते हैं और उसमें उसके इच्छुक जनों के जो जो काम बतलाये गये हैं उसे सामायिक कहते हैं 36 आप्तसेवोपदेशः स्यात्समयः समयार्थिनाम् । नियुक्तं तत्र यत्कर्म ततसामायिकमूचिरे ।। ( 1 / 171/426) और साक्षात् जिनेन्द्र देव के अभाव में उनकी प्रतिमा की पूजन करने से भी पुष्य बन्ध होता है - ' आप्तस्यासन्निधानेऽपि पुण्यायाकृति पूजनम् | ( 1/171 /427) देव पूजा के दो रूप बताते हुये आचार्य कहते हैं कि एक तो पुष्पादि में जिन भगवान् की स्थापना करके पूजा की जाती है, दूसरे जिन बिम्बों में जिन भगवान की स्थापना करके पूजा की जाती है। अन्य दूसरे मतों की प्रतिमाओं में जिनेन्द्र देव की स्थापना करके पूजा नहीं करनी चाहिए | ( 1 / 173/446 के बाद) इस प्रकार अतदाकार और तदाकार पूजन के ये दो प्रकार बतलाये। इनमें जो पुष्पादिक में ( अतदाकार) जिनन्द्र देव की स्थापना करके पूजन करते हैं उसकी पूजा विधि बतलाते हुये कहते है कि 'पूजाविधि के ज्ञाताओं को सदा अर्हन्त और सिद्ध को मध्य में, आचार्य को दक्षिण में, उपाध्याय को पश्चिम में, साधु को उत्तर में और पूर्व में सम्यग्दर्शन सम्यक् ज्ञान और सम्यक् चारित्र को क्रम से भोजपत्र पर लकड़ी के पटिये पर, वस्त्र पर, शिलातल पर रेत निर्मित भूमि पर, पृथ्वी पर आकाश में और हृदय में स्थापित करना चाहिए । फिर पूजा करना चाहिए। ( 1 / 173 / 448 ) इसके बाद प्रतिमा में स्थापना करके तदाकार पूजन करने की विधि आचार्य ने बतलायी। आचार्य ने देव पूजा के छह प्रकार बतलाये - (1) प्रस्तावना ( 2 ) पुराकर्म (3) स्थापना (4) सन्निधापन (5) पूजा ( 6 ) पूजा का फल । ( 1 / 180 / 495) Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त 59/1-2 गृहस्थ जीवन में देव-पूजा की अनिवार्यता को बतलाते हुये आचार्य कड़े शब्दों में कहते हैं कि जो गृहस्थ होते हुए भी देव-पूजा किये बिना तथा मुनियों की सेवा किये बिना भोजन करता है वह महापाप को खाता है देवपूजामनिर्माय मुनीननुपचर्य च। यो भुञ्जीत गृहस्थः सन् स भुञ्जीत परं तमः।। (1/185/532) इसलिए आचार्य ने गृहस्थों के लिए देव पूजा में पहिले अभिषेक, फिर पूजन, फिर भगवान् के गुणों का स्तवन, फिर पञ्च नमस्कार मन्त्र का जाप, फिर ध्यान और फिर जिनवाणी का स्तवन। इस प्रकार क्रम से छह क्रियायें आवश्यक मानी हैं। स्नपनं पूजनं स्तोत्रं जपो ध्यानं श्रुतस्तवः। षोढा क्रियोदिता सद्भिर्देवसेवासु गेहिनाम् ।। (1/229/880) चारित्रसार में भी पूजा के चतुर्मुख-मह आदि प्रकारों का वर्णन ठीक उसी प्रकार है जिस प्रकार यशस्तिलकचम्पू में है। (भाग-1 पृष्ठ.285) अमितगति कृत श्रावकाचार में जिन पूजा के महात्म्य का, उसके विविध लौकिक तथा पारमार्थिक फलों का विवेचन है। लौकिक फलों में अन्य उपलब्धियों के अलावा जहाँ एक तरफ यह बताया कि जिनेन्द्र देव की पूजन करने वालों को कामसेवन के लिए उत्सुक, मधुर वचन वाली, सघन-स्तन-मण्डलों की धारक और रमणीय शरीर वाली ऐसी रमणियाँ रमाती हैं सकामा मन्यथालापा निबिडस्तनमण्डलाः। रमणी रमणीयाङ्गा रमयन्ति जिनार्चिनः।। (1/375/38) वहीं दूसरी तरफ पारमार्थिक उपलब्धियों में सिद्ध पद की प्राप्ति जिन पूजन से होती है ऐसा भी बतलाया है। (1/375/39) आचार्य वसुनन्दि कहते हैं कि अर्हन्त जिनेन्द्र, सिद्ध भगवान् Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त 59/1-2 आचार्य, उपाध्याय और साधुओं की तथा शास्त्र की जो वैभव से नाना प्रकार पूजी की जाती है, उसे पूजा विधान जानना चाहिए। नाम, स्थापना, द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव की अपेक्षा से उह प्रकार की पूजा होती है। (1/463-64/380-81) _1. नाम पूजा- अरहन्त आदि का नाम उच्चारण करके विशुद्ध प्रदेश में जो पुप्प-क्षेपण किये जाते हैं, वह नाम पूजा है। (1/464/382) 2. स्थापना पूजा- सद्भावना और असद्भावना, यह दो प्रकार के स्थापना पूजा है। आकारवान् वस्तु में अरहन्त की स्थापना करके पूजा करना सद्भावना पूजा है। और अक्षर, वराटक (कौड़ी या कमलगट्टा) में अपनी बुद्धि से यह अमुक देवता है-ऐसा संकल्प करके उच्चारण करना यह असद्भावस्थापना पूजा है। आचार्य वसुनन्दि ने यहाँ हुंडावसर्पिणी पंचम काल में दूसरी असद्भावस्थापना पूजा का निषेध किया है क्योंकि कलिंग-मतियों से मोहित इस लोक में सन्देह हो सकता है। (1/464/383-385) 3. द्रव्यपूजा- जलादि द्रव्य से प्रतिमादि द्रव्य की जो पूजा की जाती है, उसे द्रव्य पूजा जानना चाहिए। वह द्रव्य से अर्थात् जल-गंध आदि पदार्थ समूह (पूजन सामग्री) से करनी चाहिए। यह द्रव्य पूजा सचित्त, अचित्त और मिश्र के भेद से तीन प्रकार की है। इसमें प्रत्यक्ष उपस्थित जिनेन्द्र देव तथा गुरु आदि की यथायोग्य पूजन करना सचित्त पूजा है। और उनके शरीर की तथा शास्त्र की पूजा अचित्त पूजा है। और दोनों को मिलाकर पूजन करना मिश्र है। (1/470/448-450) ___4. क्षेत्रपूजा- जिन भगवान् की जनमकल्याणक भूमि, निष्क्रमणकल्याणक भूमि, केवलज्ञानोत्पत्तिस्थान, तीर्थचिह्नस्थान और निपीधिका अर्थात् निर्वाणभूमियों में विधिविधान से उनकी पूजा करना क्षेत्र पूजा कहलाती है। (1/471/452) 5. कालपूजा- जिस दिन तीर्थङ्करों के गर्भावतार, जन्माभिषेक, Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त 59/1-2 निष्कमण, ज्ञान, और निर्वाण कल्याणक हुये उस दिन विधिविधान से पूजा करना काल पूजा है। (1/471/453) 6. भावपूजा- परमभक्ति के साथ जिनेन्द्र देव के अनन्त चतुष्टय आदि गुणों का कीर्तन करके जो त्रिकाल वंदना की जाती है उसे निश्चय से भाव पूजा कहते हैं। (1/471/456) इस प्रकार आचार्य वसुनन्दि ने पूजा के छह प्रकार बतलाकर उसका विस्तृत वर्णन किया है। __ सागारधर्मामृत में नित्यमह आदि उन्हीं पूजनों का विधान है जिनका विधान आचार्य जिनसेन ने किया है (2/10/26, 27, 28)। पूजा के लिए अष्ट-द्रव्य तथा शुद्ध स्नानादि का उपदेश देकर जिनभक्ति का महाफल बतलाकर उसमें संलग्न रहने का उपदेश दिया है। धर्मसंग्रह श्रावकाचार में पूजन के नाम, स्थापनादि छह प्रकारों का वर्णन उसी प्रकार का है जिस प्रकार आचार्य वसुनन्दि ने किया है (2/159/85)। उमास्वामि श्रावकाचार में किन दिशाओं से पूजन करनी चाहिए इसका उल्लेख है। वे कहते हैं कि पूजन करने से पहले पूर्व दिशा की तरफ मुख करके स्नान करना चाहिए, पश्चिम दिशा की तरफ दातन, उत्तर दिश की तरफ होकर श्वेतवस्त्र धारण करना चाहिए और जिनेन्द्र देव की पूजा उत्तर या पूर्व की तरफ मुख करके करना चाहिए। (3/160/97) __चूंकि सभी मनुष्यों के द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव समान नहीं होते अतः उमास्वामि श्रावकाचार में पूजा के इक्कीस प्रकार बताये और कहा है कि जिसे जो पूजा प्रिय हो, वह उससे भावपूर्वक पूजन करे। पूजा के इक्कीस प्रकार निम्नवत् हैं- (1) स्नानपूजा (2) विलेपनपूजा (3) आभूषणपूजा (4) पुष्पपूजा (5) सुगन्धपूजा (6) धूमपूजा (7) प्रदीपपूजा (8) फलपूजा (9) तन्दुलपूजा (10) पत्रपूजा (11) पुंगीफलपूजा (12) नैवेद्यपूजा (13) जलपूजा (14) वसनपूजा (15) चमरपूजा (16) छत्रपूजा (17) वादित्रपूजा (18) गीत पूजा (19) नृत्यपूजा (20) स्वस्तिक पूजा (21) कोशपूजा (भण्डार में द्रव्य देना) (3/164/136, 137) Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त 59/1-2 ___इस प्रकार उमास्वामि श्रावकाचार में पूजा विधि का विस्तृत वर्णन उपलब्ध है तथा सचित्त वस्तुओं से पूजन करने व पञ्चामृत-अभिषेक का प्रबल समर्थन किया गया है। (देखें-भाग-3, पृष्ठ-160 से 167 तक) उमास्वामि ने (1) आवाहन (2) संस्थापन (3) सन्निधिकरण (4) पूजन (5) विसर्जन इन पंचोपचारी पूजा का विधान किया है (3/165/47, 48)। वामदेव ने संस्कृत भावसंग्रह में पूजा को शिक्षाव्रत के अन्तर्गत सामायिक में ठीक उसी प्रकार ग्रहण किया है जिस प्रकार यशस्तिलकचम्पू में किया गया है (3/466/23)। वामदेव ने पूज्य और पूजक का लक्षण करते हुये कहा है कि शतइन्द्रों से जिनके चरणपूजे जाते हैं ऐसे निर्दोष केवली जिनेन्द्र देव पूज्य हैं। भव्यात्मा शान्त भावों का धारक है, सप्त व्यसनों का त्यागी है, ऐसा ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य तथा उत्तम शीलवान् शूद्र पूजक है कः पूज्यः पूजकस्तत्र पूजा च कीदृशी मता। पूज्यः शतेन्द्रवन्याहिर्निदोषः केवली जिनः।। भव्यात्मा पूजकः शान्तो वेश्यादिव्यसनोज्झितः। ब्राह्मणः क्षेत्रियो वैश्यः स शूद्रो वा सुशीलवान् ।। (श्लोक-24, 25 पृ.-466) संस्कृत भाव संग्रह में पूजन के वे ही नित्यमहादि भेद हैं जो आचार्य जिनसेन ने किये हैं। कुन्दकुन्द श्रावकाचार में जिनेन्द्र का उपदेश देकर प्रतिमा के सम्बन्ध में एक महत्त्वपूर्ण बात कही जो कि विचारणीय है वह यह कि जो प्रतिमा विगत सौ वर्ष से पूजित चली आ रही हो और जिसे उत्तम पुरुषों ने स्थापित किया हो, तो वह व्यंगित होने पर भी पूज्य है। वह मूर्ति निष्फल नहीं है अतीताब्दशतं यत्स्याधच्च स्थापितमुत्तमैः। व्यङ्गमपि पूज्यं स्याद्विम्बं तन्निष्फलं त यत् ।। (4/14/133) जिन पूजा करने की विधि, उसका उपदेश, उसका माहात्म्य सभी श्रावकाचारों में कुछ अलग कुछ समान रूप से प्राप्त होता है। जहाँ जिन Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त 59/1-2 पूजन के फल, माहात्म्य तथा उनकी विधियों के लम्बे चौड़े वर्णन हैं उनको हमने विस्तार भय से यहाँ नहीं लिया है। जिन पूजा के फल में मेढक के भव की कथा अधिकांश आचार्य कहते हैं। पद्मकृत श्रावकाचार में भी उसका सुन्दर वर्णन है। उसमें जिनपूजा माहात्म्य का वर्णन एक झलक के रूप में प्रस्तुत है जिनपूजा करो जिनपूजा करो, भविजन भावे करी। जिनपूजा कल्पतरु सभी, चिन्तामणि कामधेनु पूजा निर्भर। मन वांछित फलदाय इन्द्र जिनेन्द्र पद देई जे मनोहर ।। __(4/78/वस्तुछन्द) किशनसिंह कृत क्रियाकोष में मन्त्र जाप और पूजा का त्रिकाल विधान किया गया है। किस दिशा में मुख कर पूजन की तैयारी तथा पूजन करना चाहिए इसका विधान किशनसिंह ने ठीक वैसे ही किया है जिस प्रकार उमास्वामि श्रावकाचार में किया गया हैं इसके अलावा किशनसिंह जी ने मुख पर कपड़ा लगा कर पूजन करने को कहा है जो भविजन जिन पूजा रचै, प्रतिमा परसि पखालहिं सचे। मौन सहित मुख कपड़ों करै, विनय विवेक हर्ष चित घरै।। (5/205/48) वर्तमान में मुख पर कपड़ा लगा कर पूजन करने की परम्परा मूर्तिपूजक श्वेताम्बर भाईयों में प्रसिद्ध है। दिगम्बर परम्परा में मुख की बजाय सिर को कपड़े से ढक कर पूजन अभिषेक करने की परम्परा है। इस प्रकार हम देखते हैं कि जैन परम्परा में पूजा के कितने प्रकार बतलाये है। इन सभी विधानों में जहाँ कहीं भी अन्तर दिखायी दे रहे हैं वो देश, काल, परिस्थिति या परम्परा विशेष के प्रभाव के कारण हुये प्रतीत होते हैं। 2. गुरु-भक्ति गुरुभक्ति भारतीय संस्कृति में प्राचीन काल से ही प्रसिद्ध है। परम्परा Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स अनेकान्त 59/1-2 में 'पानी पीओ छान के और गुरु मानो जान के' जैसी प्रसिद्ध लोकोक्तियों से ही ज्ञात होता है कि सच्चे गुरु का कितना महत्त्व माना गया है। सभी जैनाचार्यों ने गुरुभक्ति को श्रावकों का आवश्यक कर्तव्य माना है। रत्नकरण्ड श्रावकाचार ग्रन्थ में आचार्य समन्तभद्र ने सत्यार्थ गुरु का लक्षण किया है वे कहते हैं कि जो पंचेन्द्रियों की आशा के वश से रहित हो, खेती-पशु-पालन आदि आरम्भ से रहित हो, ज्ञानाभ्यास, ध्यान समाधि और तपश्चरण में निरत हो, ऐसे तपस्वी निर्ग्रन्थ गुरु प्रशंसनीय होते हैं। (1/2/10) सागार धर्मामृत में गुरु की उपासना को आवश्यक बतलाया गया है। पण्डित आशाधर जी कहते हैं उपास्या गुरवो नित्यमप्रमत्तैः शिवार्थिभिः । तत्पक्षताय-पक्षान्तश्चराविघ्नोरगोत्तरा।। निर्व्याजया मनोवृत्त्या सानुवृत्त्या गुर्मिनः । प्रविश्य राजवच्छश्वद् विनयेनानुरञ्जयेत् ।। (2/13/46, 47) अर्थात्-'प्रमाद रहित मोक्ष के इच्छुक व्यक्तियों के द्वारा गुरुजन सदा ही पूजे जाना चाहिए, क्योंकि उन गुरुओं के अधीन होकर उसी प्रकार सारे विघ्न दूर हो जाते हैं जैसे गरुड़ पक्षी के पंखों को ओढ़ कर चलने वालों के पास सर्प नहीं फटक सकते। 'धर्मसंग्रह श्रावकाचार में कहा है कि दर्शनाचार, ज्ञानाचार आदि पंच प्रकार के आचार से युक्त सूरि (आचाय) द्वादशांगशास्त्र को जानने वाले उपाध्याय, तथा अपनी आत्मा की प्राप्ति के लिये प्रयत्न करने वाले साधु (मुनि) ये सब पूजने योग्य हैं (2/155/43)। प्रश्नोत्तर श्रावकाचार में निर्ग्रन्थ अर्थात् परिग्रह रहित को ही गुरु मानने को कहा है अन्य को नहीं “निग्रन्थश्च गुरुनान्य एतत्सम्यक्त्वमुच्यते।” (2/211/2) Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त 59 / 1-2 निर्ग्रन्थ गुरुओं के सच्चे स्वरूप का वर्णन प्रश्नोत्तर श्रावकाचार में बहुत विस्तार से है ( 2 / 222 / 132-146) । दो सारगर्भित श्लोक कहे हैं जो उल्लेखनीय है 'देशका ये तरंति स्वयं संसारे दुःख सागरे । तारयन्ति समर्थास्त परेषां भव्यदेहिनाम् । । बुधोत्तमाः । ।। गुरुन् संगविनिर्मुक्तान् ये भजन्ति नाकराज्यादिकं प्राप्य मुक्तिनाथा भवन्ति ये ।। (2/223/143-144) 43 अर्थात्- “जो अनेक दुखों से भरे हुए इस संसार सागर से स्वयं तरते हैं और भव्य जीवों को पार कर देने में समर्थ हैं ऐस परिग्रह रहित गुरुओं की जो बुद्धिमान् सेवा भक्ति करते हैं वे स्वर्गादिक के उत्तम साम्राज्य भोगकर अन्त में मोक्ष सुख के स्वामी होते हैं।' इसके अलावा इस श्रावकाचार में कुगुरु का स्वरूप बतलाकर उनका भी निषेध किया है । तथा कहा है कि सर्प, शत्रु और चोर आदि का समागम करना अच्छा परन्तु मिथ्यात्व मार्ग में लगे हुए इन कुगुरुओं का समागम अच्छा नहीं क्योंकि सर्प, शत्रु आदि के समागम से एक ही भव में दुःख होता है परन्तु इन कुगुरुओं के समागम से अनन्त भवों तक दुःख प्राप्त होता रहता है । वरं सर्पारिचौराणां संगस्तान्न परैः समम् । मिथ्यात्वपथसंलग्नैरनन्तभवदुःखदम् ।। (2/223/153) धर्मोपदेशपीयूषवर्ष श्रावकाचार में भी जो रत्नत्रयधारी हो तथा स्वयं को एवं दूसरों को संसार से पार लगाये उन्हीं गुरु को पूजनीय माना है- • सन्तु ते गुरवोनित्यं ये संसार सरित्पतौ । रत्नत्रयमहानावा स्वपरेषां च तारकाः ।। (2/462/3) लाटीसंहिता में आचार्य, उपाध्याय और साधु इन तीन प्रकार के सच्चे गुरुओं का विस्तार से वर्णन हैं। गुरु के स्वरूप की बहुत सूक्ष्म Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त 59/1-2 व्याख्या वहाँ की गयी है। सर्वप्रथम तो आत्मा का जो शुद्धभाव निर्जरादि का कारण है वही परमपूज्य है और उससे युक्त आत्मा ही परमगुरु है। गुरुपने का कारण केवल दोषों का नाश हो जाना ही है। जो निर्दोष है वही जगत् का साक्षी है और वही मोक्षमार्ग का नेता है अन्य नहीं निर्जरादिनिदानं यः शुद्धोभावश्चिदात्मकः । परमार्हः स एवास्ति तद्वानात्मा परं गुरु।। न्यायाद्गुरुत्वहेतुः स्यात्केवलं दोषसंक्षयः। निर्दोषो जगतः साक्षी नेतामार्गस्य नेतरः।। (3/168/193–194) उपास्वामि श्रावकाचार में कहा है कि गुरु के बिना भव्यजीवों को भव से पार उतारने वाला और कोई भी नहीं है, और न ही गुरु के बिना अन्य कोई मोक्षमार्ग का प्रणेता ही हो सकता है अतः सज्जनों को गुरु की सेवा करनी चाहिए गुरुं विना न कोऽप्यस्ति भव्यानां भवतारकः। मोक्षमार्गप्रणेता च सेव्योऽतः श्रीगुरुः सताम् ।। गुरुणां गुणयुक्तानां विधेयो विनयो महान्। मनोवचनकायैश्च कृतकारितसम्मतैः।। (3/168/193-194) अर्थात्- ‘गुणों से संयुक्त गुरुओं की मन-वचन-काय से और कृत कारित अनुमोदना से महान् विनय करनी चाहिए। पद्मनन्दिपञ्चविंशतिकागत श्रावकाचार में गुरु की उपासना का सुफल तथा नहीं करने पर दुष्फल इन दोनों का ही वर्णन है- . गुरोरेव प्रसादेन लभ्यते ज्ञानलोचनम्। समस्तं दृश्यते येन हस्तरेखेव निस्तुषम् ।। ये गुरुं नैव मन्यन्ते तदुपास्तिं न कुर्वते । अन्धकारो भवेत्तेषामुदितेऽपि दिवाकरे।। (3/428-29/18, 19) Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त 59/1-2 अर्थात्-गुरु के प्रसाद से ही ज्ञान रूप नेत्र प्राप्त होता है, जिसके द्वारा सम्स्त विश्वगत पदार्थ हस्तरेखा के सामान स्पष्ट दिखाई देते हैं। इसलिए ज्ञानार्थी गृहस्थों को भक्तिपूर्वक गुरुजनों की वैयावृत्त्य और वन्दना आदि करना चाहिए। जो गुरुजनों का सम्मान नहीं करते हैं और न उनकी उपासना ही करते हैं, सूर्य के उदय होने पर भी उनके हृदय में अज्ञानरूप अन्धकार बना ही रहता है।' कुन्दकुन्द श्रावकाचार में गुरु-शिष्य दोनों का स्वरूप बतलाकर गुरुभक्ति किस प्रकार करनी चाहिए इसको बतलाते हुये कहते हैं कि सर्वप्रथम तो देव-पूजनादि के बाद हमें स्वयं चलकर गुरु के पास जाना चाहिए, यदि गुरु आयें तो भलीभॉति पर्युपासना करनी चाहिए, अपने आसन से उठना, सामने जाना, मस्तक पर जल धारण कर स्वयं उन्हें आसन देना, उनकी भक्तिपूर्वक नमस्कार करना और जब जायें तो कुछ दूर तक उन्हें भेजने जाना-यही गुरु की उपासना का क्रम है। (4/20/183-187) इस प्रकार श्रावकाचार संग्रह में संग्रहीत विभिन्न श्रावकाचारों में गुरु के महत्त्व तथा उनकी भक्ति का विशेष वर्णन है। 3. स्वाध्याय 'स्वाध्यायः परमं तपः'- कह कर आचार्यों ने स्वाध्याय को तप के भेदों में गिना है। यद्यपि 'तप' भी षडावश्यकों में है तथापि स्वाध्याय का महत्त्व इतना अधिक है कि उसे पृथक् स्थान देकर उसकी अनिवार्यता मानी है। स्वाध्याय स्व-पर का भेद ज्ञान करवाने में सबसे बड़ा निमित्त है। शेष आवश्यकों को सच्ची रीति पूर्वक करने के लिए भी स्वाध्याय बहुत आवश्यक है। अमितगतिकृत श्रावकाचार में आचार्य ने स्वाध्याय तप का वर्णन करते हुए कहा है कि 'पंचम गति मुक्ति को चाहने वाले पुरुषों को वाचना, पृच्छना, आम्नाय, अनुप्रेक्षा और धर्मदेशनारूप पाँच प्रकार का स्वाध्याय करना चाहिए।' Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त 59/1-2 वाचनापृच्छनाम्नायाऽनुप्रेक्षा धर्मदेशना। स्वाध्यायः पञ्चधा कृत्याः पञ्चमी गतिमिच्छता ।। (1/391/81) आशाधरकृत सागारधर्मामृत में आचार्य ने स्वाध्यायशाला की महत्ता पर प्रकाश डालते हुए कहा है कि “शिष्यों की तरह गुरुओं की बुद्धि भी स्वाध्यायशाला के बिना ऊहापोह रहित होती हुई परिचित या अभ्यस्त शास्त्र के विषय में भी या मोक्षमार्ग में अंधे के समान आचरण करती है अर्थात् यथार्थज्ञानविहीन रहती है। अतः जहाँ स्वाध्यायशाला नहीं है, वहाँ शिष्यों के समान उपाध्यायों की भी बुद्धि तत्त्वों के ऊहापोह का मार्ग नहीं रहने से परामर्शशीलता के साधन के अभाव में अभ्यस्त शास्त्र भी अन्धी सी हो जाती है, परिमार्जित नहीं रहती है। इसलिए स्थान-स्थान पर स्वाध्यायशाला भी स्थापित कराना चाहिए।" विनेयवद्विनेतृणामपि स्वाध्यायशाला। विना विमर्शशून्या धी-दृष्टेऽत्यन्धायतेऽध्वनि ।। (2/12/39 आशाधरकृत सागारधर्मामृत में आचार्य ने महाश्रावक को परिभाषित करते हुए कहा है कि "महाश्रावक विधि के अनुसार स्वाध्याय को कं और विपत्ति से पीड़ित दीन प्राणियों को विपत्ति से दूर करे क्योंकि विशेषज्ञानी और दयालु व्यक्ति के ही सब गुण इच्छापूर्तिकारक होते हैं स्वाध्यायं विधिवत्कुर्यादुद्वरेच्च विपद्धतान् । पक्वज्ञानदयस्यैव गुणाः सर्वेऽपि सिद्धिदाः।। (2/64/13) धर्मसंग्रह श्रावकाचार ग्रंथ में आचार्य ने ज्ञान की वृद्धि करने के उपाय बताते हुए कहा है कि “ज्ञान की दिनों-दिन वृद्धि के लिए भव्य पुरुषों को-वाचना, पृच्छना, आम्नाय, अनुप्रेक्षा, धर्मोपदेश-ये पाँच प्रकार के स्वाध्याय करना चाहिए। (2/170/210) आगे आचार्य स्वाध्यायतप की परिभाषा और महत्ता बताते हुए कहते हैं कि “जैन शास्त्रों के अनुसार अपने लिए अध्यययन करने को स्वाध्याय कहते हैं और यही स्वाध्याय अज्ञान का नाश करने वाला है, Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त 59/1-2 स्वाध्यायोऽध्ययनं स्वस्मै जैनसूत्रस्य युक्तितः। अज्ञानप्रतिकूलत्वात्तपः स्वेष परं तपः।। (2/170/211) आगे आचार्य स्वाध्याय को मोक्ष का कारण बताते हुए कहते हैं कि "स्वाध्याय के करने से ज्ञान की वृद्धि होती है, ज्ञान की वृद्धि होने से चित्त में उत्कट वैराग्य होता है, वैराग्य के होने से परिग्रह का त्याग होता है उससे ध्यान होता है, ध्यान के होने से आत्मा की उपलब्धि होती है, आत्मा की उपलब्धि होने से ज्ञानावरणादि आठ कर्मो का नाश होता है और कर्मो का नाश ही मोक्ष कहा जाता है। अतः यह स्वाध्याय परंपरा मोक्ष का कारण है इसलिए भव्य पुरुषों को-शक्त्यनुसार स्वाध्याय अवश्य करना चाहिए।" स्वाध्यायाज्ज्ञानवृद्धिः स्यात्तस्यां वैराग्यमुल्बणम् । तस्मात्सङ्गपरित्यागस्ततश्चित्तनिरोधनम् ।। तस्मिन्ध्यानं प्रजायेत ततश्चात्मप्रकाशनम्। तत्र कर्मक्षयाऽवश्यं स एव परमं पदम्।। (2/170/213) वे आगे कहते हैं- पूर्वकाल में जितने सिद्ध हुये हैं, आगामी होंगे तथा वर्तमान में होने योग्य हैं वे सब नियम से इस स्वाध्याय सं ही हुए हैं तथा होने वाले हैं। इसलिए संसार का नाश करने वाला यही स्वाध्याय मोक्ष का कारण है। अतः भव्यगृहस्थों को स्वाध्याय परम्परा मोक्ष का कारण जानकर, एकान्त स्थान में बैठकर मन, वचन, काय की शद्धि पूर्वक नित्य तथा नैमित्तिक स्वाध्याय करना चाहिए सिद्धाः सेत्स्यन्ति सिद्ध्यन्ति ये ते स्वाध्यायतो ध्रुवम् । अतः स एव मोक्षस्य कारणं भववारणम् ।। इति सद्गृहिणा कार्यो नित्यो नैमित्तिकोऽपि च। स्वाध्याय रहसि स्थित्वा स्वयोग्यं शुद्धिपूर्वकम् ।। (2/170/214-215) कुन्दकुन्द श्रावकाचार में विद्याध्ययन/स्वाध्याय के लिए चतुर्दशी, Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त 59/1-2 अमावस्या, पूर्णमासी और अष्टमी के दिन अध्ययन का निषेध किया है तथा कहा गया है कि सूतक के समय और राहु के द्वारा चन्द्र-सूर्य के ग्रहण होने के काल में भी नहीं पढ़ना चाहिए। इसी प्रकार उल्कापात, वज्रपात, भूकम्प और मेघगर्जन होने पर, मरण को प्राप्त हुए बन्धु जनों के प्रेतकर्म करने पर, अकाल में बिजली चमकने पर, भ्रष्ट और मलिन पुरुष के तथा अपवित्र वस्तु के सानिध्य में, शमशान में, दिन में रात्रि के समान अन्धकार होने पर और अपनी शारीरिक अशुचि दशा होने पर नहीं पढ़ना चाहिए (4/83-84/121-125)। इसके अलावा कुन्दकुन्द श्रावकाचार में बताया है कि गणित, ज्योतिष, साहित्य, तर्कशास्त्र, संस्कृत, सौरसेनी, मागधी, पैशाची, अपभ्रंश भाषा, व्याकरण का भी पढ़ने का लक्ष्य रखना चाहिए (4/84/129-136)। दौलतराम जी ने क्रियाकोश में स्वाध्याय की महत्ता को बतलाया है। स्वाध्याय के पांच भेदों का भी वर्णन किया है। (4/349/64-77) एक सुन्दर दोहा कहा है जिसमें स्वाध्याय का मर्म समाहित है केवल आतम अर्थ जो करै सूत्र अभ्यास। अपनी पूजा नहिं चहै, पावै तत्त्व अध्यास।। 4. संयम ___ संयम एक ऐसा आवश्यक है जिसमें संपूर्ण श्रावकाचार गर्भित हो जाता है। सभी व्रतों को अपने में संजोने वाले संयम को श्रावक का आवश्यक कर्त्तव्य माना गया है। असंयमी का धर्म के क्षेत्र में कोई मूल्य नहीं है। आचार्यों ने संयम की परिभाषा तथा व्याख्या बहुत विस्तार से की है। __ यशस्तिलकचम्पू में संयम की परिभाषा करते हुये कहा गया है कि आत्मा का कल्याण चाहने वालों के द्वारा जो कषायों का निग्रह, इन्द्रियों का जय, मन वचन और काय की प्रवृत्तियों का त्याग तथा व्रतों का पालन किया जाता है उसे संयमी पुरुष संयम कहते हैं Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त 59/1-2 कषायेन्द्रियदण्डानां विजयो व्रतपालनम्। संयमः संयतैः प्रोक्तः श्रेयः श्रयितुमिच्छताम्।। (1/231/892) चारित्रसार में पञ्चाणुव्रत का पालन करना ही संयम कहा है'संयमः पञ्चाणुव्रतप्रवर्त्तनम्' (1/259)। संयम के ही एक प्रसंग में चारित्रसार में एक शंका समाधान किया गया है जो संभवतः षट्खण्डागम के वर्गणा खण्ड के बन्धन अधिकार से उद्धृत है। शंका है कि संयम और विरति में क्या भेद है? उसका उत्तर देते कहते हैं कि समिति सहित महाव्रत और अणुव्रत संयम कहलाते हैं और समितियों के बिना वे महाव्रत और अणुव्रत विरति कहलाते हैं। (1/257) धर्मसंग्रह श्रावकचार में कहा है कि मन और इन्द्रियों के वश करने को संयम कहते हैं। इसलिए गृहस्थों को अपने योग्य संयम निरन्तर पालन करना चाहिए। यह संयम भी सकल संयम एवं विकल संयम के भेद से दो प्रकार का होता हैं सकल संयम मुनि धारण कर पाते हैं। एवं विकल संयम गृहस्थ धारण कर पाता है- (2/17/216–217) मनः करणसंरोधस्त्रसस्थावरपालनम्। संयमः सद्गृही तं च स्वयोग्यं पालयेत्सदा।। संयमो द्विविधो हि स्यात्सकलो विकलस्तथा। आद्यः तपस्विभिः पाल्यः परस्तु गृहिभिस्तथा।। उपास्वामि श्रावकाचार में संयम के दो भेदों का उल्लेख करते हुये कहा है कि संयम दो प्रकार का जानना चाहिए (1) इन्द्रिय संयम (2) प्राणी संयम। पाँचों इन्द्रियों के विषयों की निवृत्ति करना इन्द्रिय संयम है और छह काय के जीवों की रक्षा करना प्राणी संयम है संयमो द्विविधो ज्ञेय आद्यश्चेन्द्रियसंयमः। इन्द्रियार्थनिवृत्त्युत्यो द्वितीयः प्राणिसंयमः।। (3/169/201) इस प्रकार प्रत्येक संयम पर विस्तार से विवेचन है। पद्मनन्दि पञ्चविंशतिका में संयम की प्ररेणा देते हुए कहा है कि गृहस्थों को Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त 59/12 अपने एक देशव्रत के अनुसार सयम का पालन अवश्य करना चाहिए, क्योंकि सयम के द्वारा ही उनका देशव्रत फलीभूत होता है देशव्रतानुसारेण संयमोऽपि निषेव्यते। गृहस्थैर्येन तेनैव जायते फलवद् व्रतम्। ( 12(922) वामदेवविरचित संस्कृत भावसंग्रह में गृहस्था के एक संदेश मंयम का लक्षण किया है प्राणिनां रक्षणं त्रेधा तथाक्षप्रसरार्हतः। एकोद्देशमिति प्राहुः संयम गृहमेधिनाम् ।। ( 3 177. 160) अर्थात्-' प्राणियो की मन वचन काय से रक्षा करना और इन्द्रियों के विपयों में वढते हुये प्रसार का रोकना इसे गृहस्थों का एकदेशसंयम कहते हैं।' 5. तप जिस प्रकार साधुओं के लिए तप आवश्यक है उसी प्रकार गृहस्थों के लिए भी वह एकदेश करणीय है। जैनाचार्यो ने तप के विषय में लगभग एक राय रखी है। पुरुषार्थसिद्ध्युपाय में आचार्य अमृतचन्द्र ने बारह तपों को यथाशक्ति करने का उपदेश दिया है-वे कहते हैं कि चारित्र में अन्तर्भाव होने से तप भी मोक्ष का कारण आगम में कहा गया है, इसलिए अपने बल-वीर्य को न छिपाकर सावधानचित्त श्रावकों को उस तप का भी सेवन करना चाहिए। चारित्रान्तर्भावात्तपोऽपि मोक्षाङ्गमागमे गदितम् । . अनिगूहितनिजवीर्यैस्तदपि निषेव्यं समाहितस्वान्तैः।। (1/119/197) ____ इसी के साथ आचार्य अमृतचन्द्र ने अन्तरंग और बाह्य तप ये दो भेद करते हुये, इनके निम्न छह-छह भेद गिनाये हैं- (1/119/198-199) Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त 59/1-2 1. अन्तरंग तप - विनय, वैयावृत्त्य, प्रायश्चित, उत्सर्ग, स्वाध्याय और ध्यान। 2. बहिरंग तप- अनशन, अवमौदर्य, वृत्तिपरिसंख्यान, रसपरित्याग विविक्तशय्यासन और कायक्लेश। यशस्तिलकचम्पू में तप का लक्षण करते हय कहा गया है कि अपनी शक्ति को न छिपा कर जो शारीरिक कष्ट उठाया जाता है उसे तप कहते हैं। किन्तु वह तप जैनागम के अविरुद्ध यानी अनुकूल होने से ही लाभदायक हो सकता है। तप की एक और परिभाषा करते हुए वे कहते हैं-'अन्तरग और बाह्य मल के संताप से आत्मा को शुद्ध करने के लिए जो शारीरिक और मानसिक कर्म किये जाते हैं उसे तपस्वीजन तप कहते हैं अनिगूहितवीर्यस्य कायक्लेशस्तपः स्मृतम्। तच्च मार्गाविरोधेन गुणाय गदितं जिनैः।। अन्तर्बहिर्मलप्लोषादात्मनः शुद्धिकारणम् । शारीरं मानसं कर्म तपः प्राहुस्तपोधनाः ।। (1/230/390-891) चारित्रसार में भी अनशनादि बारह प्रकार के तप स्वीकृत किये गये हैं'तपोऽनशनादिद्वादशविधानुष्ठानम्' (1/259)। सागारधर्मामृत में 'तपश्चर्य च शक्तितः' (2/14/48) कहकर शक्ति अनुसार तप करने की प्रेरणा दी गयी धर्मसंग्रह श्रावकाचार में अन्तरंग और वहिरंग तप ये दो भेद वतलाते हुये उनका लक्षण भी किया गया है 1. बाह्य तप- जिस तप में शरीरादि को क्लेश होता है उसे बाह्य तप कहते हैं। ____2. अन्तरंग तप- जिस तप के करने में इच्छा का निरोध होता है उसे आभ्यन्तर तप कहते हैं Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त 59/1-2 यत्र संक्लिश्यते कायस्तत्तपो बहिरुच्यते। इच्छानिरोधनं यत्र तदाभ्यन्तरमीरितम् ।। (2/226/165) प्रश्नोत्तर श्रावकाचार में तप की बहुत महिमा गायी गयी है। (2/360/43 से 64 श्लोक तक) मोक्ष हेतु तप को अनिवार्य मानते हुये कहा गया है कि 'जो बुद्धिमान पहले मोक्ष जा चुके हैं, अब जा रहे हैं, अथवा आगे जायेंगे वे केवल तपश्चरण से ही गये हैं, तपश्चरण से ही जा रहे हैं और तपश्चरण से ही जायेंगे। तपश्चरण के सिवाय अन्य किसी भी कारण से मोक्ष प्राप्त नहीं हो सकता (2/361/53)। इसी प्रकार तपश्चरण नहीं करने वालो को दुष्फल भी गिनाये हैं। लाटीसंहिता (3/49-50/64, 65), उपस्वामि श्रावकाचार (3/170/220-222), व्रतोद्योतन श्रावकाचार (3/236-37/282–292), कुन्दकुन्द श्रावकाचार (4/120/25, 26) में भी उपरोक्त बारह तपों का ही वर्णन है। कुन्दकुन्द श्रावकाचार में मिथ्या तप का भी फल बताया है। वे कहते हैं कि जो अल्पबुद्धि पुरुष लोकपूजा, अर्थ, लाभ और अपनी प्रसिद्धि के लिए तप तपता है, वह अपने शरीर का शोषण ही करता है, उसे उसके तप का कुछ भी फल नहीं मिलता है 'पूजालाभप्रसिद्धयर्थ तपस्तप्येत योऽल्पधीः। शोष एव शरीरस्य न तस्य तपसः फलम् ।।' (4/120/28) पदमकृत श्रावकाचार में भी अन्तरंग और बहिरंग के भेद से बारह तपों का उल्लेख है-'बाह्य तप षट् भेद तो, अभ्यन्तर षट् भेद भण्यां ए।' (5/97/1) यहाँ इन्होंने अनशन तप के अन्तर्गत नन्दीश्वरपूजन, रोहिणी, मुकुट सप्तमी आदि के उपवासों का वर्णन किया है। दौलतरामकृत क्रियाकोष में भी बारह तपों का बहुत विस्तार से वर्णन है। (5/341-350/ 1335 1497) . Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त 59/1-2 इस प्रकार हम पाते हैं कि जैन परम्परा में श्रावकों के लिए भी तप कितना महत्त्वपूर्ण आवश्यक है। 'तप' का नाम सुनते ही आम जन इसको साधु के लिए ही करणीय मानते हैं किन्तु जैन शास्त्रों में श्रावकों के लिए तप का जितना सुन्दर व्यवस्थित चित्रण प्राप्त होता है उतना अन्यत्र प्राप्त नहीं होता है। 6. दान भारतीय संस्कृति में 'दान' बहुत प्रसिद्ध है किन्तु यह दान क्यों , किसको व कैसे देना चाहिए यह विचारणीय है। जैनाचार्यों ने दान के भेद किये, दाता तथा पात्र-कुपात्र का लक्षण भी बताया क्योंकि सही दान जितना पुण्य कारक होता है, गलत दान उतना ही पाप कारक भी हो जाता है। महापुराण में आचार्य जिनसेन ने दान के चार भेद करते हुये उसे श्रावकों के लिए आवश्यक माना है। दान के चार भेद हैं (1/31/35) 1. दयादत्ति 2. पात्रदत्ति 3. समदत्ति 4. अन्वयदत्ति 1. दयादत्ति- अनुग्रह करने के योग्य दया के पात्र दीन प्राणिसमुदाय पर मन-वचन-कार्य की निर्मलता के साथ अनुकम्पा पूर्वक उनके भय दूर करने को विद्वान् लोगों ने दयादत्ति कहा है- (1/32/36) सानुकम्पमनुग्राह्ये प्राणिवृन्दऽभयप्रदा। त्रिशुद्धनुगता सेयं दयादत्तिर्मता बुधैः ।। 2. पात्रदत्ति- महान तपस्वी साधुजनों के प्रतिग्रह (पडिगाहन) आदि नवधा भक्तिपूर्वक आहार, औषध आदि का देना पात्रदत्ति कहा जाता है। (1/32/37) महातपोधनायार्चा-प्रतिग्रहपुरः सरम्। प्रदानमशनादीनां पात्रदानं तदिष्यते।। 3. सम-समानदत्ति- क्रिया, मन्त्र और व्रत आदि से जो अपने Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त 59/1-2 समान हैं, ऐसे अन्य साधर्मी बन्धु के लिए और संसार तारक उत्तमगृहस्थ के लिए, सुवर्ण आदि देना समदत्ति है तथा मध्यमपात्र को समान सम्मान की भावना से जो श्रद्धापूर्वक दान दिया जाता है, वह भी समानदत्ति हैं (1/32/38-39) ___4. अन्वयदत्ति (सकलदत्ति)- अपने वंश को स्थिर रखने के लिए पुत्र को कुलधर्म और धन के साथ जो कुटुम्ब रक्षा का भार पूर्ण रूप से समर्पण किया जाता है उसे सकलदत्ति कहते हैं- (1/32/40) आत्मान्वयप्रतिष्ठार्थ सूनवे यदशेषतः। समं समयवित्ताभ्यां स्ववर्गस्यातिसर्जनम् ।। सैषा सकलदत्तिः.. आचार्य अमितगति कहते हैं कि जिसे फल की इच्छा है उसे दान देते समय सदा ही पात्र, कुपात्र और अपात्र को जानकर ही दान देना चाहिए। उत्तम, मध्यम और जघन्य के भेद से पात्र तीन प्रकार के होते हैं 'पात्रकुपात्राण्यवबुध्य फलार्थिना सदादेयम् ।' (1/253/1) 'पात्रं तत्वपटिष्ठेरुत्तममध्यमजघन्यभेदेन।' (1/353/2) उनमें तपस्वी साधु उत्तमपात्र हैं, विरताविरत श्रावक मध्यम पात्र हैं और सम्यग्दर्शन से भूषित व्रत रहित जीव जघन्य पात्र हैं तत्रोत्तमं तपस्वी विरताविरतश्च मध्यमं ज्ञेयम् । सम्यग्दर्शनभूषः प्राणी पात्रं जघन्यं स्यात् ।। (1/353/4) इसके बाद आचार्य अमितगति ने उत्तम पात्रों के स्वरूप का भी वर्णन किया है- (1/353-356/5-35)। अपात्र का स्वरूप बताते हुये कहते हैं कि जो निर्दय अनेक अवैध मार्ग से धन हरण करता हो, कामबाण से पीड़ित होकर स्त्री सेवन करता हो, अनेक दोषों का विधायक परिग्रह रखता हो, जो मद्य को पीता हो, अनियन्त्रित चित्त हो, जो मांस और उदुम्बर फल खाता हो, पाप कर्म विशारद हो, कुटुम्ब और Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त 59/1-2 परिग्रह के दृढ़ पिंजरे में बन्द हो, जो प्रशमभाव, शीलव्रत और गुणव्रत से रहित हो, जो कषायरूप भुजंगों से सेवित हो और इन्द्रियों के विषयों का लोलुपी हो, ऐसे पुरुष को अपात्र कहते हैं (1/357/36-38)। इसके वाद एकादश परिच्छेद में अभय दान, आहार दान, औषधि दान, शास्त्र दान, वसतिका दान, और वस्त्र दान इन छह प्रकार के दानों, उनकी विधियों तथा फलों का विस्तार से वर्णन है (1/362-67/1/1-70)। सागार धर्मामृत में पं. आशाधर जी कहते हैं कि 'गृहस्थ' के द्वारा पात्र, आगम, विधि, द्रव्य, देश ओर काल का उल्लङ्घन नहीं करके अपनी शक्ति के अनुसार दान दिया जाना चाहिये और तप भी किया जाना चाहिए पात्रागमविधिद्रव्यदेशकालानतिक्रमात् । दानं देयं गृहस्थेन तपश्चर्यं च शक्तितः।। (2/14/48) चारो प्रकार के दान के अलावा पण्डित जी ने कन्यादान को भी महत्त्वपूर्ण माना है और कहा है कि गृहस्थ के द्वारा गर्भाधान आदिक क्रियाओ की तथा अनेक मंत्रों की, व्रतनियमादिकों की रक्षा की आकांक्षा से सहधर्मियों के लिए यथायोग्य कन्यादि को दिया जाना चाहिए निस्तारकोत्तमायाथ मध्यमाय सधर्मणे। कन्याभूहेमहस्त्यश्वरथरलादि निर्वपेत् ।। (2/15/56) दाता का लक्षण बताते हुये कहते हैं भक्तिश्रद्धासत्त्वतुष्टिज्ञानलौल्यक्षमागुणः। नवकोटीविशुद्धस्य दाता दानस्य यः पतिः।। (2/59/47) अर्थात् 'नव कोटि विशुद्ध दान का जो पति है वह दाता है। भक्ति, श्रद्धा, सत्त्व, तुष्टि, ज्ञान, अलौल्य और क्षमा ये सात दाता के गुण हैं।' सागार धर्मामृत में अनेक प्रकारों से दान, दाता, देय इन सभी की विस्तार से व्याख्या की है। धर्मसंग्रह श्रावकाचार में भी सागारधर्मामृत के समान कन्यादान को Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त 59/1-2 महत्त्वपूर्ण माना है और कहा है कि जिस दाता ने अपनी कुलवती कन्या का दान दिया है समझो कि उसने कन्यादान लेने वाले को धर्म, अर्थ काम के साथ-साथ गृहस्थाश्रम ही दिया है क्योंकि गृहिणी (पत्नी) को ही तो घर कहते हैं दात्रा येन सती कन्या दत्ता तेन गृहाश्रमः। दत्तस्तस्मै त्रिवर्गेण गृहिण्येव गृहं यतः।। (2/170/207) इसके अलावा चारों प्रकार के दानो का विस्तृत वर्णन है। इसी प्रकार प्रश्नोत्तर श्रावकाचार में दान, दाता के सात गुण तथा पात्र दान एवं कुपात्र दान के फल का वर्णन विस्तार से किया गया है। अन्य महत्त्वपूर्ण विमर्श के अलावा प्रश्नोत्तरश्रावकाचार में धन के दान देने का कड़ा निषेध किया है। आज सर्वत्र पैसे के दान को ही दान समझा जाता है। जबकि चारों दानों में पैसे को गिनाया ही नहीं है। शायद इसलिए कहा है कि 'मनुष्यों को पुण्य उपार्जन करने के लिए धन का दान तो कभी देना ही नहीं चाहिए, क्योंकि धन का दान देना महामोह को उत्पन्न करने वाला है और ज्ञान-चारित्र आदि गुणों का घात करने वाला है। जो मनुष्य हिंसा मोह आदि को बढ़ाने वाले धन का दान करता है वह भारी पापों को इकट्ठा करता है द्रव्यदानं न दातव्यं सुपुण्याय नरैः क्वचित् । महामोहकरं ज्ञानवृत्तादिगुणघातकम् ।। द्रव्यदानं प्रदत्ते यो हिंसामोहादिवर्द्धनम् । पापारम्भस्य मूलं सः श्रयेदुरितमुल्वणम् ।। (2/375/154-155) गुणभूषणश्रावकाचार (2/451/39-49), धर्मोपदेशपीयूषवर्ष श्रावकाचार (2/487-492/147-200), उमास्वामि श्रावकाचार (3/171/ 224-241) में दाता का स्वरूप, देयवस्तु का वर्णन, चारों दानों का फल, पात्र-अपात्र के चिन्तवन इत्यादि पर विस्तार से प्रकाश डाला गया है। Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त 59/1-2 श्रावकाचार सारोद्धार में दान देने वाले दाता के उत्तम-मध्यम और जघन्य ये तीन भेद बतलाते हुये कहा है कि जो गृहस्थ अपनी आय के चार भाग करके दो भाग तो कुटुम्ब के भरण-पोषण में, तीसरा भाग भविष्य के लिए संचय, तथा चौथा भाग धर्म के लिए त्यागता है, वह उत्तम (श्रेष्ठ) दाता है। जो अपनी आय का छह भाग करके दो भाग तो कुटुम्ब के लिए, तीन भाग कोश के लिए, छठा भाग दान देता है वह मध्यम दाता है। जो अपनी आय का दश भाग करके छह भाग परिवार में, तीन भाग सचय में, दशवां भाग धर्म कार्य में लगाता है वह जघन्य दाता है।(3/363/326-327) पद्मन्दिपञ्चविंशतिका (3/430)में, देशव्रतोद्योतन (3/435-37) में, प्राकृत भावसंग्रह (3/453-459) में, संस्कृत भावसंग्रह (3/475-76) में रयणसार (3/479-80) में दान विषयक लगभग वही वर्णन हैं जो हम पहले कह आये हैं। कुन्दकुन्दश्रावकाचार में दान के विषय में एक महत्त्वपूर्ण बात न्यायपूर्वक उपार्जन की मिली। वे कहते हैं-'बुद्धिमान मनुष्य को न्याय-परायण होकर धन के उपार्जन में प्रयत्न करना चाहिए। न्यायपूर्वक उपार्जन किया हुआ धन ही अपाय (विनाश) रहित होता है, क्योंकि वह नवीन अर्थोपार्जन का सुन्दर उपाय है। न्याय से संचित किया धन यदि अल्प परिमाण में भी दान किया जाय, तो भी वह कल्याण के लिए होता है, किन्तु अन्याय से प्राप्त धन यदि विपुल परिमाण से भी दान किया जाय तो भी फल से रहित होता है'-(4/25-26/41-42) सुधीरर्थार्जने यलं कुर्यान्न्यायपरायणः। न्याय एवानपायो यः सूपायः सम्पदां यतः।। दत्तः स्वल्पोऽपि भद्राय स्यादर्थो न्यायसञ्चितः। अन्यायाप्तः पुनर्दत्तः पुष्कलोऽपि फलोज्झितः।। Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त 59/1-2 पद्मकृतश्रावकाचार (5/66-70) में लगभग अस्सी पद्यों में दान का वर्णन है। किशनसिंह क्रियाकोष (5/143-150) में 39 पद्यों में दान का विस्तार से वर्णन है। दौलतराम क्रियाकोष में दान इतना अनिवार्य कहा है कि यदि कोई यह कहे कि मैं निर्धन हूँ दान नहीं कर सकता तो भी उसे थोड़ा बहुत दान प्रतिदिन करना चाहिए- (5/380/58,60,61) कोउ कुबुद्धी कूर, चितवै चित में इह भया। लहिहौं धनअतिपूर, तब करिहूँ दानहि विधी।। यो न विचारै मूढ, शक्ति प्रमाणों त्याग है। होय धर्म आरुढ़, करे दान जिनवैन सुनि।। कुछ हु नाहिं जुरै जु, तौहू रोटी एक ही। ज्ञानी दान करै जु, दान बिना घृग जनम है।। इस प्रकार जैनाचार्यों ने श्रावकों के लिए आवश्यक में 'दान' को इसलिए रखा क्योंकि धर्म, तीर्थ रक्षा श्रावकों पर ही आश्रित है तथा इससे महान् पुण्य का बंध होता है। निष्कर्ष श्रावकाचार संग्रह में श्रावकों के षडावश्यकों पर यत्किञ्चित् अध्ययन के उपरान्त कुछ निष्कर्ष सामने आये हैं। ये निष्कर्ष स्थूल हैं अधिक गहरायी से अध्ययन किया जाय तो और अधिक बिन्दु भी प्राप्त हो सकते हैं किन्तु सरसरी निगाह से श्रावकाचार संग्रह के पांचों भागों का अध्ययन करने पर हम निम्न निष्कर्षों पर पहुंच रहे हैं__1. श्रावकों के षडावश्यकों की विधिवत् चर्चा आचार्य जिनसेन करते हैं। जहाँ सम्भवतः उन्हें सर्व-प्रथम लगा कि जिस प्रकार मुनियों के षडावश्यक होते हैं उसी प्रकार श्रावकों के भी होने चाहिए। उन्होंने पूजा करना, कृषि आदि आजीविका हेतु करना, दान, स्वाध्याय, संयम और तप-ये छह आवश्यक बताए। Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त 59 / 1-2 2. बाद में आचार्य अमृतचन्द्र (वि. 10वीं) ने ये षड्ावश्यक न मानकर मुनियों के षडावश्यकों को ही श्रावकों के लिए शक्ति अनुसार करणीय माना। उन्हें ये नये षडावश्यक स्वीकृत नहीं । 59 3. विक्रम की 10 शती में चामुण्डराय ने जिनसेन का अनुकरण किया और षडावश्यकों के धारक गृहस्थ को जातिक्षत्रिय और तीर्थक्षत्रिय ये दो भेद करके बताया । 4. वि. की 11 वीं शती में सोमदवेसूरि ने षडावश्यक का स्वरूप जिनसेन की तर्ज पर ही निर्धारित किया, किन्तु 'वार्ता' नामक आवश्यक को उन्होंने नहीं लिया, बल्कि उसके स्थान पर 'गुरु उपासना' को महत्त्वपूर्ण शायद इसलिए नहीं माना क्योंकि अजीविका हेतु कार्य जीव करता ही है, उसे यदि इसका उपदेश न दिया जाय तब भी करेगा । सोमदेव सूरि ने जो आवश्यक निर्धारित कर दिये उसका अनुकरण आज तक प्रसिद्ध है। 5. आचार्य अमितगति (वि. 11 शती) ने बिना ज्ञान के षडावश्यकों को व्यर्थ माना और पहली बार पड़ावश्यक पालने वाले श्रावक का लक्षण निर्धारित किया । किन्तु ये अमृतचन्द्राचार्य की परम्परा से ही सहमत दिखे तथा जिनसेन और सोमदेव के गृहस्थों के षडावश्यक सम्बन्धी भेदों को नहीं माना। 'मुनियों के षडावश्यक ही गृहस्थों के लिए यथाशक्ति करणीय हैं' - आचार्य अमितगति ने इसे ही माना । 6. पण्डित आशाधर (वि. 11 शती) ने जिनसेन, सोमदेव की परम्परा को पुनः स्थापित किया, किन्तु पांच ही कर्त्तव्य माने और वार्त्ता तथा गुरुउपासना इन दोनों को ही नहीं लिया । 7. आचार्य सकलकीर्ति (वि. 15 शती) और पदमकृतश्रावकाचार ने पुनः मुनियों वाले षडावश्यक ही स्वीकृत किये । 8. अभ्रदेव (वि. 16 शती) ने पूजापाठ और दान इन दो को ही ज्यादा समझा है । Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त 59/1-2 ____9. कुन्दकुन्दश्रावकाचार में व्रत, दस धर्म, षडावश्यक इनमें से छांटकर दस आवश्यक स्वीकार कर लिये गये हैं। विचार बिन्दु इस प्रकार हम पाते हैं कि वर्तमान में हम जिन्हें श्रावकों का षडावश्यक स्वीकार कर रहे हैं उसके निर्मित होने में विचारों का एक इतिहास है। उसमें प्रत्येक युग अपने चिन्तन का सार्थक हस्तक्षेप करता रहा है। वर्तमान आधुनिक युग के उत्तरार्द्ध में एवं उत्तर आधुनिक युग की भूमिका में ये परम्परा प्राप्त षडावश्यक हमारे जीवन से कपूर की तरह उड़ते जा रहे हैं। यदि शेष हैं तो सिर्फ उनकी बातें और बनावटी या रुढ़िग्रस्त आचरण। यह इसलिए भी है कि अभी तक वैधानिक रूप से हमने इसमें युगानुकूल सार्थक आवश्यक परिष्कार नहीं किया है। इन्हीं आवश्यकों में यदि हम विधिवत् कुछ जोड़ने और घटाने का सामर्थ्य नहीं रखते हैं तो नगरीकरण, महानगरीकरण और भूमण्डलीकरण के इस उत्तर आधुनिक युग की ओर बढ़ते युग में श्रावक स्वयं ही परिस्थिति जन्य नया श्रावकाचार बना ले रहा है। उदाहरण स्वरूप हम विचार करें कि 'तप' नामक आवश्यक में 'बाह्यतप' क्या नया श्रावक प्रतिदिन पाल सकता है? हमें श्रावक के दैनिक कर्तव्यों में उन न्यूनतम मापदण्डों पर विचार करना चाहिए जो नामधारी जन्मना जैन, सामान्य श्रावक भी पाल सकें। मेरी दृष्टि में पुराने तथा नये सभी षडावश्यकों को ध्यान में रखते हुये निम्न षडावश्यक आज के युग में आवश्यक हैं (1) सामायिक (2) पूजा (3) स्वाध्याय (4) संयम (5) दान (6) शाकाहार यहाँ सामायिक के अन्तर्गत श्रावकों के लिए स्तवन, वन्दना, प्रतिक्रमण, प्रत्याख्यान और कायोत्सर्ग को गर्भित कर सकते हैं। पूजा Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त 59/1-2 में देव-गुरु-शास्त्र इन तीनों की उपासना समाहित की जा सकती है। स्वाध्याय, संयम और दान का अपना स्वतन्त्र महत्त्व है ही। शाकाहार को आवश्यक में स्वतन्त्र रूप से रखना इसलिए जरूरी समझा है कि वर्तमानयुग और भविष्य के सभी युगों में श्रावकों को सबसे बड़ी मुसीबत बनने वाला है-प्रत्यक्ष और परोक्ष मांसाहार। अतः श्रावक शाकाहारी बना रहे यह बहुत आवश्यक है। अध्यक्ष जैन दर्शन विभाग श्री लाल बहादुर शास्त्री रा. सं. विद्यापीठ नई दिल्ली-16 Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री सोमदेवसूरि द्वारा प्रतिपादित अहिंसा -डॉ. जय कुमार जैन विश्व के सभी धर्मों में अहिंसा की महत्ता को स्वीकार तथा हिंसा का विरोध है। किन्तु जैन धर्म में अहिंसा का क्षेत्र अत्यन्त विस्तृत है। अहिंसा बाह्य और अन्तरंग दोनों से सम्बन्ध रखती है। बाह्य में मन वचन, काय से किसी भी जीव को किसी भी प्रकार की पीड़ा न पहुँचाना अहिसा है तो अंतरंग में राग-द्वेष रूप परिणामों से निवृत्त होकर समता में स्थित होना अहिंसा है। आचार्य उमास्वामी ने 'प्रमत्तयोगात प्राणव्यपरोपणं हिंसा' कहकर यह स्पष्ट कर दिया है कि जो स्वपर के प्राणों का विनाश प्रमत्तयोग अर्थात् राग-द्वेष रूप प्रवृत्ति के कारण होता है, वह हिंसा है। आगम में वर्णित द्रव्य और भाव प्राणों में से प्रमत्त योग होने पर द्रव्य प्राणों का विनाश हो या न हो, भाव प्राणों का विनाश तो होता ही है। यह अलग बात है कि प्रमत्तयोग न होने पर भी साधु के ईर्यासमिति पूर्वक गमन आदि में भी द्रव्य प्राणों का विनाश होने पर भी तो हिंसा नियम से होगी ही। इसी कारण श्री अमृतचन्द्राचार्य ने रागद्वेष की अनुत्पत्ति को अहिंसा और उनकी ही उत्पत्ति को हिंसा कहा है 'अप्रादुर्भावः खलु रागादीनां भवत्यहिंसेति। तेषामेवोत्पत्तिः हिंसेति जिनागमस्य संक्षेपः ।।2 'अहिंसालक्षणो धर्मः कथन में सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य एवं अपरिग्रह का भी समावेश अहिंसा में किया गया है। यत्नाचार पूर्वक प्रवृत्ति रखने पर भी सर्वत्र जीवों का सद्भाव होने से हिंसा तो होती ही है किन्तु प्रमाद न होने से साधक अहिंसक ही कहलाता है। श्रीसोमदेवसूरिकृत यशस्तिलकचम्पू का उद्देश्य ही अहिंसा की प्रतिष्ठापना रहा है। इसके आठ आश्वासों में से अन्तिम तीन आश्वासों में श्रावक धर्म का विवेचन है। इसका नामकरण ग्रन्थकार ने Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त 59 / 1-2 'उपासकाध्ययन' किया है। उपासकाध्ययन का मध्यम आश्वास प्रमुखतया अहिंसा के विवेचनपरक है । यशस्तिलकचम्पू के कथानक से फलित निकलता है कि जब राजा यशोधर एवं उनकी माता चन्द्रमती को आटे के मुर्गा की बलि देने के कारण छह जन्मों तक पशुयोनि में भ्रमण करना पड़ा तो साक्षात् हिंसा करने वालो की क्या स्थिति होगी ? यह चिन्तनीय है 1 63 1 उपासकाध्ययन में प्रतिपादित अहिंसा की उपयोगिता - मानव की पदलोलुपता एवं परिग्रहलिप्सा के कारण आज हिंसा का सर्वत्र बोलवाला है । शान्ति के लिए आविष्कृत वैज्ञानिक संसाधनों का प्रयोग आज क्रूरतम हिंसा के साधन के रूप में होने लगा है । शान्ति के नाम पर नरसंहार के जैसी जघन्यतम प्रवृत्तियाँ पनप रही हैं । वैचारिक प्रदूषण के कारण मानव स्वयं अपपने अस्तित्व के लिए खतरा बन गया है। लोग स्वार्थसिद्धि के लिए हिंसा के पक्ष में अनेक थोथे तर्क प्रस्तुत करने लगे हैं। श्रीसोमदेवसूरि ने उपासकाध्ययन में ऐसे कुतर्कों का युक्तियुक्त समाधान प्रस्तुत किया है। उनके प्रतिपादन में अहिंसा का एक सकारात्मक एवं व्यवहार्य जीवनदर्शन है, अतः उसकी उपयोगिता आज के परिप्रेक्ष्य में अधिक प्रासंगिक है । उद्योगी, विरोधी, आरंभी और संकल्पी चतुर्विध हिंसा में से यदि मात्र संकल्पी हिंसा का भी हम त्याग कर दें तो जगत् में हा-हाकार की स्थिति समाप्त हो सकती है । श्री समन्तभद्राचार्य ने मन, वचन, काय के संकल्प से और कृत, कारित, अनुमोदना से त्रस जीवों के घात न करने वाले को स्थूल हिसा से विरत अर्थात् अहिंसाणुव्रती कहा है 1 'संकल्पात् कृतकारितमननाद्योगत्रयस्य चरसत्त्वान् । न हिनस्ति यत्तादाहुः स्थूलवधाविरमणं निपुणः । ।'4 हिंसा और अहिंसा का स्वरूप- श्री सोमदेवसूरि ने अहिंसा धर्म का विवचेन करते हुए तत्त्वार्थसूत्रकार का अनुसरण किया है। वे लिखते हैं'यस्मात्प्रमादयोगेने प्राणिषु प्राणहापनम् । सा हिंसा रक्षणं तेषामहिंसा तु सतां मता ।। Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त 59/1-2 विकथाक्षकषायाणां निद्रायाः प्रणयस्य च। अभ्यासाभिरतो जन्तुः प्रमत्तः परिकीर्तितः।।" अर्थात् प्रमाद के योग से प्राणियों के प्राणों का घात करना हिंसा और उनकी रक्षा करना अहिंसा है। जो जीव चार विकथा, पाँच इन्द्रियों, चार कषाय, निद्रा और मोह के वशीभूत है, वह प्रमत्त कहलाता है। मांसनिषेध, जीवन निर्वाह के लिए मांस अनिवार्य नहींउपासकाध्ययन में कहा गया है कि मांस स्वभाव से ही अपवित्र है, दुर्गन्ध से भरा है, दूसरों से प्राण लेने पर ही तैयार होता है, दुःस्थान से प्राप्त होता है तथा विपाक में दुर्गति को देने वाला है। ऐसे मांस को सज्जन कैसे खा सकते हैं? जिस पशु को मांस के लिए हम मारते हैं? वह जन्मात्तर में हमें न मारे या मांस के बिना जीवन ही न चलता हो तो प्राणी अकरणीय पशुहत्या भले ही कर ले, किन्तु ऐसी बात नहीं है।' अर्थात जिस पशु की हम हत्या करते हैं, जन्मान्तर में वह हमारी वह हत्या करता है तथा मांस के बिना भी मनुष्यों का जीवन चलता ही है। हिंसक भी सुखी देखा जा सकता है, किन्तु परिणाम दुःखद हीकुछ लोगों का कहना हो सकता है कि हम कुछ ऐसे लोगों को सुख भोगते हुए देखते हैं, जो दूसरों का घात करते हैं। इसका समाधान करते हुए श्री सोमदेव सूरि का कहना है कि जो प्राणी दूसरों के घात के द्वारा सुख भोगने में तत्पर रहता है, वह वर्तमान में सुख भोगता दिखाई देने पर भी अन्य जन्म में दुःख भोगता है, किन्तु जो तात्कालिक सुखों में अनासक्त होकर धर्म करता है, वह परलोक में दुःख नहीं उठाता है। इस समय का सुख पूर्व धर्म का फल है। जो धर्म का फल भोगता हुआ भी धर्माचरण करने में आलस्य करता है, वह मूर्ख है, जड है, अज्ञानी है और पशु से भी गया-गुजरा है। जो अपना हित चाहते हैं और अहित से बचते हैं, वे दूसरों के मांस से अपने मांस की वृद्धि कैसे कर सकते हैं? जैसे दूसरों को दिया हुआ धन कालान्तर में ब्याज सहित अधिक मिलता है, वैसे ही मनुष्य दूसरों को जो सुख-दुःख देता है, वह कालान्तर में अधिक होकर मिलता है।' Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त 59/1-2 हिंसा क्यों अकरणीय है?-बौद्ध धर्म के सुप्रसिद्ध धर्म ग्रन्थ धम्मपद में कहा गया है 'सबे तसंति दण्डस्स सब्बे भायंति मच्चुनो। अत्तानं उपमं कत्वा न हनेय्य न घातये।। सब्बे तसंति दण्डस्स सब्बेसं जीवितं पियं । अत्तानं उपमं कत्वा न हनेय्य न घातये ।।8 दण्ड से सभी डरते हैं, मृत्यु से सभी भय खाते हैं। अतः अपने समान जानकर न किसी को मारे और न मारने की प्रेरणा करे। सभी दण्ड से डरते हैं, अपना जीवन सबको प्रिय है। अतः इसरों को अपने समान जानकर न किसी को मारे और न मारने की प्रेरणा करे। __ श्री सामदेवसूरि हिंसा की त्याज्यता तथा 'आत्मवत् परभूतानि' दर्शन का उपदेश देते हुए लिखते हैं 'अल्पात्क्लेशात्सुखं सुष्ठु, सुधीश्चेत्स्वस्य वाञ्छति। आत्मनः प्रतिकूलानि, परेषां न समाचरेत् ।। स्वकीयं जीवितं यद्वत् सर्वस्य प्राणिनः प्रियम्। तद्वदेतत्परस्यापि ततो हिंसां परित्यजेत् ।।'' अर्थात् जो बुद्धिमान् पुरुप थोड़े से कष्ट से अच्छा सुख प्राप्त करना चाहता है तो जो काम उसे स्वयं बुरे लगें, उन कामों को दूसरों के प्रति भी उसे नहीं करना चाहिए। जिस प्रकार सभी प्राणियों को अपना जीवन प्रिय है, उसी तरह दूसरों को भी अपना जीवन प्रिय है, इसलिए हिंसा को छोड़ देना चाहिए। मांसभक्षण के पक्ष में कुतर्क और उनके सयुक्तिक समाधान 1. कुछ लोगों का कहना है कि मूग-उदड़ आदि में और ऊंट-मेढ़ा आदि मे कोई अन्तर नही है; क्योकि जैसे ऊंट-मेढा आदि मे जीव रहता है, वैसे ही मूंग-उड़द आदि में भी जीव रहता है। अत: जीव का शरीर होने से मूंग- उडद वगैरह भी मांस ही हैं। Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त 59/1-2 इसका समाधान करते हुए श्री सोमदेवसूरि का कहना है कि ऐसा कहना ठीक नहीं है। मांस जीव का शरीर है यह ठीक है, किन्तु जो जीव का शरीर है वह मांस होता भी है और नहीं भी होता है। जैसे नीम वृक्ष होता है पर वृक्ष नीम होता भी है और नहीं भी होता है। ब्राह्मण और पक्षी दोनों में जीव है, फिर ही पक्षी को मारने की अपेक्षा ब्राह्मण को मारने में अधिक पाप है। वैसे ही फल भी जीव का शरीर है और मांस भी जीव का शरीर है, किन्तु फल खाने की अपेक्षा मांस खाने वाले को अधिक पाप होता है। जिसका यह कहना है कि फल और मांस दोनों ही जीव का शरीर होने से बराबर हैं, उसके लिए पत्नी और माता दोनो ही स्त्री होने से समान हैं और शराब तथा पानी दोनों पेय होने से समान हैं। अतः वह जिस प्रकार पानी और पत्नी का उपभोग करता है, वैसे ही शराव एवं माता का उपभोग क्यों नहीं करता है? इससे स्पष्ट है कि मूंग-उड़द एवं ऊँट-मेढ़ा को समान नहीं माना जा सकता है तथा मूंग-उड़द के समान ऊँट-मेढ़ा आदि भक्ष्य नहीं है। __2. कुछ लोगों का यह कुतर्क हो सकता है कि गोदुग्ध एवं धृत पशुजन्य हैं तथा गोमांस भी पशुजन्य हैं। अतः दुग्ध, धृत एवं मांस समान है। इस तर्क का उत्तर देते हुए उपासकाध्ययनकार का कहना है कि एक स्रोत होने पर भी घी, दूध एवं मांस को एक समान नहीं माना जा सकता। गाय का का दूध शुद्ध है पर गोमांस शुद्ध नहीं है। वस्तु का वैचित्र्य ही ऐसा है। साँप की मणि से विष दूर होता है, जबकि साँप का विष मृत्यु का कारण है। मांस और घी-दूध का एक स्रोत होने पर भी मांस त्याज्य और दुग्ध पेय है। कारस्कर नामक विषवृक्ष का पत्ता आयुवर्धक होता है और उसकी जड़ मृत्यु का कारण होती है। इसी प्रकार मांस भी शरीर का हिस्सा है और घृत भी शरीर का हिस्सा है, फिर भी मांस में दोष है घी में नहीं। जैसे ब्राह्मण के जीभ से शराब का स्पर्श होने पर दोष होता है, पैर से स्पर्श होने पर नहीं।। अतः स्पष्ट है कि घी-दूध को तथा मांस को समान नहीं माना जा सकता है। Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त 59/1-2 3. कतिपय लोग धर्मबुद्धि से मांस-भक्षण में दोप नहीं मानते हैं। उनका यह भी कहना है कि देवता, अतिथि, पितर, मन्त्रसिद्धि, औषधि आदि में मांस भक्षण विहित है। श्री सोमदेवसूरि का कहना है कि धर्मबुद्धि से मांसभक्षण करना दुहरे पाप का कारण है। जो परस्त्रीगामी पुरुप अपनी माता के साथ संभोग करता है, वह दो पाप करता है। एक तो परस्त्री गमन करता है और दूसरे पूज्या माता के साथ संभोग करने का पाप करता है। वैसे ही जो मनुष्य धर्मबुद्धि से लालसा पूर्वक मांसभक्षण करता है वह एक तो मांसभक्षण का पाप करता है और दूसरे धर्म का ढोंग करने का पाप करता है। अतः कभी भी देवता, अतिथि, पितरों के लिए, मन्त्रसिद्धि के लिए, औपधि के लिए अथवा भय से हिंसा नहीं करना चाहिए। मांस भक्षण यदि धर्म है तो अधर्म क्या है? मांसत्याग का फल- श्री सोमदेवसूरि का कहना है कि मांस त्याग का महान् फल होता है। एक चाण्डाल का दृष्टान्त प्रस्तुत करते हुए उन्होंने लिखा है 'चण्डोऽवन्तिषु मातङ्गः पिशितस्य निवृत्तितः। . अत्यल्पकाल भाविन्याः प्रपेदे यक्षमुख्यताम् ।।13 अर्थात् अवन्ति देश में चण्ड नामक चाण्डाल ने थोड़ी देर के लिए भी मांस का त्याग कर दिया था। जिसके फल से वह मरकर यक्षों का अधिपति बना। संकल्पभेद से हिंसा में भेद- बाह्य प्राणी-घात के साम्य के आधार पर फल का साम्य होना नहीं है। क्योंकि मनुष्य के परिणाम ही पुण्य-पाप के कारण होते हैं। मन के निमित्त से ही शरीर और वचन की क्रिया भी शुभ और अशुभ होती है। उदाहरणार्थ-अच्छे इरादे से बच्चे को पीटना भी अच्छा है और बुरे इरादे से बच्चे को मिठाई खिलाना भी बुरा है। जगत् में ऐसी कोई भी क्रिया नहीं है, जिसमें हिंसा न होती हो, किन्तु हिंसा और अहिंसा के लिए गौण और मुख्य भावों की Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त 59/1-2 विशेषता है। सकल्प के भेद से धीवर नही मारते हुए भी पापी है और किसान मारते भी पापी नहीं है। अन्यन्त्र एक उदाहरण देते हुए श्री सोमदेवसूरि का कथन है _ 'क्षुद्रमत्स्यः किलैकस्तु स्वयंभूरमणोदधौ। महामत्स्यस्य कर्णस्यः स्मृतिदोषादधोगतः ।।15 स्वयंभूरमण समुद्र में महामत्स्य के कान में रहने वाला एक शुद्र मत्स्य (तदुलमत्स्य सकल्प दोप (बुरे संकल्प) के कारण नरक गति को प्राप्त हुआ। यद्यपि उसने किसी का घात नहीं किया था, किन्तु वह हमेशा सकल्पी हिसा को ही करता रहता था। आचार्य अमृतचन्द्र का कथन इस सन्दर्भ मे ध्यातव्य है कि कोई जीव हिंसा को नहीं करके भी हिसा के फल का भागी होता है और दूसरा हिंसा करके भी हिसा के फल का भागी नही होता है। यह सव परिणामों की ही महिमा है।'' जीवदया की श्रेष्ठता आचार्य कार्तिकेय ने 'जीवाणं रक्खणं धम्मो'17 कहकर धर्म की अन्य परिभाषाओं के साथ जीवदया को भी धर्म कहा है। श्री सोमदेवसूरि जीवदया की श्रेष्ठता का कथन करते हुए लिखते है 'एका जीवदयैकत्र परत्र सकलाः क्रियाः। परं फलं तु पूर्वत्र कृषेश्चिन्तामणिरिव।। आयुष्मान्सुभगः श्रीमान्सुरूपः कीर्तिमान्नरः। अहिसाव्रतमहात्म्याकस्मादेव जायते ।। पञ्चकृत्व. किलैकस्य मत्स्यस्याहिंसनात्पुरा। अभूत्पञ्चापदोऽतीत्य धनकीर्तिः पतिः श्रियः।।18 अर्थात् अकेली जीवदया एक ओर है और बाकी की सब क्रियायें दूसरी ओर है । अन्य सव क्रियाओं का फल खेती की तरह है, जबकि जीवदया का फल चिन्तामणि की तरह है। अकेले एक अहिसा व्रत की महत्ता से ही मनुष्य आयुप्मान, सौभाग्यशाली. ऐश्वर्यवान, सुन्दर और यशस्वी होता है पूजम मे पांच बार एक मछली को न मारने से धनकीर्ति पांच बार आपनियों से बचकर लक्ष्मी का स्वामी बना। उन्होंने Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त 59/1-2 दया को ऐसा सूर्य कहा है जिसके रहने पर पाप रूपी अंधकार ठहर नहीं सकता है। अहिंसा कहाँ नहीं रहती- मानव सृष्टि का सबसे विवेकशील प्राणी है। इस कारण वह सुख की आकांक्षा के साथ-साथ प्रयास भी करता है। यह प्रयास जव बहु आरंभ एवं परिग्रह में पर्यवसित हो जाता है तो हिंसा का जन्म होता है। वहाँ से अहिंसा पलायन कर जाती है। हिंसा का प्रमुख कारण है-परिग्रह। इससे आर्थिक विषमता उत्पन्न होती है और उससे हिंसा जन्म लेती है। श्री सोमदेवसरि की तो स्पष्ट घोषणा है कि वहाँ अहिसा कैसे रह सकती है, जहाँ बहुत आरंभ और बहुत परिग्रह रहता है 'तत्राहिंसा कुतो यत्र वह्वारंभपरिग्रहः।19 अहिंसा व्रत की रक्षा के लिए करणीय-अकरणीय 1. मद्य, मांस, मधु का त्याग-मद्य महामोह को करने वाला है, सव बुराईयों का मूल है और सब पापो में अग्रणी है। इसको पीने से मनुष्य को हित-अहित का विवेक नहीं रहता है। मद्य की एक बूंद में इतने जीव रहते हैं कि यदि वे फैल जाये तो समस्त जगत् मे भर जायें। अतः मद्यपान से प्राणी हिंसक बन जाता है। मास की प्राप्ति ही हिंसा-जन्य है। मधु मधुमक्खियो के अण्डा को निचोड़ने से पैदा होता है। यह रजो-वीर्य के मिश्रण के समान है। मधु का छत्ता उद्भान्त शिशु के गर्भ की तरह है। वह अण्डे में उत्पन्न जन्तुओं के समूह रूप है। अतः मधु के भक्षण में हिंसा है।20 अतः अहिंसा के आराधक को मद्य, मांस एवं मधु का त्याग कर देना चाहिए। 2. पंच उदुम्बर फलों का त्याग-बड, पीपल, ऊमर, कटमर आर पाकर इन पाँच फलों में स्थूल जन्तु रहते हैं, जो साफ दिखाई देते है। इन स्थूल जन्तुओं के निवास के अतिरिक्त शास्त्रों में प्रतिपादन किया गया है कि इन पाँच फलों में सूक्ष्म जन्तु भी रहते हैं। अतः हिंसा के कारण होने से ये फल त्याज्य हैं।2। इसी कारण इन फलो को जन्तुफल भी कहा जाता है। Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त 59 / 1-2 3. रात्रि भोजन त्याग - अहिंसा व्रत की रक्षा के लिए और मूल व्रतों की शुद्धि के लिए श्रीसोमदेवसूरि ने रात्रि में भोजन के त्याग को आवश्यक माना है। उनका कहता है कि अहिंसक को इस लोक एवं परलोक में दुःखदायी रात्रि भोजन का त्याग कर देना चाहिए | 22 70 4. अन्य त्याज्य वस्तुएँ - अचार, पानक, धान्य, फूल, फल और पत्ते जो जीवों की योनि हैं; ऐसी वस्तुएँ जिनमें जीवों का निवास हो; कमलककड़ी; अनन्तकाय लता, सूरण आदि बिना दले मूंग, उड़द चना आदि, साबुत फलियाँ | 23 ये सब हिंसा के दोष से दूषित हैं । 5. हिंसक प्राणियों का पोषण एवं हिंसा के उपकरणों का दान नहीं देना - अहिंसा के आराधक को मोर, मुर्गा, बाज, बिलाव, साँप, नेवला आदि हिंसक जन्तुओं को नहीं पालना चाहिए। उन्हें विष, कॉटा, शस्त्र, आग, कोड़ा, जाल, रस्सा आदि हिंसा के साधनों का दान भी नहीं करना चाहिए। अन्य भी जो वध, बन्धन एवं संरोध ( पशुओं को घेरे रखने के साधन हैं, उनको भी नहीं देना चाहिए। इन्हें करने से निष्प्रयोजन पाप लगता है। ये सब अनर्थदण्ड कहे गये हैं । अहिंसा के पालन में बाधक होने के कारण इन्हें त्याज्य माना गया है । अन्य भी अनेक कार्य जो अहिंसा की साधना में बाधक हैं, उन्हें त्याज्य समझना चाहिए । अहिंसा - व्रती की भावनायें- अहिंसा व्रती को मैत्री, प्रमोद, कारुण्य और माध्यस्थ भावना को सतत जागरूक रखना चाहिए । इस सन्दर्भ में श्री सोमदेवसूरि का कहना है कि अहिंसा के आराधक को सव जीवों से मैत्रीभाव रखना चाहिए । दुःखी जीवों के प्रति करुणाभाव रखना चाहिए और जो निर्गुण, असभ्य एवं उद्दण्ड हों उनके प्रति माध्यस्थ भाव रखना चाहिए। किसी भी जीव को दुःख न हो, मन-वचन-कर्म से ऐसे व्यवहार को मैत्री कहते हैं । तप आदि गुणों से विशिष्ट पुरुष को देखकर विनयपूर्ण स्नेह के उमड़ने का नाम प्रमोद है । दयालु पुरुषों द्वारा गरीबों के उद्धार करने की भावना को कारुण्य कहते हैं । उद्दण्ड एवं असभ्य पुरुषों के प्रति राग-द्वेष के अभाव का नाम माध्यस्थ है। जो गृहस्थ इन भावनाओं को भाता है, स्वर्ग तो उसके हाथ में है ही, मोक्ष भी उससे दूर नहीं है । उसे शीघ्र ही मोक्ष की प्राप्ति भी हो जाती है 1 28 1 Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त 59 / 1-2 प्रायश्चित्त-विधान - कभी-कभी गृहस्थों के द्वारा न चाहते हुए भी प्रमादवश जीवों की विराधना हो जाती है । तज्जन्य हिंसा के दोष के निवारणार्थ जैन शास्त्रों में प्रायश्चित्त का विधान किया गया है। श्री सोमदेवसूरि का कथन है कि मद से अथवा प्रमाद से दो इन्द्रिय आदि सजीवों का घात हो जाने पर दोष के अनुसार आगम में कथित विधिपूर्वक प्रायश्चित्त करना चाहिए। 27 71 उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट है कि श्री सोमदेवसूरि ने उपासकाध्ययन में अहिंसा का जो विवेचन किया है, वह एक सद्गृहस्थ के लिए आवश्यक है । उनका यह विवेचन गृहस्थ के लिए सहज ग्राह्य तो है ही, तार्किक शैली अपनाने के कारण वह उनके थोथे तर्कों का भी सयुक्तिक समाधान करता है, जो किसी न किसी रूप में हिंसा की वकालत करते हैं । सन्दर्भ सूची : 1. तत्त्वार्थसूत्र, 7/13, 2. पुरुषार्थसिद्ध्युपाय, 44, 3. परमात्मप्रकाश, टीका 2/68, 4. रत्नकरण्ड श्रावकाचार, 53, 5. उपासकाध्ययन, 303-304, 6. वही, 264-265, 7. वही, 268-274, 8. धम्मपद, दण्डवग्ग, 1-2, 9. उपासकाध्ययन, 267, 277, 10. वही, 285 288, 11. वही, 289-291, 12. वही, 294, 305 (द्रष्टव्य-पुरुषार्थसिद्ध्युपाय, 80-81), 13. वही, 297, 14. वही, 325-326, 15. वही, 296, 16. 'अविधायापि हि हिंसां हिंसाफल भाजनं भवत्येकः । कृत्वाप्यपरो हिंसा हिंसाफलभाजनं न स्यात् ।।' - पुरुषार्थसिद्ध्युपाय, 51 17. कार्तिकेयानुप्रेक्षा, 18. उपासकाध्ययन, 346-348, 19. वही, 316 का पूर्वार्द्ध, 20. वही, 256-280, 21. वही, 281, 22. वही, 310, 23. वही, 312-315, 24. वही, 419-422, 25. वही, 319-323, 26. वही, 334 429, पटेल नगर मुजफ्फर नगर (उ.प्र.) Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'केवलज्ञान' एक विश्लेषण -पं. पंकज जैन 'ललित' केवलज्ञान उस अगाध एवं असीम ज्ञान सिंधु का नाम है जो अनन्त एवं सर्वव्यापी है। केवलज्ञान आत्मा का स्वभाव है। केवलज्ञान सकल प्रत्यक्ष एवं त्रिकालदर्शी है। आचार्य उमास्वामी ने लिखा है “मतिश्रुतावधिमनःपर्ययकेवलानि ज्ञानम्" तत्त्वार्थसूत्र 1/9 केवलज्ञान को सबसे अन्त में रखने के विशेष उद्देश्य को प्रकट करते हुए आ. अकलंक देव ने तत्वार्थ राजवार्तिक में लिखा है“अन्ते केवलग्रहणम् ततः परं ज्ञानप्रकर्षाभावात्" -तत्त्वार्थराजवार्तिक 1/9/19 अन्त में केवलज्ञान को ग्रहण किया है क्योंकि इससे उत्कृष्ट ज्ञान का अभाव है। सर्व ज्ञानों के परिच्छेदन में केवलज्ञान ही समर्थ है। केवलज्ञान सभी ज्ञानों को जानता है परन्तु केवलज्ञान को जानने का सामर्थ्य किसी ज्ञान में नहीं है। इसीलिए केवलज्ञान से उत्कृष्ट कोई ज्ञान नहीं है। केवलज्ञान का लक्षण : केवलज्ञान के व्युत्पत्ति अर्थ एवं उसके स्वरूप पर प्रकाश डालते हुए आ. पूज्यपाद ने लिखा है-“बाह्ये सेवन्ते तत्केवलम्" सर्वा. सि. 1/9/14 अर्थात्-अर्थीजन जिसके लिए बाह्य और अभ्यंतर तप के द्वारा मार्ग का केवन अर्थात सेवन करते हैं, वह केवलज्ञान कहलाता है। इसी प्रकरण में आ. पूज्यपाद ने केवलज्ञान की व्याख्या करते हुए लिखा है"असहायमिति वा' अर्थात्-असहाय ज्ञान को केवलज्ञान कहते हैं। असहाय शब्द को आ. पूज्यपाद ने एक विशेषण के रूप में प्रयोग Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त 59/1-2 किया है। इस विशेषण को ठीक प्रकार से समझने के लिए आ. गुणधर कृत कषाय पाहुड का यह व्याख्यान दृष्टव्य है "केवलमसहायं इन्द्रियालोकमनस्कारनिरपेक्षत्वात्। ...आत्मार्थव्यतिरिक्तसहायनिरपेक्षत्वाद्वा केवलमसहायम्।" कषाय पाहुड 1/1, 1 प्रकरण सं.-15 असहाय ज्ञान को केवलज्ञान कहते हैं क्योंकि वह इन्द्रिय, प्रकाश और मनस्कार अर्थात् मनोव्यापार की अपेक्षा से रहित होता है। इसीलिए केवलज्ञान को असहाय ज्ञान कहा जाता है। केवल असहाय को कहते हैं। जो ज्ञान असहाय अर्थात् इन्द्रिय और आलोक की अपेक्षा रहित है। त्रिकालगोचर अनन्त पर्यायों से समवाय सम्बन्ध को प्राप्त अनन्त वस्तुओं को जानने वाला है। असंकुचित अर्थात् सर्व व्यापक है और असपल अर्थात् प्रतिपक्षी रहित है; उसे केवलज्ञान कहते हैं। आचार्य वीरसेन स्वामी ने धवला में लिखा है “केवलमसहायमिदिया लोयणिखेखं तिकालगोयराणंत पज्जाय समवदाणं तवत्थुपरिम संकुडियम सवत्तं केवलणाणं" केवलज्ञान उत्पत्ति का कारण : केवलज्ञान को प्राप्त करने के लिए आत्मा के अनंत ज्ञान गुण को ढकने वाले ज्ञानावरण कर्म को पूर्ण रूप से नष्ट करना आवश्यक है। लेकिन केवलज्ञान प्राप्ति हेतु आत्मा को कुछ अन्य कर्मों एवं कर्म प्रकृतियों का भी क्षय करना आवश्यक है। केवलज्ञान प्राप्ति के कारणों पर प्रकाश डालते हुए आ. उमास्वामी ने लिखा है कि"मोहक्षयाज्ज्ञानदर्शनावरणान्तरायक्षयाच्चकेवलम्"-त. सू 10/5 मोहनीय कर्म का क्षय होने से तथा ज्ञानावरण, दर्शनावरण और अन्तराय कर्म का क्षय होने से तथा 'च' शब्द से तीन आयु और तेरह नाम कर्म की प्रकृतियों का क्षय होने से केवलज्ञान की प्राप्ति होती है। Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त 59/1-2 सूत्र में प्रयुक्त 'च' शब्द के द्वारा यह स्पष्ट होता है कि घातिया कर्मों की सैंतालिस प्रकृतियों के साथ-साथ आयु कर्म की तीन एवं नाम कर्म की तेरह प्रकृतियों का क्षय भी केवलज्ञान प्राप्त होने से पूर्व हो जाता है। इसी तथ्य का समर्थन करते हुए श्री श्रुतसागर सूरि ने तत्त्वार्थसूत्र पर लिखी अपनी टीका तत्त्वार्थवृत्ति में लिखा-“सूत्र में प्रयुक्त 'च' शब्द से तीन आयु और नाम कर्म की तेरह प्रकृतियों के अर्थात सब मिलाकर त्रेसठ कर्म प्रकृतियों के क्षय होने से केवलज्ञान की उत्पत्ति होती है। मोहनीय कर्म की अट्ठाईस, ज्ञानावरण की पांच, दर्शनावरण की नौ, अन्तराय की पांच तथा च शब्द से नरक आयु, तिर्यग् आयु एवं देवायु के क्षय होने के साथ ही साधारण, आतप, पंचेन्द्रिय के बिना चार जाति, नरक गति, नरकगत्यानुपूर्वी, तिर्यंचगति, तिर्यंचगत्यानुपूर्वी, स्थावर, सूक्ष्म और उद्योत नाम कर्म की इन तेरह प्रकतियों के क्षय होने से केवलज्ञान उत्पन्न होता है।" कर्म क्षय एक क्रम पूर्वक होता है : - आचार्य उमास्वामी ने केवलज्ञान प्राप्ति के कारणों का उल्लेख करते हुए तत्वार्थसूत्र के दशमे अध्याय में प्रथम सूत्र में 'मोहक्षयात्' इस शब्द को सूत्र में सबसे आगे प्रथक् रखा है। सूत्र के इस व्यवस्थित शब्द क्रम में भी एक रहस्य छुपा हुआ है। इस रहस्य का उद्घाटन करते हुए आचार्य पूज्यपाद लिखते हैं "क्षयक्रमप्रतिपादनार्थों वाक्यभेदेन निर्देशः क्रियते। प्रागेव मोहं क्षयमुपनीयान्तर्मुहूर्त क्षीणकषायव्यपदेशमवाप्य ततो युगपज्ज्ञान दर्शनावरणान्तरायाणां क्षयं कृत्वा केवलमवाप्नोति इति।" -सर्वार्थसिद्धि 10/1/921 सूत्र में कर्मों के क्षय का क्रम बताने के लिए वाक्यों का भेद करके निर्देश किया है। पहले ही मोह का क्षय करके और अन्तर्मुहूर्त काल तक क्षीणकषाय संज्ञा को प्राप्त होकर अनन्तर ज्ञानावरण, दर्शनावरण, और अन्तराय कर्म का एक साथ क्षय करके केवलज्ञान को प्राप्त होता है। Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त 59/1-2 केवलज्ञान का विषय : केवलज्ञान एक सर्वोत्कृष्ट ज्ञान है, इसके सर्वोपरि होने का कारण यह है कि इसका विषय क्षेत्र सभी द्रव्यों की सभी पर्यायें है। इससे भी बड़ी विशेषता यह है कि इस ज्ञान के द्वारा सभी द्रव्यों की त्रिकालवर्ती पर्यायों को एक ही समय में युगपत् ( एक साथ) जाना जा सकता है । केवलज्ञान की इन्हीं विशेषताओं के कारण अनेक तार्किक एवं अनेक दर्शनवादी इसे केवल काल्पनिक ज्ञान बताते हैं । वे केवलज्ञान के अस्तित्व पर प्रश्न चिह्न लगाने से भी नहीं चूकते। 75 मिथ्यावादियों के इसी भ्रम एवं अज्ञानता के कारण अनेक जैनाचार्यों ने केवलज्ञान के अस्तित्व को सिद्ध करने के लिए ठोस तर्क एवं युक्तियाँ भी दी हैं । उन्होंने कहा है कि आत्मा में अनंत शक्तियां हैं उन्हीं अनंत शक्तियों में से ज्ञान आत्मा की प्रधान शक्ति है। ज्ञान आत्मा का स्वभाव है इसीलिए जैनाचार्यों ने कहा ज्ञान आत्मा का ऐसा गुण है जिसे त्रिकाल में भी आत्मा से पृथक् नहीं किया जा सकता, ज्ञान के अभाव में आत्मा की कल्पना भी नहीं की जा सकती । सभी संसारी एवं मुक्त आत्माओं में अनंत ज्ञान शक्ति विद्यमान है। इस सत्य के बावजूद भी संसारी प्राणियों में ज्ञान की समानता नहीं देखी जाती है, सभी संसारी प्राणियों का ज्ञान भिन्न-भिन्न स्तर का देखने में आता है। इस रहस्य को स्पष्ट करते हुए जैनाचार्यों ने स्पष्ट किया कि सभी आत्माओं में अनंत ज्ञान शक्ति रूप में विद्यमान रहते हुए भी उसकी अभिव्यक्ति न होने के कारण संसारी प्राणियों के ज्ञान में असमानता देखने में आती है । इस अनंत ज्ञान की अभिव्यक्ति न हो पाने के पीछे सबसे बड़ा कारण ज्ञानावरण. नाम का कर्म है। इस कर्म का आत्मा से अनादिकालीन संबंध है, इसके कारण आत्मा के अनंत ज्ञान पर आवरण पड़ा रहता है। अपनी विशिष्ट पुरुषार्थ शक्ति के द्वारा आत्मा इस कर्म को क्षीण कर सकती है। ज्ञानावरण कर्म जिन अंशों में क्षीण होता जाता Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त 59/1-2 है उन्हीं अंशों में आत्मा की ज्ञान शक्ति भी प्रकट होने लगती है। सभी आत्मायें अपनी ज्ञान शक्ति को प्रकट करने के लिए समान पुरुषार्थ नहीं करतीं, इसीलिए संसारी आत्माओं के ज्ञान में भिन्नता दिखाई देती है। कर्म बंधन के क्षीण होने को जैनागम में क्षयोपशम कहा जाता है। जब ज्ञानावरण कर्म का पूर्ण क्षय (अभाव) हो जाता है तब आत्मा की अनंत ज्ञान शक्ति अर्थात् केवलज्ञान प्रकट हो जाता है। एक बार कर्म के पूर्ण क्षय होने पर पुनः कभी इन कर्म बंधनों से आत्मा को सामना नहीं करना पड़ता। - मति एवं श्रतज्ञान के उपरान्त होने वाले अवधिज्ञान एवं मनःपर्यय ज्ञान में इन्द्रियों एवं मन का एकदेश उपयोग होने से इन्हें एकदेश प्रत्यक्ष माना गया है। आचार्य अकलंक देव ने अष्टशती की तृतीय कारिका में स्पष्ट लिखा है कि "आत्मनमेवापैक्ष्यैतानि त्रीणि ज्ञानानि उत्पद्यन्ते। न इन्द्रियानिन्द्रियापेक्षा तत्रास्ति ।।" अवधिज्ञान, मनःपयर्यज्ञान व केवलज्ञान ये तीनों ज्ञान आत्मा की अपेक्षा करके ही उत्पन्न होते हैं। वहां इन्द्रिय व अनिन्द्रिय की अपेक्षा नहीं होती। सम्पूर्ण ज्ञानावरण कर्म के क्षय से अंत में प्रकट होने वाला केवलज्ञान ही सकल प्रत्यक्ष है क्योंकि इस ज्ञान में समस्त द्रव्यों की त्रिकालवर्ती (अतीत, अनागत, वर्तमान) पर्यायों का ज्ञान युगपत् (एक साथ) होता है। इस ज्ञान में मन एवं इन्द्रियों की सहायता के बिना ही सकल पदार्थों का प्रत्यक्ष अनुभव होता है। यह ज्ञान असीमित है, अनंत है। इस ज्ञान के विषयगत पदार्थों की व्याख्या करते हुए आचार्य उमास्वामी ने लिखा “सर्वद्रव्यपर्यायेषु केवलस्य" तत्वार्थ सूत्र 1/29 केवल ज्ञान का विषय समस्त द्रव्यों की समस्त पर्यायें हैं। इस सूत्र की व्याख्या करते हुए आचार्य पूज्यपाद लिखते हैं- "द्रव्यपर्यायजातं Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त 59 / 1-2 वा न किंचित्केवलज्ञानस्य विषयभावमतिक्रान्तमस्ति । अपरिमित माहात्म्यं हि तदिति ज्ञापनार्थं 'सर्वद्रव्यपर्यायेषु' इत्युच्यते ।" -सवार्थ-सिद्धि 1/29/230 77 ऐसा न कोई द्रव्य है और न पर्याय समूह है जो केवलज्ञान के विषय के परे हो । केवलज्ञान का माहात्म्य अपरिमित है। इसी बात का ज्ञान कराने के लिए सूत्र मे "सर्वद्रव्यपर्यायेषु" पद का प्रयोग किया गया है। केवलज्ञान के द्वारा द्रव्यों की त्रिकालवर्ती (भूत, भविष्य एवं वर्तमान) पर्यायों को एक साथ कैसे जाना जा सकता है? इस प्रश्न का समाधान देते हुए आ. अमृतचंद्रजी प्रवचनसार की टीका में लिखते हैं“किंच चित्रपटस्थानीयत्त्वात् संविदः यथा हि चित्रपट्यामतिवाहिता नामनुपस्थितानां वर्तमानानां च वस्तूनामालेख्याकाराः साक्षादेकक्षण एवावभासन्ते, तथा संविद्भित्तावपि " -प्रवचनसार/तत्वप्रदी. 37 ज्ञान चित्रपट के समान है । जैसे चित्रपट में अतीत अनागत और वर्तमान पदार्थ आलेख्याकार साक्षात् एक समय में भासित होते है । उसी प्रकार ज्ञानरूपी भित्ति में भी भाषित होते हैं T केवलज्ञान समस्त ज्ञेयों को युगपत् जानता है - केवलज्ञान में समस्त-रूपी - अरूपी द्रव्यो की समस्त पर्यायों का ज्ञान युगपत् होता है 1 यदि इन पर्यायों को केवलज्ञान क्रमपूर्वक जानेगा तब एक समय मे समस्त पर्यायो का ज्ञान नहीं हो सकता, अतः वह उन्हें अवग्रहादि क्रियाओं से न जानकर अक्रम रूप से एक समय में समस्त द्रव्यों की पर्यायों को प्रत्यक्ष जानता है । आचार्य शिवकोटि जी ने लिखा है "भावे सगविसयत्थे सूरो जुगवं जहा पयासेई । सत्वं वि तहा जुगवं केवलणाणं पयासेदि" ।। भगवती आराधना 2142 जैसे सूर्य के प्रकाश में जितने पदार्थ समाविष्ट होते हैं वह उन Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त 59/1-2 सबको युगपत् ( एक साथ) प्रकाशित करता है, वैसे सिद्ध परमेष्ठी का केवलज्ञान सम्पूर्ण ज्ञेयों को युगपत् जानता है । 78 केवलज्ञान का विषय क्षेत्र समस्त लोकालोक है : केवलज्ञान का विषय क्षेत्र सीमाओं में बँधा हुआ नहीं है, यह असीम है । केवलज्ञान का विषय क्षेत्र समस्त लोकालोक है । समस्त लोक- आलोक में ऐसा कोई स्थान शेष नहीं है जो केवलज्ञान से छिपा हुआ हो या केवलज्ञान का विषय न हो । आ. कुन्दकुन्द ने लिखा है “आदा णाण पमाणं गाणं णेयप्पमाण मुद्दिट्ठ | यं लोयालोयं तम्हा णाणं त सुव्वगयं" ।। प्रवचनसार-23 आत्मा ज्ञान प्रमाण है, ज्ञान ज्ञेय प्रमाण है, ज्ञेय लोकालोक है, इसलिए ज्ञान सर्वगत है । आचार्य नेमिचंद्र ने द्रव्य संग्रह में सिद्ध परमेष्ठी के स्वरूप की व्याख्या करते हुए केवलज्ञान की विशेषताओं पर प्रकाश डालते हुए लिखा है अष्टकर्म रूपी देह जिन्होंने नष्ट कर दी है तथा जो लोकालोक को जानने-देखने वाले हैं वे सिद्ध हैं । अतः अनेक आगम प्रमाणों से यह सिद्ध है कि केवलज्ञान का विषयगत क्षेत्र समस्त लोकालोक है। - निश्चय नय से केवलज्ञानी अपनी आत्मा को जानते हैं : केवलज्ञान के द्वारा केवली भगवान् समस्त चराचर जगत को जानते हैं । किन्तु निश्चय नय की दृष्टि से वे अपनी आत्मा को जानते हैं उक्त कथन का उल्लेख करते हुए आचार्य कुंदकुंद देव ने लिखा है 1 जाणदि पस्सदि सव्वं ववहारणयेण केवली भगवं । केवलणाणी जाणदि पस्सदि णियमेण अप्पाणं ।। - नियमसार, 159 व्यवहार नय के केवली सब कुछ जानते और देखते हैं किन्तु Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त 59 / 1-2 . निश्चय नय से वे केवली भगवान् अपनी आत्मा को जानते देखते हैं । इसका अर्थ यह नहीं है कि वे अपनी आत्मा को जानने के कारण शेष जगत् से अनभिज्ञ या अनजान रहते हैं, इसी तथ्य को स्पष्ट करते हुए आ. योगेन्दु देव ने लिखा है जोइय अप्पे जाणिएण जगु जाणियउ हवेउ । अप्पहं करेइ भावडइ बिंबिउ जेण वसेई ।। -परमात्म प्रकाश, 99 अपने आत्मा के जानने से यह तीन लोक जाना जाता है, क्योंकि आत्मा के भाव रूप केवलज्ञान में यह लोक प्रतिबिम्बित हुआ बस रहा है । 79 केवलज्ञानी अपनी आत्मा के साथ समस्त जगत् को भी जानते हैं : यदि हम ऐसा मानते हैं कि "केवली भगवान केवलज्ञान के द्वारा केवल अपनी आत्मा के स्वरूप को देखते हैं, लोक- अलोक को नहीं जानते" तब इस मान्यता से केवलज्ञान में कोई विशेषता नहीं रह जाती । परन्तु स्वयं कुन्दकुन्दाचार्य ने लिखा है - जदि पच्चक्खमजादं पज्जायं पलयिदं च णाणस्स । ण हवदि वा तं गाणं दिव्वं ति हि के परूवेंति ।। प्रवचनसार, 39 यदि अनुत्पन्न व नष्ट पर्यायें ज्ञान के प्रत्यक्ष न हों तो उस ज्ञान को दिव्य कौन कहेगा ? आशय यह है कि केवलज्ञान की दिव्यता एवं विशिष्टता इसी कारण है कि वह समस्त चराचर जगत् को एक साथ जनता है। इसलिए उक्त निश्चय नय एवं व्यवहार नय इन दोनों नयों की दृष्टि से कथन में भिन्नता हो सकती है पर केवलज्ञान के वैशिष्ट्य पर इसका कोई प्रभाव नहीं पड़ता | नियमसार में लिखा है मुत्तममुत्तं दव्वं चेयणमियरं सगं च सव्वं च । पेच्छं तस्स दु णाणं पच्चक्खमणिदियं होई ।। 167 ।। Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 80 अनेकान्त 59 / 1-2 पुव्वत्त्सयलदव्व णाणागुण पज्जएण संजुत्तं । जो ण य पेच्छइ सम्मं परोक्खदिट्ठी हवे तस्स ।। 168 ।। वास्तव में मूर्तिक- अमूर्तिक, चेतन-अचेतन द्रव्यों को; अपने को तथा अन्य समस्त को देखने वाले का ही ज्ञान अतीन्द्रिय प्रत्यक्ष होता है । नाना गुण पर्यायों से युक्त पूर्वोक्त समस्त द्रव्यों को जो सम्यक् प्रकार से नहीं देखता उसका दर्शन परोक्ष ही रहेगा। इसी संशय के निवारणार्थ प्रवचनसार में लिखा है जो ण विजानदि जुगवं अत्थे तिक्कालिगे तिहुवणत्थे । णादुं तस्स ण सक्कं सपज्जयं सपज्जयं दव्वमेगं वा ।। 48 ।। दव्वं अनंत पज्जयमेगमणंताणि दव्वजादाणि । ण विजाणदि जदि जुगवं किध सो सव्वाणि जाणादि । 149 ।। जो एक ही साथ त्रैकालिक त्रिभुवनस्थ पदार्थो को नहीं जानता, उसे पर्याय सहित एक ( आत्म) द्रव्य भी जानना शक्य नहीं है। यदि अनन्त पर्याय वाले, एक द्रव्य को तथा अनन्त द्रव्य समूह को एक ही साथ नहीं जानता तो वह सबको कैसे जान सकेगा ? केवलज्ञानी की समस्त क्रियायें इच्छा रहित हैं : केवलज्ञान के विषय में जानकर सामान्यतः लोगों के मन में यह प्रश्न उठता है कि यदि केवलज्ञानी समस्त जगत् के प्राणियों के सुख-दु:ख को जानते-देखते हैं तब क्या उनके भीतर राग-द्वेष नहीं होता। इसी समाधान में आचार्य शिवकोटि भगवती आराधना में लिखते हैं पस्सदि जाणदि य तहा तिण्णि वि काले सपज्जए सव्वे । तह वा लोगमसेस पस्सदि भयवं विगदमोहा । 1214 अर्थ - केवली सम्पूर्ण द्रव्यो व उनकी पर्यायो से भरे हुए सम्पूर्ण जगत् को तीनो कालों में जानते हैं । तो भी वे मोहरहित ही रहते हैं । Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त 59/1-2 केवलज्ञान के अतिशय : केवलज्ञान प्राप्त होने पर केवली भगवान् (अर्हत् भगवान) मे ग्यारह अलौकिक विशेषताएं प्रकट हो जाती हैं। जिन्हें अतिशय कहा जाता है। केवलज्ञान की प्राप्ति होने पर उत्पन्न होने वाले ग्यारह अतिशयो का वर्णन आचार्य यतिवृषभ ने तिलायपण्णत्ति में इस प्रकार किया है 1. चारों दिशाओं में एक सौ योजन तक सुभिक्ष-- कवनी भगवान् जहां विराजते हैं, वहा चारों ओर सो योजन (चार सो कोस) तक सुख, समृद्धि, निरोगता व्याप्त हो जाती है। वातावरण मगलमय एवं शांतिमय बन जाता है। 2. आकाशगमन- केवली भगवान् कैवल्य प्राप्ति के उपरात भूमि पर नही चलते। उनका परमौदारिक शरीर आकाश में गमन करता है। 3. हिंसा का अभाव- केवली भगवान् जिस ओर भी विहार करते हैं उधर चारो ओर का वातावरण अहिसामय हो जाता है। गाय एव शर एक ही घाट पर पानी पीने लगते हैं। उनके समवशरण (धर्म सभा) मे पहुंचकर प्राणी अपना जन्म-जात वैर भूलकर प्रेम व वात्सल्य से एक-दूसरे के निकट बैठते है। ___ 4. भोजन का अभाव- कैवल्य प्राप्ति के बाद केवली भगवान को शरीर सरक्षण हेतु किसी भी प्रकार के अन्न या जलाहार आदि की आवश्यकता नहीं पड़ती अर्थात् वे भोजन ग्रहण नहीं करते। कंवनी कवलाहार नही करते। 5. उपसर्ग का अभाव- कैवल्य प्राप्ति के बाद अर्हत भगवान् पर कोई भी मनप्य, देव, पशु आदि उपसर्ग नहीं करता। उनके निकट पहुंचकर जीव अपने प्रतिशोध, वैर, वैमनष्यता को भूलकर श्रद्धा पूर्वक उनका भक्त बन जाता है। ____6. चतुर्मुखता- भगवान् के समवशरण (धर्मसभा) मे जो भी जीवगण पहुंचते हैं उन्हें भगवान का मुख अपनी ओर दिखाई देता है। अर्थात् भगवान् का मुख चारों दिशाओं में दिखाई देने लगता है। वास्तव Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त 59/1-2 में भगवान का एक ही मुख रहता है पर अतिशय के कारण वे चतुर्मुख दिखते हैं। ___7. छाया नहीं पड़ना- कैवल्य प्राप्ति के उपरांत अर्हत् भगवान् का शरीर स्फटिक मणि के समान निर्मल, पारदर्शी एवं सप्त धातु से रहित हो जाता है इस कारण उनके शरीर की छाया नहीं पड़ती। ___8. निर्निमेष दृष्टि- अर्हत् भगवान् की पलकें नहीं झपकती इसे ही निर्निमेष दृष्टि कहा जाता है। 9. सर्वविद्येश्वरता- केवलज्ञान जैसी सर्वश्रेष्ठ विद्या एवं ऋद्धि को प्राप्त अर्हत् भगवान् को सभी विद्याओं का स्वामी कहा जाता है। ___10. नख और केशों का घटना बढ़ना नहीं- कैवल्य प्राप्ति के उपरांत अर्हत् भगवान् के नख एवं केश न बढ़ते हैं और न घटते हैं। 11. अनेक भाषा मय दिव्य ध्वनि- कैवल्य प्राप्ति के उपरांत उनकी दिव्य देशना (उपदेश) श्रोताओं को अठारह महाभाषाओं में एवं सात सौ क्षुद्र भाषाओं में सुनायी देती है अतः उनके समवशरण में पहुंचने वाले सभी मनुष्य, देव, पशु-पक्षी आदि उनके दिव्य उपदेश को अपनी-अपनी भाषा में ग्रहण कर लेते हैं। केवलज्ञानी अठारह दोषों से रहित होते हैं : केवलज्ञान प्राप्त होने के उपरांत ही अर्हत् अवस्था की प्राप्ति होती है। अतः अर्हत् परमात्मा या केवलज्ञानी में अठारह दोष नहीं रहते। इनका उल्लेख करते हुए आ. कुन्दकुन्द ने नियमसार में लिखा है "छुहतण्हभीरुरोसो रागो मोहो चिंता जरा रुजा मिच्चू ।। सेदं खेदं मदो रइ विम्हियणिद्दा जणुव्वेगो।।6।। अर्थात्- केवलज्ञानी अर्हत् परमात्मा में क्षुधा (भूख), तृषा (प्यास), भय, रोप (क्रोध), राग, मोह, चिन्ता, जरा, रोग, मृत्यु, स्वेद (पसीना), Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त 59/1-2 खेद, मद (अहंकार), रति (प्रेम), विस्मय (आश्चय), निद्रा, जन्म, उद्वेग (अरति, घृणा) ये अठारह दोष नहीं पाये जाते। केवलज्ञान के बिना मुक्ति नहीं : केवलज्ञान को प्राप्त किये बिना जीवात्मा निर्वाण पद प्राप्त नहीं कर सकता अर्थात् संसार से मुक्त नहीं हो सकता। आ. अकलंक देव ने तत्वार्थ राजवार्तिक में लिखा है कि “यतश्च केवलेनैव सह निर्वाणं न क्षयोपशमिकज्ञानैः सह, अतो. ऽन्ते केवलग्रहणम् ।” . __ अर्थ- केवलज्ञान के साथ ही निर्वाण होता है न कि क्षायोपशमिक मति आदि ज्ञानों के साथ। अतः ज्ञान के क्रम में केवलज्ञान का अंत में निर्देश किया है। केवलज्ञान का सद्भाव सिद्धावस्था में भी- मोक्ष प्राप्ति के उपरांत जीवात्मा शुद्ध अवस्था अर्थात् अविनाशी सिद्ध पद को प्राप्त कर लेता है। केवलज्ञान भी आत्मा का अविनाशी गुण है। अतः केवलज्ञान सिद्ध अवस्था में भी आत्मा के साथ विद्यमान रहता है। आ. उमास्वामी जी ने तत्वार्थ सूत्र में लिखा है“अन्यत्र केवल-सम्यकत्व-ज्ञान-दर्शन सिद्धत्वेभ्यः।" –त.सू. 10/4 सिद्धों में केवलसम्यक्त्व, केवलज्ञान, केवलदर्शन, और सिद्धत्व भाव का अभाव नहीं होता। केवलज्ञान के विषय में यही कहा जा सकता है कि यह असीम है, अनंत है, अवर्णनीय है, प्रत्येक मोक्षमार्गी का चरम लक्ष्य है। -पार्श्वनाथ दिगम्बर जैन मंदिर अपर बाजार, राँची (झारखण्ड) Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पचास वर्ष पूर्व जैन और बौद्धधर्म एक नहीं - जगदीशचन्द्र जैन बहुत दिनों से कुछ मित्रों की इच्छा थी कि ब्रह्मचारी शीतल प्रसाद जी ने " जैन-बौद्ध तत्त्वज्ञान” नामक पुस्तक में जो जैन और बौद्धधर्म के ऐक्य के विषय में अपने नये विचार प्रकट किये हैं, उन पर मैं कुछ लिखूं । उक्त पुस्तक को प्रकाशित हुए बहुत-सा समय निकल गया । किन्तु लिखने की इच्छा होते हुए भी कार्य - भार से मैं इस ओर कुछ भी न कर सका। अभी कुछ दिन हुए मुझे बम्बई युनिवर्सिटी के एक एम. ए. के विद्यार्थी को पाली पढ़ाने का अवसर प्राप्त हुआ । मेरी इच्छा फिर से जागृत हो उठी, और अब श्रीमान् पंडित जुगलकिशोर जी के पत्र से तो मैं अपने लोभ को संवरण ही न कर सका । ब्रह्मचारी शीतलप्रसाद जी और उक्त पुस्तक पर सम्मतिदाता बाबू अजितप्रसाद जी वकील का कथन है कि "बौद्धमत के सिद्धान्त जैन सिद्धान्त से बहुत मिल रहे हैं”। “जैन व बौद्ध में कुछ भी अन्तर नहीं है । चाहे बौद्धधर्म प्राचीन कहें या जैनधर्म कहें एक ही बात है" । इन महानुभावों का कथन है कि “जीव तत्त्व के ध्रुवरूप अस्तित्व में और शाश्वत मोक्ष की प्राप्ति में बौद्ध और जैनागम में विरोध नहीं है" । हम यहाॅ पाठकों को यह बताना चाहते है कि उक्त विचार अत्यंत भ्रामक हैं । जैनधर्म को उत्कृष्ट और प्राचीन सिद्ध करने के लिये इस तरह के विचारों को जनता में फैलाना, यह जैन और बौद्ध दोनों ही धर्मो के प्रति अन्याय करना है । ब्रह्मचारी जी “बौद्ध साधुओं के साथ वार्त्तालाप करने" मात्र से ही उक्त निर्णय पर पहुँच गये है। सचमुच ब्रह्मचारी जी अपने उक्त क्रान्तिकारक (2) विचारों से अकलंक आदि जैन विद्वानो की भी अवहेलना कर गये हैं । नीचे की बातों से स्पष्ट होगा कि ब्रह्मचारी जी के निष्कर्ष कितने निर्मूल हैं । Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त 59 / 1-2 सबसे प्रथम बात तो यह है कि जैन परम्परा में इतने विद्वान हुए, पर किसी ने कहीं भी जैन और बौद्ध धर्म की आत्मा और निर्वाण-संबंधी मान्यताओं की समानता का उल्लेख नहीं किया। शायद ब्रह्मचारी जी को ही सबसे पहले यह अनोखी सूझ सूझी हो। इतना ही नहीं, जैन विद्वानों ने बौद्धों के आचार, उनकी आत्मा और निर्वाण-संबंधी मान्यताओं का घोर विरोध किया है। अकलंक देव ने राजवार्तिक आदि में रूप, वेदना, संज्ञा, संस्कार और विज्ञान इन पंच स्कंधों के निरोध से अभाव रूप जो बौद्धों ने मोक्ष माना हैं, उसका निरसन किया है, और आगे चलकर द्वादशांगरूप प्रतीत्यसमुत्पाद ( पडिच्चसमुप्पाद ) का निराकरण किया है । अव ज रा ब्रह्मचारी जी के शब्दों पर ध्यान दीजिये 85 “संसार में खेल खिलाने वाले रूप, संज्ञा, वेदना, संस्कार व विज्ञान जब नष्ट हो जाते है, तब जो कुछ शेष रहता है, वही शुद्ध आत्मा है। शुद्ध आत्मा के संबंध में जो जो विशेषण जैन शास्त्रों में हैं, वे सब बौद्धों के निर्वाण के स्वरूप से मिल जाते हैं । निर्वाण कहो या शुद्ध आत्मा कहो एक ही बात है । दो शब्द हैं, वस्तु दो नहीं हैं" । एक ओर अकलंक देव बौद्धों के अभावरूप मोक्ष का खंडन करते हैं दूसरी ओर ब्रह्मचारी जी उसे जैनधर्म द्वारा प्रतिपादित बताकर उसकी पुष्टि करते हैं । ब्रह्मचारी जी ने अपनी उक्त पुस्तक में जैन और बौद्ध पुस्तकों के अनेक उद्धरण देकर जैन और बौद्धों की आत्म-संबंधी मान्यता को बताने का निष्फल प्रयत्न किया है। किन्तु हम यह बता देना चाहते हैं कि दोनों धर्मो की आत्मा की मान्यता में आकाश-पातालका अंतर है । यदि महावीर आत्मवादी हैं उनका सिद्धांत आत्मा की ही भित्ति पर खड़ा है तो बुद्ध अनात्मवादी हैं और उनका सिद्धांत अनात्मवाद के बिना जरा भी नहीं टिक सकता। महावीर ने सर्वप्रथम आत्मा के ऊपर जोर दिया है और बताया है कि आत्मशुद्धि के बिना जीव का कल्याण होना असंभव है, और वस्तुतः इसीलिये जैनधर्म में सात तत्त्वों का प्रतिपादन किया है। तथा बौद्धधर्म में इसके विपरीत ही है । बुद्ध के 'सर्व दुःख, Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त 59 / 1-2 सर्व क्षणिक, सर्व अनात्म' सिद्धांतों की भित्ति अनात्मवाद के ही ऊपर स्थित है । बुद्ध के अष्टांग मार्ग में भी आत्मा का कहीं नाम नहीं आता । वहाँ केवल यही बताया गया है कि मनुष्य को सम्यक् आचार-विचार से ही रहना चाहिये । इतना ही नहीं, बल्कि बुद्ध ने स्पष्ट कहा है कि मैं नित्य आत्मा का उपदेश नहीं करता, क्योंकि इससे मनुष्य को आत्मा ही सर्वप्रिय हो जाती है और उससे मनुष्य उत्तरोत्तर अहंकार का पोषण कर दुःख की अभिवृद्धि करता है । इसलिये मनुष्य को आत्मा के झमेले में न पड़ना चाहिये इसी बात को तत्त्वसंग्रहपंजिकाकार ने कितनी सुन्दरता से अभिव्यक्त किया है: 86 साहंकारे मनसि न शमं याति जन्मप्रबंधो। नाहंकारश्चलति हृदयादात्मदृष्टौ च सत्यां ।। अन्यः शास्ता जगति भवतो नास्ति नैरात्म्यवादी ।। नान्यस्तस्मादुपशमविधेस्त्वन्मतादस्ति मार्गः ॥ यही कारण है कि बुद्ध ने आत्मा आदि को 'अव्वाकत' ( न कहने योग्य) कहकर उसकी ओर से उदासीनता बताई है। यहां बौद्धों का आत्मा के विषय में क्या सिद्धांत है, इस पर कुछ संक्षेप में कहना अनुचित न होगा। बौद्धों का कथन है कि रूप, वेदना, विज्ञान, संज्ञा और संस्कार इन पंच स्कंधों को छोड़कर आत्मा कोई पृथक् वस्तु नहीं है। इस विषय पर 'मिलिन्दपञ्ह' में जो राजा मिलिन्द और नागसेन का संवाद आता है, उसका अनुवाद नीचे दिया जाता है: " मिलिन्द - भन्ते, आपका क्या नाम है ? नागसेन - महाराज, नागसेन । परन्तु यह व्यवहार मात्र है, कारण कि पुद्गल (आत्मा) की उपलब्धि नहीं होती । मिलिन्द - यदि आत्मा कोई वस्तु नहीं है, तो आप को कौन पिंडपात (( भिक्षा) देता है, कौन उस भिक्षा का भक्षण करता है, कौन शील की रक्षा करता है, और कौन भावनाओं का चिन्तन करने वाला है? तथा Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त 59/1-2 फिर तो अच्छे, बुरे कर्मों का कोई कर्ता और भोक्ता भी न मानना चाहिये। आदि। नागसेन-मैं यह नहीं कहता। मिलिन्द-क्या रूप, वेदना, संज्ञा, संस्कार और विज्ञान मिलकर नागसेन बने हैं? नागसेन-नहीं। मिलिन्द-क्या पाच स्कंधों के अतिरिक्त कोई नागसेन है? नागसेन नहीं। मिलिन्द-तो फिर सामने दिखाई देने वाले नागसेन क्या हैं? नागसेन महाराज, आप यहां रथ से आये हैं, या पैदल चलकर? मिलिन्द-रथ से? नागसेन-आप यहाँ रथ से आये हैं तो मैं पूछता हूं कि रथ किसे कहते हैं? क्या पहियों को रथ कहते है? क्या धुरे को रथ कहत है? क्या रथ में लगे हुए डण्डों को रथ कहते हैं? (मिलिन्द ने इनका उत्तर नकार में दिया) नागसेन-तो क्या पहिये, धुरे, डण्डे आदि के अलावा रथ अलग वस्तु है? (मिलिन्द ने फिर नकार कहा) नागसेन-तो फिर जिस रथ से आप आये हैं वह क्या है? मिलिन्द-पहिये, धुरे, डण्डे आदि सबको मिलाकर व्यवहार से रथ कहा जाता है; पहिये आदि को छोड़ कर रथ कोई स्वतंत्र पदार्थ नहीं। नागसेन-जिस प्रकार पहिये, धुरे आदि के अतिरिक्त रथ का स्वतंत्र Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त 59/1-2 अस्तित्व नहीं है, उसी तरह रूप, वेदना, विज्ञान, संज्ञा और संस्कार इन पाच स्कधो को छोड़कर नागसेन कोई अलग वस्तु नहीं हैं।" 'विसुद्धिमग्ग' में भी निम्न श्लोक द्वारा उक्त भाव ही व्यक्त किया गया है. दुक्खमव हि न कोचि दुक्खितो। कारको न किरिया व विज्जति। अत्थि निव्वुत्ति न निव्वुत्तो पुमा। मग्गमत्यि गमको न विज्जति। क्या कोई जेनधर्म का अभ्यासी उक्त मान्यता को जैनधर्म की मान्यता सिद्ध करने का दावा कर सकता है? यदि कोई कहे कि उक्त मान्यता बुद्ध की मान्यता नहीं; बुद्ध ने तो आत्मा को 'अव्याकत' कहा है, या उसके विषय में तृण्णीभाव रक्खा है तो इसके उत्तर में हम कहेंगे कि फिर भी बुद्ध की मान्यता को हम जैन मान्यता कभी नहीं कह सक्त। महावीर ने आत्मा की कभी उपेक्षा नहीं की। बल्कि उन्होंने तो डके की चोट से घोषणा की कि “जे एगं जाणइ से सव्वं जाणइ" अर्थात् जा एक (आत्मा) को जानता है, वह सब कुछ भी नहीं जानता। जिस तरह जैन शास्त्रों में 'अणु-गुरु-देह प्रमाण' आदि लक्षणों के साथ आत्मा का विशद और विस्तृत वर्णन देखने में आता है क्या उस तरह का वर्णन ब्रह्मचारी जी ने किसी बौद्ध ग्रन्थ में देखा है? यदि नहीं, तो उनका दोनो धर्मो को समान बताना आत्मवंचन है, धर्म-व्यामोह है, विडंबना है और साथ ही जैन आचार्यो की अवमानना है। जैन और बौद्ध धर्म में दूसरी बड़ी भारी विषमता यह है कि बौद्ध धर्म में मांस भक्षण का प्रतिपादन है जबकि जैन ग्रंथों में कहीं इस बात का नाम-निशान भी नहीं। यह हो सकता है कि बुद्ध ने अमुक प्राणियों के मास भक्षण करने की आज्ञा न दी हो, जैसे यहूदी आदि धर्मो में भी पाया जाता है, पर मांसाहार का उन्होंने सर्वथा निषेध नहीं किया। Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त 59/1-2 मज्झिमनिकाय के जीवकसुत्त में जीवक ने बुद्ध से प्रश्न किया, है कि भगवान् ! लोग कहते है कि बुद्ध उद्दिष्ट भोजन स्वीकार करते हैं वे उद्दिष्ट मांस का आहार लेते हैं, क्या ऐसा कहने वाले मनुष्य आपकी और आपके धर्म की निन्दा नहीं करते, अवहेलना नहीं करते? इसके उत्तर में बुद्ध कहते हैं “न मे ते कुत्तवादिनो अब्माचिक्खंति च पन में ते असाता अभूतेन । तीहि खो अहं जीवक ठाने हि मंसं अपरिभोगं ति वदामिःदिटुं, सुतं, परिसंकितं । इमेहि खो अहं जीवक तीहि ठानेहिमंसं अपरिभोगं ति वदामि। तीहि खो अहं जीवक ठाने हि मंसं परिभोगं ति वदामिः-अदिटुं, असुतं, अपरिसंकितं। इमेहि खो अहं जीवक तीहि ठानेहि मंसं परिभोगं ति वदामि।" यह कहने वाले मनुष्य असत्यवादी नही, वे धर्म की अवहेलना करने वाले नहीं हैं; क्योंकि मैंने तीन प्रकार के मांस को भक्ष्य कहा है जो देखा न हो (अदिट्ठ) सुना न हो (असुत), और जिसमें शंका न हो (अपरिसंकित)। बड़ा आश्चर्य है कि बुद्ध का मांस-संबंधी उक्त स्पष्ट वचन होने पर भी ब्रह्मचारी जी उक्त वचन के विषय में शंका करते हुए लिखते हैं “यह वचन कहाँ तक ठीक है, यह विचारने योग्य है।" भले ही उक्त कथन ब्रह्मचारी जी के विचार में न बैठता हो, पर कथन तो अत्यंत स्पष्ट हैं। पर ब्रह्मचारी जी तो किसी भी तरह जैन और बौद्धधर्म को एक सिद्ध करने की धुन में हैं। ब्रह्मचारी जी ने आगे चलकर 'लंकावतार' सूत्र से ढेर के ढेर मांस-निषेध के उद्धरण पेश किये हैं। किन्तु शायद उन्हें यह ज्ञान नहीं कि लंकावतार सूत्र महायान बौद्ध सम्प्रदायका ग्रंथ है, और वह संस्कृत में है; जबकि बुद्ध के मूल उपदेश पाली में है और ‘मज्झिमनिकाय' पाली-विचार की जैन धर्म के आचार से तुलना करना, यह लोगों की आँखों में धूल झोंकना है। वस्तुतः बात तो यह है कि बुद्ध अपने धर्म को सार्वभौमधर्म बनाना चाहते थे, और Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त 59/1-2 इसलिए वे मांस निषेध की कड़ी शर्त उसमें नहीं लगाना चाहते थे। परन्तु महावीर इसके सख्त विरोधी थे। ब्रह्मचारी जी ने एक और नई खोज की हैं उनका कथन है कि “बुद्ध ने महावीर की नग्न मुनिचर्या को कठिन समझा, इसीलिये उन्होंने वस्त्रसहित साधुचर्या की प्रवृत्ति चलाई; तथा मध्यममार्ग जो श्रावकों ब्रह्मचारी श्रावकों का है, उसका प्रचार गौतम बुद्ध ने किया-सिद्धांत एक रक्खा।" ब्रह्मचारी जी की स्पष्ट मान्यता है कि जैनधर्म और बौद्धधर्म सिद्धांतों में कोई अंतर नहीं-अंतर सिर्फ इतना ही है कि महावीर ने नग्न-चर्या का उपदेश दिया, जब कि बुद्ध ने सवस्त्र-चर्या का। यदि ऐसी ही बात है तो फिर बौद्धधर्म और श्वेताम्बर जैनधर्म में तो थोड़ा भी अन्तर न होना चाहिये। किन्तु शायद ब्रह्मचारी जी को मालूम नहीं कि जितनी कड़ी समालोचना बौद्धधर्म की दिगम्बर शास्त्रों में मिलती है, उतनी ही श्वेताम्बर ग्रंथों में भी है। महावीर की स्तुति करते हुए अयोगव्यवच्छेद द्वात्रिंशिका में हेमचन्द्रआचार्य ने बुद्ध की दयालुता का उपहास करते हुए उन पर कटाक्ष किया है। वह श्लोक निम्न रूप से है: जगत्यनुध्यानबलेन शश्वत् कृतार्थयत्सु प्रसर्भभवत्सु। किमाश्रितोऽन्यैःशरणं त्वदन्यः स्वमांसदानेन वृथा कृपालुः।। अपने उपकार-द्वारा जगत् को सदा कृतार्थ करने वाले ऐसे आपको छोड़कर अन्यवादियों ने अपने मांस का दान करके व्यर्थ ही कृपालु कहे जाने वाले की क्यों शरण ली, यह समझ में नहीं आता। (यह कटाक्ष बुद्ध के ऊपर है)। इतना ही नहीं, वुद्ध और महावीर के समय में भी जैन और बौद्धों में कितना अन्तर था, कितना वैमनस्य था, यह बात पाली ग्रन्थों से स्पष्ट हो जाती है। यदि दोनों धर्मों में केवल वस्त्र रखने और न रखने के ही ऊपर वाद-विवाद था, तो बुद्ध महावीर के अन्य सिद्धांतों का कभी विरोध न करते; उन्हें केवल महावीर की कठिन चर्या का ही विरोध Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त 59 / 1-2 91 करना चाहिये था, अन्य बातों का नहीं । 'मज्झिमनिकाय' के 'अभयराजकुमार' नामक सुत्त में कथन है कि एकबार निगण्ठ नाटपुत्त ( महावीर ) ने अपने शिष्य अभयकुमार को बुद्ध के साथ वाद-विवाद करने को भेजा । अभयकुमार ने बुद्ध से प्रश्न किया कि क्या आप दूसरों को अप्रिय लगने वाली वाणी बोलते हैं? बुद्ध ने विस्तृत व्याख्या करते हुए उत्तर दिया कि बुद्ध 'भूत, तच्छ (तथ्य) और अत्थसहित ' वचनों का प्रयोग करते हैं, वे वचन चाहे प्रिय हों या अप्रिय । बुद्ध के उत्तर से संतुष्ट हो अभयकुमार ने कहा 'अनस्सुं निग्गण्ठा' ( अनश्यन् निर्ग्रन्थाः ) अर्थात् निर्ग्रथ नष्ट हो गये। महावीर और उनके अनुयायियों का चित्रण बौद्धों के पाली ग्रंथों में किस तरह किया गया है, यह बताने के लिये हम मज्झिमनिकाय के उपालिसुत्त का सारांश नीचे देते हैं एक बार दीर्घतपस्वी निर्ग्रथ बुद्ध के पास गये । बुद्ध ने प्रश्न किया, निर्ग्रथ ज्ञातपुत्र ( महावीर ) ने पाप कर्मों को रोकने के लिये कितने दण्डों का विधान किया है? दीर्घतपस्वी ने उत्तर दिया, तीन कायदण्ड, वचोदण्ड और मनोदण्ड । बुद्ध ने पूछा इन तीनों में किसको महासावद्यरूप कहा है? दीर्घतपस्वी ने कहा कायदण्ड को। बाद में दीर्घतपस्वी ने बुद्ध से प्रश्न किया, आपने कितने दण्डों का विधान किया है ? बुद्ध ने कहा, कायकम्म, वचीकम्म और मनोकम्म; तथा इनमें मनोकम्म को मैं महासावद्यरूप कहता हूँ । इसके पश्चात् दीर्घतपस्वी महावीर के पास आये । महावीर ने दीर्घतपस्वी का साधुवाद किया, और जिन शासन की प्रभावना करने के लिये उसकी प्रशंसा की । उस समय वहाँ गृहपति उपालि भी बैठे थे। उपालि ने महावीर से कहा कि आप मुझे बुद्ध के पास जाने की अनुमति दें, मैं उनसे इस विषय में विवाद करूँगा; तथा जैसे कोई बलवान पुरुष भेड़ के बच्चे को उठाकर घुमा देता है, उसी तरह मैं भी बुद्ध को हिला दूंगा, उनको परास्त कर दूंगा । इस पर दीर्घतपस्वी ने महावीर से कहा कि, भगवन् ! बुद्ध मायावी हैं, वे अपने मायाजाल से अन्य तीर्थिकों Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त 59/1-2 को अपना अनुयायी बना लेते हैं, अतः आप उपालि को वहाँ जाने की अनुमति न दें। परन्तु दीर्घतपस्वी के कथन का कोई प्रभाव नहीं हुआ, और उपालि बुद्ध से शास्त्रार्थ करने चल दिये। उपालि बुद्ध से प्रश्नोत्तर करते हैं, और बुद्ध के अनुयायी हो जाते है। अब उन्होंने अपने द्वारपाल से कह दिया कि आज से निग्रंथ और निग्रंथिणियों के लिये मेरा द्वार बन्द है, और अब यह द्वार मैंने बौद्धभिक्षु और भिक्षुणियों के लिये खोल दिया है। (अज्जतग्गे सम्म दोवारिक, आवरामि द्वारं निगण्ठानं, निगण्ठीनं; अनावटं द्वारं भगवतो भिक्खूनं भिक्खुणीनं, उपसकानां, उपासिकान)। इतना ही नहीं, उपालि ने द्वारपाल से कह दिया कि यदि कोई निग्रंथ साधु आये तो उसे अन्दर आने के लिय रोकना, और कहना कि उपालि आज से बुद्ध का अनुयायी हो गया है। तथा यदि वह साधु भिक्षा मांगे तो कहना कि यहीं ठहरो, तुम्हें यही आहार मिलेगा। महावीर ने यह सब सुना और वे स्वयं एक दिन उपालि के घर आये। द्वारपाल ने उन्हें रोक दिया। द्वारपाल ने अन्दर जाकर कहा कि निगंठ नातपुत्त अपने शिष्यों को लेकर आये हैं, आपसे मिलना चाहते हैं। उपालि ने उन्हें आने दिया। परन्तु उपालि ने आसन पर बैठे-बैठे महावीर से कहा 'आसन विद्यमान है, चाहें तो बैठिये।' दोनों में प्रश्नोत्तर हुआ और उपालि ने बुद्ध शासन को ही उत्कृष्ट बताया। __ इस प्रकार के पाली साहित्य के उल्लेखों को पढ़कर अत्यंत स्पष्ट है कि बुद्ध और महावीर का सिद्धांत एक न था, तथा उन दोनों में केवल चर्या का ही अंतर न था। रात्रिभोजन-त्याग आदि दो-चार बातों का साम्य देख लेने मात्र से ही हम जैन और बौद्ध धर्म को एक नहीं कह सकते। ऐसे तो महाभारत आदि में भी 'वस्त्रपूतं जल पिबेतु'- आदि उल्लेख मिलते हैं। उपनिषद्-साहित्य तो ज्ञान और तप के अनुष्ठानों से भरा पड़ा है। शतपथ ब्राह्मण आदि ग्रंथों में जगह-जगह वर्षा ऋतु में एक जगह रहना, आहार कम करना आदि साधुचर्या का विस्तार से वर्णन है। परन्तु इसका अर्थ यह नहीं कि यह सब जैनधर्म हैं। हम इतना ही कह सकते हैं कि यह सब श्रमण-संस्कृति के चिह्न हैं। पर श्रमण-संस्कृति में जैन Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त 59/1-2 के साथ-साथ बौद्ध, आजीविक आदि संप्रदाय भी गर्भित होते हैं। जैनधर्म और बौद्धधर्म में साम्य अवश्य है, पर उक्त बातों में नहीं। वह साम्य दूसरी ही बातों में है। आत्मा और निर्वाण-संबंधी बातों में तो विषमता ही है। उदाहरण के लिये कर्म सिद्धांत जैन और बौद्ध का मिलता जुलता है। दोनों महापुरुष गुणकर्म से ही मनुष्य को छोटा बड़ा मानते थे। दोनों ही महात्माओं ने सर्व साधारण भाषा में अपना उपदेश दिया था। दोनों अहिंसा के ऊपर जोर देते थे और पश-वधका घोर विरोध करते थे। दोनों ब्राह्मणों के वेद को न मानते थे। दोनों का धर्म निवृत्ति प्रधान था। दोनों श्रमण-संस्कृति के अंग होने से एक दूसरे के बहुत पास थे। किन्तु दोनों का सिद्धांत एक न था। महावीर आत्मवादी थे, बुद्ध अनात्मवादी, महावीर कमो “का क्षय होने से अनंत चतुष्टय रूप मोक्ष मानते थे, बुद्ध शून्यरूप-अभावरूप। महावीर का शासन तप-प्रधान था, बुद्ध का ज्ञानप्रधान। हमारी समझ में बिना सोचे समझे ऐसे साहित्य का सर्जन करना, साहित्य की हत्या करना है। और एक आश्चर्य और है कि ऐसा साहित्य जैन समाज में खप भी बहुत जल्दी जाता है। अभी तक किसी महानुभाव ने उक्त पुस्तक के विरोध में कुछ लिखा हो, यह सुनने में नहीं आया। अभी सुना है कि ब्रह्मचारी जी ने जैनधर्म और अरिस्टोटल (अरस्तू) के विषय में कुछ लिखा है, और शायद अरिस्टोटल को भी जैन बनाने का प्रयत्न किया गया है। आशा है इस लेख के पढ़ने से पाठकों में जैनधर्म और बौद्धधर्म के तुलनात्मक अभ्यास करने की कुछ अभिरुचि जागृत होगी। Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सल्लेखना पूर्वक समाधि मरण -पं. सनत कुमार, विनोद कुमार जैन दर्शन में जहाँ जीवन को संयमित/संतुलित बनाने का निर्देश है, वहाँ मरण को भी सुव्यवस्थित करने की आज्ञा दी गई है। सुखमय भविष्य के लिये जीवन को जितना सुसंस्कारित करना आवश्यक है उतना ही मरण को व्यवस्थित करना आवश्यक होता है। जब हम अपने जीवन को अनंत भव धारण करने पर भी सुखी नहीं बना पाये। तब हमने मरण को कैसे सफल बना पाया होगा? यदि एक बार मरण समाधिपूर्वक हो जाये तो हमारा जीवन सुखमय हो जावेगा। एक मरण को सुव्यवस्थित करने के लिये हमें जीवन भर मरने की तैयारी करनी पड़ती। तब हम सफल समाधि मरण कर सकेंगे। आचार्यों ने बारह व्रतों के पालन करने के उपरान्त मरण के समय प्रीतिपूर्वक सल्लेखना व्रत ग्रहण करने को कहा है। तत्त्वार्थ सूत्र में बारह व्रतों के स्वरूप, भावना, और अतिचारों के साथ सल्लेखना व्रत का भी वर्णन किया है। सल्लेखना पूर्वक समाधिमरण करने के लिये जीवन भर बारह व्रतों का पालन किया जाता है। अनंतों बार मरण करने पर भी मरण नहीं छूटा, यदि एक बार समाधिपूर्वक मरण हो जाये तो मरण छूटना निश्चित हो जायेगा। सल्लेखना में शरीर और कषाय को कुश करने का निर्देश किया है। 'सम्यक्कायकषायलेखना सल्लेखना भली प्रकार से काय और कषाय का लेखन करना सल्लेखना है। लिखेय॑न्तस्य लेखना तनुकरणमिति यावत् ।। लिख धातु में णि प्रत्यय करने से लेखना शब्द बनता है उसका अर्थ तनु करण अर्थात् कृश करना है। Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त 59/1-2 शरीर की कृशता के साथ कषाय की कृशता अनिवार्य है इसे साधना की अंतिम क्रिया कहा जाता है। जीवन भर किए गये तप का संयम फल निर्दोष, निरतिचार समाधि है। समाधि के अंत समय जितनी विशुद्धि, दृढ़ता, आत्मलीनता, राग द्वेषनिवृति, संसार स्वरूप का चिन्तन और आत्मा स्वरूप में ही विचारों का केन्द्रित होना होगा समाधि उतनी निर्दोष होगी। मन में उत्पन्न होने वाले राग, द्वेष, मोह, भय, शोक आदि विकारी भावों को मन से दूर करके मन को अत्यन्त शान्त या समाधान रूप करके वीतराग भावों के साथ सहर्ष प्राण त्याग करने को समाधिमरण कहते हैं। तथाहि वयणोच्चारण किरियं परिचत्तावीयराय भावेण। जो झायदि अप्पाणं परम समाही हवे तस्स ।। संजम झायइ अप्पाणं परम समाहि हवे तस्स।। अर्थात-वचनोच्चार की क्रिया परित्याग कर वीतराग भाव से जो आत्मा को ध्याता है उसे परम समाधि कहते हैं। संयम नियम और तप से तथा धर्म ध्यान और शुक्ल ध्यान से जो आत्मा को ध्याना वह परम समाधि है। ऐसे चिन्तन पूर्वक समाधिमरण करने से भवों का अन्त होता है। अज्ञानी शरीर द्वारा जीव का त्याग करते हैं और ज्ञानी जीव द्वारा शरीर का त्याग करते हैं। अतः ज्ञानी जन का मरण ही सल्लेखना पूर्वक समाधिमरण होता है। शरीर अपवित्र और नाशवान है। किन्तु वह तप का साधन होने से भव समुद्र को पार करने को नौका के समान है। इसके माध्यम से तप धारण कर कर्मो का संवर और निर्जरा कर मोक्ष प्राप्त किया जाता है। यदि यह शरीर संयम तप आदि की विराधना में कारण बनने लगे तो धर्म के लिये शरीर का त्याग कर देना चाहिये। क्योंकि शरीर तो अनेक बार प्राप्त हुआ है और होगा भी किन्तु धर्म हमने अभी तक ग्रहण नहीं किया यदि वह धर्म छूट गया तो कब अवसर आयेगा कहा नहीं जा सकता है। शरीर का अन्त जान लेने पर, शरीर से धर्म साधन में बाधा आने पर सल्लेखना ग्रहण करना चाहिये। Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 96 अनेकान्त 59 / 1-2 उपसर्गे दुर्भिक्षे जरिस रुजायां च निः प्रतिकारे । धर्माय तनुविमोचनमाहुः सल्लेखनामार्या ।। प्रतिकार रहित उपसर्ग, दुष्काल, बुढ़ापा और रोग के उपस्थित हो जाने पर धर्म के लिये शरीर के छोड़ने को गणधर देव सल्लेखना कहते हैं । सल्लेखना दो प्रकार से की जाती है-काय सल्लेखना और कषाय सल्लेखना । आहार आदि का शरीर की स्थिति देखकर क्रम-क्रम से त्याग करके शरीर कृश करना काय सल्लेखना है और संसार शरीर और भोगों से विरक्त होता हुआ जो कषायों को कृश किया जाता है वह कषाय सल्लेखना कहलाती है । मरण प्रकृति का शाश्वत नियम है, जन्म लेने वाले का मरण निश्चित है । मरण के स्वरूप की जानकारी होने पर मरण के समय होने वाली आकुलता से बचा जा सकता है। मोह के कारण जीव जन्म मरण के नाम से ही भयभीत रहता है अत: ज्ञानी जीव ही मरण भय से रहित होता है । स्वपरिणामोपात्तस्यायुषइन्द्रियाणांलानां च कारणवशात् सक्षयो मरणं । । " अपने परिणामों से प्राप्त हुई आयु का, इन्द्रियों का और मन, वचन, काय इन तीन बलों का कारण विशेष मिलने पर नाश होना मरण है दूसरे प्रकार से आयु कर्म का क्षय होना मरण कहलाता है I आयुषः क्षयस्स मरणहेतुत्वात् । ।7 आयु कर्म के क्षय को मरण का कारण माना है। उपरोक्त मरण में नये शरीर को धारण करने के लिये पूर्वशरीर का नष्ट होना तद्भव मरण कहलाता है एवं प्रतिक्षण आयु का क्षीण होना नित्य मरण कहलाता है । संयम आदि की अपेक्षा मरण के भेदों को अन्य प्रकार से भी कहा गया है। पंडिद पंडिद मरणं, पंडिदयं बाल पंडिद चेव । वाल मरणं चउत्थं पंच मयं बाल बालं च । । " Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त 59/1-2 97 पंडित-पंडित मरण, पंडित मरण, बाल पंडित मरण, बाल मरण और बाल बाल मरण ये मरण के पाँच भेद कहे गये हैं। इनमें प्रथम तीन मरण ही प्रशंसनीय हैं। प्रथम पंडित-पंडित मरण से केवलि भगवान् निर्वाण प्राप्त करते हैं। उत्तम चारित्र के धारी साधुओं के पंडित मरण होता है। विरताविरत जीवों के तीसरा बाल पंडित मरण होता है। बाल मरण अविरत सम्यक् दृष्टि के और बाल-बाल मरण मिथ्यादृष्टि के होता है। दूसरे पंडित मरण के प्रायोपगमन मरण, इंगनि मरण और भक्त प्रत्याख्यान या भक्त प्रतिज्ञा मरण ये तीन भेद होते हैं। आहारादिक के क्रम से त्याग करके शरीर को कृश करने की अपेक्षा तीनों मरण समान हैं। इनमें शरीर मे प्रति उपेक्षा के भाव का ही अन्तर है। जो मुनि न तो स्वयं अपनी सेवा करते हैं, और न ही दूसरों से सेवा, वैयावृत्ति कराते हैं। तणादि का संस्तर भी नहीं रखते, इस प्रकार स्व पर के उपकार से रहित शरीर से निस्पृह होकर स्थिरता पूर्वक मन को विशुद्ध बनाकर मरण को प्राप्त करते हैं। उसे प्रायोपगमन मरण कहते हैं। जिसमें सल्लेखनाधारी अपने शरीर की सेवा, परिचर्या स्वयं तो करता है, पर दूसरों से सेवा वैयावृति नहीं कराता उसे इंगनि मरण कहते हैं। इसमें क्षपक स्वयं उठेगा, स्वयं बैठेगा और स्वयं लेटेगा। इस तरह वह अपनी समस्त क्रियायें स्वयं करता है। जिस संन्यास मरण में अपने और दूसरों के द्वारा किये गये उपकार वैयावृत्ति की अपेक्षा रहती है। उसे भक्त प्रत्याख्यान मरण कहते हैं। भव का अन्त करने योग्य संस्थान और संहनन को प्रायोग्य कहते हैं। इन की प्राप्ति होना प्रायोपगमन है। अर्थात् विशिष्ट संहनन व विशिष्ट संस्थान वाले ही प्रायोग्य ग्रहण करते हैं। स्व अभिप्राय को इंगित कहते हैं। अपने अभिप्राय के अनुसार स्थित होकर प्रवृत्ति करते हये जो मरण होता है, वह इंगनिमरण कहलाता है। भक्त शब्द का अर्थ आहार है और प्रत्याख्यान का अर्थ त्याग है जिसमें क्रम से आहारादि का त्याग करते हुये मरण किया जाता है उसे भक्त प्रत्याख्यान मरण कहते Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त 59 / 1-2 हैं । यद्यपि आहार त्याग उपरोक्त दोनों मरणों में भी होता है, तो भी इस लक्षण का प्रयोग रूढ़ि वश मरण विशेष में ही कहा गया है । 98 भक्तप्रत्याख्यान मरण सविचार और अविचार के भेद से दो प्रकार का है - नाना प्रकार के चारित्र का पालना, चारित्र में विहार करना विचार है । इस विचार के साथ जो वर्तता है वह सविचार है। जो गृहस्थ अथवा मुनि उत्साह या बलयुक्त हैं और जिसका मरण काल सहसा उपस्थित नहीं हुआ है । अर्थात् जिसका मरण दीर्घकाल के बाद होगा, ऐसे साधु के मरण को सविचार भक्तप्रतयाख्यान मरण कहते हैं। इसमें आचार्य पद त्याग, पर गण गमन, सबसे क्षमा, आलोचना पूर्वक प्रायश्चित ग्रहण विशेष भावनाओं का चिन्तन, क्रम पूर्वक आहार का त्याग आदि कार्य व्यवस्थित रहते हैं। जिनकी सामर्थ्य नहीं है, जिसका मरण काल सहसा उत्पन्न हुआ है, ऐसे पराक्रम रहित साधु के मरण को अविचार भक्तप्रत्याख्यान मरण कहते हैं । यह तीन प्रकार का है । ( 1 ) निरुद्ध (2) निरुद्धतर (3) परम निद्ध । रोगों से पीड़ित होने के कारण जिनका जंघा बल क्षीण हो गया हो, जिससे पर गण में जाने से असमर्थ हो वे उन मुनि के निरुद्ध विचार भक्तप्रत्याख्यान मरण करते हैं। इसके प्रकाश और अप्रकाश दो भेद हैं। क्षपक के मनोबल अर्थात् धैर्य, क्षेत्रकाल उनके बान्धव आदि का विचार करके अनुकूल कारणों के होने पर उस मरण को प्रकट किया जाता है वह प्रकाश है। प्रकट न करना अप्रकाश I है । सर्प, अग्नि, व्याघ्र, भैंसा, हाथी, रीछ, शत्रु, चोर म्लेक्ष, मूर्छा, तीव्रशूल रोग आदि से तत्काल मरण का प्रसंग होने पर जब तक काय बल शेष रहता है, और जब तक तीव्र वेदना से चित्त आकुलित नहीं होता और प्रतिक्षण आयु का क्षीण होना जानकर अपने गण के आचार्य के पास अपने पूर्व दोषों की आलोचना कर जो मरण करता है वह निरुद्धतर आविचार भक्त प्रत्याख्यान मरण है । सर्प अग्नि आदि कारणों से पीड़ित साधु के शरीर का बल और वचन का बल यदि क्षीण हो जाये तो परम निरुद्ध अविचार भक्तप्रत्याख्यान Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त 59/1-2 मरण कहते हैं। अपने आयुष्य को शीघ्र क्षीण होता जानकर शीघ्र ही मन में अहँत व सिद्ध परमेष्ठी को धारण करके उनसे अपने दोषों की आलोचना करे तथा सर्व शल्य रहित ममत्व रहित होकर मोक्ष प्राप्ति के लिये दो प्रकार का संन्यास धारण करने का निर्देश प्राप्त होता है। अस्मिन् देशेऽवधौ काले यदि मे प्राणमोचनम्। तदास्तु जन्मपर्यन्तं प्रत्याख्यानं चतुर्विधम् ।। जीविष्यामि क्वाचिद्वाहं पुण्येनोपद्रोपशमात् ।। करिष्ये पारणं नूनं धर्मचारित्रसिद्धये ।। पहला सन्यास इस प्रकार धारण करना चाहिए कि इस देश में इतने काल तक यदि मेरे प्राण निकल जायें तो मेरे जन्म पर्यन्त चारों प्रकार के आहार का त्याग है। दूसरे सन्यास को इस प्रकार धारण करना चाहिये कि यदि में अपने पुण्य से इस घोर उपद्रव से कदाचित बच जाऊँगा तो मैं धर्म और चारित्र की सिद्धि के लिये इतने काल के बाद पारणा करूंगा। इस प्रकार सहसा मरण काल आने पर अपने मन को विशुद्ध बनाता हुआ आहारादिक का त्याग स्वयं भी कर सकता है, क्योंकि मरण काल में भावों की विशुद्धि का ही विशेष महत्व होता है। श्रावकों को मरण काल में महाव्रत ग्रहण कर लेना चाहिये, जिससे परिणाम विशुद्ध बनते हैं। इसके लिये भी क्रम से त्याग करना चाहिये। धरिऊण वत्थमेत्तं परिग्गहं छंडिऊण अवसेसं ।। सगिहे जिणालय वा तिविहा हारस्स वोसरणं ।। वस्त्र मात्र परिग्रह को रख कर और अवशिष्ट समस्त परिग्रह को छोड़कर अपने ही घर में अथवा जिनालय में रहकर श्रावक गुरु के पास में मन, वचन और काय से अपनी भली प्रकार आलोचना करता है और पानी के सिवाय शेष तीन प्रकार के आहार का त्याग करता है। श्रावक अन्त समय में स्नेह, बैर और परिग्रह को छोड़कर शुद्ध होता हुआ, प्रिय वचनों से अपने कुटुम्बियों और नौकरों से क्षमा कराते हुये आप भी सब को क्षमा करे। समस्त पापों की आलोचना करे और मरण पर्यन्त रहने Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त 59/1-2 100 वाले महाव्रतों को धारण करे। 12 यदि चारित्र मोहनीय कर्म का उदय रहने से वह दीक्षा ग्रहण नहीं कर सकता तो मरण समय उपस्थित होने पर संस्तर श्रमण हो जाना चाहिये । यदि यह भी शक्य न हो तो सल्लेखना का अनुष्ठान करते हुये क्रम से आहार आदि का त्याग करना चाहिये । 13 धनवान और धन रहित श्रावकों को भी ग्रन्थों में अन्त समय के लिये मार्ग प्रशस्त किया गया है | तत्कर्तुं गुरुणा दत्तं प्रायश्चित्तं तपोऽक्षमा । धनिनो ये जिनागारे स्वयं सर्वत्र शुद्धये ।। दद्युर्धनं स्व शक्त्या ते परे दोषादिहानये । प्रायश्चित्तं तु कुर्वन्तु तपांस्यनशनादिभिः । । 14 अर्थात्-समाधिमरण के लिये उद्यत धनी गृहस्थ गुरु के द्वारा दिये गये प्रायश्चित्त तप को धारण करने में असमर्थ हो तो वे स्वयं शुद्धि के लिये जिनालय में धन का दान करें तथा दूसरे लोग अपनी शुद्धि के लिये शक्ति अनुसार अनशन, ऊनोदर आदि के द्वारा अपने पापों की शुद्धि करें । धन के प्रति आसक्ति कम करने के लिए धन दान करने का निर्देश दिया गया है। श्रावकों को अन्त समय में महाव्रत अवश्य धारण करना चाहिये तभी श्रावक धर्म की सफलता मानी जाती है । शरीर के अन्तिम संस्कार के समय तीर्थकरों, गणधर देवों, सामान्य केविलयों एवं महाव्रनियों के शरीर के अन्तिम संस्कार का ही वर्णन शास्त्रों में मिलता है । अतः प्रतिफलित होता है कि श्रावकों को अन्त समय में महाव्रती अवश्य होना चाहिये । समाधि मरण करने वाला प्रीति, बैर, ममत्व और परिग्रह को छोड़कर स्वच्छ हृदय होता हुआ मधुर वचनों से क्षमा करता और कराता है; शरीर को भार स्वरूप समझता है। किसी प्रकार का शोक नहीं करता है, भूख प्यास की बाधा सहन होगी कि नहीं यह सोच समाप्त हो जाती है और क्रम-क्रम से आहार का त्याग करता है । एक साथ पूर्ण आहार त्याग देने से क्षपक को आकुलता हो सकती है, अतः सल्लेखना विधि कराने वाले निर्यापकाचार्य क्षपक की शक्ति को देखकर क्रम से आहार का त्याग कराते हैं । प्रथम कवनाहार (दाल, चावल रोटी आदि) का त्याग कराकर Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त 59/1-2 101 स्निग्ध पेय दूध आदि देते हैं। इसके बाद छाछ देकर इसका भी त्याग कराके मात्र गर्म जल देते हैं। शक्ति के अनुसार उपवास करते हुये पंच परमेष्ठी का स्मरण कर शरीर का त्याग किया जाता है। इस पूरी प्रक्रिया में सल्लेखना कराने वाले आचार्य (निर्यापकाचाय) की महत्वपूर्ण भूमिका रहती है। क्योंकि रोग की वेदना, तीव्र राग का उदय, विषयों की लिप्तता आदि के समय मन विचलित होने लगता है तब निर्यापकाचार्य अपने संबोधन से क्षपक के विचारों में स्थिरता प्रदान करते हैं। अतः श्रेष्ठ निर्यापकाचार्य होना आवश्यक है। निर्यापकाचार्य के आठ गुण कहे गये हैं। आचारी सूरिराधारी व्यवहारी प्रकारकः । आयापाय दृगुउत्पीडी सुखकार्यपरिस्रवः।। __ आचारवान, आधारवान, व्यवहारवान प्रकारक (का), आयापाय, दृग, उतपीड़क और परिस्रावी इन आठ गुणों से सहित निर्यापकाचार्य होना चाहिये। क्योंकि बिना आचार्य के उपदेश के मन की शुद्धि, स्थिरता नहीं होती है। शरीर के रिष्टों से स्थिति समझकर सल्लेखना ग्रहण की जाती है। काल की अपेक्षा सल्लेखना उत्तम, मध्यम और जघन्य के भेद से तीन प्रकार की होती है। उत्कृष्ट बारह वर्ष, मध्यम काल के असंख्यात भेद है। जघन्य काल अन्तर्मुइर्त है। उत्कृष्ट बारह वर्ष की सल्लेखना में आहारादि के त्याग का क्रम निम्नानुसार है जोगेहिं विचित्तेहिं दुखवेइ संवच्छ राणी चत्तारि। वियडीणि य जूहित्ता चत्तारि पुणो वि सोसेई ।। आयं विलणि व्वियडी हिंदोण्णि आयं विलेण एक्कं च । अद्धंणा दि विगट्टे हिंतदो अद्धं विगढे हिं।।16 विचित्र प्रकार के काय क्लेशादि योग से चार वर्ष पूर्ण करें पश्चात् चार वर्ष रस रहित भोजन से शरीर कृश करे। आचाम्ल (अल्पाहार) तथा नीरस भोजन से दो वर्ष पूर्ण करे पश्चात् अल्पाहार से एक वर्ष पूर्ण Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त 59 / 1-2 I करे । इसके बाद छह महिने अनुत्कृष्ट तप करे और अंतिम छह महिने उत्कृष्ट तप कर बारह वर्ष पूर्ण करे । समाधि मे आचार्य को क्षपक के भावों की स्थिरता का विशेष ध्यान रखना पड़ता है। यदि भावों में कोई विकार आ जावे तो समाधि विकृत हो जाती है। अतः निर्दोष और निर्विघ्न समाधि करने के लिये उत्कृष्ट अड़तालीस परिचारक मुनियों की आवश्यकता होती है। मध्यम रीति से परिचर्या करने वाले साधुओं की संख्या चार चार कम करते जाना चाहिये । अत्यन्त निकृष्ट में भरत क्षेत्र में जघन्य रूप से दो मुनिराज निर्यापक, निर्यापक परिचारक पद से ग्रहण करना चाहिये । अकेला एक साधु समाधि कराने में समर्थ नहीं होता है। निर्यापक के बिना क्षपक अशान्ति से मृत्यु को प्राप्त करता है अतः भयानक दुर्गति में जाता है। निर्दोष उत्कृष्ट समाधि में अड़तालीस साधुओं का कार्य विभाजन निम्न प्रकार से किया जाता है - चार मुनि आहार लाते हैं। चार मुनि पेय पदार्थ लाते हैं। चार मुनि आहार पान का रक्षण करते हैं चार मुनि क्षपक के मल मूत्र को साफ करते हैं। एवं सूर्योदय और सूर्यास्त के समय वसतिका, उपकरण और संस्तर आदि का शोधन करते हैं : चार मुनि वसतिका के द्वार का और चार मुनि समवशरण ( सभा-स्थान) के द्वार का प्रयत्नपूर्वक रक्षण करते हैं। चार मुनि उपदेश मण्डप का रक्षण करते हैं। चार मुनि क्षपक के पास रात्रि जागरण करते हैं। चार मुनि निवास स्थान के बाह्य क्षेत्र की शुभाशुभ वार्ता का निरीक्षण करते हैं। चार मुनि श्रोताओं को उपदेश देते हैं चार मुनि वाद-विवाद करने वालों के साथ वादविवाद करके सिद्धान्त का रक्षण करते हैं । चार मुनि राज धर्म कथा करने वालों का रक्षण करते हैं । अर्थात् बराबर व्यवस्था बनाये रखने को इधर-उधर घूमते रहते हैं । इस प्रकार उत्कृष्टतः अड़तालीस परिचारक मुनि संसार समुद्र से प्रयाण करने वाले क्षपक को रत्नत्रय पूर्वक समाधि में लगाये रहते हैं । किन्तु क्षपक को प्रत्याख्यान, प्रतिक्रमण, प्रायश्चित, उपदेश, तीन प्रकार के आहार का त्याग एवं प्रश्न 102 Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त 59/1-2 100 आदि करने का कार्य निर्यापकाचार्य ही करते हैं।” क्षपक को रोगादि से मुक्ति के लिये जिन वचन ही औषधि हैं ऐसा उपदेश देकर जिन धर्म में दृढ़ता करके आराधनाओं की आराधना में लीनता प्रदान की जाती है। जो क्षपक सम्यक् दर्शन, सम्यक् ज्ञान, सम्यक् चारित्र और सम्यक् तप की उत्कृष्ट आराधना करते हैं वे उसी भव से सिद्धत्व प्राप्त करते हैं। मध्यम आराधना करने वाले धीर वीर पुरुष तीन भव में कर्म रहित अवस्था अर्थात् मोक्ष प्राप्त करते हैं। जघन्य आराधना करने वाले सात जन्मों में सिद्ध अवस्था प्राप्त कर लेते हैं। समाधि की अनुमोदना करने वाले और क्षपक के दर्शन करने वाले भी समाधि पूर्वक मरण कर निकट भव में सिद्धत्व प्राप्त करते हैं। सल्लेखना मनुष्य भव की सर्वोत्कृष्ट उपलब्धि है। संदर्भ सूची 1. सवार्थ सिद्धि -7/22, 2. राज वार्तिक -7/22/3, 3. समाधि मरणोत्साह दीपक-1, 4. नियमसार -122-123, 5. रत्नकरण्ड श्रावकाचार 5/1, 6. सवार्थ सिद्धि 7/22, 7. धवला 1.1.1.33, 8. भगवती आराधना 26, 9. भगवती आराधना 2011 से 2024, 10. मूलाचार प्रदीप 2819-2820, 11. वसुनंदि श्रावकाचार 271, 12. रत्नकरण्ड श्रावकाचार 5/4, 13. सावय पन्नति 378, 14. समाधि मरणोत्साह दीपक 35, 15. मरण कण्डिका 433, 16. भगवती आराधना 258, 259, 17. समाधि दीपक 21.22 पृ. -1 -मु.पो.- रजवॉस जिला-सागर (म.प्र.) Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आयुर्वेद के ग्रंथों की रचना प्रक्रिया में जैन मनीषियों का योगदान -आयुर्वेदाचार्य राजकुमार जैन जिनागम परम्परा में आयुर्वेद को लौकिक विद्या के रूप में स्वीकार किया गया है और उसे 'प्राणावाय' संज्ञा से व्यवहृत किया गया है। जैन धर्मानुसार सम्पूर्ण जिनागम द्वादशांग रूप अथवा द्वादशांग में विभक्त है। सर्वज्ञ जिनेन्द्र देव (परमेष्ठी) के मुखारविन्द से मुखरित दिव्य ध्वनि को सम्पूर्ण श्रुतज्ञान के धारक गणधर द्वारा जब धारण किया गया तो ज्ञान रूप वह दिव्य ध्वनि बारह भेदों में विभक्त हुई जिसे आचारांग आदि के रूप में निरूपित किया गया। इस प्रकार गणधर द्वारा निरूपित ज्ञान रूप आगम के बारह भेदों को द्वादशांग की संज्ञा दी गई। उन द्वादशांगों में प्रथम ‘आचारांग' है और बारहवां 'दृष्टिवादांग' है। उस बारहवें दृष्टिवादांग के पांच भेद हैं जिनमें से एक भेद है 'पूर्व' या 'पूर्वगत'। उस 'पूर्व' (पूर्वगत) के चतुर्दश भेद हैं जिनमें एक (बारहवा) प्राणावाय नाम का भेद है। द्वादशांग के इसी 'प्राणावाय' नामक अंग में सम्पूर्ण अष्टांग आयुर्वेद का कथन किया गया है। राजवार्तिक में 'प्राणावाय' का स्वरूप निम्न प्रकार से वर्णित है"कायचिकित्साद्यष्टांगमायुर्वेदः भूतिकर्मजांगुलिप्रक्रमः प्राणापानविभागोऽपि यत्र विस्तरेण वर्णितस्तत्प्राणावायम्।" अर्थात् जिस शास्त्र में काय, तद्गत दोष और चिकित्सा आदि अष्टांग आयुर्वेद का वर्णन विस्तार पूर्वक किया गया हो, पृथ्वी आदि महाभूतों की क्रिया, विषैले प्राणियों और उनके विष की चिकित्सा आदि तथा प्राण-अपान का विभाग जिसमें विस्तार पूर्वक वर्णित हो वह 'प्राणावाय' है। Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त 59 / 1-2 गोम्मटसार ( जीवकाण्ड) की जीवतत्वप्रदीपिका संस्कृत छाया निम्न प्रकार है- प्राणानां आवादः प्ररूपणमस्मिन्निति प्राणावायं द्वादशं पूर्वं, तच्च कायचिकित्साद्यष्टांगमायुर्वेदभूतिकर्मजांगुलिकप्रक्रमं इलापिंगलासुषुम्नादिबहुप्रकारप्राणापानविभागं दशप्राणानां उपकारकद्रव्याणि गत्याद्यनुसारेण वर्णयति । तत्र द्विलक्षगुणितपंचाशदुत्तरषट्छतानि पदानि त्रयोदशकोटय इत्यर्थः । अर्थात् प्राणों का आवाद - कथन जिसमें है वह 'प्राणावाद' नामक बारहवां पूर्व है । वह कायचिकित्सा आदि अष्टांग आयुर्वेद, जननकर्म, जांगुलि प्रक्रम, ईड़ा - पिंगला- सुषुम्ना आदि अनेक प्रकार के प्राण - अपान ( श्वासोच्छ्वास) के विभाग तथा दश प्राणों के उपकारक - अपकारक द्रव्य का गति आदि के अनुसार वर्णन करता है । उसमें दो लाख से गुणित छह सौ पचास अर्थात् तेरह करोड़पद हैं। 105 इस प्रकार द्वादशांग में आयुर्वेद का प्रतिपादन होने से जैन धर्म में प्राणावाय के रूप में आयुर्वेद की प्रामाणिकता सुस्पष्ट है। जिन आचार्यों, मनीषियों एवं विद्वत्प्रवरों के द्वारा प्राणावाय को अधिकृत कर विशाल साहित्य के रूप में जो विपुल ग्रंथों की रचना की गई उनमें से वर्तमान में जो उपलब्ध साहित्य या ग्रंथ हैं । उनका अवलोकन करने से प्रतीत होता है कि प्राणावाय की अद्यावधिक विकास यात्रा में अनेक उतारचढ़ाव रूपात्मक परिवर्तन आए हैं। वर्तमान में हमारे समक्ष प्राणावाय परम्परा का एक मात्र प्रतिनिधि ग्रंथ 'कल्याण कारक' है जिसकी रचना आठवीं शताब्दी के अन्त में दिगम्बर आचार्य श्री उग्रादित्य ने की थी । यही एकमात्र ऐसा ग्रंथ है जिसमें प्राणावाय की प्राचीन परम्परा और उस परम्परा के अन्तर्गत कतिपय आचार्यों और उनके द्वारा लिखित ग्रंथों का उल्लेख मिलता है। इसके पूर्व या बाद का ऐसा कोई प्रामाणिक ग्रंथ उपलब्ध नहीं है जो प्राणावाय के समबन्ध में आधिकारिक रूप से प्रकाश डालता हो । अतः इससे यह स्पष्ट है कि प्राणवाय पूर्व ( जैनायुर्वेद) की प्राचीन परम्परा मध्य युग से पूर्व ही लुप्त हो चुकी थी । Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 106 अनेकान्त 59/1-2 ___यद्यपि मध्य युग से पूर्व के दो मनीषी आचार्यों श्री समन्तभद्र स्वामी (द्वितीय शताब्दी) और श्री पूज्यपाद स्वामी (चतुर्थ शताब्दी) के द्वारा आयुर्वेद के ग्रन्थों की रचना किए जाने का उल्लेख और कुछ अपूर्ण जानकारी मिलती है जिसकी चर्चा आगे इन आचार्यों सम्बन्धी प्रकरण में की जायेगी, किन्तु वर्तमान में इन दोनों आचार्यों द्वारा लिखित कोई भी ग्रंथ अभी तक प्रकाश में नहीं आया है। अतः यह कह पाना सम्भव नहीं है कि द्वितीय-चतुर्थ शताब्दी में प्राणावाय की परम्परा विद्यमान रही है। किन्तु इतना अवश्य है कि श्री समन्तभद्र स्वामी द्वारा विरचित आयुर्वेद के अष्टांगों से युक्त कोई ग्रंथ (सम्भववतः अष्टांग संग्रह) श्री उग्रादित्याचार्य (आठवीं शताब्दी) के समय में अवश्य ही विद्यमान रहा होगा जिसके आधार पर कल्याणकारक ग्रंथ की रचना किए जाने का स्पष्ट उल्लेख श्री उग्रादित्याचार्य ने किया है जो निम्न प्रकार है - अष्टांगमप्यखिलत्र समन्तभद्रैः प्रोक्तं सविस्तरवचो विभवैर्विशेषात् । संक्षेपतो निगदितं तदिहात्मशक्त्या कल्याणकारकमशेषपदार्थयुक्तम् ।। ____ अर्थात् श्री समन्तभद्रस्वामी द्वारा वाणी वैभव की विशेषता से विस्तारपूर्वक अष्टांग से युक्त सम्पूर्ण आयुर्वेद शास्त्र का कथन किया गया था। उसे ही अपनी शक्ति के अनुसार समस्त पदार्थों (विषयों) से युक्त यह कल्याण कारक ग्रंथ संक्षेप रूप से मेरे द्वारा कहा गया। ___ मध्ययुग में भी कल्याणकारक ग्रंथ की रचना के अतिरिक्त किसी अन्य सर्वांगपूर्ण ग्रंथ की रचना का संकेत नहीं मिलने से यह स्पष्ट है कि मध्य युग में प्राणावाय परम्परा का ह्रास होता गया और कालान्तर में उसका लोप भी हो गया। यद्यपि इस परम्परा के लुप्त होने के अनेक कारण हो सकते हैं, तथापि मुख्य कारण अज्ञात है। सम्भावित कारणों में जैसे वैद्यक विद्या (चिकित्सा शास्त्र) को जैन धर्म में एक लौकिक विद्या को सीखना और उसका अभ्यास करना निष्प्रयोजन होने से ग्रंथ रचना करना सम्भव नहीं था, क्योंकि वे सतत भ्रमण शील रहते थे। एक स्थान पर ठहर कर रहना उनके लिए सम्भव नहीं था, वे एक स्थान Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त 59/1-2 107 से दूसरे स्थान के लिए विहार करते रहते थे। श्रावक-श्राविकाओं की चिकित्सा करना उन्हें अभीष्ट नहीं था, क्योंकि इससे उनमें मोह उत्पन्न होने और परिग्रह वृत्ति बढ़ने की प्रबल सम्भावना रहती थी। अपनी या अपने संघस्थ साधु या साध्वी की चिकित्सा करने की अनुमति यद्यपि उन्हें थी, किन्तु चिकित्सा हेतु औषधि द्रव्य के लिए उन्हें अन्य मुखापेक्षी होना पड़ता था। औषधि द्रव्य की शुद्धता अशुद्धता का विचार भी उनके लिए महत्वपूर्ण था, क्योंकि बाहर से लाया गया ऐसा कोई भी द्रव्य जिसकी शुद्धता एवं ग्राह्यता सन्दिग्ध हो जैन साध के लिए वर्जनीय होता है। परिणामस्वरूप इस विषय (विद्या) की निष्प्रयोजनीयता एवं इसके प्रति अरूचि होने से जैन साधुओं द्वारा इस विद्या के अध्ययन अध्यापन का लोप हो गया और लोप हो गया प्राणावाय परम्परा का। जैन साधुओं-मुनियों की संयमशीलता और आचरण की शुद्धता निर्विवाद है। इससे वे निरोग और व्याधिकष्ट से मुक्त रहते हैं और इसीलिए उन्हें औषधि सेवन या औषधि प्रयोग की आवश्यकता का अनुभव नहीं होता। सम्भवतः यह भी एक कारण है जिससे उन्हें प्राणावाय के ग्रंथ प्रणयन से विरक्ति हुई। इसके अतिरिक्त आत्म साधना में रत जैन साधुओं, श्रावकों एवं धर्मानुरागियों को मुख्यतः अध्यात्म विद्या ही अभीष्ट रही है जिससे उनका आत्मकल्याण सम्भव था, अतः उसी ओर मुख्यरूप से उनका लक्ष्य रहा। ऐसा होते हुए भी जो सन्दर्भ प्राप्त होते हैं उनसे यह ज्ञात होता है कि अनेक जैन मनीषियों ने प्राणावाय (जैनायुर्वेद) आधारित ग्रंथों की रचना की थी जिनमें से अधिकांश वर्तमान में उपलब्ध नहीं हैं और जो उपलब्ध हैं भी, वे अपने उद्धार की प्रतीक्षा कर रहे हैं। सम्भव है वे भी प्रतीक्षा करते करते काल कवलित नहीं हो जावें। इस विषय में श्री समन्तभद्र स्वामी एवं श्री पूज्यपाद स्वामी द्वारा रचित ग्रंथों की संक्षिप्त चर्चा पूर्व में की जा चुकी है। यहां यह उल्लेख करना भी महत्वपूर्ण होगा कि दक्षिण भारत में फिर भी ईसा की आठवीं शती तक प्राणावाय Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त 59 / 1-2 के ग्रंथों की जानकारी प्राप्त होती है, किन्तु उत्तर भारत में तो प्राणावाय से सम्बन्धित एक भी ग्रंथ वर्तमान में उपलब्ध नहीं है। इससे ऐसा प्रतीत होता है कि उत्तर भारत में यह परम्परा बहुत पहले ही विलुप्त हो चुकी थी । किन्तु इतना अवश्य है कि ईसा की बारहवीं - तेरहवीं शताब्दी में कुछ मुनिजनों और जैन यतियों के द्वारा आयुर्वेदाधारित ग्रंथों की रचना की गई थी । किन्तु वे ग्रंथ प्राणावाय परम्पराधारित नहीं हो कर सामान्य आयुर्वेदाधारित हैं, क्योंकि उनमें प्राणावाय का उल्लेख कहीं भी किसी भी रूप में दृष्टिगत नहीं होता है । जिस प्रकार आयुर्वेद के अन्य सामान्य ग्रंथों में विभिन्न रोगों का निदान, लक्षण, चिकित्सा आदि का वर्णन प्राप्त होता है उसी प्रकार जैन यतियों के द्वारा रचित ग्रंथों में भी प्राप्त होता है । कुछ ग्रंथों में चिकित्सा योगों की बहुलता अवश्य मिलती है। इन ग्रंथों में कुछ तो मौलिक हैं और कुछ संग्रह ग्रंथ हैं। कुछ ग्रंथों पर यतियों द्वारा लिखी गई टीकाएं भी प्राप्त होती हैं जो संस्कृत अथवा देशी (प्रान्तीय) भाषा में है। कुछ ग्रंथ पद्यमय भाषानुवाद के रूप में हैं । 108 वर्तमान में उपलब्ध समग्र जैन वैद्यक वाङ्मय का अनुशीलन करने से यह निष्कर्ष निकलता है कि केवल कल्याणकारक को छोड़कर अन्य समस्त वैद्यक ग्रंथों का प्रणयन मध्य युग में (ईशवीय 12वीं शताब्दी से 19वीं शताब्दी तक) किया गया । स्थान विशेष या प्रदेश की दृष्टि से देख जाय तो अधिकांश जैन वैद्यकग्रंथों का प्रणयन पश्चिमी भारत, जैसे राजस्थान, गुजरात, कच्छ, सौराष्ट्र में विशेषतः हुआ। पश्चिमोत्तर भारत के पंजाब प्रान्त में भी जैन वैद्यक ग्रंथों की रचना किए जाने की जानकारी प्राप्त हुई है, किन्तु उसकी उपलब्धता नहीं होने से निश्चित रूप से कुछ कह पाना सम्भव नहीं हैं इसी प्रकार कर्नाटक में भी कन्नड़, प्राकृत और संस्कृत भाषा में रचित अनेक ग्रंथों के विभिन्न शास्त्र भण्डारों, मठों में रखे होने की जानकारी प्राप्त हुई है । जिन जैनाचार्यों द्वारा प्राणावाय या जैनायुर्वेद के ग्रंथों की रचना Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त 59 / 1-2 किए जाने का उल्लेख या संदर्भ प्राप्त होता है उनका और उनके योगदान का संक्षिप्त वर्णन यहां प्रस्तुत है | श्री समन्तभद्र 'प्राणावाय' पूर्व की परम्परा में श्री समन्तभद्र स्वामी का नाम अग्रणी है, क्योंकि उनसे पूर्व किसी अन्य मुनि या आचार्य का उल्लेख प्राप्त नहीं होता है जिसने प्राणावाय परम्परा के किसी ग्रंथ की रचना की हो । विभिन्न विद्वानों ने श्री समन्तभद्र स्वामी के व्यक्तित्व एवं कृतित्व पर पर्याप्त प्रकाश डाला है, अतः यहां पर केवल उनकी प्राणावाय या आयुर्वेद सम्बन्धी कृतियों - ग्रंथों पर प्रकाश डाला जा रहा है । प्राणावाय सम्बन्धी निम्न तीन ग्रंथों की रचना उनके द्वारा किए जाने का संकेत या संदर्भ प्राप्त होता है - - 109 - 1. अष्टांग संग्रह आयुर्वेद के आठ अंगों (शल्य तंत्र, शालाक्य तंत्र, काय चिकित्सा, भूत विद्या, अगदतंत्र, कौमारभृत्य, रसायन तंत्र और बाजीकरण) का विस्तार पूर्वक निरूपण करने वालायह एक सर्वांग पूर्ण ग्रंथ था जिसके आधार पर जिनमत का अनुसरण करते हुए श्री उग्रादित्याचार्य ने अपने 'कल्याण कारक' ग्रंथ की रचना की थी। इस आशय का कथन स्वयं श्री उग्रादित्याचार्य ने अपने कल्याण कारक ग्रंथ मे किया है जो पूर्व में उद्धृत किया जा चुका है । - 2. सिद्धान्त रसायन कल्प इस ग्रंथ का उल्लेख श्री वर्धमान पार्श्वनाथ शास्त्री (सोलापुर) ने कल्याणकारक ग्रंथ की प्रस्तावना में किया है । इस ग्रंथ के कुछ श्लोक भी उन्होंने उद्धृत कर ग्रंथ के महत्व को रेखांकित किया है। इससे स्पष्ट है कि इस ग्रंथ का अवलोकन उन्होंने स्वयं किया था । किन्तु यह अज्ञात है कि यह ग्रंथ उन्होंने कहां और किसके पास देखा है? अतः इस विषय में यदि गम्भीरता पूर्वक अन्वेषण किया जाय तो एतद्विषयक महत्वपूर्ण जानकारी प्राप्त हो सकती है । इस ग्रंथ के वैशिष्ट्य के विषय में कल्याणकारक ग्रंथ की प्रस्तावना देखें । 3. पुष्पायुर्वेद - इसका उल्लेख भी श्री वर्धमान पार्श्वनाथ शास्त्री Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 110 अनेकान्त 59/1-2 द्वारा 'कल्याणकारक' ग्रंथ की प्रस्तावना में किया गया है। इस ग्रंथ में अठारह हजार परागरहित पुष्पों से निर्मित रसायन औषधि प्रयोगों के विषय में बतलाया गया है। श्री वर्धमान पार्श्वनाथ शास्त्री ने इस ग्रंथ के विषय में निम्न प्रकार से प्रकाश डाला है – “इस पुष्पायुर्वेद ग्रंथ में क्रि. यू. 3रे शतमान की कर्नाटक लिपि उपलब्ध होती है जो बहुत मुश्किल से बांचने में आती है। इतिहास संशोधको के लिए यह एक अपूर्व व उपयोगी विषय है। अठारह हजार जाति के केवल पुष्पों के प्रयोगों का ही जिसमें कथन हो उस ग्रंथ का महत्व कितना होगा यह भी पाठक विचार करें। अभी तक पुष्पायुर्वेद का निर्माण जैनाचार्यों के सिवाय और किसी ने भी नहीं किया है। आयुर्वेद संसार में यह एक अद्भुत चीज है। श्री समन्तभद्र स्वामी द्वारा रचित उपर्युक्त आयुर्वेद के तीनों ग्रंथों की ओर अभी तक किसी अन्य विद्वान या साहित्यानुरागी का ध्यान नहीं गया है और न ही उनके द्वारा रचित ग्रंथों की सूची में इन का समावेश किया है। कहीं ऐसा न हो कि हमारी उदासीनता श्री समन्तभद्र स्वामी द्वारा रचित इन महत्वपूर्ण ग्रंथों को कालकवलित कर दे। 2. पूज्यपाद (देवनन्दि) दिगम्बर परम्परा के मनीषियों - आचार्यों में श्री पूज्यपाद स्वामी का नाम अत्यन्त श्रद्धापूर्वक लिया जाता है। दर्शन शास्त्र, तर्क विद्या, व्याकरण, वैद्यक शास्त्र, योगशास्त्र के प्रणेता के रूप में विश्रुत आचार्य श्री पूज्यपाद स्वामी जैन वाड्.मय और जिन धर्म के नभो मण्डल के देदीप्यमान नक्षत्र हैं। विभिन्न जैन शास्त्रों एवं इतिहास ग्रंथों में उनके वैदूष्य के विषय में पर्याप्त प्रकाश डाला गया है। यहां केवल उनके द्वारा आयुर्वेद के प्रति किए गए योगदान पर प्रकाश डाला जा रहा है - प्राप्त विवरण या सूचना के अनुसार श्री पूज्यपाद स्वामी ने 'कल्याण कारक' नामक वैद्यक ग्रंथ का निर्माण किया था जिसकी पुष्टि कन्नड़ Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त 59/1-2 11 भाषा एवं संस्कृति के मनीषी विद्वान जैनाचार्य जगद्दल सोमनाथ ने की है। उन्होंने पूज्यपाद स्वामी द्वारा लिखित कल्याणकारक ग्रंथ का कन्नड़ में अनुवाद एवं लिप्यन्तरण किया था। इससे स्पष्ट है कि यह ग्रंथ कितना महत्वपूर्ण है? प्रस्तुत ग्रंथ में पीठिका प्रकरण, परिभाषा प्रकरण, परिभाषा प्रकरण, षोडशज्वर चिकित्सा निरूपण प्रकरण आदि का प्रतिपादन विस्तार से किया गया है। कन्नड़ भाषा के प्राचीन वैद्यक ग्रंथों में यह ग्रंथ सर्वाधिक प्राचीन एवं व्यवस्थित है। पूज्यपाद स्वामी और उनके कल्याण कारक ग्रंथ की चर्चा करते हुए एक स्थान पर विद्वत्प्रवर जगद्दल सोमनाथ ने स्पष्ट लिखा है - सुकर तानेने पूज्यपादमुनिगलमुंपेलद कल्याणकारकर्म वाहटसिद्धसारचरकाद्युत्कृष्टतम सदगुणाधिकर्म वर्जितमद्यमांसमधुवं कर्णाटदि लोकरक्षमा चित्रमदागे चित्रकवि सोमं पेल्दनि तलितयिं ।। इसके अतिरिक्त आचार्य विजयण्ण उपाध्याय द्वारा लिखित (संकलित) 'सारसंग्रह' नामक एक ग्रंथ की प्रति जैन सिद्धांत भवन, आरा में सुरक्षित है। इस ग्रंथ में जो मंगलाचरण दिया गया है उसमें स्पष्ट रूप से पूज्यपाद द्वारा कथित (लिखित) कल्याणकारक ग्रंथ का उल्लेख किया गया है। जिससे इस तथ्य की पुष्टि होती है कि पूज्यपाद स्वामी ने कल्याण कारक नामक ग्रंथ की रचना की थी। सारसंग्रह में विहित मंगलाचरण निम्न प्रकार है - नमः श्रीवर्धमानाय निर्धूत कलिलात्मने। कल्याणकारको ग्रंथः पूज्यपादेन भाषितः।। सर्वलोकोपकारार्थ कथ्यते सारसंग्रहः। श्री पूज्यपाद द्वारा लिखित आयुर्वेद के अन्य अनेक ग्रंथों का उल्लेख मिलता है जिनमें से कुछ निम्न हैं- रत्नाकरौषध योग ग्रंथ, भैषज्यगुणार्णव, वैद्यसार, निदानमुक्तावलि, मदन कामरत्न,विद्याविनोद, पूज्यपाद वैद्यक, वैद्यक शास्त्र, नाड़ी परीक्षा आदि। आयुर्वेद के प्रसिद्ध Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 112 अनेकान्त 59/1-2 ग्रंथ 'योगरत्नाकर' में पूज्यपाद के नाम से चिकित्सोपयोगी अनेक रसयोगों को उद्धृत किया गया है जिससे पूज्यपाद द्वारा रचित रसशास्त्र प्रधान किसी विशाल चिकित्सा ग्रंथ के होने का संकेत मिलता है। इसी प्रकार 'वसवराजीयम्' नामक ग्रंथ में भी पूज्यपाद के नाम से अनके रसयोग उद्धृत किए गए हैं। जैसे भ्रमणादि वात रोग में 'गंधक रसायन' नामक योग के अन्त में लिखा है - अशीतिवातरोगांश्चाशांस्यष्टविधानि च। मनुष्याणां हितार्थाय पूज्यपादेन निर्मितः।। इसी प्रकार कालाग्निरुद्र रस के पाठ में भी पूज्यपाद के नाम का उल्लेख निम्न प्रकार से किया गया है - अशीति वातजान् रोगान् गुल्मं च ग्रहणीगदान्। रसः कालाग्निरूद्रोऽयं पूज्यपादविनिर्मितः।। इसके अतिरिक्त वातादि रोगों में 'त्रिकटुकादि नस्य' के पाठ में "पूज्यपादकृतो योगो नराणां हतकाम्यया”, ज्वरांकुश रस के पाठ में "पूज्यपादोपदिष्टोऽयं सर्वज्वरगजांकुशः।" चण्डभानुरसे- “नाम्नायं चण्डभानुः सकलगदहरो भाषित पूज्यपादैः। शोफमुद्गर रसे “शोफमुद्गरनामाऽयं पूज्यपादेन निर्मितः” इत्यादि। यदि इन समस्त योगों का संकलन किया जाय तो एक वृहद् ग्रंथ का निर्माण हो सकता है। गुम्मट देव मुनिकृत मेरूदण्ड तंत्र ___ श्री गुम्मट देव मुनि ने 'मेरूदण्ड तंत्र' नामक ग्रंथ का निर्माण किया था जिसमें आयुर्वेदीय चिकित्सा सम्बन्धी रस योगों का उल्लेख है। इस ग्रंथ में लेखक ने श्री पूज्यपाद स्वामी का आदर पूर्वक स्मरण एवं उल्लेख किया है। वर्तमान में यह ग्रंथ उपलब्ध नहीं है। श्री वर्धमान पार्श्वनाथ शास्त्री ने 'कल्याणकारकः ग्रंथ के अपने सम्पादकीय वक्तव्य में पृष्ट 39 पर इसका उल्लेख किया है। इसके अतिरिक्तश्री विजयण्ण उपाध्याय द्वारा Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त 59/1-2 113 रचित 'सारसंग्रह' (अपर नाम-अकलंक संहिता) में पृष्ट 33 से गुम्मट देव मुनि कृत 'मेरूदण्डतंत्र' के नाड़ी परीक्षा, ज्वर निदान आदि अनेक प्रकरण संकलित किए गए हैं। इस के प्रत्येक परिच्छेद के अन्त में पूज्यपाद का सम्मानपूर्वक नामोल्लेख किया गया है। ___ डा. राजेन्द्रप्रकाश भटनागर के अनुसार गोम्मट देव ने अपने 'मेरूतंत्र' नामक वैद्यक ग्रंथ में पूज्यपाद को अपना गुरू बतलाते हुए उनके 'वैद्यामृत' नामक ग्रंथ का उल्लेख निम्न पंक्तियों में किया है - सिद्धान्तस्य च वेदिनो जिनमते जैनेन्द्रपाणिन्य च। कल्पव्याकरणाय ते भगवते देवयालियाराधिपा(?)।। श्री जैनेन्द्रवचस्सुधरसवरैः वैद्यामृतो धार्यते। श्री पादास्य सदा नमोऽस्तु गुरवे श्री पूज्यपादौ मुनेः।। इससे दो बातें स्पष्ट हैं कि श्री गुम्मट देव मुनि श्री पूज्यपाद स्वामी को अपना गुरू मानते थे और उनके द्वारा 'वैद्यामृत' नामक ग्रंथ की रचना की गई थी जो वर्तमान में दृष्टिगम्य नहीं है। श्री विजयण्ण उपाध्याय कृत सारसंग्रह इस ग्रंथ की एक प्रति जैन सिद्धान्त भवन आरा में विद्यमान है जिसकी ग्रंथ संख्या 255 ख है। इस ग्रंथ का उल्लेख पं. के भुजबली शास्त्री द्वारा सम्पादित 'प्रशस्ति संग्रह' तथा “जैन सिद्धन्त भास्कर", भाग-6 किरण-2 में प्रशस्ति के अन्तर्गत किया गया है। श्री पं. के. भुजबली शास्त्री द्वारा दिए गए विवरण के अनुसार यह ग्रंथ राजकीय प्राच्य पुस्तकागार, मैसूर से लिपिबद्ध कराया गया है। वहां की मुद्रित ग्रंथ तालिका में ग्रंथ का नाम अकलंक संहिता और कर्ता का नाम अकलंक भट्ट लिखा मिलता है। किन्तु इसका कोई आधार नजर नहीं आता। ग्रंथ में उल्लिखित निम्न श्लोकों से स्पष्ट है कि इस ग्रंथ का नाम सारसंग्रह है और इसके कर्ता श्री मद्विजयण्णोपाध्याय है - Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 114 अनेकान्त 59/1-2 नमः श्री वर्धमानाय निर्धूतकलिलात्मने। कल्याणकारको ग्रंथः पूज्यपादेन भाषितः।। सर्वलोकोपकारार्थ कथ्यते सार संग्रहः। श्री मद्वाग्भट् सुश्रुतादि विमल श्री वैद्यार्णवे। भास्वतसुसारसंग्रह महा भामान्विते संग्रहे ।। मंत्रज्ञैरपलाल्पसद्विजयण्णोपाध्यायसन्निर्मिते। ग्रंधेऽस्मिन् मधुपाकसारविचये पूर्णो भवेन्मंगलम् ।। आयुर्वेदाचार्य श्री पं. विमलकुमार जैन का भी कहना है कि बुन्देलखण्ड में भी मुझे इसकी एक दो प्रतियां दृष्टिगोचर हुई हैं और उन प्रतियों में इसका नाम 'सारसंग्रह' ही मिलता है। पात्रस्वामी या पात्रकेशरी श्री उग्रादित्याचार्य ने अपने ग्रंथ कल्याणकारक में “शल्यतंत्र च पात्रस्वामिप्रोक्तं" (क.का. 20/85) इत्यादि वाक्य के द्वारा इनके द्वारा रचित शल्य तन्त्र सम्बन्धी ग्रंथ का उल्लेख किया है। यह ग्रंथ वर्तमान में उपलब्ध नहीं है। इनके विषय में कहा गया है कि ये दक्षिण के अहिच्छत्र नगर के राज पुरोहित थे। ये समन्तभद्र द्वारा रचित आप्तमीमांसा को पढ़कर अत्यधिक प्रभावित हुए और इन्होंने जैनधर्म अंगीकार कर लिया। ये दिगम्बर थे और बौद्धों के द्वारा प्रतिपादित हेतु के लक्षण का खण्डन करने के लिए इन्होंने पद्मावती देवी की कृपा से 'त्रिलक्षणकदर्थन' नामक ग्रंथ की रचना की थी। जिनेन्द्रगुणस्तुति (पात्रकेसरी स्तोत्र) भी इन्हीं के द्वारा रचित है। जैन शिलालेख संग्रह, भाग-1, पृष्ट 103 के अनुसार श्रवणबेलगोला की मल्लिषेण प्रशस्ति (सन् 128) में इस प्रसंग का निम्न उल्लेख या सन्दर्भ कल्याणकारक के अतिरिक्त कहीं अन्यत्र प्राप्त नहीं होता है। कल्याणकारक ग्रंथ में उद्धृत आचार्य - कल्याणकारक ग्रंथ में श्री उग्रादित्याचार्य ने अपने पूर्ववर्ती कतिपय Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त 59 / 1-2 आचार्यों और उनके द्वारा रचित ग्रंथों का उल्लेख किया है जो निम्न प्रकार है - शालाक्यं पूज्यपादप्रकटितमधिकं शल्यमतंत्र च पात्र स्वामिप्रोक्तं विषोग्रग्रहशमनविधिः सिद्धसेनैः प्रसिद्धः । काये या सा चिकित्सा दशरथगुरूभिर्मेघनादैः शिशूनां वैद्यं वृष्यं च दिव्यामृतमपि कथितं सिंहनादैर्मुनीन्द्रैः । । अर्थात् शालाक्यतंत्र (उर्ध्वांग चिकित्सा) पूज्यपाद के द्वारा प्रकट किया गया । तद्वत् शल्यतंत्र पात्रस्वामि के द्वारा कहा गया, विष और उग्र ग्रह शमन विधि ( अगदतंत्र एवं भूत विद्या) ख्याति प्राप्त सिद्धसेन द्वारा कहा गया, कायचिकित्सा का कथन दशरथ गुरू के द्वारा किया गया, शिशु चिकित्सा (कौमारभृत्य ) का कथन मेघनाद एवं दिव्यामृत (रसायन) और वृष्य (बाजीकरण) का कथन सिंहनाद मुनीन्द्र (मुनि श्रेष्ठ ) द्वारा किया गया । . 115 - उपर्युक्तानुसार जिन आचार्यों का उल्लेख श्री उग्रादित्याचार्य द्वारा किया गया है उनका कोई ऐतिहासिक वर्णन यद्यपि प्राप्त नहीं होता है, तथापि उनके द्वारा विभिन्न वैद्यक विषयों पर आधारित ग्रंथ रचना किए जाने का उल्लेख श्री उग्रादित्याचार्य द्वारा किए जाने से यह स्पष्ट है कि उनके समय में या तो वे ग्रंथ विद्यमान रहे होंगे अथवा उनके विषय में पर्याप्त जानकरी उन्हें रही होगी । उपर्युल्लिखित आचार्यों का संक्षिप्त विवरण यहां प्रस्तुत है सिद्धसेन श्री उग्रादित्याचार्य के उपर्युक्त उल्लेख “विषोग्रग्रहशमनविधिः सिद्धसेनैः प्रसिद्धैः” से ज्ञात होता है कि आचार्य सिद्धसेन के द्वारा अगदतंत्र (विष विज्ञान ) एवं उग्र ग्रह शमन ( भूतविद्या) विषय पर आधारित ग्रंथ का निर्माण किया था जो वर्तमान में उपलब्ध नहीं है और न ही तद्विषयक कोई साक्ष्य या संकेत अन्यत्र उपलब्ध है। इनके विषय Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 116 अनेकान्त 59/1-2 में किसी ऐतिहासिक सन्दर्भ के अभाव में यद्यपि कोई काल निर्धारण करना सम्भव नहीं है, तथापि ये श्री उग्रादित्याचार्य के पूर्ववर्ती रहे होंगे और उनके द्वारा रचित ग्रंथ उनके समय में रहा होगा। मेघनाद ये भी उग्रादित्याचार्य द्वारा सन्दर्भित या उल्लिखित आचार्य हैं जिनके द्वारा शिशु वैद्यक जिसे बाल रोग चिकित्सा या कौमार मृत्य कहा जाता है विषय पर आधारित वैद्यक ग्रंथ की रचना किए जाने का उल्लेख है। यद्यपि इनके विषय में कोई साक्ष्य या ऐतिहासिक विवरण उपलब्ध नहीं है, अतः इनके विषय में कुछ कह पाना या इनके समय का निर्धारण करना सम्भव नहीं है, तथापि कल्याणकारक में इनका उल्लेख होने से ये श्री उग्रादित्याचार्य के पूर्ववर्ती रहे हैं-ऐसा मानना समीचीन होगा। डा. राजेन्द्र प्रकाश भटनागर के अनुसार ये दक्षिण की दिगम्वर परम्परा के आचार्य और वैद्यक शास्त्र के विद्वान थे। सिंहनाद जैन साहित्य के इतिहास में इनके विषय में कोई परिचयात्मक सामग्री अथवा ऐतिहासिक विवरण सुलभ नहीं होने से निश्चयात्मक रूप से इनके विषय में कुछ कहना सम्भव नहीं है। फिर भी इनके द्वारा आयुर्वेद के दो विषयों रसायन और बाजीकरण पर ग्रंथ लिखे जाने की आधिकारिक सूचना श्री उग्रादित्याचार्य ने अपने ग्रंथ 'कल्याणकारक' में दी है जो इस प्रकार है-“वृष्यं च दिव्यामृतमपि कथितं सिंहनादैर्मुनीन्द्रैः।" तदनुसार वृष्य अर्थात् बाजीकरण और दिव्यामृत अर्थात शरीर को जरा और व्याधि से मुक्त करने वाला रसायन तंत्र सम्बन्धी ग्रंथ का कथन सिंहनाद मुनीन्द्र द्वारा किया गया। श्री उग्रादित्याचार्य ने इनके लिए 'मुनीन्द्र' पद विशेषण रूप में लगाया है जिससे प्रतीत होता है कि ये दिगम्बर परम्परा के उच्च कोटि Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त 59/1-2 117 के साधु थे और उनके लिए पूज्य थे। उनके पूर्ववर्ती होने से उनके द्वारा आदर सहित उनका स्मरण किया गया है। डॉ. राजेन्द्र प्रकाश भटनागर के अनुसार इनके नाम का पाठान्तर 'सिंह सेन' मिलता है। डॉ. भटनागर का यह कथन किस आधार पर है यह स्पष्ट नहीं है, तथापि इस नाम से भी उनके विषय में कोई विवरण प्राप्त नहीं होता है, अतः उनका व्यक्तित्व, कृतित्व एवं काल सम्बन्धी स्थिति स्पष्ट नहीं है। इतना अवश्य है कि कल्याणकारक में इनके द्वारा रचित ग्रंथ का उल्लेख होने से इनका श्री उग्रादित्याचार्य से पुर्ववर्ती होना सुनिश्चित है। दशरथ गुरु इनका भी उल्लेख 'कल्याणकारक' ग्रंथ में 'कायचिकित्सा' नामक ग्रंथकर्ता के रूप में किया गया है। यथा “काये या सा चिकित्सा दशरथगुरुभिः।" इससे प्रतीत होता है कि दशरथ गुरु जो उग्रादित्याचार्य के पूर्ववर्ती थे ने कायचिकित्सा विषय पर आधारित ग्रंथ की रचना की थी और उस समय वह ग्रंथ प्रचलित था, किन्तु अब नहीं है। जैन धर्म का प्राचीन इतिहास (भाग-2) के अनुसार दशरथ गुरु पंचस्तूपान्वयी वीरसेन के शिष्य और जिनसेनाचार्य के सधर्मा बन्धु गुरु भाई थे। जिनसेनाचार्य अत्यधिक मेधावी और प्रकाण्ड विद्वान् थे। जिनसेनाचार्य का सतीर्थ होने से दशरथ गुरु का भी वही समय निर्धारित होता है जो जिनसेनाचार्य का है। उन्होंने अपनी जय धवला टीका शक स. 759 (सन् 837) में पूर्ण की थी। तदनुदसार उनका समकालीन होने से दशरथ गुरु का समय भी सन् 800 से 837 ई. होना चाहिये। उग्रादित्याचार्य श्री उग्रादित्याचार्य उन अप्रतिम जैन मनीषियों में से हैं जिन्हें 'प्राणावाय पूर्व' का साधिकार पूर्ण ज्ञान था। इसका साक्षी है उनके Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 118 अनेकान्त 59/1-2 द्वारा रचित 'कल्याणकारक' ग्रंथ जो वर्तमान में सर्वांगपूर्ण (अष्टांगयुक्त) प्राणावाय (जैन चिकित्सा शास्त्र) एवं जैन दृष्टिकोण पर आधारित है। इसमें किसी भी रूप में मांसाहार सेवन नहीं करने का निर्देश करते हुए उसकी निरर्थकता का प्रतिपादन और अहिंसा की प्रतिष्ठापना की गई है। यद्यपि ग्रंथ लेखक श्री उग्रादित्याचार्य ने अपना कोई परिचयात्मक विवरण नहीं दिया है, तथापि अपने गुरू के विषय में स्पष्ट रूप से लिखा है। उन्होंने अपने गुरू का नाम 'श्रीनन्दि' बतलाया है जो अशेषागमज्ञ (जिनागम और तदन्तर्गत सम्पूर्ण प्राणावाय के ज्ञाता) थे। उनसे ही प्राणावाय (आयुर्वेद शास्त्र) में वर्णित दोषों (वात-पित्तकफ), उन दोषों से उत्पन्न उग्र रोगों और उनकी चिकित्सा आदि का ज्ञान प्राप्त कर इस ग्रंथ की रचना की थी। इससे स्पष्ट है कि उस काल में श्री नन्दि अशेष प्राणावाय शास्त्र के ज्ञाता के रूप में ख्यापित थे। कल्याणकारक के अनुसार आचार्य श्रीनन्दि को विष्णुराज जो परमेश्वर (परमश्रेष्ठ) की उपाधि से अलंकृत थे की राजसभा में विशेष आदर प्राप्त था। मुनीन्द्र श्रीनन्दि का गुणगान करते हुए श्री उग्रादित्याचार्य लिखते हैं-"महाराजा विष्णुराज के मुकुट की माला से जिनके चरण युगल शोभित हैं अर्थात् जिनके चरण कमल में विष्णुराज नमस्कार करता है, जो सम्पूर्ण आगम के ज्ञाता हैं, प्रशंसनीय गुणों से संयुक्त हैं और जिनसे मेरा उद्धार हुआ है उनकी आज्ञा से नाना प्रकार के औषधि दान की सिद्धि के लिए (चिकित्सा की सफलता के लिए) और सज्जन वैद्यों के वात्सल्य प्रदर्शन रूपी तप की पूर्ति के लिए जिनमत (जिनामग) से उद्धृत इस कल्याणकारक ग्रंथ को इस धरा पर बनाया। ___ उपलब्ध विभिन्न साक्ष्यों के आधार पर विद्वानों द्वारा इनका समय आठवीं शताब्दी का उत्तरार्ध निर्धारित किया गया है। विद्वानों का यह भी मत है कि श्री उग्रादित्याचार्य मूलतः त्रिकलिंग वर्तमान में तेलंगाना Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त 59/1-2 119 (आंध्र प्रदेश) में स्थित ‘रामगिरि' (विशाखा पट्टन जिलान्तर्गत रामतीर्थ या रामकोंड) नामक पहाड़ियों के मध्य निवास करते थे। यहीं पर जिनालय में बैठकर उन्होंने अपने 'कल्याण कारक' ग्रंथ की रचना की थी। साथ ही अध्ययन से यह तथ्य भी उघाटित होता है हि उन्हें बेंगी के पूर्वी चालुक्य राजा विष्णुवर्धन चतुर्थ (764-799 ई.) का संरक्षण प्राप्त था। धनंजय कोश ग्रंथ रचनाकार के रूप में ये प्रख्यात हैं। इनके समय के विषय में विद्वानों में यद्यपि किंचित् मतभेद है, तथापि आठवीं-नवमी शताब्दी के मध्य इनकी अवस्थिति पं. नाथूराम प्रेमी. डा. हीरालाल जी आदि विद्वानों ने निर्धारित की है। इनके द्वारा रचित ग्रंथों में 'धनंजय निघण्टु' आयुर्वेद की दृष्टि से महत्वपूर्ण है। इसमें अनेक वानस्पतिक द्रव्यों का परिचय संग्रहित है। इनके द्वारा रचित विषापहार स्तोत्र में विष विज्ञान सम्बन्धी विषय का उल्लेख है जो आयुर्वेद से सम्बन्ध रखता है। इससे इनकी आयुर्वेदज्ञता लक्षित होती है। सोमदेव सूरि (9वीं श.) बहुश्रुत जैनाचार्य के रूप में श्री सोमदेव का नाम चर्चित है। इनका समय नवम शताब्दी का उत्तरार्ध सर्वमान्य है। यद्यपि इन्होंने आयुर्वेद के किसी स्वतन्त्र ग्रंथ की रचना नहीं की है, तथापि इनके द्वारा रचित यशस्तिलक चम्पू में विस्तारपूर्वक आयुर्वेद सम्बन्धी स्वस्थवृत्त, स्वास्थ्य रक्षा सम्बन्धी नियमों, हिताहार, अहिताहार और उसके सेवन से उत्पन्न होने वाली हानियों-विकारों, भोजन विधि, दिनचर्या, रात्रिचर्या, ऋतुचर्या आदि का प्रतिपादन जिस प्रकार विस्तार पूर्वक किया गया है वह उनके आयुर्वेद के प्रति उनके योगदान को स्वीकार करने में कोई आपत्ति नहीं है। Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 120 अनेकान्त 59/1-2 महेन्द्र जैन (11वीं श.) इनका अपर नाम महेन्द्र योगिक भी मिलता है, ये कृष्ण वैद्य के पुत्र थे। इनके द्वारा 'द्रव्यावलि समुच्चय' नामक ग्रंथ की रचना किए जाने का उल्लेख प्राप्त होता है। पूना से प्रकाशित धन्वन्तरि निघण्टु (1985) में भी 'द्रव्यावलि' समन्वित है। हेमचन्द्र (12वीं श.) और मंख (12वीं शता.) ने धन्वन्तरि निघण्टु को उद्धृत किया है। अंतः इनका काल 11वीं शता. होना प्रमाणित होता है। द्रव्यावलि में विभिन्न वानस्पतिक द्रव्यों के गुण-कर्मों का विवरण दिया गया है। दुर्गदेव (1032) ये 11वीं शती के प्रख्यात मनीषी हैं। इन्होंने प्राकृत भाषा में ज्योतिष पर आधारित रिट्ठ (रिष्ट) समुच्चय नामक ग्रंथ की रचना की है जिस में 261 गाथाएं हैं। भावी मरणसूचक लक्षणों के आधार पर रोगी या स्वस्थ मनुष्य की आयु ज्ञात करना (आयु निश्चय करना) रिष्ट या अरिष्ट कहलाता है-"नियतमरणख्यापकं लिंगमरिष्टम् । आयुर्वेद में इस विषय का अत्यधिक महत्व है। क्योंकि रोगी में समुत्पन्न लक्षणों के आधार पर या रोगी को देखने हेतु बुलाने के लिए आए दूत में अथवा रोगी को देखने हेतु जाते समय मार्ग में प्रकट हुए शुभाशुभ लक्षणों के आधार पर प्रत्याख्येय-अप्रत्याख्येय रोगी का निर्णय करने और तदनुसार विवेकानुसार उसकी चिकित्सा करने या नहीं करने में वैद्य को सुविधा रहती है। ऐसे लक्षणों का कथन तथा अन्य विभिन्न प्रकार के अरिष्ट लक्षणों का कथन 'रिट्ठ समुच्चय' में किया गया है। अतः आयुर्वेद की दृष्टि से भी यह ग्रंथ महत्वपूर्ण है, और आयुर्वेद के प्रति दुर्गदेव का योगदान अविस्मरणीय है। आचार्य हेमचन्द्र बहुमुखी प्रतिभा के धनी एवं वैदुष्य मण्डित श्री हेमचन्द्राचार्य जी Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त 59/1-2 121 जैन व्याकरण एवं तत्व मर्मज्ञ होने के साथ ही आयुर्वेद के भी ज्ञाता थे। इन्होंने अनेक ग्रंथों का प्रणयन किया है जो उनके पाण्डित्य एवं वैदूष्य का सूचक है। इन्होंने जिन ग्रंथों की रचना की है उनमें 'निघण्टु शेष' आयुर्वेद की दृष्टि से महत्वपूर्ण है जिसमें चिकित्सोपयोगी अनेक वानस्पतिक द्रव्यों के गुणधर्म का विवेचन किया गया है। इसके अतिरिक्त 'निघण्टु कोश' नामक एक ग्रंथ में भी उन वनस्पतियों के सार्थक पर्याय सहित उनके गणधर्मों का विवेचन किया गया है जिनका समावेश 'अभिधान चिन्तामणि' में नहीं किया गया है। कीर्तिवर्मा (1125) ये दक्षिण भारतीय (कर्नाटक के) जैन धर्मानुयायी चालुक्य राजा थे। इन्होने कन्नड़ में 'गो वैद्यक' नामक ग्रंथ की रचना की थी। उपलब्ध साक्ष्यों के आधार पर इनका समय 12वीं शताब्दी निर्धारित किया गया है। गुणाकार (1239 ई.) ये श्वेताम्बर आचार्य थे। इन्होंने नागार्जुन कृत आयुर्वेद के ग्रंथ 'योगरत्नमाला' अपर नाम 'आश्चर्यरत्नमाला' पर विवृति नामक टीका लिखी है जिसका रचना काल वि.सं. 1296 (1239 ई.) है। पं. आशाधर (1240) जैन विद्वानों में पं. आशाधर जी अत्यधिक आदरणीय मनीषि हैं। जैन साहित्य के रचनाकारों में अपने समय के मेधावी उद्भट मनीषि पं. आशा र जी दिगम्बर सम्प्रदाय के बहुश्रुत प्रतिभाशाली ग्रंथकार माने जाते है। जिनकी काव्य प्रतिभा धर्म और साहित्य के साथ साथ दर्शन, न्याय, व्यांकरण, योग, अलंकार, वैद्यक आदि के ग्रंथों की रचना में अभिव्यक्त हुई है। इनके द्वारा रचित विशाल ग्रंथ राशि को देखकर इनके प्रकाण्ड Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 12 अनेकान्त 59/1-2 पाण्डित्य पूर्ण काव्य वैभव का ज्ञान सहज रूपेण हो जाता है। धार्मिक आदि विषयों के ग्रंथ की रचना के साथ साथ्थ आचार्य वाग्भट द्वारा लिखित आयर्वेद के ग्रंथ 'अष्टांगहृदय' पर इनके द्वारा लिचिात 'अष्टांगहृदयोधोतिनी' ‘टीका' संस्कृत में लिखी जाने का उल्लेख विभिन्न विद्वानों ने किया है। वर्तमान में यह टीका उपलब्ध नहीं है। हरिपाल (13वीं शताब्दी) इन्होंने प्राकृत भाषा में 'वैद्यशास्त्र' नामक ग्रंथ की रचना की थी जिसका रचना काल वि.सं. 1341 (1284 ई.) है। इसका संक्षिप्त विवरण जैन ग्रंथ प्रशस्ति संग्रह, भाग-1 एवं जैन धर्म का प्राचीन इतिहास, द्वितीय भाग में प्राप्त होता है। इस ग्रंथ की एक हस्तलिखित प्रति श्री पं. कुन्दनलाल जैन को प्राप्त हुई है। उनके द्वारा प्रदत्त जानकारी के अनुसार प्रस्तुत रचना 'प्राकृत वैद्यक' के लिपिकार ने 'पराकत वैद्यक' लिखा है जो पत्र संख्या 402 पर उल्लिखित वाक्य 'इति प्राकृत वैद्यक समाप्तम्' से सूचित होता है। साथ ही ‘णमिऊण वीयरागं' लिखकर 'योग निशानद्ध के लिपिकार ने 'पराकृत वैद्यक और योग निधान नाम की दो भिन्न कृतियाँ है। उनके अनुसार प्राकृत वैद्यक 275 और योग निधान 108 गाथाओं में निबद्ध है। एतद्विषयक श्री कुन्दनलाल जी का एक लेख श्रमण (जनवरी-मार्च, 1997) में प्रकाशित हुआ है जिसमें विस्तार पूर्वक ग्रंथ और लेखक के विषय में चर्चा की गई हैं। चम्पक (13वीं शताब्दी) ये रस विद्या में निपुण जैन विद्वान थे। ये अंचल गच्छीय नायक महेन्द्रप्रभ सूरि के शिष्य थे। ये उज्जवल कीर्तिवान, यशस्वी एवं नित्य परोपकार में तल्लीन रहने वाले थे-ऐसा इनके द्वारा रचित 'रसाध्याय' नामक ग्रंथ में उल्लिखित प्रशस्ति से ज्ञात होता है। इस ग्रंथ का कुछ भग खण्डत होने से इस ग्रंथ का रचना काल ज्ञात नहीं हो सका, तथापि Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त 59/1-2 ___13 मेरूतुंग द्वारा 1386 ई. में 'रसाध्याय' पर टीका लिखे जाने का संकेत मिलता है जिससे रसाध्याय की रचना उससे पूर्व किया जाना स्पष्ट है। अतः इसका सम्भावित समय 13वीं शताब्दी होना असंदिग्ध है। अमृतनन्दी (13वीं शताब्दी) ये दक्षिण भारत (कर्नाटक) की दिगम्बर परम्परा के जैनाचार्य थे। इन्होंने अत्यंत विस्तृत एक निघण्टु कोश की रचना की थी जिसमें जैन दृष्टि से वनस्पतियों के नामों के पारिभाषिक अर्थ बतलाए गए हैं। इसमें लगभग 22000 शब्द हैं। श्री वर्धमान पार्श्वनाथ शास्त्री ने कल्याणकारक ग्रंथ की प्रस्तावना में इसे 'अकारादि निघण्टु' में नाम से उद्धृत किया है। इसकी रचना मन्व राजा के आग्रह से की गई थी। मन्व भूपति का काल 1299 ई. (सं. 1355) के लगभग माना जाता है। अतः अमृतनन्दी का समय 13 शताब्दी से 14वीं शताब्दी (पूर्वाध) मानने में कोई आपत्ति नहीं है। कवि मंगराज (1360 ई.) ये चौदहवीं शताब्दी के कानड़ी जैन विद्वान हैं। इन्होंने विजय नगर के हिन्दू साम्राज्य के आरम्भिक काल में राजा हरिहर राय की शासनावधि में वि.सं. 1416(1360 ई) में 'खगेन्द्रमणि दर्पण' नामक विष चिकित्सा सम्बन्धी अति उत्तम वैद्यक ग्रंथ की रचना की थी। कन्नड़ भाषा में रचित यह एक सुविस्तृत एवं सुव्यवस्थित ग्रंथ है जिसके लगभग 300 मुद्रित पृष्ठ हैं। यह ग्रंथ मद्रास विश्व विद्यालय द्वारा कन्नड़ सीरीज के अन्तर्गत सन् 1940 में प्रकाशित किया गया था जो वर्तमान में उपलध नहीं है। इस ग्रंथ के विषय में कवि मंराज ने स्वयं लिखा है कि जनता के निवेदन पर उन्होंने सर्वजनोपयोगी इस वैद्यक ग्रंथ की रचना की है। ___इनकी कृति का अध्ययन करने से ज्ञात होता है कि कन्नड़ और संस्कृत भाषा में साधिकार लिखने की अद्भुत क्षमता इनमें थी। इन्होंने Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 124 अनेकान्त 59/1-2 स्वयं को पूज्यपाद का शिष्य बतलाते हुए पूज्यपाद एवं जिनेन्द्र देव की उक्तियों को ही अपनी उपर्युक्त कृति बतलाया है। कवि मंगराज और उनकी कृति के सम्बन्ध में पं. भुजबली शास्त्री की एक विस्तृत लेख "जैन सिद्धान्त भास्कर", भाग-10, किरण-1 (जुलाई, 1943) में प्रकाशित हुआ। इस सुविस्तृत लेख में इस ग्रंथ और ग्रंथकर्ता के विषय में विस्तार पूर्वक प्रकाश डाला गया है। यशःकीर्ति (14वीं शताब्दी) __इनके द्वारा लिखत 'जगत्सुन्दरी प्रयोग माला' नामक ग्रंथ का उल्लेख जैन ग्रंथ प्रशस्ति संग्रह, भाग-1 में मिलता है। इस ग्रंथ की एक प्राचीन हस्तलिखित प्रति जो 'योनिप्रामृत' के साथ मिली हुई है भण्डारकर ओरिएन्टल रिसर्च इन्स्टीट्यूट, पूना में सुरक्षित है जिसका लिपिकाल वि. सं. 1582 (1525 ई.) है। अतः स्पष्ट है कि इसका रचनाकाल इससे पूर्व का है। यह ग्रंथ यद्यपि प्राकृत भाषा में रचित है, किन्तु मध्य में कहीं कहीं संस्कृत गद्य एवं कुछ स्थानों पर प्राचीन अपभ्रंश या हिन्दी का प्रयोग दृष्टिगत होता है। श्री जुगलकिशोर मुख्तार जी ने भी ‘अनेकान्त' में इस ग्रंथ के विषय में चर्चा की है। श्री परमानन्द शास्त्री ने जैन साहित्य के इतिहास में छह यशःकीर्ति नामक मुनियों का संकेत किया है। प्रस्तुत ग्रंथ के कर्ता मुनि यशः कीर्ति चौदहवीं शताब्दी के प्रतीत होते हैं। मेरुतंग (14वीं शताब्दी) इन्होंने रसशास्त्र सम्बन्धी एक प्राचीन ग्रंथ 'कंकालय रसाध्याय' पर टीका लिखी है। इसका उल्लेख 'केटलोगस केटेलोगम', भाग-2, पृष्ठ15 पर किया गया है। 'कंकालय रसाध्याय' की रचना जैन विद्वान चम्पक द्वारा की गई थी। मेरुतुंग जैन साधु थे और इनके द्वारा 1386 में इस टीका के लिखे जाने उल्लेख प्राप्त होता है। 'गोइल के इतिहास' में इस टीका ग्रंथ को 'रसायन प्रकरण' कहा गया है और इसका रचना काल 1387 लिखा है। Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 125 अनेकान्त 59/1-2 अनन्त देव सूरि (14वीं-15वीं शताब्दी) इनके विषय में व्यक्तिगत जानकारी उपलब्ध नहीं है। इनके द्वारा वित रसशास्त्र सम्बन्धी 'रसचिन्तामणि' नामक ग्रंथ प्राप्त होता है जिसकी दो हस्तलिखित प्रतियां भण्डारकर प्राच्य विद्या शोध संस्थान, पूना में (ग्रंथ संख्या 192, 193) सुरक्षित हैं। संस्कृत में लिखित इस ग्रंथ में 900 श्लोक हैं। इस ग्रंथ को टोडरानंद कृत 'आयुर्वेद सौख्य' जो 16वीं शताब्दी की रचना है में उद्धृत किया गया है। अतः 'रसचिन्तामणि' ग्रंथ 14वीं शताब्दी (उत्तराध) एवं 15वीं शताब्दी (पूर्वाध) में किसी समय रचित प्रतीत होता है। यह ग्रंथ प्रथम बार 1911 में और द्वितीय वार 1967 में मुद्रित हो चुका है। माणिक्य चन्द्र जैन (14वीं-15वीं शताब्दी) इनका व्यक्तिगत परिचय अज्ञात है। इनके द्वारा रचित रस विद्या सम्बन्धी 'रसावतार' नामक ग्रंथ की प्रति भण्डारकर प्राच्य विद्या शो ध संस्थान पूना में (ग्रंथ संख्या 373) उपलब्ध है। इस गंथ में उल्लिखित अनेक रस योगों का समावेश श्री हरिप्रपन्न जी ने अपने ग्रंथ 'रसयोग सागर' में किया है। टोडरानन्छ कृत आयुर्वेद सौख्य' में भी 'रसावतार' का उल्लेख होने से 'रसावतार' की रचना 14वीं शताब्दी के उत्तरार्ध एवं 15वीं शताब्दी के पूर्वार्ध में किया जाना सम्भावित है। नयनसुख (16वीं श्ताब्दी) इनके द्वारा हिन्दी में पद्यमय रचना के रूप में लिखित 'वैद्यमनोत्सव' नामक ग्रंथ प्राप्त होता है। कविवर नयनसुख द्वारा छन्दोबद्ध इस लघुकृति की रचना संवत 1649 (1592 ई.) में की गई थी जो दोहा, सोरठा और चौपाई आदि छन्दो में निबद्ध है। कविवर नयनसुख श्रावककुल में उत्पन्न केसराज (कुछ हस्तलिखित प्रतियों के अनुसार केशवराज) के पुत्र थे-"केसराजसुत नयनसुख श्रावककुलहि निवास"। Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 126 अनेकान्त 59/1-2 हर्षकीर्ति सूरि (16वीं शताब्दी) ये वैद्यक विद्या के साथ व्याकरण और ज्योतिष में निष्णात थे। इन्होंने इन तीनों विषयचों पर आधारित ग्रंथों की रचना की थी। वैद्यक शास्त्र पर आधारित इनके द्वारा रचित 'वैद्यक सारोद्धार' भी मिलता है-"नागपुरीय तपोगणराज श्री हर्षकीर्ति संकलिते वैद्यकसारोद्धारे तृतीयो गुटिकाधिकारः।" इस पुष्पिका से यह भी ज्ञात होता है कि ये नागपुरीय तापगच्छ के भट्टारक साधु थे। एक पुष्पिका में इन्होंने अपने नाम के साथ 'उपाध्याय' भी लिखा है। इनके द्वारा रचित ग्रंथ का रचना काल 16वीं शताब्दी है। इनके द्वारा रचित अन्य 15 ग्रंथों का उल्लेख मिलता है। जयरत्न गणि (1605 ई.) ये श्वेताम्बर सम्प्रदाय में पूर्णिमा पक्ष के आचार्य भावरत्न के शिष्य थे। इनका निवास स्थान 'त्रांबावती' नगर था। यहीं पर जयरत्न गणि ने 'ज्वर पराजय' नामक वैद्यक ग्रंथ की रचना की थी जिसका उल्लेख उन्होंने अपने ग्रंथ में किया है। इन्होंने अनेक मान्य वैद्यक ग्रंथों का अध्ययन करने के उपरांमत वि. सं. 1662 में भाद्रपद शुक्ला 1 को इस ग्रंथ की रचना की थी-ऐसा उनके द्वारा किए गए उल्लेख से ज्ञात होता है। लक्ष्मीकुशल (1637 ई.) ये गुजरात निवासी और तपागच्छ वीरशाखा में पं. जिनकुशल के शिष्य थे। इनके द्वारा रचित ग्रंथ में गुरु-शिष्य परम्परा का उल्लेख मिलता है। इनके द्वारा रचित ग्रंथ का नाम 'वैद्यक साररत्नप्रकाश' है जिसकी रचना सं. 1694 (1637 ई.) में की गई थी। हंसराज मुनि (17वीं शताब्दी) ये खरतरगच्छीय वर्द्धमान सूरि के शिष्य थे। इन्होंने 'भिषक्चक्र Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त 59/1-2 17 चित्तोत्सव' नामक ग्रंथ की रचना की थी जिसे हंसराज निदान भी कहा जाता है। इन्होंने नेमिचन्द्र के 'द्रव्य संग्रह' पर 'बालावबोध' भी लिखा है। इनका समय 17वीं शताब्दी का पूर्वार्ध है। हस्तिरुचि (1669 ई.) ये तपागच्छीय रुचि शाखा के जैन यति थे। 'चित्रसेन पद्मावतीरास' के अन्त में इन्होंने अपनी गुरु परम्परा प्रतिपादित की है। इनके द्वारा रचित 'वैद्यवल्लभ' नामक ग्रंथ वैद्यक ग्रंथों में अन्यतम् है जो 1669 ई. की रचना है। ऊपर अति संक्षेप में जैनाचार्यो, उनके द्वारा रचित वैद्यक या आयुर्वेद के ग्रंथों का परिचय दिया गया है। इनके अतिरिक्त और विद्वान हुए हैं जिन्होंने अपने ज्ञान और लेखनी से आयुर्वेद जगत् और आयुर्वेद साहित्य को उपकृत किया है उनमें से कविवर मान कृत कवि विनोद (1688 ई.) और कवि प्रमोद (1689 ई.), जिनसमुद्र सूरि कृत 'वैद्यक सारोद्धार' या वैद्य चिन्तामणि (1680 ई.) जोगीदासकृत वैद्यकसार (1705 ई.) मेघमुनि कृत मेद्य विनोद (1761 ई.), गंगारात यति कृत यति निदान (1821 ई.) आदि उल्लेखनीय हैं। इसी प्रकारा विभिन्न औषध योगों के संग्रह के रूप में स्वतन्त्र रूप से रचित अनेक रचनाएं भी प्राप्त होती हैं जो अधिकांशतः गुटका रूप में हैं। इनमें से अनेक ग्रंथ श्री अगर चन्द्र नाहटा के व्यक्तिगत संग्रह में थे। कुछ विद्वानों ने संस्कृत में रचित आयुर्वेद के ग्रंथों में पद्यमय भाषानुवाद किया है। उन्होंने यह अनुभव किया कि संस्कृत भाषा दुरूह होने से सामान्यजन को उन ग्रंथों को पढ़ने और समझने में कठिनाई होती है, अतः लोगों की सुविधा के लिए उन्होंने सरल और सुबोध पद्यमय सुललित रचना के रूप में उनका भाषानुवाद किया। जैसे लक्ष्मीवल्लभ ने शम्भुनाथ कृत काल ज्ञान (1684 ई.) और मूत्र परीक्षा का, समरथ ने वैद्यनाथ पुत्र शांतिनाथ की रसमंजरी (1707 ई.) का, Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त 59 / 1-2 रामचन्द्र यति ने आयुर्वेद के सुप्रसिद्ध ग्रंथ शांर्गधर संहिता का पद्यमय भाषानुवाद किया जे वैद्य विनोद (1969 ई.) के नाम से प्रसिद्ध और उपलब्ध है। इसी प्रकार कुछ विद्वानों के द्वारा संस्कृत भाषा में निबद्ध मूल ग्रंथों का गद्यात्मक अनुवाद किया गया। इससे सामान्यजन को संस्कृत भाषा में निबद्ध मूल ग्रंथों को समझने में अत्यधिक अनुकूलता एवं सुविधा हुई। 128 1 इस प्रकार आयुर्वेद विषयाधारित ग्रंथों की रचना करने में जैन मनीषियों का योगदान अविस्मरणीय है । जैन मनीषियों ने आयुर्वेद के जिन ग्रंथों की रचना की है उनका अवलोकन अध्ययन करने से ज्ञात होता है कि उनमें अधिकांशतः जैन सिद्धांतों का अनुकरण तथा धार्मिक नियमों का परिपालन किया गया है जो उनकी मौलिक विशेषता है । ग्रंथ रचना में व्याकरण सम्बन्धी नियमों का पालन करते हुए रस, छन्द अलंकार आदि काव्यांगों का यथा सम्भव प्रयोग किया गया है जिससे ग्रंथ कर्त्ता के वैदुष्य एवं बहुमुखी प्रतिभा का आभास सहज ही हो जाता है । ग्रंथों में प्रौढ़ एवं प्रांजल भाषा का प्रयोग होने से ग्रंथों-रचनाओं की उत्कृष्टता निश्चय ही द्विगुणित हुई है। अतः यह एक सुस्पष्ट एवं स्थापित तथ्य है कि जिन मुनिप्रवरों, मनीषियों, आचार्यो, विद्वत्प्रवरों के द्वारा प्राणावाय सम्बन्धी आयुर्वेद के ग्रंथों की रचना की गई है वे केवल एक शास्त्रज्ञ या स्वशास्त्र पारंगत न होकर अध्यात्म, धर्मशास्त्र, दर्शनशास्त्र आदि बहुशास्त्र विदू होने के साथ-साथ आयुर्वेद शास्त्र के ज्ञाता, कृताभ्यासी एवं अनुभव से परिपूर्ण विद्वान् थे । - राजीव कॉम्पलेक्स के पास इटारसी (म.प्र.) Page #132 --------------------------------------------------------------------------  Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिन्दू धर्म का हिस्सा नहीं है जैनः सुप्रीम कोर्ट नई दिल्ली। सुप्रीम कोर्ट ने व्यवस्था दी है कि जैन धर्म हिन्दू धर्म का हिस्सा नहीं है और इस समुदाय को अपने शिक्षण संस्थान स्थापित करने तथा उनके संचालन का अधिकार है। न्यायमूर्ति एस.बी. सिन्हा और न्यायमूर्ति दलबीर भण्डारी की दो सदस्यीय खण्डपीठ ने उत्तर प्रदेश के एटा जिले में जैन समुदाय के कन्या जूनियर हाई स्कूल के एक शिक्षक की सेवायें समाप्त करने से सम्बंधित मामले में यह व्यवस्था दी। न्यायालय ने संविधान निर्माताओं द्वारा जैन समाज को अल्पसख्यक समुदाय के रूप में मान्यता दिये जाने और इसके प्रमाण संविद सभा की कार्यवाही में मौजूद होने का अपने फैसले में जिक्र किया। फैसले के अनुसार चूंकि उ.प्र. सरकार ने एक समय यह स्वीकार किया था कि जैन समुदाय, जो राज्य में अल्पसंख्यक समुदाय है, ने यह स्कूल स्थापित किया है, इसलिए अब उ.प्र. बेसिक शिक्षा परिषद भिन्न दृष्टिकोण नहीं अपना सकता। न्यायालय ने स्पष्ट किया कि एक धर्म विशेष के सदस्य द्वारा संस्था के संचालन मात्र से उसे अल्पसंख्यक समुदाय द्वारा संचालित संस्था नहीं माना जा सकता है। न्यायलय ने कहा है कि राज्य के जनसंख्या के आंकड़ों के आधार पर ही अल्पसंख्यक स्तर का निर्धारण किया जाता है। जैन शिक्षण संस्थान के अल्पसंख्यक दर्जे के सम्बंध में हाई कोर्ट की व्यवस्था को नजरअंदाज करते हुये एकल न्यायाधीश के हस्तक्षेप को अनुचित करार दिया। हाई कोर्ट की खण्डपीठ ने कहा था कि संस्थान को अल्पसख्यक संस्था का दर्जा प्राप्त होने के कारण इसे किसी शिक्षक की सेवायें समाप्त करने से पहले जिला बेसिक शिक्षा अधिकारी की अनुमति लेना आवश्यक नहीं है। लेकिन एकल न्यायाधीश ने इस टिप्पणी को नजरअंदाज करते हुये अप्रैल, 2003 में अपने फैसले में कहा था कि स्कूल के अल्पसंख्यक दर्जे के सवाल पर विचार ही नहीं किया गया। खण्डपीठ ने विभिन्न फैसलों को उद्धृत करते हुए कहा कि यह अविवादित तथ्य है कि जैन धर्म हिन्दू धर्म का हिस्सा नहीं है। 24 अगस्त 2006 दैनिक 'हिन्दुस्तान' नई दिल्ली से साभार Page #134 --------------------------------------------------------------------------  Page #135 --------------------------------------------------------------------------  Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 59/3-4 अनेकान्त - " - ECH - Manish NAMMAR Karta PARAN S - पं. पदम चन्द्र शास्त्री। जन्म : बिलमी (बदाय) उत्तर प्रदेश कार्तिक शुक्ल अष्टमी वि.स.1972 स्वर्गारोहण : दिल्ली, 2 जनवरी 2007 पौष शु. चतुर्दशी वि.सं.2063 Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वीर सेवा मंदिर अनेकान्त प्रवर्तक : आ. जुगलकिशोर मुख्तार 'युगवीर' का त्रैमासिक '. 4 प । - - "इस अंक में वर्ष 59, किरण-3-4 कहां क्या जुलाई दिसम्बर 2016 । अध्यात्म पद कविवर दालनगम सम्पादक . - एक श्रुतागधक का वियाग डॉ जय कुमार जैन | डॉ. जयकुमार जैन । पण्डित परम्पग की अन्तिमकड़ी मभाप जैन, महासचिव 429. पटल नगर का अवमान मुजफ्फरनगर (उप्र) अनुपम श्रुत आगधक डॉ प्रमचन्द जैन फोन. (0131) 2613730 प पदम चन्द्र शाम्बी सह सम्पादक काहगम किमका दो मुशि चन्द्र जन 1. जैन दर्शन म प्रमाण की द नग्न्द्र कुमार जन संजीव जैन तिहामिकता परामर्शदाता 17 राजस्थान क कलात्मक जन मन्दिर दा कमला गग पं. पद्मचन्द्र शास्त्री ४ भगवान महावीर आ परिया डॉ मुग्न्द्र कमार जैन परिमाणवत मम्था की 4 ममाधिमग्ण में शन्द्धि व विक्क प्राचार्य निहालचन्द जन आजीवन मदम्यता तिवचन 1100 10 मध्य लोक में भोग मिया डा जय कमार जना अनकान्त वार्षिक शुल्क क अनचिन्नन । कर्मक्षय में ध्यानतप का महल गजेन्द्र मार वमन्ना इम अक का मूल्य और म्बम्प 10 12 जन माहित्य आर पुगतन्तक टा कमलश कमार जन मदम्या व मदिग क परिपश्य म मप्तम तीथका लिा नि:शुल्क मपाश्वनाथ का जीवन चरित्र एव पच कल्याणक मिया प्रकाशक 13 ब्रह्मचर्य दशन आर उसकी टा प्रशाक कमार जैन ||भारतभूषण जैन, गदवाकर मामाजिक उपयोगिता ।। भानाय माम्बामा की दृष्टि र श्रयाम कमा जन । म अकालमग्ण |मास्टर प्रिर्म दिल्ली 32) विशेष सूचना : विद्वान् लेखक अपने विचारों के लिए स्वतन्त्र है। यह आवश्यक नहीं कि सम्पादक उनके विचारों से सहमत हो। मुद्रक वीर सेवा मंदिर (जैन दर्शन शोध संस्थान) 21. दरियागंज, नई दिल्ली -110002, दूरभाष : 23250522 संस्था को दी गई महायता राशि पर धारा 80 जी के अतर्गत आयकर में छूट (रजि आर 10591/62) Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 17. मानत क्यों नहिं रे हे तो मानत क्यों नहिं रे है नर सीख सयानी। भयो अचेत मोह मद पो के, अपनी सुधि विसरानी ॥ दुखी अनादि कुबोध अव्रत में, फिर तिनसों रति ठानी। ज्ञान सुधा निजभाव न चाख्यो, पर परनति मति सानी ॥ मानत क्यों नहिं ............... ॥१॥ भव असारता लखे न क्यों जहँ, नृप है कृमि विटथानी। सधन निधन नृप दास स्वजन रिपु, दुखिया हरि-से प्रानी ॥ देह एक गदगेह नेह इस, है बहु विपति निसानी। जड़ मलीन छिनछीन करमकृत, बंधन शिवसुख हानी॥ मानत क्यों नहिं .................. ॥२॥ चाह-ज्वलन ईंधन विधि-वन घन, आकुलता-कुल खानी। ज्ञानसुधा- सर शोषन रवि ये, विषय अमित मृतु दानी॥ यों लखि भव-तन-भोग विरचिकरि, निजहित सुनि जिनवानी। तज रुष-राग "दौल" अब अवसर, यह जिनचन्द्र बखानी॥ मानत क्यों नहिं - कविवर दौलतराम .. ॥३॥ Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एक श्रुताराधक का वियोग : अनभ्र वज्रपात - डॉ. जय कुमार जैन वीर सेवा मन्दिर (जैन दर्शन शोध संस्थान) द्वारा प्रकाशित शोध त्रैमासिकी “अनेकान्त” पत्रिका के परामर्शदाता एवं पूर्व सम्पादक श्री प. पदमचन्द्र शास्त्री का । जनवरी 2007 को अचानक स्वर्गवास का समाचार सुनकर मैं हतप्रभ हो गया और विचलित भी। अभी 24 दिसम्बर को एक सप्ताह पूर्व ही उनसे मुलाकात हुई थी। वे कुछ अस्वस्थता तो महसूस कर रहे थे, पर ऐसा बिल्कुल भी नहीं लगता था कि हम उनकी छत्रछाया से वंचित होने वाले हैं। वैसे तो पण्डित जी से मंग परिचय 1979 ई. से है, परन्तु उनके आदेश से 7 वर्ष से “अनेकान्त" के सम्पादन से जुड़ने पर मुझे पण्डित जी को करीब से सनने-समझने का सुयोग मिला। इसे मै अपना अहोभाग्य मानता हूँ कि पं. पद्यचन्द्र शास्त्री सदृश दीपशिखा से मुझे भी किञ्चित् आलोक मिला। कदाचित् 24 दिसम्बर की बातचीत को अब स्मरण करने से मुझे ऐसा लगता है कि पं. जी सा को यह आभास हो गया था कि वे अब जैनागम की सेवा नहीं कर पायेंगे। पर अस्वस्थ होने पर भी उनके चेहरे पर गजब का सन्तोष था तथा वे बार-बार वीर सेवा मन्दिर के पदाधिकारियों की प्रशसा करते हए कह रहे थे कि चलो जैन समाज में एकाध सस्था ऐसी भी है, जो सेवानिवृत्ति के पश्चात् भी राजकीय पेंशन की तरह किसी पण्डित को वृत्ति दे रही है। किसी पण्डित के द्वारा परोक्ष में नियोजक संस्था की ऐसी प्रशंसा मैंने प्रथम बार सुनी थी। उन्होंने मुझे आदेश भी दिया था कि अगले अंक के सम्पादकीय में यह अवश्य लिखना कि अन्य जैन संस्थाओं को इस सन्दर्भ में वीर सेवा मन्दिर का अनुकरण करना चाहिए। अभी एक माह पूर्व ही पण्डित जी के 33 आलेखो का संकलन "निष्कप दीप शिखा” के नाम से वीर सेवा मन्दिर से प्रकाशित हुआ है। Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त 59 / 3-4 इन आलेखों के पठनन- अनुशीलन से लेखक की बहुविज्ञता, श्रुतनिष्ठा एवं सूक्ष्मतत्त्वदृष्टि का सहज ही पता चल जाता है। पं. जी सा. ने जिन परिस्थितिययों में जैनागम के सूक्ष्मतत्त्वों पर निर्भय होकर साधिकार लेखनी चलाई है, उसकी मिशाल वे स्वयं हैं । कोई प्रलोभन, भय, जनमत या चतुर्विध संघ में से किसी का भी दबाव उन्हें विचलित नहीं कर सका। प्राचीन भारतीय आर्यभाषाओं विशेषतया प्राकृत भाषाओं के वे पारंगत अधीती विद्वान थे । अर्धमागधी में तो उनकी अनुपम पकड़ थी। प्राचीन शास्त्रों के अध्ययन में उनकी दृष्टि मूल पर रहती थी तथा टीकाकारों के स्खलन को वे क्षयोपशमजन्य मानकर सर्वथा प्रमाण मानने के पक्षधर नहीं थे। किसी गाथा का अर्थ करते समय वे 'नामूलं लिख्यते किञ्चित्' के पक्षधर थे। एक आदर्श पण्डित में जैसी निर्भयता, निर्लोभता एवं त्यागवृत्ति होना चाहिए, वह पं. जी में कूट-कूट कर भरी थी। उनका व्यक्तित्व बड़ा अलौकिक था । वे जहाँ समाज से पैसा ग्रहण करना तो क्या, एक गिलास पानी पीना भी समीचीन नहीं समझते थे, वहाँ समागत विद्वान् या शोधार्थी जिज्ञासु के प्रति उनका वात्सल्य अद्वितीय था । 92 वर्ष की अवस्था हो जाने पर भी, आगम की सेवा करने की उनकी ललक देखते ही बनती थी । दृष्टि कमजोर हो जाने की उन्हें बस यही चिन्ता सताती थी कि अब पढ़ना-लिखना कम हो गया है । अन्त तक यही कहते रहे कि यदि कोई अच्छा लिखने वाला मिल जाये तो मैं कुछ आगम की गुत्थियों पर आगमानुसार चर्चा करना चाहता हूँ। मुझे कष्ट है कि अपनी अल्पज्ञता, दूरवास एवं प्रमादवश मैं इस कार्य में सहयोगी न बन सका। हो सकता है कुछ गुत्थियों अब अनसुलझीं ही रह जायें । 3 सादगी की प्रतिमूर्ति, निर्भीक वक्ता, निष्कंप लेखनी के धनी सुलेखक तथा सतत सत्यान्वेषी पं. जी सा में हिमगिरि सी गुरुता, सागर सी गंभीरता एवं लौहार्गला सी दृढ़ता थी । आपकी विद्वज्जगत् में एक अलग पहिचान थी । लाग-लपेट एवं तिगड़मबाजी से दूर तथा Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम की मौलिकता के साथ किसी भी प्रकार का समझौता न करन वाले आप में जहाँ एक ओर वज्र सी कठोरता थी, वहाँ हृदय में विरोधी विचारक के प्रति भी नवनीत सी कोमलता थी। किसी प्रकार का प्रलोभन आपको अपने मार्ग से नहीं डिगा सका । विद्या एवं विद्वत्ता के क्षेत्र में आपके द्वारा स्थापित आदर्श पूर्णतः अनुकरणीय हैं। स्वाभिमानी एवं दबंग व्यक्तित्व के धारक पण्डित जी के ज्ञानालोक से जैन विद्वज्जगत् सदैव आलोकित रहेगा। आदरणीय पण्डित जी के निधन से जैन समाज की अपूर्णीय क्षति हुई है । वीर सेवा मन्दिर के तो वे पर्याय ही थे । “अनेकान्त” के पाठकों को उनके आलेखों जैसे समर्थ दस्तावेजों का अभाव अवश्य खलेगा। मैं 'अनेकान्त' के सुधी पाठकों के साथ समवेत रूप से आदरणीय पण्डित जी के प्रति हार्दिक श्रद्धांजलि समर्पित करता हुआ भावना भाता हूँ कि उनके परिवार एवं जैन जगत् को इस अपार दुःख को सहन करने की शक्ति प्राप्त हो तथा उनके द्वारा दर्शाये मार्ग पर हम चलने में समर्थ हों । सत्कर्मो के प्रतिफलस्वरूप उन्हें सद्गति की प्राप्ति तो असंदिग्ध है ही । अन्त में, मैं वीर सेवा मन्दिर के पदाधिकारियों से आशा करता हूँ कि वे उन उद्देश्यों की पूर्ति के लिए प्रयासशील रहेंगे, जिनके संरक्षण में पं. पद्मचन्द्र शास्त्री आमरण समर्पित रहे । - सम्पादक Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पण्डित परम्परा की अन्तिम कड़ी का अवसान वीर सेवा मन्दिर से प्रकाशित अनेकान्त और उसके पर्याय के रूप में प्रतिष्ठित ज्ञानवृद्ध पं. पद्म चन्द्र शास्त्री का देहावसान 1 जनवरी 2007 की मध्यरात्री में हो गया। पण्डित जी के अवसान के साथ ही 20वीं शताब्दी के जैन पण्डित परम्परा की अन्तिम कड़ी भी समाप्त हो गई। व्यावहारिक धरातल पर कठोर छवि धारण करने वाले पण्डित जी स्वभाव से अत्यन्त मृदु, सहृदयी और जैन आगम के आड़ोलन-विलोड़न कर जिनधर्म के सूक्ष्म तत्वों को उद्घाटित करने में सिद्ध हस्त थे। अपनी अवधारणाओं के साथ किसी भी स्थिति में समझौता न करना उनकी अनुपम विशेषता थी। आजीविका की जद्दोजहद में भी उन्होनें कभी समझौता नहीं किया। समाजिक विरोधाभासों को वे अपनी सशक्त लेखनी से उजागर कर समाज को हमेशा सचेष्ट करते रहे। जिनधर्म के मल अपरिग्रह सिद्धान्त को न केवल अपने जीवन में चरितार्थ किया, बल्कि प्रत्येक प्रसंग पर उनकी स्पष्टोक्ति थी कि वस्तुतः जैन धर्म का प्रचार-प्रसार आचरण के माध्यम से ही हो सकता है और आचरण अपरिग्रह व्रत को जीवन में अपनाने से सम्भव है, जिस पर आजकल लोग ध्यान ही नहीं देते। अहिंसक आचरण की भित्ति अपरिग्रह के नींव पर ही खड़ी हो सकती है। अहिंसा का राग अलापने से आत्ममुग्ध तो हुआ जा सकता है उससे जीवन अहिंसा की सुगन्ध से सुरभित नहीं हो सकता। परिग्रह के दलदल में फंसा हुआ समाज जब तक अपरिग्रही वृत्ति को जीवन में नहीं उतारता तब तक न तो जैन धर्म के मर्म को समझा जा सकता है और न ही जैन धर्म का प्रचार-प्रसार ही हो सकता है। Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत, संस्कृत और अपभ्रंश साहित्य के विलक्षण-अनुसन्धाता पं. पद्म चन्द्र शास्त्री ने आजीवन अघोषित रूप में परिग्रह परिमाण व्रत का पालन किया और अनेकान्त में समय-समय पर आगमिक, साहित्यिक, सामाजिक विसंगतियों पर करारी चोट की परन्तु उनकी बुलन्द आवाज नक्कारखाने में तूती ही सिद्ध हुई। इसे आगम, साहित्य और समाज की दृष्टि से शुभ चिन्ह नहीं कहा जा सकता। आज पण्डित जी हमारे बीच नहीं हैं लेकिन उनकी सशक्त लेखनी ज्वलन्त सन्दर्भो में आज भी जीवन्त और कार्यकारी है। ___ अस्तु, यदि हम अब भी सचेत न हुए तो पण्डित जी के अवदानों के प्रति हमारी कृतघ्नता ही कहलायगी। पण्डित जी के प्रति सच्ची श्रद्धांजलि तभी सार्थक होगी जब हम उनके द्वारा स्थापित प्रतिमानो के प्रति न्यायिक दृष्टिकोण से उन्हें मूर्त रूप देने में प्रयत्नशील हों। प्रस्तुत है निष्कम्प दीपशिखा में डॉ. प्रेम चन्द द्वारा प्रसूत पण्डित जी की जीवनी जो उन्होंने बड़ी कठिनता से प्राप्त की थी। - सुभाष जैन (महासचिव) Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुपम श्रुत आराधक पंडित पद्मचन्द्र शास्त्री जाति न पूछो साधु की, पूछ लीजिए ज्ञान। मोल करो तलवार का, पड़ी रहन दो म्यान ।। कबीर ।। प्रस्तुत दोहे के निहितार्थ तथा सैद्धान्तिक पक्ष से मैं सर्वथा सहमत हूँ। परन्तु व्यावहारिक पक्ष से असहमति है। चूंकि आज जब हमें प्राचीन विद्वानों के ग्रन्थों की पाण्लिपियाँ देखने को मिलती हैं, तो स्वभावतः रचनाकार, रचनाकाल, एवं स्थान आदि के विषय में जिज्ञासा होती है। यदि उनमें ये सब नहीं दिया गया है तो पाण्लिपि के संदिग्ध हो जाने का ख तरा पैदा होने के अलावा अन्य समस्यायें भी सामने आते देखी जाती हैं और फिर मेरा मानना है कि लेखक हो या कोई व्यक्ति, अपने जीवन के विषय में वह स्वयं जो जान सकता है, वह दूसरा नहीं जान सकता। अपने इसी सोच को दृष्टि में रखते हुए मैंने पंडित पद्मचन्द शास्त्री के समक्ष उनके जीवन-परिचय के सन्दर्भ में जब-जब कोई प्रश्न उठाया होगा, तब-तब उन्होंने मुझे जैनागमों से सम्बन्धित चर्चा में उलझाकार मेरे प्रश्न को आकाश के हवाले करते हुए अनुत्तरित ही रहने दिया होगा। ऊपर से एक मीठी झिडकी खिलाकर कहेंगे, ‘आराम कर ले थक गया होगा।' अरे ऽ प्रेम तुम लोग समझते नहीं हो; इस परिचय-वरिचय में क्या रखा है? सुनोऽ, ‘परमार्थ शतक में पंडित रूपचन्द ने लिखा है: वेतन चित्परिचय बिना, जप तप सबै निरत्य। कन बिन तुस जिमि फटकते, आवै कछू न हत्य।। चेतन सौं परिचय नहीं, कहा भये व्रत धारि। सालि बिहूनें खेत की, वृथा बनाबत बारि।। जैनागम शास्त्रों के मर्मज्ञ, प्राकृत-संस्कृत, अपभ्रंश जैसी प्राच्य भाषाओं के ज्ञाता प्रकाण्ड पंडित तथा कुन्द-कुन्दाचार्य भगवान के ग्रन्थों पर साधिकार व्याख्यान देने में समर्थ पंडित पद्मचन्द शास्त्री को, भला हम कैसे समझाएँ कि आप जिज्ञासुओं के लिए 'कन बिन तुस' अथवा 'सालि बिहूने खेत' के समान नहीं हैं। आपने प्राच्य भाषा प्राकृत के महत्त्वपूर्ण ग्रन्थों के चिन्तन-मनन में अपना समग्र Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त 59/3-4 जीवन होम कर डाला है। उस चिन्तन-मनन और मन्थन से जो नवनीत प्राप्त किया है, उसे अपने निबन्धों, व्याख्यानों और चर्चाओं के माध्यम से समाज को ही निःस्वार्थ-निर्लोभ भाव से भेंट कर दिया है। कुन्द-कुन्दाचार्य के ग्रन्थों में प्रतिपादित जैन-सिद्धान्त, दर्शन और धर्म के प्रति आपकी श्रद्धा, आस्था और विश्वास ही नहीं, आचरण में भी उसे व्यवहृत करके दिखाया है। ___'मूलं जैन-संस्कृति : अपरिग्रह' शीर्षक आपकी लघुकाय रचना को विद्वत्समाज ने बहुमान दिया है। कुछ ही समय में हिन्दी भाषा में न केवल तीसरा संस्करण छापना पड़ा है, अपितु उसका अंग्रेजी भाषा में अनुवाद होकर पुस्तक विदेशों में भी अपनी छाप छोड़ रही है। आपने ‘अपरिग्रह' जैसे विषय पर लिखा ही नहीं है, बल्कि अपने वास्तविक जीवन में जिया भी है। 'प्रत्यक्षे किं प्रमाणं' हमने देखा है, एक ओर जहाँ ज्यादातर विद्वान् पुरस्कारों की जुगत भिड़ाते देखे जा सकते हैं; वहीं आप पुरस्कार में प्राप्त धनराशि संस्था के सदुपयोग के लिए भेंट करते हैं। आज इस प्रकार की निर्लोभ एवं त्यागवृत्ति विरल हो गई है। ___मैं ऐसा मानकर चल रहा हूँ कि पंडित पद्मचन्द्र शास्त्री का आत्मकथ्यात्मक कोई कृति या आलेख नहीं है, तो एक संक्षित परिचय ही उनकी नवीन पुस्तक में दे देना अनुपयुक्त नहीं होगा। किन्हीं कारणोंवश मेरे लिए इनका परिचय लिखना दुरूह है, तथपि प्रयत्न करता हूँ। इसमे समस्या एक तो यही है, 'हल्का कहूँ तो बहु डरूँ, भारी कहूँ तो झूठ'... । इसीलिए कबीर ने आगे 'मैं का जानें....' लिखकर स्वयं को सुरक्षित कर लिया था। मैंने तो जब 'ओखली में सिर रख लिया है तो चोटों से क्या डरना'? जो भी सही-सही जानकारी कर सका हूँ उसी आधार पर लिखता पंडित जी का जन्म कार्तिक शुक्ला अष्टमी विक्रम सं० 1972 को जिला बदायूँ, उ०प्र० के कस्बा बिलसी में स्वनामधन्य पिता श्री चिरंजीलाल जैन बाकलीवाल के यहाँ हुआ था। माता श्रीमती कटोरी-बाई सरल एवं शान्त स्वभाव की धार्मिक गृहणी थी। अच्छे जैन परिवार में पुत्र का जैसा लालन-पालन होता है, आपका भी उत्तम रीति से हुआ था। उचित समय पर प्रारम्भिक कक्षा 5 तक की शिक्षा बिल्सी में ही पूरी की थी। आगे की शिक्षा के लिए पिता श्री ने 'ऋषभ' ब्रह्मचर्याश्रम चौरासी, मथुरा को चुना और वहीं भेज दिया। सौभाग्य से इसके आगे का विवरण पंडित जी के ही एक लेख में 'जिन खोजा तिन पाइयाँ' की तर्ज पर मेरे हाथ लग गया है। जिसे किसी खास व्यक्ति के संस्मरण के दौरान पंडित जी Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त 59/3-4 को लिखना अपरिहार्य हो गया होगा। प्रसन्नता है, कुछ तो भार हल्का हुआ। आगे उद्धृत है: “लगभग सन् 1927 के चैत्र मास की बात है, जब श्री कुँवर दिग्विजयसिंह जी अहिक्षेत्र के मेले के बाद बिलसी पहुंचे। उनके साथ मथुरा ब्रह्मचर्याश्रम के प्रचारक पं० सिद्धसेन गोयलीय और एक पगड़ी धारी पंडित जी श्री देवीसहाय जैन- (सम्भवतः सलावा वाले थे) भी थे। उन दिनों आर्य समाज के प्रचार का युग था। आये दिन आर्य समाजियों से जैनियों के विवाद चलते रहते थे। मेरे पिता जी की ऐसे विवादों में रूचि थी-उन्हें ज्यादा रस आता था-जैन की बात पोषण में । कुँवर साहब के आने से शास्त्रार्थ का वातावरण बन गया। नियम-समय आदि निर्धारित हो गए। आर्य समाज ने अपनी ओर से बरेली के पं० बंशीधर शास्त्री को नियुक्त किया और जैन की ओर से कुँवर साहब बोले। कुँवर साहब को वहाँ कई दिन ठहरना पड़ा। मुझे याद है कटरा बाजार में मेरे ताऊ श्री दुर्गा प्रसाद जी की दुकान के सामने काफी भीड़ थी। दोनों ओर मेजें लगी थी। दोनों विद्वान् बारी-बारी बोलते थे। सभापति का आसन विलसी के प्रमुख रईस श्री गेंदनलाल ने (जो अजैन थे) ग्रहण किया था। नतीजा क्या रहा मुझे नहीं मालूम? हाँ, दोनों ओर की तालियों की गड़गड़ाहट और जयकारों का मुझे ध्यान है। अगले दिन कुवँर साहब के सुझाव पर, वातावरण से प्रभावित मेरे पिता ने मुझे विद्वान बनाने का संकल्प ले लिया और मथुरा ब्रह्मचर्याश्रम में भेजने का निश्चय प्रकट किया। कुँवर साहब ने मेरे सिर हाथ रखकर मुझे विद्वान् पंडित बनने का आशीर्वाद दिया और गोयलीय जी से कहा-इस बालक की अच्छी व्यवस्था करना । मुझे भली-भांति याद है उस समय कँवर साहब सफेद चादर ओढ़े, सफेद चाँदी फ्रेम वाला चश्मा लगाए थे और उनकी दाढ़ी मन मोह रही थी। कुछ महीनों में मैं आश्रम में पहुंच गया। मेरे पिता नहीं चाहते थे कि वे मेरा बोझ समाज पर डालें, फलतः- उन्होंने खुशी से आश्रम को पांच रुपए मासिक देना स्वीकार किया और राशि बराबर पहुंचती रही। उन दिनों पांच रुपयों की बड़ी कीमत थी।" उन दिनों माणिकचन्द दिगम्बर जैन परीक्षालय शोलापुर की बड़ी मान्यता थी। मथुरा में पढ़ाई करते हुए ही आपने जैन धर्म, न्याय, शास्त्री आदि की परीक्षाएं पास की थीं। कलकत्ता से होने वाली 'व्याकरणतीर्थ' की कठिन परीक्षा भी उत्तम श्रेणी में पास की। इस प्रकार पढ़ाई करते हुए पंडित जी मथुरा ही रहे। आगे उन्होंने लिखा है Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त 59 / 3-4 "पढ़ाई के बाद सन् 36 में जब अम्बाला शास्त्रार्थ सघ में उपदेशक विद्यालय खुलने की बात मेरे पिता के ध्यान में आई तब उन्होंने पुराने शास्त्रार्थ की बात याद कर मुझे आदेश दिया कि शास्त्रार्थ संघ में चले जाओ । बस, स्वीकृति आने पर मैं पहुंच गया। 15-5-36 के उद्घाटन पर उपदेशक विद्यालय का मैं तत्त्वोपदेशक विभाग का सबसे छोटी उम्र का और प्रथम छात्र था। उन दिनों पं० बलभद्र जी संघ के मैनेजर थे- हमारे आफीसर । फिर भी सादा, सरल। उन्होंने मुझे भाई सरीखा स्नेह दिया। आश्रम का छात्र होने के कारण संघ में मुझे ब्रह्मचारी का संबोधन मिला।" 10 शास्त्रार्थ संघ अम्बाला में पहुँचकर उपदेशक के रूप में कार्य करते हुए व्यख्यान शास्त्रार्थ की शिक्षा पाई। इस संघ ने अपने व्यय से ही आपको वाराणसी भेज दिया था। यहाॅ किराए का मकान लेकर रहे और ब्राह्मण विद्वानों से वेदों का अध्ययन किया और कलकत्ते से होने वाली 'वेदतीर्थ' परीक्षा उत्तीर्ण की। ये पूरा का पूरा अध्ययन शास्त्रार्थ में काम आता था । वहॉ की पढ़ाई पूरी करने के बाद पुनः संघ में आ गए। अम्बाला शास्त्रार्थ संघ की शाखा मथुरा से फिरोजपुर छावनी चले गए। यहाॅ पर जैन हाई स्कूल में अध्यापक रहे और जैन जिज्ञासुओं को स्वाध्याय कराया; यहाँ 6-7 वर्ष रहे पुनः 1 वर्ष मथुरा रहकर जैन समाज में पढ़ाया । इसके बाद मुल्तान (पंजाब) में एक वर्ष ही रह पाये थे । दंगे शुरू हो जाने के कारण सपरिवार घर बिल्सी आ गए। कुछ दिनों घर रहने के बाद दिगम्बर जैन स्याद्वाद महाविद्यालय, भदैनी घाट, वाराणसी में 12-13 वर्ष व्यवस्थापक रहते हुए अध्यापन भी करते रहे । 1 डॉ० नेमीचन्द्रशास्त्री, ज्योतिषाचार्य उन दिनों वाराणसी आते-जाते रहते थे । उनके सपरामर्श से पंडित जी ने यू० पी० बोर्ड का हाई स्कूल; वा० सं० वि० वि० से जैनदर्शन शास्त्री और प्राकृत से एम० ए० की परीक्षाएँ प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण की थीं। इनका इस प्रकार का शैक्षिक विकास के साथ जब उनके स्वाभिमान को ठेस लगने के कारण उपस्थित हुए तो विद्यालय की सेवायें छोड़ दी । परिणामतः आर्थिक कठिनाइयों से भी उन्हें दो-चार होना पड़ा। परन्तु सहिष्णुता की प्रतिमूर्ति, मितव्ययी कुशल गृहणी और आपकी पत्नी श्रीमती कमलेश जैन का साहस और हौंसला देखते ही बनता था। वे अपने परिवार के अलावा विद्यार्थियों के लिए भी अन्नपूर्णा माँ की भूमिका बराबर निभाती रही। ऐसे अवसरों पर पंडित फूलचन्द सिद्धांत शास्त्री विद्वान् हों अथवा जैन विद्यार्थी सभी की सहायता करने के लिए तत्पर रहते थे। उनके आशीर्वाद सदैव साथ रहे। बच्चों की शिक्षा बराबर Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त 59 / 3-4 जारी रही । मैं बच्चों में शरीक था। साथ ही रहता था । अतः कथन में मिलावट जैसी कोई बात नहीं है। सच्चाई, ईमानदारी, स्वाभिमान एवं सिद्धांत की रक्षा के लिए ऐसे कष्ट झेलने में मेरे मामा-मामी को अपूर्व आनन्द मिलता रहा है। इस प्रकार ये दोनों ही धन्य हैं। 11 सन् 1962 ई० में देश की राजधानी दिल्ली आ गए। कुछ समय बाद मुनि विद्यानन्द जी के साथ रहे। उन्हीं के साथ-साथ पदयात्राएँ करते रहे । हिमालय भी साथ गए । 'हिमालय के दिगम्बर मुनि' शीर्षक पुस्तक लिखी । इस पुस्तक की अन्त तक माँग बनी रही। आपके पाण्डित्य की छाप इस पुस्तक में उजागर हुई है। तदुपरान्त वे 'वीर सेवा मन्दिर, दरियागंज, दिल्ली' अनेकान्त के सम्पादक के रूप में आ गए। वीर सेवा मन्दिर एवं अनेकान्त के संस्थापक पंडित जुगलकिशोर जी मुख्तार 'और कमेटी ने संस्था के जो उद्देश्य निर्धारित किये थे, उन्हें पूरा करने में पंडित जी प्राणपण से जुट गए। बड़े पुत्र राजीव, छोटे प्रदीप कुमार, सबसे बड़ी पुत्री सुधा और मधु सबकी शिक्षा-दीक्षा विवाह सभी कार्य संपन्न हो गए। ये सभी सरकारी उपक्रमों में अच्छे पदों पर कार्यरत हो गए। सभी स्वावलम्बी पूर्णतः समर्थ हैं। सबकी सन्तानें हैं। सब अपने-अपने घर से जाकर माता-पिता की सेवा करना चाहते हैं । परन्तु वीर सेवा मन्दिर में रहते हुए पंडित जी संस्थान तथा जिनागम की सेवा में मनसा वाचा कर्मणा सजग भाव से समर्पित हैं। उनकी त्याग एवं निर्लोभ वृत्ति अनुगमनीय है। संस्थान के सदस्यों, पदाधिकारियों तथा समाज को इसका भरपूर लाभ मिल रहा है। सभी पंडित जी की भावनाओं का आदर करते हैं। वे अब 92 वर्ष की अवस्था पूरी करते हुए भी कुन्दकुन्दाचार्य के शास्त्रों को वाणी देते नजर आते हैं। पं० पद्मचन्द्र शास्त्री की इतनी लम्बी जीवन-यात्रा का विवरण भी एक पूरी पुस्तक चाहता है। यहाँ विस्तारभय से मैंने पूरे तथ्य देने में भी लेखनी को नियन्त्रण में रखने का प्रयत्न किया है। लेकिन अनेकान्त के संदर्भ के साथ-साथ, वीर सेवा-मन्दिर से पंडित जी के जुड़ाव पर डॉ० सुरेशचन्द्र जैन द्वारा प्रस्तुत महत्त्वपूर्ण स्पष्टोक्ति को उद्धृत किये बिना 'जीवन-परिचय' की बात में अधूरापन रहना अवश्यम्भावी है। अन्ततः क्षमायाचनापूर्वक उसे जोड़ना मेरे लिए अपरिहार्य है। उन्होंने अनेकान्त के एक लेख में अपने विचार अभिव्यक्त किए हैं; मेरी दृष्टि में वे तथ्यात्मक ही नहीं, यथार्थ भी हैं। देखे : “उतार-चढ़ाव और आर्थिक एवं सामाजिक उदासीनता के चक्र में भी गौरव Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त 59/3-4 पूर्ण उद्देश्यों के प्रति समर्पित यह पत्रिका अपने अवदानों के लिए जैन इतिहास, सिद्धांत, साहित्य, समीक्षा, सामयिक कविता एवं मूलभाषा सम्बन्ध आलेखों का एक सशक्त जीवन्त दस्तावेज है, जिसे आ० जुगलकिशोर मुख्तार, पं० परमानन्द शास्त्री, श्री भगवत स्वरूप भगवत् श्री अगरचन्द्र नाहटा, डॉ० दरबारी लाल कोठिया, श्री अयोध्या प्रसाद गोयलीय, डॉ० ज्योतिप्रसाद जैन, पं० हीरालाल सिद्धांत शास्त्री, पं० नाथूराम प्रेमी, पं० आदि मनीषी विद्वानों ने पल्लवित और पुष्पित किया ही है। श्री पद्मचन्द्र शास्त्री ने तो विगत 30 वर्षों में अनेकान्त में प्राकृत विषयक जो सामग्री प्रस्तुत की है वह जैन साहित्येतिहास के लिए भविष्य में मार्गदर्शक सिद्ध होगी।" तात्पर्य यह है कि अनेकान्त में इतिहास-पुरातत्त्व के आलेखों के साथ ही मूल आगम ग्रन्थ सम्पादन तथा आगम भाषा विषयक सामग्री का भी प्रचुरमात्रा में प्रकाशन हुआ है। वह भी इतिहास की सामग्री से भिन्न नहीं है। 2500वें निर्वाण महोत्सव के प्रसंग में 'अनुत्तर योगी महावीर' कृति की समीक्षा करते हुए 'विष मिश्रित लड्डू' शीर्षक से परम्परागत मूल्यों की रक्षा का ऐतिहासिक दस्तावेज प्रस्तुत किया है। इसी प्रकार मूल आगम एवं भाषा विषयक पं० पदमचन्द्र शास्त्री द्वारा प्रस्तुत आलेख दिगम्बर आगमों के सुस्पष्ट निर्धारण के उन आयामों और मानदण्डों को स्थापित करते हुए मार्गदर्शन करते हैं, जिन पर समस्त दिगम्बर परम्परा और इतिहास की भावी भित्ति खड़ी होगी तथा अध्येता अनुसन्धित्सओं को एक सुनिश्चित मार्ग निर्धारण करने को मार्ग प्रशस्त करेगा। विडम्बना यह है कि आज कतिपय विद्वत् वर्ग सत्यान्वेषी न होकर अर्थान्वेषी है और अर्थ की लोलुपता सत्य को खोजने में सबसे बड़ी बाधा है यदि ऐसा न होता तो वर्तमान के सभी मनीषी विद्वान् प्राकृत विषयक अवधारणा और मूलआगम संपादन-संशोधन विषयक पं० पद्मचन्द्र शास्त्री की धारणा से सहमत होते हुए भी उदासीन भाव से असहमत न होते। विद्वत्-समुदाय ने अनेकान्त के परम्परा पोषित सन्दर्भो में भी न्याय का आश्रय नहीं लिया यह भी विडम्बना और आश्चर्य का विषय है। परन्तु पण्डित पदमचन्द्र शास्त्री ने अदम्य साहस के साथ एकला चलो रे की राह नहीं छोड़ी और समाज को ज रा सोचिए तथा परम्परित मूल्यों के प्रति अपने आलेखों के माध्यम से सचेत करते रहे।" - प्रेमचन्द्र जैन Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कोहराम किसका? - डॉ. सुरेशचंद जैन एक लम्बे अर्से के बाद लाला मुसद्दी लाल जी मेरे पास आए। प्रारंभिक शिष्टाचार के बाद आदतन उन्होंने कहा- डॉ.सा.! आप अजित टोंग्या जी को जानते है? मैंने कहा - नहीं, परिचय तो नहीं हुआ कभी कहीं मुलाकात हुई हो तो कह नहीं सकता, नाम जरूर सुना है। कहिए क्या बात है? आश्चर्य से वे मुझे देखते हए बोले- आश्चर्य है आप उन्हें नहीं जानते आजकल उन्होंने कोहराम मचाया हुआ है। चौंकने की बारी मेरी थी 'कोहराम' कैसा कोहराम? बातचीत का सूत्र लेते हुए वे बोले - अभी यात्रा करते हुए कुण्डलपुर गया था। मैने पूछा- नालन्दा वाला या बड़े बाबा वाला। बोले- बड़े बाबा वाला कुण्डलपुर। मैंने कहा वहाँ तो अब सब कुछ ठीक चल रहा है। 3 - 4 माह पहिले मैं होकर आया हूँ। वे बोले- वहाँ तो सब ठीक है, बड़े बाबा का अतिशय है, अनेक बाधाओं के बाद भी कार्य निर्बाध रूप से चल रहा है, परन्तु उज्जैन के महानुभाव अजित टोंग्या जी ने कुण्डलपुर कोहराम नामक एक पुस्तिका प्रकाशित की है और अनका दावा है कि कुण्डलपुर में जो भी हुआ वह मूल परम्परा का घात किया गया है और प.पू.आ. विद्यासागर जी की प्रेरणा और आशीर्वाद से हुआ है। मैं उन्हें टकटकी लगाकर देख रहा था और वे बोले जा रहे थे। टोंग्या जी का कहना है कि कुण्डलपुर बीसपंथी आम्नाय का मंदिर है यह बात उन्होंने श्रीकान्त चंवरे उल्हासनगर वालों के एक लेख के माध्यम से उजागर की है। श्री चंवरे जी ने कहा है कि कुछ समय पहले वहाँ की पूजा-पद्धति बदली गई है। प्रश्न भी उछाला है कि तेरह पंथ के साधु या कमेटी को यह अधिकार किसने दिया कि वहाँ की पूजन-पद्धति को बदल दिया जाय। नवीन मंदिर निर्माण को भी प्रश्नांकित करते हुए बीस पंथ वालों की चिन्ता उजागर की है कि उनके मन में विद्रोह की ज्वाला धधक रही है उनका दिल दुःख रहा है। रेवासा, सांगानेर, बिजौलिया एवं चांदखेड़ी के विकास को भी आम्नाय के प्रश्नों से देखते हुए उसे परिवर्तन की संज्ञा Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त 59/3-4 प्रदान करके भारी मनभेद और भयावह स्थिति उत्पन्न होने की चिन्ता व्यक्त की है। थोड़ा विराम लेते हुए लाला जी बोले - आप क्या कहते हैं इस विषय पर? ___ मैंनें गहरी श्वास ली और कहा- लाला जी! लगता है कि हमारा समाज आज जिस दौर से गुजर रहा है वह सुखद भविष्य की संसूचना तो नहीं दे रहा। कारण कई हैं उनमें से सबसे खतरनाक है पंथ व्यामोह। कहने को तो हम 21वीं सदी में जी रहे हैं। लेकिन हमारी मानसिकता 12 व 13वीं सदी की है। दुर्योधन की मनोवृत्ति और हठवादिता, अहंमन्यता हमारे दिलो-दिमाग पर इस कदर हावी है कि हम सूर्य के प्रकाश में भी सत्य को देखने-परखने की शाक्ति खो चुके हैं। दम्भ तो वीतरागता का है। यथार्थ में सब अपने स्वार्थ की रोटी सेंकनें की जुगत में ही लगे हैं। जहाँ तक कुण्डलपुर के बाबा के नव मंदिर का प्रश्न है वह सर्वथा उचित है। पहले भी साहू परिवार ने उस मंदिर का जीर्णोद्धार कराया था। अब यदि जीर्णोद्धार सम्भव नहीं था और आचार्य श्री की प्रेरणा से वहाँ की कमेटी ने नए मंदिर का निर्णय लिया तो कौन सी ऐसी गाज समाज पर गिर पड़ी कि लोगों ने पुरातत्व विभाग और न्यायलय के दरवाजे खटखटाये। संस्कृति संरक्षण में दतचित्त महानुभावों ने सम्भवतः यह विचार करने का कष्ट नहीं उठाया कि स्वयं की जांघ का फोड़ा ठीक कराने के लिए डिंडोरा न पीट कर चुप-चाप उसका आपरेशन करके स्वस्थ होने का उपक्रम किया जाता है। पुरातत्व विभाग ने कुण्डलपुर क्या, कहीं भी जैन मंदिर के जीर्णोद्धार करने में पहल की हो मुझे ज्ञात नहीं। हाँ, सामाजिक वैयवितक एवं संकीर्ण सोच के चलते अवश्य पुरातत्व विभाग ने रोड़ा अटकाये हैं। वैसे उस विभाग को कुछ लेना देना नहीं। ___ जीर्णोद्धार अथवा विकास के नाम पर भगवान महावीर की जन्मस्थली वैशाली कुण्डग्राम (कुण्डलपुर) को बदलकर नालन्दा जिला स्थित कुण्डलपुर को भगवान महावीर की जन्मस्थली के रूप में स्थापित प्रतिष्ठापित करने में जैसा प्रायोजन किया गया। उस समय न तो टोंग्या जी सामने आए और न ही संस्कृति रक्षा मंच वाले। क्योंकि उस प्रोजेक्ट Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त 59/3-4 का प्रायोजन बीसपंथ की समर्थक साध्वी हैं। एक लब्धप्रतिष्ठ विद्वान से जब मैनें यह पूछा कि आपने इसका समर्थन कैसे कर दिया तो उनका उत्तर था यदि क्षेत्र का विकास इसी ब्याज से हो रहा है तो हम क्यों आपत्ति करें। अपनी बात को आगे बढ़ाते हुए मैंने कहा - लाला जी! आज सारे भारत में घूम आयें तेरहपंथी हो या बीसपंथी, प्रतिदिन की पूजा में अचित्त सामग्री का ही बहुतायत प्रयोग होता है। भट्टारक परम्परा ने अपने चैत्य - चैत्यालयों की रक्षा के निमित्त ही सम्भवतः हिन्दु परम्परा में प्रचलित सचित्त पूजा पद्धति को आत्मसात् करते हुए उसे प्रचलित कर दिया होगा। पूजन पद्धति में प्रयोजनीय सामग्री आज बीसपंथ परम्परानुसार सबके लिए प्रतिदिन सम्भव नहीं। दक्षिण की बात और है, वहाँ तो आज भी पूजन का मुख्य कार्य पूजारी के माध्यम से होता है, शेष सब मात्र अनुमोदनार्थ उपस्थित रहते हैं। उत्तर भारत में तो पूजनार्थी स्वयं पूजन को उद्यत होता है। दूसरे जरा दक्षिण के गर्भालयों की स्थिति को आपने देखा होगा कि वहाँ कितना गहन अन्धकार और दीपक की लौ की कालिमा व्याप्त रहती है। खैर, हम भी वहाँ जाकर दर्शन पूजन करते हैं। अभी श्रवणबेलगोला में प.पू. भट्टारक स्वामी जी की उपस्थिति में हम सभी विद्वानों ने भण्डार-वसदि के जिन मूर्तियों का पंचामृत अभिषेक देखा था उन्होंने जलाभिषेक के बाद स्पष्ट घोषणा कर दी कि जो पंचामृत अभिषेक मात्र देखना चाहें नीचे आकर देखें। यह थी भट्टारक जी की समन्वयात्मक दूर-दृष्टि। न दबाव और न परम्परा की दुहाई। परम्परा की रक्षा और उसकी दुहाई देने वालों की बानगी देखिये- लाला जी! अभी कुछ साल पहिले एक प्रतिष्ठित आचार्य जब यौन उत्पीड़न के मामले में फंसे और बहचर्चित हए तो महासभा के शीर्षस्थ नेता से संयोग से मेरी भेंट हो गई। उन्होंने अचानक प्रश्न उछाला अब क्या करें? मामला तो संगीन है। यदि इसे दबाने का प्रयास न किया गया तो साधु - संस्था बदनाम हो जायगी। साधुओं का निर्बाध आवागमन बाधित होगा। हमें तो साधु संस्था की बात सोचनी चाहिए, परम्परा खण्डित न हो। तब मैंने उन्हें कहा था - कभी न कभी तो सख्त कदम उठाने होगें अन्यथा साधु-संस्था Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त 59/3-4 शिथिलाचार से उत्पन्न बदनामी के भंवर में डूब जायगी। इस सन्दर्भ में जो जांच समिति बनी थी उसके एक सम्मानित सदस्य अभी हैं, जिन्होंने अन्तिम समय तक जाँच को सार्वजनिक करने की बात कही थी लेकिन अन्य सदस्यों के दबाव के चलते वे अन्ततः तटस्थ हो गए थे। इन प्रसंगो को देखकर तो ऐसा लगता है कि तथाकथित कट्टर बीसपंथ के मानने वाले आज दोहरी मानसिकता से दो-चार हैं। एक ओर वे आधुनिक होने का दम्भ पाल बैठे हैं और स्वयं की परम्पराओं को प्रश्रय देने वालों का आंख बन्द कर समर्थन करते हैं तो दूसरी ओर जायज और आवश्यक कार्यो को अंजाम देने वालों के प्रति विष-वमन करते हैं या करवाते हैं। दोनों ही स्थितियाँ परम्परा और समाज के लिए घातक हैं। तेरह और बीस का झमेला तो बहुत थोड़ा है। तथाकथित समाज के हितैषी अखिल भारतीय स्तर के नेता लोग अपनी-अपनी मर्यादा में रहे तो तेरह-बीस का झगड़ा उत्पन्न ही नहीं होगा। मुझे याद आती है अयोध्या के बावरी मस्जिद-राम जन्मभूमि प्रकरण की। अयोध्या फैजाबाद के स्थानीय लोगों का मन्तव्य था कि यह मामला स्थानीय है, इसे स्थानीय लोगों को ही सुलझाने देना चाहिए। लेकिन राष्ट्रीय स्तर के महामना नेताओं को चैन नहीं पड़ा और जो कुछ भी हुआ वह सबके सामने है। बाद में पुरातत्व वालों ने जब खुदाई की तो जो चिह्न मिले वे न तो बाबरी मस्जिद के थे और न राम मंदिर के, जैन परम्परा के चिह्न मिलते ही खुदाई रुकवा दी गई। क्या बीसपंथियों या संस्कृति रक्षा का दग्भ करने वाले इसे सही अंजाम देने के लिए आगे आए या उन्होंने सरकार को विवश किया कि पूरा मामला साफ होना चाहिए और उस स्थल को जैनों को सौंपा जाना चाहिए। लाला जी! मेरे जेहन में कई ऐसे संदर्भ हैं जब शीर्ष नेताओं में मात्र अपनी नेतागिरी चमकाने के लिए तथा स्वार्थ सिद्धि के लिए कभी तथाकथित शुद्धाम्नायी बने तो कभी महासभाई। महासभा की नीतियों के कट्टर समर्थक भी तथाकथित शुद्धाम्नायी की छत्र छाया में उपस्थित होते हुए देखे जाते हैं। आज तो कभी अपने आप को शुद्धाम्नायी Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मानने वाले भी उन्हीं साधुओं का आशीर्वाद चाहते हैं, जो कभी उन्हें सुहाते ही नहीं थे। सोनगढ़ मिशन जो आज जयपुर मिशन बन चुका है और जिनकी मान्यता है कि विरोध के बजाय अपनी लाईन बड़ी बनाओ । जनसामान्य को अपनी विचारधारा के अनुकूल ढालो सब ठीक हो जायगा । बात भी सही है । यथार्थ के धरातल पर आज जिस तरह विधिवत् उनका प्रचार प्रसार चल रहा है, उससे उनकी अवधारणा की पुष्टि होती है । आज यत्र-तत्र सर्वत्र उनके अनुयायी एककुट होकर मिशन की कामयाबी में जुटे हैं और तथाकथित परम्परा निष्ठ तेरह - बीस के झमेले में उलझा है या उलझाने की कोशिश की जा रही है । साधुभक्त समाज आज न तो साधुभक्त ही रह गया है और न ही उसकी निष्ठा ही एक निष्ठ रही है। समाज का तथाकथित नेतृत्व पंथ व्यामोह के दलदल में फंसा हुआ है। ऐसा नेतृत्त्व कुछ कर सकेगा इसकी संभावना नहीं के बराबर है। महाभारत में कौरवों की पराजय का कारण बहुनेतावाद था, वही स्थिति आज अपने समाज की है। विरोध दर विरोध की नीति कभी कारगर साबित नहीं हुई। अब जो लोग सोचना ही नहीं चाहें और जानकर भी अनजान बने रहने का ढोंग कर रहे हैं उनकी क्या कहें। समाज का आम व्यक्ति इन सब चीजों से अनजान ठगा जा रहा है और परम्परा तथा समुचित विकास के औचित्य को वाद-विवाद के घेरे में लाकर परम्परा व समाज का कौन सा हित साधन टोंग्या जी व बीसपंथी वाले कर रहे हैं, ये वे ही जानें। अन्त में, लाला जी । इतना अवश्य कहूंगा कि संकीर्णताओं से ऊपर उठकर तथा व्यक्तिगत मान/ अपमान को परे रखकर, सांस्कृतिक धरोहरों के समुचित विकास पर ध्यान केन्द्रित कर ही उनकी रक्षा हो सकेगी। इस लम्बी बातचीत के बाद लाला जी बोले- ठीक है डा.सा.! हम तो अब यहीं सोचेंगें 'जो जो देखी वीतराग ने सो सो होसी वीरा रे ।' सम्पादक जैन प्रचारक जैन बालाश्रम नई दिल्ली - 2 Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन दर्शन में प्रमाण का ऐतिहासिक स्वरूप - डॉ. नरेन्द्र कुमार जैन भारतीय दर्शन में विभिन्न दर्शन पद्धतियों एवं उनकी विभिन्न समस्याओं से सम्बन्धित चिन्तन का क्रमबद्ध प्रामाणिक इतिहास उपलब्ध नहीं होता। विशेष रूप से जैनदर्शन में प्रमाणमीमांसा का जैसा विशद, प्रौढ़ एवं गम्भीर विवेचन प्रमाण प्रस्थापक आचार्यों ने किया है, वैसा मूल्यांकन भारतीय दर्शन के इतिहास लेखकों ने नहीं किया है। अन्तर्दार्शनिक पद्धतियों के साथ जैनदर्शन के ऐतिहासिक क्रम की तत्त्वाभिनिवेश, तलस्पर्शी, वस्तुपाती दृष्टि जिस रूप में स्थापित होना चाहिए, उस रूप में नहीं हो पायी। यद्यपि जैनविद्या के गवेषक, समीक्षक एवं इतिहास लेखक मनीषियों ने प्रमाणमीमांसा और तत्त्वमीमांसा के अन्तर्गत सम्बधित विषयों पर ऐतिहासिक दृष्टि से प्रकाश डाला है, परन्तु वह भारतीय दर्शनों के ऐतिहासिक सन्दर्भ में मूल्यांकन हेतु अपर्याप्त है। सम्प्रति आवश्यकता इस बात की है कि मूल ग्रन्थों के गम्भीर अध्ययन पूर्वक जैनेतर एवं पाश्चात्य दर्शनों के साथ जैन प्रमाण सिद्धान्तों का तुलनात्मक समीक्षण करते हुए भारतीय दर्शनों के इतिहास में मूल्यांकन हेतु ठोस कार्ययोजना तैयार की जाए। यहां हमारा लक्ष्य 'जैनदर्शन में प्रमाण का ऐतिहासिक स्वरूप' विषय पर संकेत रूप में अपने मन्तव्य प्रकट कर जैनविद्या के अध्येता मनीषियों का ध्यान उस ओर आकर्षित करना है। दार्शनिक युग की प्रमाण व्यवस्था से पूर्व प्रायः सभी भारतीय दर्शनों की दृष्टि के मूल में जड़ और चेतन की स्वतंत्र वास्तविकता है। इनके स्वरूप और पारस्परिक सम्बन्ध के विषय में दिये गये मन्तव्यों में जब अन्तर किया गया तब उसके प्रामाणिक स्वरूप को सिद्ध करने के लिए सभी दार्शनिक सम्प्रदायों ने कसौटी के रूप में अपने-अपने मानक निर्धारित किये। उस मानक का प्रारम्भिक रूप विद्या-अविद्या, Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त 59/3-4 ज्ञान-अज्ञान, सम्यक्-मिथ्या, अलौकिक-लौकिक, परा-अपरा विद्या आदि कुछ भी रहा हो, दार्शनिक युग में वह मानक प्रमाण-अप्रमाण के रूप में सभी सम्प्रदायो मे मान्य हुआ, परन्तु उसके अन्तरग स्वरूप में एकरूपता स्थापित नहीं हो सकी। प्रमाण शब्द प्रमितिज्ञान और उसके साधन के लिये प्रयुक्त किया गया। प्रमाण शब्द प्रयोग से पूर्व प्रमाण के द्वारा किया जाने वाला कार्य, किन शब्दों के प्रयोग द्वारा किस रूप में किया जाता रहा, ज्ञान और ज्ञान के साधनों का विकास कब हुआ, इसके आदि प्रवर्तक कौन है, इनका तर्कसंगत उत्तर देना कठिन है। यद्यपि विभिन्न दार्शनिक परम्पराओं में इनके अलग-अलग साम्प्रदायिक समाधान है, परन्तु प्रतीत होता है कि मानव ने जब स्वयं एवं अन्य बाह्य जगत् के सम्बन्ध में अपने विवेक बुद्धि का प्रयोग किया होगा तभी से ज्ञान और ज्ञान के साधनों का प्रयोग आरम्भ हुआ होगा। ज्ञात दार्शनिक सम्प्रदायों के आधार पर ऐतिहासिक निर्णय पर पहुंचने में सबसे बड़ी बाधा अपने सम्प्रदाय के प्रति अन्धश्रद्धा है। जब वे युक्ति और तर्क के बल पर किसी निष्कर्ष पर नहीं पहुंचते, तब वे उसे अपने सम्प्रदाय के प्रवर्तक की वाणी कहकर या आगम, शास्त्र आदि का उल्लेख बताकर उसकी यथार्थता सिद्ध करते हैं। परन्तु भारतीय दर्शनों में जैनदर्शन की यह विशेषता है कि वह अन्धश्रद्धा को स्थान नहीं देता। जैनाचार्यों ने स्पष्ट घोषणा की है कि जिनके वचन युक्ति और शास्त्र आगमों में निबद्ध हों, उनसे से अहेतुगम्य तत्त्वों की प्रमाणिकता सिद्ध होती है तथा हेतुगम्य तत्त्वों की प्रमाणिकता युक्ति और तर्क बल से सिद्ध होती है। जैनदर्शन में प्रमाण के विकसित स्वरूप के पूर्व समग्र चिन्तन की परम्परा तीर्थकरों की देशना से जुड़ी है, जिसका सर्वप्रथम उपलब्ध रूप द्वादशांग आगमों में देखा जा सकता था, दिगम्बर श्वेताम्बर के रूप में विभाजित परम्पराओं द्वारा क्रमशः ग्यारह अंगों का उच्छेद एवं आविर्भाव मानने के कारण, मूलभूत सिद्धान्तों में प्रायः समानता होने पर भी प्रमाण, प्रमाण भेद, नय आदि दार्शनिक तत्त्वों की ऐतिहासिकता के Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त 59/3-4 सन्दर्भ में मतभेद दृष्टिगोचर होते हैं। श्वेताम्बर परम्परा में मान्य आगमों में प्रमाण, प्रमाण भेद, नय आदि की विस्तृत चर्चा उपलब्ध होती है, परन्तु दिगम्बर परम्परा में उमास्वामी से पूर्व प्रमाण का वैसा विवेचन नहीं पाया जाता है। प्रमाण, नय आदि के दार्शनिक शैली में विवेचन से पूर्व इनके विकास का प्रमुख आधार ज्ञान का विवेचन आत्मा की क्रमिक विशुद्धता को केन्द्रबिन्दु बनाकर आगमिक शैली में किया जाता रहा है। कर्मबद्ध आत्मा का ज्ञान जितने अंशों में आत्मसापेक्ष एवं जितने अंशों में इन्द्रिय सापेक्ष होकर प्रकट होता है, उसी के आधार पर उतने अंशों में उसकी क्रमिक प्रमाणिकता का निर्णय किया जाता रहा। प्रमाण के भेद निर्धारण करने में भी यही सैद्धान्तिक मान्यता आधार बनी। दार्शनिक युग से पूर्व दिगम्बर आगमिक परम्परा में प्रमाण का कार्य ज्ञान के द्वारा सिद्ध किया जाता था। दोनों में अन्तर इतना था कि आगमिक परम्परा में ज्ञान की मीमांसा मोक्षमार्ग को केन्द्रबिन्दु मानकर होती रही, जबकि प्रमाणमीमांसा का क्षेत्र मोक्षमार्ग के साथ सम्पूर्ण बाह्य जगत् तक विस्तृत हो गया। इस युग में आचार्यों द्वारा अपने ग्रन्थों में हेय-उपादेय और ज्ञेय दृष्टि से विवेचन किया गया। उन्होंने हेय और उपादेय के विवेचन के लिए निश्चय और व्यवहार नयों का आश्रय लिया तथा ज्ञेय दृष्टि से विवेचन के लिए द्रव्यार्थिक एवं पर्यायार्थिक नयों का आश्रय लिया। विक्रम की पांचवी शती में संकलित श्वेताम्बर आगमों में ज्ञान के स्वतंत्र विवेचन के साथ प्रमाण की भी स्वतंत्र चर्चा की गयी। पं. दलसुख मालवणिया' और पं. महेन्द्रकुमार न्यायाचार्य ने जैनदर्शन के साहित्यिक विकास को चार युगों में विभक्त किया है। 1. आगम युगविक्रम की पाचवी श तक 2. अनेकान्त व्यवस्था युग- विक्रम की आठवीं शती तक 3. प्रमाण व्यवस्था युग- विक्रम की सत्रहवीं शती तक और !. नवीन न्याय युग- आधुनिक समय पर्यन्त। डॉ. दरवारी लाल कोटिया ने ई.200 से ई.650 नक आदिकान अथवा समन्तभद्र काल, ई. 650 से 1050 तक मध्यकाल अथवा अकलंक कान एवं ई.1050 से ई Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त 59 / 3-4 1700 तक अन्त्यकाल अथवा प्रभाचन्द्र काल के रूप में जैनन्याय के विकास का काल माना है।" ये काल विभाजन प्रमाण व्यवस्थित स्थिति के सम्बन्ध में ठीक हैं, परन्तु प्रमाण व्यवस्था के सूत्रपात के रूप में नहीं, क्योंकि ई. प्रथम के लगभग जब जैनेतर दर्शनों में संस्कृत भाषा में दर्शन के ग्रन्थों का प्रणयन हो रहा था, उस समय तत्त्वार्थसूत्र के कर्ता उमास्वामी ने प्रथम बार आगमिक युग की ज्ञान चर्चा को प्रमाण के साथ संयुक्त कर प्रमाण के भेदादि का स्पष्ट प्रतिपादन किया, जो दिगम्बर और श्वेताम्बर दोंनो परम्पराओं को मान्य हुआ । 21 वैदिक परम्परा के आद्य उपलब्ध ग्रन्थ ऋग्वेद में यथार्थ ज्ञान के लिए 'प्रमा' शब्द का प्रयोग पाया जाता है ।" सायण ने प्रमा शब्द की व्याख्या में यज्ञवेदी की इयत्ता - परिमाण के लिए प्रमाण तथा इयत्ता परिज्ञान के लिए प्रमिति शब्द का प्रयोग किया है। शतपथ ब्राहाण एवं छान्दोग्य उपनिषद् में 'वाकोवाक्य' विद्या का उल्लेख है, जो बाद में तर्कविद्या के रूप अभिहित हुई । ऐतरेय ब्राहाण में युक्ति शब्द का प्रयोग पाया जाता है। 10 चरकसंहिता में प्रमाण शब्द का स्पष्ट उल्लेख पाया जाता है । " वेदों के परवर्ती उपनिषद् साहित्य में आत्म निरूपण के समय जिन तार्किक शब्दावलियों एवं वाक्यों का आश्रय लिया गया है, वे उत्तरवर्ती वैदिक दर्शनों के प्रमाणमीमांसा के आधार स्तम्भ बने । उदाहरण के लिए वैशेषिक सूत्र में यथार्थ एवं अयथार्थ ज्ञान के लिए प्रयुक्त विद्या एवं अविद्या पद उपनिषद् साहित्य में प्रयुक्त पराविद्या और अपराविद्या के विकसित रूप है । बाल्मीकि रामायण, महाभारत, मनुस्मृति आदि में आत्मविद्या के रूप में प्रतिष्ठित आन्वीक्षिकी विद्या को हेतुशास्त्र हेतुविद्या, तर्कविद्या, वादविद्या आदि नामों से अभिहित किया गया । 12 कौटिल्य ने भी आन्वीक्षिकी विद्या को सभी विद्याओं में उत्तम कहा है । 13 वात्स्यायन ने इस विद्या को न्यायविद्या कहा है । प्रमाणों द्वारा वस्तुओं की परीक्षा करना न्याय है। इस तरह वैदिक दर्शनों के लिए गौतम कणाद आदि से पूर्व उस परम्परा के मनीषियों ने प्रमाण की मूलभूत सिद्धान्तों की सर्जना के लिए महत्त्वपूर्ण योगदान प्रदान किया । Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त 59/3-4 कतिपय विद्वानो की दृष्टि में 'न्यायसूत्र' के कर्ता महर्षि गौतम प्रमाण शास्त्र के आदि प्रवर्तक माने गये हैं। परन्तु इनका समय अनिर्णीत है। सामान्य रूप से यह माना जाता है कि इनका काल ईसा पूर्व छठी शताब्दी से ईसा की पांचवी शताब्दी के मध्य कभी होना चाहिए।।5 वौद्ध परम्परा में बुद्ध परिनिर्वाण के पश्चात् लिखे गये त्रिपिटक एवं मिलिन्दपज्हो आदि ग्रन्थों के विविध संवादों में प्रमाण के सूत्र उपलब्ध होते हैं। प्रमाण व्यवस्था युग : प्रमाण लक्षण का विकास प्रायः समस्त भारतीय दर्शनों के परम लक्ष्य मोक्ष के उपायों में प्रमाणों की आवश्यकता होती है। सभी ने अपनी-अपनी परम्परा के अनुसार प्रमाण का विवेचन किया है। कभी-कभी एक ही परम्परा के विवेचन में भी अन्तर दृष्टिगोचर होता है। सामान्यरूप से भारतीय प्रमाण शास्त्र में प्रमाण के स्वरूप के सम्बन्ध में दो दृष्टियाँ दृष्टिगोचर होती है- प्रथम ज्ञान को प्रमाण मानने वाली दृष्टि एवं द्वितीय इन्द्रिय सन्निकर्ष आदि को प्रमाण मानने वाली दृष्टि । जैन और बौद्ध परम्परा में ज्ञान को प्रमाण माना गया है। दोनों में अन्तर इतना है कि जैन सविकल्पक ज्ञान को प्रमाण मानते हैं और बौद्ध निर्विकल्पक ज्ञान को प्रमाण मानते हैं। दूसरी परम्परा वेदिक दर्शनों की है जिसमें प्रायः इन्द्रिय सन्निकर्ष आदि को प्रमाण माना गया है अर्थात् इन परम्पराओं में ज्ञान के कारण को प्रमाण माना गया है और ज्ञान को उसका फल। जैनदर्शन में ज्ञान को प्रमाण मानने का कारण यह है कि जो जानने की प्रमारूप क्रिया है वह चेतन होने से उसमें साधकतम उसी का गुण ज्ञान ही हो सकता है। प्र+मान शब्द के योग से निष्पन्न प्रमाण शब्द में प्र उपसर्ग पूर्वक मा धातु से ल्युट् प्रत्यय करने पर इसकी 'प्रमिणोति प्रमीयतेऽनेन प्रमितिमात्रं वा प्रमाणम्' व्युत्पत्ति की जाती है।16 तात्पर्य यह कि प्रमाण शब्द भाव, कर्तृ और करण तीनों साधनों में निष्पन्न होता है। भाव की विवक्षा में प्रमा, कर्तृ की विवक्षा में शक्ति की प्रमुखता से प्रमातृत्व तथा Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त 59/3-4 करण की विवक्षा में प्रमाता, प्रमेय और प्रमाण की भेद विवक्षा होती है। सामान्य रूप से 'प्रमीयते येन तत्प्रमाणम्' अर्थात् जिसके द्वारा पदार्थों का ज्ञान हो उसका नाम प्रमाण है।। जैन दार्शनिकों ने ज्ञान पद के साथ सम्यक्, तत्त्व, स्वपरावभासक, अनधिगतार्थ, व्यवसायात्मक, बाधविवर्जित, अविसंवाद, अपूर्व आदि विशेषण संयुक्त कर विभिन्न कालों में प्रमाण की संस्कारित और विकसित परिभाषाएं दीं। ईसा की प्रथम शती में हुए गृद्धपिच्छ उमास्वामी ने सूत्रयुग में ज्ञानों का प्रत्यक्ष और परोक्ष के रूप में प्रमाणों में वर्गीकरण करके भी प्रमाण की स्पष्ट परिभाषा नहीं दी। इनके बाद द्वितीय शती में हुए आचार्य समन्तभद्र ने अनेकान्त की स्थापना के लिए प्रमाण के सुस्पष्ट स्वरूप का प्रतिपादन करते हुए उसके आगमिक भेद, विषय, फल और प्रमाणाभास आदि प्रमाण से सम्बन्धित सभी विषयों का युक्तियुक्त प्रतिपादन किया, जो उत्तरवर्ती सभी प्रमाणशास्त्रियों के लिए आधारभूमि बना। आचार्य समन्तभद्र के सामने जहां पूर्वाचार्यों से प्राप्त मन्तव्यों का संरक्षण करना था वहीं दूसरी ओर प्रमाणशास्त्र के रूप में विकसित हो रही अन्य दार्शनिक परम्पराओं के साथ उनका सामंजस्य भी स्थापित करना था। इस दोहरे दायित्व का आ. समन्तभद्र ने अत्यन्त कुशलता के साथ निर्वाह किया है। उन्होंने प्रमाण को स्पष्ट परिभाषित करते हए लिखा है कि युगपत सर्व के अवाभासनरूप तत्त्वज्ञान प्रमाण है। स्याद्वाद नये संस्कृत कमभावि ज्ञान भी प्रमाण है। स्वयम्भूस्तोत्र में उन्होंने स्वापरावभासी ज्ञान को प्रमाण मानकर अन्यत्र इसी ग्रन्थ में विधिविषक्तप्रतिषेधरूपः प्रमाणम्' अर्थात् वस्तु के विधि और प्रतिषेध दोनों रूपों को ग्रहण करने वाला प्रमाण बताया है। अपने युक्त्यनुशासन नामक स्तुति ग्रन्थ में उन्होंने उमास्वामी की तरह प्रमाण को वस्तुतत्त्व को सम्यक्रूप से स्पष्ट करने वाला बताया है।20 प्रमाण के लक्षण में उन्होंने आगमिक परम्परा का निर्वाह करते हुए ज्ञान की पूर्ण प्रमाणता सर्वभासकत्व में सिद्ध की है, जो अक्रमभावि - केवलज्ञानरूप होने से प्रमाण है। जो पदार्थो को एक साथ नहीं जानते बल्कि कम से जानते Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त 59/3-4 हैं वे मति, श्रुत, अवधि और मनःपर्ययज्ञान भी स्याद्वाद नय से संस्कारित होने के कारण क्रमभावि - तत्त्वज्ञान के रूप में प्रमाण है। जैनप्रमाणशास्त्र के इतिहास में समन्तभद्र ने प्रमाण के लक्षण की ऐसी सुदृढ़ नींव रखी, जिसपर उत्तरवर्ती आचार्यों ने नवीन शब्दावलियों का प्रयोगकर प्रमाण के भव्य प्रासाद निर्मित किये, परन्तु मूलस्वरूप में किसी भी आचार्य को विशेष परिवर्तन की आवश्यकता नहीं पड़ी। समन्तभद्र कं वाद हुए आचार्य सिद्धसेन ने न्यायावतार ग्रन्थ में "प्रमाण स्वपरावभासि ज्ञानं बाधविवर्जितम्" लिखकर प्रमाण को स्वपरावभासि होने के साथ बाधविवर्जित होना भी आवश्यक बताया है। अकलक ने समन्तभद्रोक्त प्रमाण लक्षण का समर्थन करते हुए 'स्व' पद के स्थान पर आत्मा, पर पद के स्थान पर अर्थ तथा अवभासक के स्थान पर व्यवसायात्मक पदों का प्रयोग करके उन्होंने आत्मार्थग्राहक व्यवसायात्मक ज्ञान को प्रमाण कहा है।22 अन्यत्र उन्होंने अनधिगत अर्थ विषयक अविसंवादी ज्ञान को भी प्रमाण के रूप में स्वीकृत किया है।23 अर्थ के विशेषण अनधिगत को उन्होंने अनिश्चत, अनिर्णीत आदि पदों द्वारा भी दर्शाया है। माणिक्यनन्दि आचार्य ने इस लक्षण में अपूर्व पद का समावेश कर स्व और अपूर्व अर्थ के व्यवसायी ज्ञान को प्रमाण माना है।25 आप्तमीमांसाभाष्य/अप्टशती पर अष्टसहस्री महाभाष्य लिखने वाले आचार्य विद्यानन्द ने प्रमाण के लक्षण में अनधिगत और अपूर्व विशेषण नहीं दिया है। इस विषय में उनका मन्तव्य है कि ज्ञान चाहे अपूर्व पदार्थ को जाने या गृहीत अर्थ को, वह स्वार्थव्यवसायात्मक होने से प्रमाण ही है। इसके अतिरिक्त उन्होंने प्रमाणपरीक्षा ग्रन्थ में सम्यग्ज्ञान को प्रमाण बताकर उसे स्वार्थव्यवसायात्मक सिद्ध किया है। विद्यानन्द के परवर्ती आचार्यो की परम्परा में हेमचन्द्र, धर्मभूषण आदि आचार्यों ने भी सम्यग्ज्ञान या सम्यक् अर्थ निर्णय को ही प्रमाण स्वीकृत किया है। जैनेतर दर्शनों में प्रमाग निर्विकल्पक ज्ञान को प्रमाण मानने वाली बौद्ध परम्परा में समन्तभद्र Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त 59/3-4 25 के बाद हुए दिङ्नाग से पूर्व प्रमाण विवेचन को प्रमुखता नहीं दी गयी है। दिङ्नाग ने सर्वप्रथम अज्ञात अर्थ के प्रकाशक ज्ञान को प्रमाण बताकर प्रमाण की परिभाषा दी। तत्पश्चात् धर्मकीर्ति ने अविसंवादी ज्ञान को प्रमाण और अर्थक्रियाकारित्व को अविसंवाद कहा। वस्तुतः इस परम्परा के विज्ञानवादी दार्शनिकों द्वारा बाह्य अर्थ की सत्ता को स्वीकार नहीं किया गया है। इसलिए ज्ञानगत योग्यता ही उनके मत में प्रमाण हैं एवं स्वसंवेदन उसका फल। सौत्रान्तिक मत में बाह्य अर्थ की सत्ता को स्वीकार किया गया है, इसलिए ज्ञानगत अर्थाकारता या सारूप्य को प्रमाण का फल माना गया है, परन्तु दोनों एक ज्ञान के धर्म माने गये है। इस तरह जैनदर्शन के सामने बौद्धदर्शन में ज्ञान को प्रमा के साधकतम रूप में प्रमाण माना गया है, पर जैन नैयायिकों की दृष्टि में बौद्धों द्वारा मान्य ज्ञानगत सारूप्य, ज्ञानस्वरूप होने पर भी ज्ञान का विषयाकार होना किसी भी तरह सम्भव नहीं है, क्योंकि अमूर्तिक ज्ञान मूर्तिक पदार्थो का आकार ग्रहण नहीं कर सकता। उमास्वामी के समकालीन वैशेषिकदर्शन के प्रणेता कणाद ने निर्दोष विद्या को प्रमाण के रूप में स्वीकृत किया है। उन्होंने इन्द्रिय दोष तथा संस्कार दोष से उत्पन्न अयथार्थ ज्ञान को दुष्ट या अविद्या कहा है। उनका यह प्रमाण लक्षण कारणमूलक था। न्यायसूत्रकार गौतम ने प्रमाण के लक्षण का निर्दोष कथन नहीं किया है। किन्तु उनके भाष्यकार वात्स्यायन ने उपलब्धि के साधन को प्रमाण कहा है। उन्होंने प्रमीयतेऽनेनेति करणार्थाभिधानो हि प्रमाणशब्दः कहकर करण अर्थ में प्रमाण शब्द की निष्पन्नता बताई है। न्यायदर्शन में इस तरह कारण शुद्धि से हटकर उपलब्धि रूप फल को प्रमाण का लक्षण माना गया है। ईसा की तीसरी शती के विद्वान् ईश्वरकृष्णकृत सांख्यकारिका सांख्यदर्शन का प्रामाणिक ग्रन्थ माना गया है। जिसमें प्रमाण के स्वरूप का प्रतिपादन नहीं है, उसमें मात्र तीन प्रकार के प्रमाणों का ही निर्देश किया गया है। सांख्यकारिका के टीकाकार वाचस्पति मिश्र ने प्रमाण को प्रमा का साधन कहा है, जो बुद्धि या चित्त का धर्म माना गया है। योगदर्शन में भी प्रमाण के स्वरूप का प्रतिपादन न होकर पांच प्रकार की वृत्तियों में Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त 59/3-4 प्रमाणवृत्ति का उल्लेख किया गया है। दोनों सांख्ययोग दर्शनों में बुद्धिनिष्ठ ज्ञान प्रमाण और पुरुषनिष्ठ ज्ञान को प्रमा कहा गया है। इस तरह न्यायवैशेषिक दर्शन में इन्द्रिय सन्निकर्ष को और सांख्ययोग दर्शन में इन्द्रियवृत्ति को प्रमाण माना गया है। जैनतार्किकों की दृष्टि में सन्निकर्ष और इन्द्रियवृत्ति अचेतन अज्ञान रूप होने से अपने विषय की प्रमिति के प्रति साधकतम नहीं हो सकती। अपने विषय की प्रमिति के प्रति साधकतम ज्ञान ही हो सकता है। मीमांसा दर्शन में प्रभाकर मतवाले अनुभूति और ज्ञातृव्यापार को प्रमाण कहते है। भाट्ट परम्परा में अज्ञात और यथार्थ अर्थ के निश्चायक ज्ञान को प्रमाण माना गया है। वेदान्त दर्शन में भी इसी तरह अबाधित अर्थ विषयक ज्ञान को प्रमा एवं उसके करण को प्रमाण माना गया है। जैनाचार्यो की दृष्टि में एक ही अर्थ की अनुभूति विभिन्न प्रकार के व्यक्तियों को अपनी-अपनी भावना के अनुसार विभिन्न प्रकार की होती हैं। इसलिए अनुभूति को कैसे प्रमाण माना जा सकता है। ज्ञाता का व्यापार वस्तु के यथार्थ प्रतिबोध में कारण नहीं होता, जिससे विपरीत दिखाई देता है। इसलिए ये प्रमाण के लक्षण सदोष हैं। प्रमाण भेद की ऐतिहासिक परम्परा दिगम्बर आगमिक साहित्य में कुन्दकुन्द तक पंचज्ञानों की विस्तृत चर्चा पाई जाती है। तथा उनके प्रत्यक्ष परोक्ष भेद भी पाये जाते हैं, परन्तु उनका प्रमाणों में वर्गीकरण नहीं पाया जाता। कुन्दकुन्द के बाद सूत्रकार उमास्वामी ने प्रमाण का निर्वचन करने के साथ ज्ञानों का प्रत्यक्ष और परोक्ष रूप में वर्गीकरण भी किया। उन्होंने मति और श्रुत को परोक्ष प्रमाण तथा अवधि, मनःपर्यय और केवलज्ञान को प्रत्यक्ष कहा। यह विभाजन आगमिक परम्परा से हटकर प्रतीत होता है, परन्तु समीक्षक विद्वानों की दृष्टि में यह विभाजन उनके द्वारा अन्य दर्शनों के प्रमाण निरूपण के साथ मेल बैठाने और आगमिक समन्वय के लिए ज्ञानकरणों की सापेक्षतता और निरपेक्षता पर आधारित था। मति, Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त 59/3-4 M स्मृति, संज्ञा- प्रत्यभिज्ञान, चिन्ता- तर्क और अभिनिबोध- अनुमान को मतिज्ञान के अन्तर्गत प्रमाणान्तर मानकर एवं उन्हें परोक्ष प्रमाण कहकर प्रमाण भेद व्यवस्था के लिए उन्होंने उत्तरवर्ती सभी जैन तार्किकों का मार्ग प्रशस्त किया। समन्तभद्र के ग्रन्थों में पंचज्ञानों में केवलज्ञान के अतिरिक्त अन्य ज्ञानों का स्पष्ट उल्लेख नहीं मिलता। तत्त्वार्थसूत्रकार की तरह उन्होंने प्रत्यक्ष और परोक्ष के रूप में प्रमाण का वर्गीकरण भी नहीं किया। उनका वर्गीकरण आगमिक परम्परा के अनुसार विषयाधिगम के क्रम और अक्रम पर आधारित था। इस प्रकार समन्तभद्र की दृष्टि में प्रमाण का प्रथम भेद युगपतसर्वभासनरूप तत्त्वज्ञान- केवलज्ञान और दूसरा प्रमाण भेद स्याद्वाद नय से संस्कृत क्रमभावी ज्ञान है। ध्यातव्य है कि समन्तभद्र ने केवलज्ञान को साक्षात् ओर स्याद्वाद को असाक्षात् कहा। इसके वृत्तिकार आचार्य वसनन्दि का मत है कि स्याद्वाद और केवलज्ञान ये दो प्रमाण हैं। उन्होंने साक्षात् का अर्थ प्रत्यक्ष और असाक्षात् का अर्थ अप्रत्यक्ष किया है। अकलंक द्वारा भी समन्तभद्रोक्त प्रमाण भेद की व्याख्या में प्रत्यक्ष और परोक्ष भेदों की और संकेत किया गया जान पड़ता है। प्रत्यक्ष और परोक्ष प्रमाण के अन्तर्गत मति आदि ज्ञानों के विभाजन विषयक तत्त्वार्थसूत्रकार की अवधारणा के अनुकरण की स्पष्टोक्ति समन्तभद्र की व्याख्या के प्रसंग में अकलंक की दृष्टि भी अनुत्तरित प्रतीत होती है। समन्तभद्र ने केवलज्ञान की पूर्ण प्रत्यक्षता को ध्यान में रखकर लौकिक दृष्टि से प्रत्यक्ष प्रमाण की सीमा बाह्य अर्थ तक विस्तृत कर दी। सूक्ष्म, अन्तरित और दूरवर्ती पदार्थ अनुमेय होने से किसी के प्रत्यक्ष हैं, जैसे - अग्नि आदि।" यहां समन्तभद्र द्वारा प्रयुक्त प्रत्यक्ष पद स्पष्ट रूप से अतीन्द्रिय प्रत्यक्ष प्रमाण के साथ इन्द्रिय प्रमाण की ओर भी संकेत करता है। स्वयम्भूस्तोत्रम् में आये दृष्ट और प्रत्यक्ष पद प्रत्यक्ष प्रमाण माने जाने की ओर स्पष्ट संकेत करते हैं।5 विकसित प्रमाण युग में पाया जाने वाला अनुमान का सम्पूर्ण विवेचन क्रमभावी ज्ञान परोक्ष प्रमाण के अन्तर्गत, समन्तभद्र के ग्रन्थों में पाया जाता है। Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त 59/3-4 समन्तभद्र के बाद आचार्य सिद्धसेन ने प्रमाण के प्रत्यक्ष और परोक्ष भेद माने हैं।46 अन्यत्र उन्होंने स्वार्थ और परार्थ भेद भी किये हैं।7 अकलंक ने समन्तभद्र और सिद्धसेन के पद चिह्नों पर चलते हुए उनके चिन्तन को प्रमुख आधार मानकर युगानुरूप प्रमाण भेद व्यवस्था की स्थापना की। प्रत्यक्ष प्रमाण के मुख्य और सांव्यवहारिक ये दो भेद किये।48 मुख्य प्रत्यक्ष को अतीन्द्रिय प्रत्यक्ष कहा। सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष के इन्द्रिय प्रत्यक्ष और अनिन्द्रिय प्रत्यक्ष तथा एक स्थान पर प्रत्यक्ष के प्रादेशिक प्रत्यक्ष, अनिन्द्रिय प्रत्यक्ष और अतीन्द्रिय प्रत्यक्ष के रूप में तीन भेद किये हैं।49 तत्त्वार्थवार्तिक में सर्वार्थसिद्धि की तरह प्रत्यक्ष के देशप्रत्यक्ष और सर्वप्रत्यक्ष भेद किये गये हैं।50 अकलंक द्वारा स्वीकृत अशंतः अविशद और अस्पष्ट होने की स्थिति में परोक्ष प्रमाण के निम्नलिखित भेद- स्मरण/स्मृति, प्रत्यभिज्ञान/संज्ञा, तर्क चिन्ता, अनुमान/अभिनिबोध और आगम/श्रुत परवर्ती प्रायः सभी जैन दार्शनिकों ने स्वीकृत किये हैं, जिनमें दर्शनान्तरों में मान्य व्यधिक प्रमाणों का अन्तर्भाव हो जाता है। श्वेताम्बर मान्य आगमों में ज्ञानों की चर्चा के साथ प्रमाण भेदों का भी स्पष्ट उल्लेख किया गया है। पं. सुखलाल संघवी ने अनमान किया है कि श्वेताम्बर आगमों में प्रमाण भेदों की चर्चा बाद में प्रविष्ट हुई होगी। प्रमाण का विषय एवं फल प्रमाण का विषय द्रव्यपर्यायात्मक, सामान्यविशेषात्मक एवं उत्पादव्ययध्रौव्यात्मक है, जिसकी उपलब्धि एकान्त से नहीं हो सकती, क्योंकि अर्थ अनेकान्तात्मक है। इस विषय में प्रारम्भ से अद्यावधि कोई वैमत्य नहीं है। सभी ज्ञानों- प्रमाणों का फल अज्ञान का नाश है, यह विचार व्यक्त करते हुए समन्तभद्र ने युगपत् सर्वावभासक ज्ञान प्रमाण का फल उपेक्षा एवं क्रमभावी ज्ञान प्रमाण का फल उपेक्षा के साथ हेय और उपादेय बुद्धि को माना है।52 अकलंक और विद्यानन्द ने साक्षात् और परम्परा फल के रूप में प्रमाण के दो फल मानकर उन्हें कथंचित् Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त 59 / 3-4 प्रमाण से अभिन्न और भिन्न माना है 53 तथा समन्तभद्र का समर्थन किया है। विद्यानन्द ने अज्ञाननिवृत्तिरूप स्वार्थ व्यवसित को प्रमाण फल की व्याख्या में संयुक्त कर विशिष्ट बौद्धिकता का परिचय दिया है। 54 29 जैनप्रमाण शास्त्र को समृद्ध और विकसित स्वरूप प्रदान करने वाले आचार्यो का उनके कृतित्व सहित कालक्रम से विस्तृत विवरण देना इस आलेख में सम्भव नहीं है। संक्षिप्त रूप में हम कह सकते हैं कि उमास्वामी, समन्तभद्र, सिद्धसेन, अकलंक हरिभद्र, अनन्तवीर्य, विद्यानन्द, वसुनन्दि, माणिक्यनन्दि, वादीभसिंह, अभयदेवसूरि, प्रभाचन्द्र, हेमचन्द्र, मल्लिषेण एवं यशोविजय - 18वीं शती आदि आचार्यो ने जैनप्रमाण शास्त्र के विकास में महत्त्वपूर्ण योगदान दिया है। वींसवी – इक्कीसवीं शती के मुनिराज श्रीप्रमाणसागर जी द्वारा सरल और प्रांजल भाषा में सृजित 'जैनधर्म और दर्शन' एक ऐसी अनूठी कृति है, जिसके स्वाध्याय से जैनधर्म दर्शन के दुरूह गम्भीर विषयों को अत्यन्त सुगम रीति से हृदयंगम किया जा सकता है। यदि उनके द्वारा जैनप्रमाण शास्त्र के इतिहास का इसी तरह सरल भाषा में लेखन हो जाये, तो जैनन्याय के जिज्ञासुओं का महान् कल्याण हो सकता है। निष्कर्ष यह कि प्रमाण व्यास्था से पूर्व सभी दर्शनों में प्रायः जड़ और चेतन की स्वतंत्र वास्तविकता को स्वीकार किया गया है। इनके स्वरूप और पारस्परिक सम्बन्ध की स्थिति सत्य सिद्ध करने के लिए सभी ने कसौटी के रूप में प्रमाण व्यवस्था से पूर्व विद्या अविद्या, सम्यक् मिथ्या आदि को आधार बनाकर अपने मत को स्थापित करने के प्रयत्न किये। बाद में लगभग ईसा की प्रथम शती में प्रायः सभी भारतीय दर्शनों के द्वारा वस्तुतत्त्व की सत्यता सिद्ध करने के लिए मानक के रूप में प्रमाण को मान्य किया । प्रमाण का सूत्रपात एवं प्रमाण व्यवस्था का ऐतिहासिक काल प्रायः सभी दर्शनों का समान है। सामान्यरूप से प्रमा के साधकतम करण को भी सभी ने प्रमाण माना है, परन्तु करण के विषय में, अन्यदर्शनों से जैनदर्शन की दृष्टि भिन्न है । अन्यदर्शनों में जहां ज्ञान के कारण को प्रमाण एवं ज्ञान को उसका फल कहा है। वहां Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त 59 / 3-4 जैनदर्शन में जानने रूप क्रिया के चेतन होने से उसमें साधकतम उसी का गुण ज्ञान ही हो सकता है । इसलिए इस परम्परा में सम्यग्ज्ञान को ही प्रमाण माना गया है, जिसमें विभिन्न कालों में जैनाचार्यों द्वारा प्रमाण के स्वरूप में दिये गये अविसंवाद, अपूर्व आदि सभी विशेषण गर्भित हो जाते है । प्रमाणमीमांसा पर चिन्तन करने वाले आचार्यो की वह परम्परा उमास्वामी, समन्तभद्र आदि से लेकर 18वीं शती के आचार्य यशोविजय तक अविच्छिन्न रूप से वृद्धिंगत होती रही, जिसमें आप्तमिमांसा आदि के कर्ता स्वामी समन्तभद्र जैनन्याय के जनक कहे गये । वैदिक दर्शन के लिए प्रमाणमिमांसा हेतु ऋग्वेदादि विशाल साहित्य उपलब्ध होने पर भी प्रमाण का सूत्रपात एवं व्यवस्था करने वाले सभी आचार्यो का काल प्रायः समान है । प्रमाण विषयक विवेचन के लिए जैन परम्परा में कुन्दकुन्द तक ज्ञान विवेचन की ठोस आधार भूमि प्रमाण विवेचक आचार्यो को प्राप्त हुई, जिसके आधार पर सर्व प्रथम उमास्वामी ने प्रमाण का सूत्रपात किया । तत्पश्चात् समन्तभद्र और सिद्धसेन इन दो आचार्यो ने प्रमाण की सूत्रपात रूपी नींव पर प्रमाण का भव्य प्रासाद निर्मित किया । इनके उत्तरवर्ती अकलक, विद्यानन्द आदि आचार्यो का आश्रय लेकर प्रमाणचर्चा को युगानुरूप ढांचे में ढालने का प्रयत्न किया । 30 सन्दर्भ निर्देश 1. आप्तमीमांसा, समन्तभद्र, वीर सेवा मन्दिर ट्रस्ट, दिल्ली, सन् 1961, कारिका 6, 2. सन्मतिप्रकरण, सिद्धसेन, स. सुखलाल सधवी, बे दोषी ज्ञानोदय ट्रस्ट, अहमदाबाद, 1963, गाथा 45, 3. आगम युग का जैनदर्शन, पं. दलसुख मालवणिया, सन्मति ज्ञानपीठ, आगरा 1966, 4. वही पृष्ठ 281, 5. जैनदर्शन, पं. महेन्द्रकुमार जैन, गणेश वर्णी जैन ग्रन्थमाला, वाराणसी, 1974, पृ. 11, 6 जैनन्याय, प. कैलाशचन्द्र शास्त्री, भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशन, प्र. स. 1966, भूमिका पृ. 10, 7. ऋग्वेद सायणभाष्य सहित, वैदिक संशोधन मंडल, तिलक म. विद्यापीठ पूना, 1946, 10.130.3, 7, 8. वहीं, सायणभाष्य, पृ 785-787, 9. शतपथ ब्राह्मण, 4. 6.9.20, 11.5.6.8 आदि, 10. ऐतरेय ब्राह्मण, 6.23, 11. चरकसंहिता, सूत्रस्थान 11.32, 12. वाल्मीकि रामायण, अयोध्याकाण्ड, 1.13.23, 7. 53.15, महाभारत, आदिपर्व 1.67, शान्तिपर्व 180.47, 210.12, 256.12 आदि, मनुस्मृति, 2.11, 6.50 आदि, 13. कौटिलीयम् अर्थशास्त्रम्, भाग 1, पृष्ठ 26, 28, 14. न्यायदर्शन, Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त 59/3-4 न्यायसूत्र, न्यायभा न्यायवा.आदि सस्कृत ग्रन्थमाला कलकत्ता 1936 पृ. 38,52, 15 भारतीय दर्शन, सं. डॉ. न.कि देवराज, उत्तर प्रदेश हिन्दी सस्थान लखनऊ द्वि.सं. 1978, पृ 260, 16. सर्वार्थसिद्धि, पूज्यपाद, भारतीय ज्ञानपीठ, काशी, सन् 1935, 1.10, 17. आ मी कारिका 101, 18. समन्तभद्र ग्रन्थावली, अकलंककृत, आप्तमीमांसाभाष्य एव प जुगलकिशोर मुख्तार के हिन्दी अनुवाद सहित, सकलन, डॉ गोकुलचन्द्र जैन, वीर सेवा मन्दिर ट्रस्ट, बीना 1989, स्वय. 63, 19. वही, 101, 20. वही, युक्त्यनुशासन 6, 21 न्यायावतार, सिद्धसेन, परम श्रुत प्रभावक मडल बम्बई सन् 1950, 1, 22. आ. मी भाष्य, 36, 23 लघीयस्त्रय, का. 60, 24. वही, 101, 25. परीक्षामुख,11, 26. प्रमाणपरीक्षा, विद्यानन्द, डॉ. द. ला. कोठिया, वीर सेवा मन्दिर ट्रस्ट, वाराणसी, 1977 पृ 5, 27. तत्त्वार्थश्लोकवार्तिकम् मनोहरलाल निर्णय सागर प्रेस, बम्बई 1918, 1 10 77,78, 28 प्रमाणमीमांसा, हेमचन्द्र, सं. सुखलाल संधवी जैन ग्रन्थ. अहमदाबाद 1939, 1.1.2, 29. न्यायदीपिका, धर्मभूषणयति, वीर सेवा मन्दिर, सरसावा, 1945 पं. 9, 30 प्रमाणसमुच्चयवृत्ति सहित, मैसूर विश्वविद्यालय, पृ. 11, 31. प्रमाणवार्तिकम्, 13, 32 तत्त्वसग्रह पंजिका. पृ 319, 33 अप्टसहस्री, विद्यानन्द, अकलूज, सोलापुर, 1915, पृ. 276, 34. वैशेषिकसूत्र, 9.2.12, 35. वहीं, 36. न्यायभाष्य पृ. 91, 37. सांख्यतत्त्वकोमुदी, पृ. 216, 38. योगसूत्र,1.5, 39. प्रकरणपंजिका का. हि. वि. वि. काशी, 1961, पृ. 104,40. मीमासासूत्र, 1.1.5 एवं श्लोकवार्तिकम् चो. सूत्र श्लोक 80, 41. वेदान्तपरिभापा. पृ. 16, 42. आ. मी 105, 43. आ. मी. वृत्ति, 44. आ. मी. 5, 45. स्वय. 138 आदि तुलनीय आ. मी. 5,7,24 एव 26 युक्त. 22, 33, 38 आदि, 46. न्यायावतार, 4, 47 वही, 48. लद्यीयस्त्रय 4, 49. वही, वृत्ति 4, 50. तत्त्वार्थवार्तिकम् 1.20, 51. देखे, भाषा टिप्पण प्रमाणमीमांसा, 52. आ. मी का. 102, 53 भाष्य 102 एव अ. स. 102, 54 प्र. प. पृ. 66, 55. जैनधर्म और दर्शन, मुनि श्री प्रमाणसागर, प्रकाशक, पारस होम्स 22, अहिंसा, पुराना कबाड़खाना, जुमराती, भोपाल, छ. सं. 2000, 56 समन्तभद्र अवदान, डॉ. नरेन्द्र कुमार जैन, प्रकाशक, स्याद्वाद प्रसारिणी सभा, चैतन्य निलय 3/359 न्यू विद्याधर नगर, जयपुर, राजस्थान, प्र. सं. 2001 । -III बी 25, नेहरुनगर गाजियाबाद (उ.प्र) Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'राजस्थान के कलात्मक जैन मंदिर' ___-डॉ. कमला गर्ग जैन धर्म का उद्देश्य है मनुष्य की परिपूर्णता अर्थात् संसारी आत्मा की स्वयं परमात्मत्व में परिणति। व्यक्ति में जो अन्तर्निहित दिव्यत्व है उसे स्वात्मानुभूति द्वारा अभिव्यक्त करने के लिए यह धर्म प्रेरणा देता है और सहायक होता है। संभवतया यही कारण है कि जैनों ने सदैव ललितकलाओं के विभिन्न रूपो को प्रश्रय एवं प्रोत्साहन दिया। देश के सांस्कृतिक भण्डार को उन्होंने कला और स्थापत्य की अगणित विविध कृतियों से सम्पन्न किया, जिनमें से अनेकों की भव्यता और कला-गरिमा इतनी उत्कृष्ट बन पड़ी है कि उनकी उपमा नहीं मिलती। स्थापत्य शब्द से तात्पर्य मूर्तियों अथवा भवनों के निर्माण की किसी एक विशेष शैली से है, यह सीमित अर्थ है। स्थापत्य के अर्थ में व्यवहत होने वाले अन्य शब्द “वास्त कला" और "शिल्प कला" हैं। इसमें वास्तु कला अधिक व्यावहारिक एवं तर्कसम्मत है। यह शब्द औरों से अधिक प्रचलित तो है ही, साथ ही, अर्थ क्षमता कि दृष्टि से भी व्यापकत्व लिए हुए है। “शिल्प कला" प्रस्तर शिल्प अर्थात् मूर्ति निर्माण के कौशल तक ही सीमित रह गया है। अतः इसमें स्थापत्य या वास्तुकला जैसे शब्दों का स्थान लेने की क्षमता नहीं है। मंदिर स्थापत्य प्राचीन काल से ही मूर्ति पूजा के आरम्भ और विकास के चरणों के साथ ही विकसित हुआ है। इसकी प्रगति विभिन्न कालों में पूजा-विधानों में होने वाले परिवर्तनों के साथ होती रही। मंदिर-स्थापत्य कला का विकास प्रत्यक्षतः मूर्ति-पूजा के परिणामस्वरूप हुआ, जो जैनों में कम से कम इतिहास-काल के आरंभ से प्रचलित रही है। अपने मंदिरों के निर्माण में जैनों ने विभिन्न क्षेत्रों और कालों की प्रचलित शैलियों को तो अपनाया, किन्तु उन्होंने अपनी स्वयं की संस्कृति Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त 59/3-4 और सिद्धांतों की दृष्टि से कुछ लाक्षणिक विशेषताओं को भी प्रस्तुत किया, जिनके कारण जैनकाल को एक अलग ही स्वरूप मिल गया। ___प्राचीन जैन मंदिरों के अवशेष प्रायः लुप्त हो गए हैं, सम्भवतः इसका कारण हूणों का आक्रमण है। जो अवशेष अभी बचे हुए हैं। उनका समय-समय पर जीर्णोद्धार होता रहा है, जिसके कारण वे अपना परिवर्तन कर चुके हैं। अतः अब जैन मंदिरों की प्राचीन स्थापत्य सम्बधी जानकारी प्राप्त होनी कठिन हो गई है। इस कारणवश लगभग 8वीं शताब्दी से हमें मध्यकालीन जैन मंदिरों के स्थापत्य सम्बन्धी जानकारी प्राप्त होती है। यहाँ जैन मंदिरों से तात्पर्य जैन धर्म के अनुयायियों के संरक्षण में बनवाए हुए मंदिर हैं। राजस्थान के अधिकतर मध्यकालीन जैन मंदिर नागर शैली के हैं। राजस्थान में प्रायः सभी स्थानों पर जैन मंदिर विद्यमान हैं, लेकिन सभी मंदिरों का जैन स्थापत्य दृष्टि से अपना विशेष लक्षण नहीं है। आठवीं, नवीं तथा 10वीं शती के मंदिर साधारण हैं, जो गुप्त काल के अंतिम चरम के अनुकरण हैं। 11वीं और 12वीं शताब्दी के मंदिर एक लम्बे अनुभव और लगातार विकास का परिणाम हैं। इस समय जैन स्थापत्य शैली अपनी चरम बिन्दु पर पहुंच चुकी थी, तथा एक दो शताब्दियों तक विकसित होती रही, परन्तु ऐसा होने पर इसने अपनी पूर्णता और शुद्धता विस्मृत कर दी, जो उसने आरम्भिक समय में प्राप्त की थी। उस चरम बिन्दु पर पहुँचने के पश्चात् उसका पतन प्रारम्भ हो गया, जिसके उदाहरण हमें वर्तमान समय तक उपलब्ध है। राजस्थान के प्रारम्भिक मध्य काल के मंदिर नष्टप्राय हो गए हैं। अवशिष्ट मंदिरों में प्रमुख पाली जिले का घानेराव तथा जोधपुर जिले का ओसियां मंदिर महत्वपूर्ण हैं। ओसियां (प्राचीन उपकेश) राजस्थान का सबसे पुराना मध्ययुगीन कला और स्थापत्य का उदाहरण है। यहाँ आठवीं शताब्दी के मंदिर प्राचीनतम हैं। यहाँ का प्रमुख मंदिर महावीर मंदिर है, जो ओसियां के Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त 59 / 3-4 पश्चिम में स्थित है । शिलालेख के अनुसार इस मंदिर का निर्माण प्रतीहार वत्सराज के शासनकाल में हुआ। इस मंदिर में एक बड़ी जगती है, जो प्रमुख मंदिर और अन्य मंदिरों को आधार दिए हुए है। मुख्य मंदिर का मुख उत्तर की ओर है। इसमें मूलप्रासाद गूढ़मण्डल, मण्डप, मुख - चतुष्की है । इसके कुछ दूरी पर एक तोरण है । द्वार मण्डप के सामने वालाणक है । गर्भगृह के दोनों ओर तथा पीछे की ओर एक आच्छादित वीथी निर्मित है । मुख-मण्डप तथा तोरण के बीच के रिक्त स्थान के दोनों पार्श्वो में युगल देवकुलिकाएँ निर्मित की गई हैं। गर्भगृह एक वर्गाकार कक्ष है, जिसमें तीन अगों अर्थात् भद्र, प्रतिरथ तथा कर्ण का समावेश किया गया है। इसकी उठान में, पीठ के अन्तर्गत एक विशाल भित्त विस्तृत अंतर - पत्र और चैत्य तोरणों द्वारा अलंकृत कपोत सम्मिलित हैं, जिनके ऊपर बसंत - पट्टिका चौकी के समानान्तर स्थित पीठ के ऊपर वेदी-बंध स्थित है । वेदी-बंध के कुंभ देवकुलिकाओं द्वारा अलंकृत हैं। जंघा की परिणति पद्म वल्लरियों की शिल्पाकृति के रूप में होती है और वरण्डिका को आध 34 र प्रदान करती है। गर्भगृह के भद्रों को उच्चकोटि के कलत्मक झरोखों से युक्त गवाक्षों से संबद्ध किया गया है। ये गवाक्ष कमलपुष्पों, घटपल्लवों, कीर्तिमुखों तथा लतागुल्मों के अंकन द्वारा सुरुचिपूर्वक अलंकृत किये गए हैं। गूढ़ - मण्डल की रूपरेखा में दो तत्व सम्मिलित हैं, भद्र और कर्ण । इसकी जंघा के अग्रभाग का अलंकरण यक्षों, यक्षियों और विद्यादेवियों की प्रतिमाओं द्वारा किया गया है, जिसका सौन्दर्य अद्भुत है । त्रिकमण्डप का शिखर गूढ़-मण्डप के सदृश फानसना प्रकार की दो पंक्तियों वाला है । फानसना छत घण्टा द्वारा आवेष्टित है। इसके त्रिभुजाकार तोरणों की तीन फलकों में देवी-देवताओं की प्रतिमाएँ उत्कीर्ण की गई हैं। शाला के चारों स्तंभ मूल रूप से चौकोर हैं और उन्हें घट- पल्लव, नागपाश और विशाल कीर्तिमुखों द्वारा अलंकृत किया गया है । शाला के ऊपर की छत नाभिच्छंद शैली में निर्मित है और उसकी रचना सादे गजतालुओं द्वारा होती है। गूढ़-मण्डप की भित्तियों में पर्याप्त गहराई की दस देवकुलिकाएँ हैं । इन देवकुलिकाओं के शीर्ष पर निर्मित भव्य चैत्य - तोरणों पर जैन देवताओं की आकृतियाँ निर्मित हैं। इस समय Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त 59/3-4 तोरण स्तम्भ ही अवशिष्ट हैं। इस तोरण पर संवत् 1035 का शिलालेख है जिसे सर्वप्रथम ढाकी द्वारा प्रकाश में लाया गया। इससे पहले भण्डारकर ने इसका समय पढ़ने में भूल की थी और 1075 पढ़ा था। ओसियां के महावीर मंदिर के विभिन्न भागों का सही समय बहुत समय से विवादास्पद है। उपकेशगच्छ पट्टावली इसकी मूर्ति का समय पाँचवीं शताब्दी स्वीकार करती है। ऐतिहासिक एवं पुरातात्विक प्रमाणों के आधार पर ओसियां आठवीं शता. से पहले अस्तित्व में नहीं आया था। “कक्सूरी" ने अपने “नाभीनन्दन जीर्णोद्धार" में मंदिर का 961 में पाये जाने का उल्लेख किया है और यह कथन “ओसवाल उत्पत्ति" के समानान्तर है। भण्डारकर के निष्कर्ष के अनुसार यह मंदिर अन्य प्राचीन जैन मंदिरों के समान दोनों दिशाओं तथा पीछे से उसके सहायक मंदिरों द्वारा घिरा हुआ है, जिसका पता उनकी शैली से चलता है, जो कि मंदिर के समकालीन नहीं है और 10वीं शताब्दी के प्रतीत होते हैं। सम्भवतः उनका निर्माण तब हुआ जब जिनदत्त द्वारा नालपंडप का पुनर्निर्माण किया गया। पर्सी ब्राउन के अनुसार यह मंदिर सर्वप्रथम आठवीं शताब्दी के अन्तिम चरण में बनवाया गया था और 10वीं शताब्दी में इसका पुनर्निर्माण किया गया था, जो मंदिर के विभिन्न भागों के स्थापत्य को देखने से पता चलता है।' घानेराव का महावीर मंदिर एक महत्वपूर्ण जैन तीर्थ है। यह मंदिर उत्तरमुखी है। इस मंदिर का मूल प्रासाद गूढ़ मण्डप से तथा मुखमण्डप से जुड़ा है। मुखमण्डप के पीछे रंगमण्डप है, जिसके शीर्ष पर प्राकार है। मंदिर के गर्भगृह की रचना शैली सरल है, जिसमें केवल दो अवयव हैं - भद्र और कर्ण। प्रदक्षिणापथ के तीन ओर बनाये गये भद्र-प्रक्षेपों को गूढ़मण्डप की भित्तियों की भाँति सुन्दर झरोखों द्वारा सजाया गया है, जिनसे प्रकाश प्रस्फुटित होता है। मंदिर की रचना जाड्य कुंभ के पीठ-बंधों, कलश तथा सादी पट्टिकाओं को आधार प्रदान करने वाली युगल भित्तियों द्वारा हुई है। पीठ के ऊपर सामान्य रूप से पाये जाने वाले वेदी-बंध स्थित हैं, जो सादा होते हुए भी आकर्षक हैं। प्रत्येक झरोखे Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त 59/3-4 युक्त भद्र के मध्य में भित्ति से थोड़ा बाहर की ओर निकलती हुई देव-कलिकाएँ निर्मित की गई हैं। जंघाओं के कोनों पर दो भुजाओं वाले दिग्पालों की सुडौल आकृतियों उत्कीर्ण की गई हैं, जो मनोहर त्रिभंग मुद्रा में खड़ी हैं और जिन्हें कीचकों ने उठाया हुआ है। गूढ़ मण्डप के सिन्निकट त्रिक-मण्डप के प्राचीर स्तंभों पर नौवें और दसवें दिग्पाल ब्रह्मा तथा अनंत की मूर्तियाँ भी दिखाई पड़ती हैं। जंघा के स्थान पर छज्जों पर राजसैनिक, वेदिका, आसनपट्ट, कक्षासन गोटे लगाए गए हैं, जो छोरों पर शिल्पांकनो तथा स्पंदनशील आकृतियाँ से अलंकृत हैं। त्रिक मण्डप के सभी छह स्तंभ तथा चार प्राचीर-स्तंभ भव्य हैं और उनके ऊपरी भाग ललित रूप में उत्कीर्ण हैं। मुख-चतुष्की के सोपान के दोनों पावों पर विद्या-देवियाँ तथा यक्षों की आकृतियाँ बनी हुई हैं। अंतस्थ भवन की छत पर मनोरंजक और विविधतापूर्ण आकृतियों का चित्रण किया गया है। मुख-चतुष्की पर मसूराकार क्षिप्त-विमान का निर्माण किया गया है, जो नाभिच्छंद शैली में है। इस शैली की निर्मितियाँ वर्मन के ब्राह्मणस्वामी मंदिर, अउवा के कामेश्वर मंदिर और ग्यारसपुर के मालादेवी मंदिर जैसे प्राचीन मंदिरों में देखी जा सकती हैं। त्रिक-मण्डप की केन्द्रीय छत समतल वितान के रूप में है, जिसमें दण्ड-रास के उत्कीर्ण कला-पिण्डों से युक्त प्रभाग दर्शाए गए हैं। इस प्रकार कोटाई अन्य जगहों से भी जाने जाते है। इसके बायीं ओर की पंक्तियों में नाभिच्छंद शैली में गजतालुओं के साथ क्षिप्त वितानों की रचना की गई है। गूढ-मण्डप में पाँच शाखाओं के द्वारमार्ग का निर्माण किया गया है, जिस पर पत्र-शाखा और रूप-शाखा उत्कीर्ण है और पार्श्वभाग व्यालों अप्सराओं, पद्मपत्र-शाखा तथा रत्न शाखा से अलंकृत किये गये हैं, जिसके नीचे नागों की आकृतियाँ बनी हुई हैं। सरदल तथा रूप शाखा की देवकुलिकाओं में विद्यादेवियों अथवा यक्षियों की बीस आकृतियाँ उत्कीर्ण हैं। गर्भगृह का द्वार गूढ-मण्डप के समान और अपने वाहनों पर आरूढ़ विद्यादेवियों और यक्षियों की आकृतियाँ रूप-स्तंभों पर उत्कीर्ण हैं। ढाकी, जिन्होंने इस मंदिर का विस्तृत अध्ययन किया है इसे वास्तुकला की Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त 59/3-4 मारु-गुर्जर शैली की मेदपाट (मेवाड़) शाखा का एक उत्कृष्ट उदाहरण मानते है और उन्होंने जगत के अंबिका मंदिर से शैलीगत समानताओं के आधार पर इसका निर्माणकाल मध्य दसवीं शताब्दी ठीक ही निर्धारित किया है। इस कालावधि का पुष्टीकरण इस स्थान पर पाये गये एक पादपीठ से होता है, जिस पर 954ई. का एक लेख भी उत्कीर्ण है, किन्तु अब वह पादपीठ अप्राप्य है। जयपुर में सांगानेर स्थित सिंघी जी का मंदिर कलात्मकता का उदाहरण है। इस भवन के महत्वपूर्ण अंग सुरक्षित हैं। इस मंदिर की प्रमुख विशेषताओं में दो बड़े कक्ष शिखर-युक्त गर्भगृह सुसज्जित द्वार और मूर्त्यकन-युक्त अंत भाग जिसमें देवताओं की आकृतियाँ तथा अलंकरणों की प्रतीकात्मक अभिव्यक्ति हैं। __देलवाड़ा के आबू मंदिर तो विश्वविश्रुत हैं। इन मंदिरों की स्थापत्य कला ने संसार की शिल्पशास्त्रीय परम्परा में कीर्तिमान स्थापित किया है, वह है- दण्डनायक विमल द्वारा 1032ई. में आबू पर बनवाया गया आदिनाथ का संगमरमरका प्रसिद्ध मंदिर, जो विमल वसहि के नाम से प्रसिद्ध है। इसके गर्भगृह, गूढ-मण्डप और त्रिक-मण्डप ही मूल भाग हैं। उसके शेष भाग 12वीं शता. में जोड़े गए हैं। यह मंदिर एक निरन्धर प्रासाद है। मूल प्रासाद, गूढमण्डप मुखमण्डप रंगमण्डप से सुसज्जित है। यह वावन देवकुलिकाओं से घिरा हुआ है। इसके बाहर बलानक के सामने हस्तिशाला है। हस्तिशाला विमल वसहि मंदिर के मुख्य द्वार के सामने बनी हुई है। इस हस्तिशाला के अन्दर तीन पंक्तियों में संगमरमर के सुन्दर कारीगरी युक्त झूल, पालकी और अनेक प्रकार के आभूषणों की नक्काशी से सुशोभित 10 हाथी हैं। इन सब पर एक-एक सेठ तथा महावत बैठते थे। प्रत्येक हाथी के होदे के पीछे छत्रधर अथवा चामरधर की दो-दो खड़ी मूर्तियाँ थीं किन्तु वे सब खंडित हो गई हैं। विमल वसहि के मुख्य द्वार और हस्तिशाला के बीच में एक बड़ा सभा मण्डप है। उसका निर्माण काल और निर्माण के विषय में कुछ भी सामग्री उपलब्ध नहीं है। इस सभा मण्डप के एक स्तंभ के पीछे पत्थर के एक छोटे स्तंभ Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त 59/3-4 में इस प्रकार का दृश्य बना है- एक तरफ एक पुरुष घोड़े पर बैठा है, एक छत्रधर उस पर छत्र रख रहा है। इस दृश्य के दूसरी तरफ वही मनुष्य हाथ जोड़ कर खड़ा है। इन पर छत्र रखकर एक छत्रधर खड़ा है। पास में स्त्री तथा पुत्र खड़े हैं। नीचे संवत् रहित लेख खुदा है, जिसमें बारहवीं शताब्दी के सुप्रसिद्ध राज्यमान्य श्रावक श्रीपाल कवि के भाई शोभित का वर्णन है। देलवाड़ा के प्रसिद्ध जैन मंदिरों में विमल वसहि के बाद बनने वाला लूण वसहि मंदिर महामात्यवस्तुपाल-तेजपाल द्वारा बनवाया गया। विमल वसहि मंदिर के पास ही उसी के समान उत्तम कारीगरी-नक्काशी वाले संगमरमर का मूल गंभारा, गूढ़ मण्डप, नव चौकियाँ, रंग मण्डप, बलानक खत्तक, जगति की देहरियों तथा हस्तिशाला से अत्यन्त सुशोभित हैं। इस मंदिर के गूढ मण्डप के मुख्य द्वार के बाहर नव चौकियों में दरवाजे के दोनों तरफ अलंकृत नक्काशी वाले दो आले हैं। इस मंदिर का अलंकरण विमल-वसहि के समान है। विमल-वसहि और लूण-वसहि मंदिरों की दीवारें, द्वार, स्तंभ, मंडप, तोरण और छत के गुम्बज में न केवल फूल, झाड़, बेल, बूटे, हड़ियाँ और झूमर आदि विभिन्न प्रकार की विचित्र वस्तुओं की खुदाई ही की है; अपितु हाथी, घोड़े, ऊँट, व्याघ्र, सिंह, मत्स्य, पक्षी, मनुष्य और देव-देवियों की नाना प्रकार की मूर्तियों के साथ ही साथ मनुष्य जीवन के जुड़े अनेक प्रसंग- जैसे राज दरबार, सवारी, वरघोड़ा बारात, विवाह प्रसंग में चौरी आदि नाटक, संगीत, रणसंग्राम, पशु चराना, समुद्र यात्रा पशुपालों का गृह- जीवन, साधु और अनेक श्रावकों की अनेक प्रसंगों की धार्मिक क्रियाएँ, व तीर्थकरादि महापुरुषों के जीवन के अनेक प्रसंगों की भी बड़ी सुन्दर मनोहर खुदाई की है। मंदिर की देहरी न.9 के दूसरे गुम्बज में द्वारिका नगरी और समवसरण का दृश्य है, उसके मध्य में तीन गढ़ वाला समवसरण है। जिसके मध्य में जिन मूर्ति युक्त देहरी है। समवसरण की एक तरफ एक पंक्ति में साध शुओं की बारह बड़ी और दो छोटी मूर्तियाँ हैं। दूसरी तरफ एक पंक्ति में श्रावकों और दूसरी पंक्ति में श्राविकायें हाथ जोड़ कर बैठी हैं। गुम्बज के Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त 59/3-4 एक कोने की चौकड़ी में समुद्रको दिखाया है। उस समुद्र में से खाड़ी निकाली गई है, जिनमें जलचर जीव क्रीड़ा कर रहें हैं। खाड़ी में जहाज भी है। समुद के किनारे के आसपास जंगल का दृश्य है। जंगल के एक प्रदेश में एक मन्दिर व भगवान की प्रतिमा युक्त एक देहरी है। गुम्बज के दूसरे कोने में गिरिनार पर्वतस्थ मंदिरों का दृश्य है, शिखर युक्त चार मंदिर हैं। मंदिर के बाहर भगवान की कायोत्सर्ग ध्यान की खड़ी मूर्ति है। मंदिर छोटी-छोटी देहरियों तथा वृक्षों से घिरे हुए हैं। मंदिरों के पास के बीच की पंक्ति में पूजा की सामग्री-कलश, फूल-माला, धूपदान और चामरादि हाथ में लेकर श्रावक लोग मंदिरों की ओर जाते हैं। उनके आगे छः साधु भी हैं। जिनके हाथ में ओघा व मुँहपत्ति के अतिरिक्त एक के हाथ में तरपणी ओर एक के हाथ में दंड है। अन्य सब पंक्तियों में हाथी, घोड़े, पालकी, नाटक, वजिंत्र, पैदल सेना तथा मनुष्यादि हैं। वे सब मंदिर की अथवा समवसरण की तरफ जिन दर्शनार्थ जा रहे हों ।12 'कुमार' मासिक के संपादक ने इन मंदिरों की संदरता को इन शब्दों में व्यक्त किया "विमलशाह का देलवाड़े में बनवाया हआ महान देवालय समस्त भारतवर्ष में शिल्पकला का अपूर्व अनुपम नमूना है। देलवाड़े के मंदिर केवल जैन मंदिर ही नहीं हैं, वे गुजरात के अतुलनीय गौरव की प्रतिमा है।" जैन मंदिरों में कुछ उल्लेखनीय जैन मंदिर जैसलमेर के दुर्ग में भी पाये गए हैं। जिनमें पार्श्वनाथ, आदिनाथ शांतिनाथ, संभवनाथ और महावीर आदि के हैं। इन मंदिरों के विषय में ढ़ाकी का मत उल्लेखनीय है कि 'रेगिस्तानी निर्जन क्षेत्र में लगभग एक शताब्दी तक इन मंदिरों का निर्माण मानो एक वंश परंपरानुगत क्रम में हुआ है- जैसे पिता के उपरांत पुत्र जन्म लेता है। इनकी विकास परम्परा निर्विघ्न रूप में स्थिर गति से बढ़ती रही है जिसे देखकर इसकी प्रगति अथवा अन्यथा स्थिति का अनुमान लगाया जा सकता है।"14 इन मंदिरों में सबसे प्राचीन मंदिर पार्श्वनाथ 15वीं शताब्दी की कलात्मकता का उत्कृष्ट तोरण, अलंकृत मुख-चतुष्की, रंग-मण्डप, Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त 59/3-4 त्रिक-मण्डप गूढ-मण्डप मूल-मण्डप के स्तंभ और छत के अलंकरणों में कुछ अवशिष्ट आलंकारिक विशेषताएँ प्राचीन महा-मारु स्थापत्यीय शैली का स्मरण कराती हैं। यह मंदिर पत्र, पुष्षों, पशु, पक्षियों, मानव-आकृतियों तथा आलंकारिक कला प्रतीकों के समृद्ध अंकन द्वारा अति-सुसज्जित है। छत, स्तंभ, टोड़े, तोरणों की आकृतियाँ रीतिबद्ध होने पर भी आकर्षक हैं। चित्तौड़ या चित्रकूट मध्यकालीन जैन स्थापत्य का एक सर्वाधिक उल्लेखनीय केन्द रहा है। यहाँ जैन मंदिर पर्सी ब्राउन के अनुसार चौदहवीं शताबदी का है और यह उसी स्थान पर बना है जहाँ पहले इसका मूल मंदिर स्थित था। इसके शिखर और गुंबद-युक्त मण्डप का बाद में पुनरुद्धार किया गया। परन्तु इसका गर्भगृह अंतराल और उससे संयुक्त मण्डप वाला निचला भाग पुराना ही है। इसकी चौकीदार पीठ पर स्थित बाह्य संरचना में शिल्पांकित आकृतियाँ तथा अन्य अलकृतियों उत्कीर्ण हैं, जो कलात्मक दृष्टि से अत्यंत संपन्न हैं इस मंदिर का रथ-भाग, छाद्य तथा अन्य बाह्य संरचनाएँ इसे अतिरिक्त सौन्दर्य प्रदान करती हैं। तीर्थकर शांतिनाथ को समर्पित श्रृंगार-चौरी स्थापत्यीय दृष्टि से अत्यंत महत्वपूर्ण है। सन् 1448 में निर्मित यह मंदिर पंचरथ प्रकार का है, जिसमें एक गर्भगृह तथा उत्तर और पश्चिम दिशा से संलग्न चतुष्कियाँ हैं। गर्भगृह अंदर से अष्टकोणीय है, जिस पर एक सादा गुंबद है। मंदिर की बाह्य संरचना अनेकानेक प्रकार की विशेषताओं से युक्त मूर्ति-शिल्पों से अलंकृत है और जंघा-भाग पर उत्कीर्ण दिक्पालों, अप्सराओं, शार्दूलों आदि की प्रतिमाएँ हैं। मानवों की आकर्षक आकृतियों के शिल्पांकन भी यहाँ पर उपलब्ध हैं। मुख्य प्रवेश-द्वार की चौखट के ललाट बिंब में तीर्थकर के अतिरिक्त गंगा और यमुना विद्यादेवियों तथा द्वारपालों की प्रतिमाएँ अंकित हैं। गर्भगृह के मध्य में मुख्य तीर्थकर प्रतिमा के लिए एक उत्तम आकार की पीठ है तथा कानों पर चार स्तंभ हैं जो वृत्ताकार छत को आध पार प्रदान किए हुए है। छत लहरदार अलंकरण युक्त अभिकल्पनाओं से अलंकृत है। इस मंदिर के मूर्ति शिल्प का एक उल्लेखनीय पक्ष यह है कि Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त 59/3-4 41 मंदिर के बाह्यभाग के भीतर अष्टभुजी विष्णु और शिवलिंग जैसी हिन्दू देवताओं की अद्भुत प्रतिमाएँ भी हैं। चारित्रिक विशेषताओं की दृष्टि से ये शिल्पांकित आकृतियाँ विशुद्ध रूप से परम्परागत हैं। चित्तौड़ का दूसरा उल्लेखनीय मंदिर सात-बीस-ड्योढ़ी है, जिसका रचनाकाल शैलीगत आधार पर 15 वीं शताब्दी निर्धारित किया जा सकता है। इस मंदिर में गर्भगृह अंतराल, गूढ-मण्डप के पार्श्व में छोटे-छोटे देवालय भी हैं। सप्तरथ प्रकार के शिखर के चारों ओर अंगों और कर्ण-श्रृंगों की तीन पंक्तियाँ भी संलग्न हैं। राजस्थान के मध्यकालीन कला इतिहास की दृष्टि से बीकानेर के जैन मंदिर भी महत्वपूर्ण हैं। बीकानेर का सबसे प्राचीन पार्श्वनाथ जैन मंदिर है। संरचना की दृष्टि से यह मंदिर एक अत्यंत महत्वाकांक्षी योजना है और इसमें भारतीय इस्लामी स्थापत्य के तत्वों का निश्चित रूप में प्रयोग हुआ है। इस मंदिर की शैली में परंपरागत तथा मुगल, इन दो शैलियों का समन्वय है, जिसमें परंपरागत शैली का शिखर तथा मुगल-शैली का मण्डप विशेष रूप से उल्लेखनीय है। इस मंदिर के लम्बे शिखर की बाह्य संरचना में बाह्य कोणों तथा लघु शिखरो से युक्त उरःश्रृंगो का सुंदरता के साथ उपयोग किया गया है। इसके अतिरिक्त प्रत्येक दिशा के मध्य भाग में प्रक्षिप्त दो तलों वाले गोखे हैं। इस मंदिर का विवरण देते हुए गोऐत्ज ने लिखा है – “इस मंदिर का गर्भगृह एवं प्रदक्षिणापथ द्वितल है। प्रत्येक तल में चारों ओर प्रवेश द्वार हैं, ऊपरी तल के चारों द्वार गोखों में खुलते हैं। ये चारों गोखे एक तंग सीढ़ियों द्वारा परस्पर संबंधित हैं। ऊपरी तल के मध्यवर्ती कक्ष में जैन प्रतीक समवसरण का अंकन जिसमें 'विश्व-नगर' की अध्यक्षता करते हुए धर्म-प्रचारक तीर्थकर सर्वतोभद्र रूप से दर्शाये गये हैं। यह मंदिर जैसलमेर के पीले पत्थरों से निर्मित है। इस मंदिर का स्थापत्य मारवाड़ और जैसलमेर के समकालीन अन्य जैन मंदिरों की भांति अनगढ़ है परन्तु मण्डप, उसके चारों ओर की वीथियाँ तथा प्रवेश मण्डप के कारण यह प्रभावशाली बन पड़ा है। इन संरचनाआ का आंशिक रूप से पुनर्निर्माण सत्रहवीं शताब्दी के प्रारम्भिक काल में हुआ है।"36 Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त 59/3-4 दूसरा उल्लेखनीय मंदिर चिंतामणि राव बीका जी का है, जो 1505 में पूरा हुआ। इस मंदिर में एक गर्भगृह तथा उससे संलग्न एक मण्डप है। आगे चलकर इस मंदिर का विस्तार किया गया, जिसमें एक अन्य मण्डप तथा दो दिशाओं में प्रवेश-द्वार एवं मुख-मण्डप और जोड़ दिए गए। इसका मूल-प्रासाद मध्यकालीन गुर्जर शैली का है तथा इसकी ऊँचाई कम है। इसकी बाह्य संरचनाओं में गुम्बद युक्त मण्डपों तथा स्तंभों और उनके शीर्षों की अभिकल्पना एवं स्थापत्यीय निर्माण में अहमदबाद और चांपानेर की सल्तनत स्थापत्य शैली के प्रभाव को ग्रहण किया। मध्यकालीन जैन मंदिरों में कुछ मंदिर फलौदी, कोटा, किशनगढ़, मारोठ, सीकर तथा राजस्थान के अन्य स्थानों में भी सुरक्षित बचे हुए हैं। इनमें से कोई भी मंदिर संरचना की दृष्टि से विशेष उल्लेखनीय नहीं है। पश्चिम भारत के इतिहास में मुसलमानों के विध्वंसक अभियानों के लिए तेरहवीं शताब्दी के अंतिम तथा चौदहवीं शताब्दी के प्रारंभिक वर्ष उल्लेखनीय रहे हैं। धार्मिक ईर्ष्या तथा धन लोलुपता के कारण विशेष कर अलाउद्दीन खिलजी ने पश्चिम भारत के असंख्य मंदिरों का जी भरकर विष्ट वंस किया। इस क्षेत्र का जन समाज जब से आघात को सहकर ऊपर उठने में सफल हुआ तो उसके अंदर कुछ नये मान-मूल्यों ने स्थापना पायी, जिसके साथ उसे अपने कुछ समृद्ध पारंपरिक मान-मूल्यों को भी छोड़ना पड़ा। इस क्षेत्र के जैनों ने भी ध्वस्त मंदिरों का पुनरुद्धार तथा नये मंदिरों का निर्माण कराकर पवित्र कार्यों के संपादन में अपने उत्साह का प्रदर्शन किया। जैनों द्वारा कराये गये स्थापत्यीय निर्माणों की दृष्टि से पंद्रहवीं शताब्दी पश्चिम-भारत के लिए विशेष उल्लेखनीय प्रतीत होती है। इस समय का रणकपुर का चौमुखा मंदिर श्रेष्ठतम उदाहरण है। यह आदिनाथ या युगादीश्वर-मंदिर है। मन्दिर के मुख-मण्डप के प्रवेश-द्वार के पार्श्व में लगे एक स्तंभ पर अंकित अभिलेख के अनुसार इस मंदिर का निर्माण सन् 1439 में एक जैन धर्मानुयायी, धरणाक के अनुसार देवाक नामक वास्तुविद् ने किया था। इस भव्य चौमुखा मंदिर के निर्माण में कला और Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त 59/3-4 43 स्थापत्य के महान प्रश्रयदाता राणा कुंभा का योगदान रहा है। यह मंदिर 3716 वर्ग-मीटर क्षेत्र में फैला है। इसमें उन्नतीस बड़े कक्ष तथा 420 स्तंभ हैं। इससे स्पष्ट है कि इस मंदिर की योजना निस्संदेह ही महत्वाकांक्षी रही है। मंदिर की विन्यास-रूपरेखा जटिल है। ढलान पर स्थित होने के कारण मंदिर के जगती या अधिष्ठान-भाग को इसके पश्चिम दिशा में यथेष्ट ऊँचा बनाया गया है। केन्द्रवर्ती भाग में वर्गाकार गर्भगृह स्थित है। प्रत्येक द्वार रंग-मण्डप में खुलता है। और इस रंग-मण्डप का द्वार एक दोतल्ले प्रवेश-कक्ष में खुलता है। इस मण्डप के बाद एक कक्ष आता है, जो आकर्षक है। यह कक्ष भी दोतल्ला है, इस भाग में सीढ़ियाँ हैं, इसलिए इसे बलन या नाली-मण्डप कहा जाता है। लगभग 62 मीटर तथा 60 मीटर लबे-चौडे क्षेत्रफल के आयताकार दालान, जिसमें चारों ओर प्रक्षिप्त वाह्य भाग की मुख्य संरचनाएँ सम्मिलित नहीं हैं। इस सीमा भित्ति के भीतर की सतह पर 86 देवकुलिकाओं की एक लम्बी पंक्ति है। मंदिर के शीर्ष पर पॉच शिखर हैं, जिनमें से सबसे बड़ा और प्रमुख शिखर गर्भगृह को मण्डित किये हुए है। शेष चार शिखर चारों कानों पर पर स्थित देवालयों को मण्डित किये हुए हैं। इस आयताकार मण्डप में किसी भी प्रवेश-मंडप से प्रवेश किया जा सकता है, जो दो तल वाले हैं। इन प्रवेश-मण्डपो मे सबसे बड़ा पश्चिम की ओर है, जिसे निस्संदेह मुख्य प्रवेश-मण्डप माना जा सकता है। गर्भगृह की आंतरिक संरचना स्वस्तिकाकार कक्ष के रूप में है। इस मंदिर की विशेषता उसकी ऊँचाईयाँ विशद विन्यास-रूपरेखा और उसपर सुदक्षतापूर्ण ही नहीं वरन् उसकी विविधता तथा उसके विभिन्न भागों की बहुलता है। मंदिर की सुन्दरता के लिए फर्ग्युसन द्वारा सही ही कहा गया है। "इसके अनेकानेक मंदिर और इन भागों के सामान्यतः लघु आकार यद्यपि इस मंदिर के एक स्थापत्यीय वैभवपूर्ण संरचना होने के दावे में बाधक हैं परन्तु इन भागों की विविधता प्रत्येक स्तंभ पर किया गया एक दूसरे से सर्वथा भिन्न सूक्ष्मांकन का सौन्दर्य, उसकी व्यवस्था-क्रम उसकी मोहकता, सपाट दतों पर विभिन्न ऊँचाईयों के गुंबदों का सुरुचिपूर्ण समायोजन तथा प्रकाश के लिए बनायी गयी संरचनाओं की विधि- ये समस्त विशेषताएँ मिलकर Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त 59 / 3-4 एक अत्युत्तम प्रभाव की सृष्टि करती हैं। भारत में वस्तुतः इस प्रकार का कोई अन्य मंदिर या भवन नहीं हैं। जिसके अंतर्भाग में स्तंभों का इतना लावण्यपूर्ण संयोजन रहा हो और उसकी संरचना कुल मिलाकर इस मंदिर की भाँति प्राभावोत्पादक रही हो।17 इस मंदिर के स्तंभ भी अभिकल्पनाओं की विविधता के लिए अद्भुत हैं। क्योंकि मंदिर के 420 स्तंभों में से किसी भी स्तंभ की अभिकल्पना एक दूसरे के समरूप नहीं है, मानव आकृतियों के अंकन की अपेक्षा मूर्तिकारों ने देव-प्रतिमाओं के अंकन में निस्संदेह धर्म ग्रंथों एवं शिल्प कला संबंधी ग्रंथों का अध्ययन कर उनके निर्देशन का परिपालन किया है, तभी वे इन देव प्रतिमाओं द्वारा तत्कालीन धार्मिक माँगों को पूरा कर सके हैं। 44 संदर्भ सूची 1. जैन. के. सी. जैनिज्म इन राजस्थान शोलापुर, 1963, पृ. 112, 2. हाण्डा, देवेन्द्र, ओसियां, हिस्ट, आर्केलोजी आर्ट एण्ड आर्कीटेक्चर दिल्ली, 1984, पृ. 47, 3. शाह, अम्बालाल प्रेमचन्द, जैन तीर्थ सर्व संग्रह भाग - 1 ( गुजराती, 1953 ) पृ. 1.73, 4. भाण्डाकर, डी.आर, 'एनवल रिपोर्ट ऑफ दी आर्केलोजिकल सर्वे ऑफ इण्डिया' 1908 कलकत्ता, 1912, पृ. 108, 5. ब्राउन, पर्सी, इण्डियन आर्किटेक्चर (बुद्धिस्ट एण्ड हिन्दू पीरियड) दूसरा संस्करण, पृच 140, 6. नानावती जे. एम. और ढाकी, एम.ए.- द सीलिंग्स इन द टेम्पल्स ऑफ गुजरात, बुलेटिन ऑफ द म्युजियम एण्ड पिक्चर गैलेरी, बड़ौदा, भाग XVIXVII पृ. 45, 7. वही, 8. ढाकी., एम. ए., सम अर्ली जैन इन वेस्टर्न इन्डिया, महावीर जैन विद्यालय गोल्डन जुबली वाल्यूम खण्ड-1, बमबई 1968 पृ. 332, 9. घोष, अमलानन्द, जैन कला एवं स्थापत्य खण्ड-2 नई दिल्ली, 1975, पृ. 252, 10. वही, पृ. 304, 11. विजय, जयन्त, आबू (प्रथम भाग), सिराही 1933 12. वही, पृ. 154-56 13. वही, पृ. 166, 14. ढाकी, एम. ए., रिनेसॉस एण्ड द लेट मारु ग्रर्जर टेम्पल आर्किटेक्चर जर्नल ऑफ द सोसायटी ऑफ ओरियण्टल आर्ट स्पेशल नम्बर 1965-66, कलकत्ता, पृ. 8, 15. ब्राउन, पर्सी, इण्डियन आर्किटेक्चर (बुद्धिस्ट एण्ड हिन्दू) बम्बई, 1957, पृ. 123, 16. गाऐज हरमन, दि आर्ट एण्ड आर्किटेक्चर ऑफ बीकानेर ऑक्सफोर्ड, 1950, पृ. 59, 17. फर्ग्यूसन, जेम्स, हिस्ट्री ऑफ इण्डियन एण्ड ईस्टर्न आर्कीटेक्चर, पुनर्मुद्रित, दिल्ली 1967 पृ. 60 1 - असो. प्रोफे. चित्रकला विभाग राजस्थान विश्वविद्यालय, जयपुर Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवान महावीर और परिग्रह-परिमाण व्रत ___-डॉ. सुरेन्द्र कुमार जैन जैन धर्मानुसार आत्मा पुरुषार्थ करे तो परमात्मा बन जाती है। एक बार परमात्म-पद प्राप्त हो जाने के बाद संसार में पुनरागमन नहीं होता। भगवान महावीर का निर्वाण के उपरान्त संसार में पुनः आगमन नहीं हो सकता; लेकिन जिस जीव का आगमन संसार में हुआ है उसका स्व पुरुषार्थ के बल पर परमात्मा बन भगवान महावीर जैसा बनना सुनिश्चित है। भगवान महावीर की साधना किसी एक जन्म की नहीं अपितु अनेक जन्मों की साधना का परिणाम थी, जिसका लक्ष्य (मोक्ष) प्राप्त होना अवश्यंभावी था। तीर्थकर का जन्म मात्र स्व-उपकार के लिए ही नहीं अपित पर-उपकार के लिए भी होता है। तीर्थकर के जन्म के पूर्व की परिस्थितियाँ भी उनकी आवश्यकता को प्रतिपातिद करती हैं। 'वीरोदय महाकाव्य' के अनुसार "मनोऽहिवद्विमकल्पहेतुर्वाणी कृपाणीव च मर्म भेत्तुम् । कायोऽप्यकायो जगते जनस्य न कोऽपि कस्यापि बभूव वश्यः॥ इति दुरितान्धकारके समये नक्षत्रीघसङ्कलेऽयमये। अजनि जना लादनाय तेन वीराइयवरसुधास्पदेन ॥" अर्थात् उस समय के लोगों का मन सर्प के तुल्य कुटिल हो रहा था, उनकी वाणी कृपाणी (छुरी) के समान दूसरों के मर्म को भेदने वाली थी और काय भी पाप का आय (आगम-द्वार) बन रहा था। उस समय कोई भी जन किसी के वश में नहीं था; अर्थात् लोगों के मन-वचन काय की क्रिया अति कुटिल थी और सभी स्वच्छन्द एवं निरङ्कश हो रहे थे। इसप्रकार पापान्धकार से व्याप्त, दुष्कृत-मय, अक्षत्रिय जनों के समूह से Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त 59/3-4 संकुल समय में, अथवा नक्षत्रों के समुदाय से व्याप्त समय में उस 'वीर' नामक महान चन्द्र ने जनों के कल्याण के लिए जन्म लिया। 'वीर' ने जन्म लेकर 'वर्द्धमान' नाम सार्थक करते हुए महावीरत्व की साधना पूर्ण की। वे पूर्ण-ज्ञान होते ही केवल ज्ञानी-सर्वज्ञ बने । उनके सद्विचारों का सम्प्रेषण दिव्यध्वनि के माध्यम से हुआ। उन्होंने आचार सिखाने से पूर्व अपने विचारों से मानव हृदयों, पशु-पक्षियों तक को अभिसिंचित किया। उनकी धारणा थी कि विचार विहीन आचार जड़ता का प्रतीक है। नीति कहती है चारित्रं नरवृक्षस्य सुगंधि कुसुमं शुभम् । आकर्षणं तथैवात्र लोकानां रंजनं महत् ॥ अर्थात् चारित्र मनुष्य रूपी वृक्ष का सुन्दर, सुगन्धित पुष्प के समान ही उदात्त चरित्र सबको अपनी ओर आकृष्ट करता है और सबको प्रसत्रता प्रदान करता है। इस चारित्र की सुगन्ध तभी हो सकती है जबकि यह व्यक्ति धर्म से जुड़ धर्मात्मा बने। धर्मपालन मन की शुद्धि, विचारों की शुद्धि एवं कार्यो की शुद्धि से ही संभव है। मन की शुद्धि के विषय में कहा गया है कि मनः शुद्धयैव शुद्धिः स्याद् देहिनां नात्र संशयः। वृथा तद्व्यतिरेकेण कायस्यैव कदर्यनम् ॥ अर्थात् मन की शुद्धि से आत्मा की शुद्धि होती है। मन की शुद्धि के बिना केवल शरीर को कष्ट देना व्यर्थ है। सच्चारित्र की प्राप्ति के लिए जितेन्द्रिय होना आश्यक है। 'ज्ञानार्णव' में आचार्य शुभचन्द्र ने लिखा है कि इन्द्रियाणि न गुप्तानि नाभ्यस्तश्चितनिर्जये। न निवेदः कृतो मित्र नात्मा दुःखेन भावितः॥ Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त 59/3-4 एवमेवापवर्गाय प्रवृत्तान साधने। स्वयमेव वञ्चितं मूढलॊकस्यपथच्युतै ॥२ अर्थात् हे मित्र! जिसने इन्द्रियों को वश में नहीं किया, चित को जीतने का अभ्यास नहीं किया, वैराग्य को प्राप्त नहीं हुए, आत्मा को कष्टों से भाया नहीं और वृथा ही मोक्ष हेतु ध्यान में प्रवृत्त हो गये; उन्होंने अपने को ठगा और इह लोक, परलोक; दोनों से च्युत हुए। कहने का तात्पर्य यही है कि इन्द्रियजयी होने पर ही चारित्रिक श्रेष्ठता प्राप्त होती है। भगवान महावीर से पूर्व यह धारणा बन गई थी कि धर्मसाधन तो वृद्धावस्था में करणीय है; किन्तु भगवान महावीर ने कहा कि धर्म के लिए कोई उम्र नहीं होती वह तो बचपन में भी किया जा सकता है, घोर युवावस्था में भी। उन्होंने तीस वर्ष की युवावस्था में दिगम्बर दीक्षा ग्रहण कर अपनी साधना को एक नया आयाम ही नहीं दिया, अपितु आध्यात्मिक क्रान्ति का शंखनाद किया; जिसका चरम और परम लक्ष्य था- स्वयं को जीतो। जो स्वयं को जीतता है वास्तव में वही जिन है। भगवान महावीर ने कहा कि जीतना है तो स्वयं का जीतो, मारना है तो स्वयं के विकारों को मारो। भेद देखने वाला संसारी हे और जो भेद में भी अभेद (आत्मा) को देख लेता है वह मोक्षार्थी है । सबजीवों से ममता तोड़ो और समता जोड़ो। शस्त्रप्रयोग मत करो और जिनवचन रूप शास्त्रों के विरुद्ध आचरण मत करो। भगवान महावीर ने काम जीता, कषायें जीती, इन्द्रियों को जीता और विषमता के शमन हेतु समता को अपनाया और मोक्ष पाया। हमारा यही लक्ष्य होना चाहिए। गांधी जी ने इस युग में भगवान महावीर के दर्शन का आत्मसात् किया था। उन्होंने लिखा कि “ जो आदमी स्वयं शुद्ध है, किसी से द्वेष नहीं करता, किसी से अनुचित लाभ नहीं उठाता, सदा पवित्र मन रखकर व्यवहार करता है, वह आदमी धार्मिक है वही सुखी है और वही Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त 59 / 3-4 1 पैसे वाला है । मानव जाति की सेवा उसी से बन सकती है। "आज आवश्यकता है भगवान महावीर की एक प्रेरक आदर्श की; जो बता सके कि चारित्र का मार्ग ही वरेण्य है । मेरी यह पंक्तियां इन्हीं भावनाओं की उद्भावक हैं 48 हे वीर प्रभु इस धरा पर आज तुम फिर से पधारो । हे वीर प्रभु सब काज कर आज मम जीवन निहारो ॥ हो गया मानव जो दानव दनुजता उसकी मिटाओ । सरलता से, नेह-धन से सहजता उसकी बचाओ ॥ हे वीर तुम आनन्द की मूर्ति निर्वेर हो । गुणों के मीर हो शान्ति से अमीर हो || एक से नेक हो अनेकान्त से अनेक हो । शम, दम, दया, त्याग के स्वयं संन्देश हो । भगवान महावीर ने कहा कि आशा तृष्णा के ताप से तप्त मन हितकर नहीं । अर्थ अनर्थ न कर दे इसलिए अर्थ की अनर्थता का चिन्तन करो - "अर्थमनर्थ भावय नित्यं । ” गृहस्थ अर्थ का उपार्जन करे किन्तु वह न्याय की तुला पर खरा उतरना चाहिए। अन्याय, अनीति से कमाया गया धन विसंवाद कराता है, संघर्ष के लिए प्रेरित करता है अतः वह मल की तरह त्याज्य है । गृहस्थ के लिए धन साघन बने, साध्य नहीं और साधु के लिए धन सर्वथा त्याज्य है । यहाँ तक कि वह उसके प्रति ममत्व भी न रखे तभी समत्व की साधना पूरी होगी । इसीलिए भगवान की वाणी अमृत रूप बनी, भगवान का चारित्र सम्यक् चारित्र बना। उनके चारित्र से संसार जान सका कि जोड़ने में सुख नहीं; सुख तो त्यागने में है । हमारी तो भावना है कि हम भगवान महावीर के जीवनादर्शों को अपनायें ताकि शान्ति मिले, समता हो और संघर्षो से छुटकारा मिलें । वीतरागता का उनका आदर्श प्रयोग की कसौटी पर कसा हुआ खरा है जिसके प्राप्त होने पर न संसार बुरा है, न व्यक्ति । बल्कि स्वयं अपनी आत्मा प्रिय लगने लगती है और लक्ष्य बन जाता है आत्मा को जीतो, आत्मा को पाओ । Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त 59 / 3-4 परिग्रह 'वृहत् हिन्दी कोश' के अनुसार 'परिग्रह शब्द का अर्थ लेना, ग्रहण करना, चारों ओर से घेरना, आवेष्टित करना, धारण करना, धन आदि का संचय, किसी दी हुई वस्तु को ग्रहण करना, चारों ओर से घेरना, पत्नी, स्त्री, पति, घर परिवार, अनुचर, सेना का पिछला भाग, राहु द्वारा सूर्य या चन्द्रमा का ग्रसा जाना, शपथ, कसम, आधार, जायदाद, स्वीकृति, मंजूरी, दावा, स्वागत-सत्कार, आतिथ्य सत्कार करने वाला, आदर, सहायता, दमन, दंड, राज्य, सम्बन्ध, योग, संकलन, शाप बताया गया है । इसमें एक ओर जहाँ परिग्रह को संचय के अर्थ में लिया है वहीं शाप के अर्थ में भी रखा है जिससे परिग्रह की शोचनीय दशा प्रकट होती है। जैनचार्यों की धारणा में परिग्रह 'परितो गृह्णाति आत्मानमिति परिग्रहः' अर्थात् जो सब ओर से जकड़े; वह परिग्रह है। आचार्य उमास्वामी के अनुसार 'भूर्च्छा परिग्रह है' - "मूर्च्छा परिग्रहः ।"" इस सूत्र की टीका में आचार्य पूज्यपाद स्वामी ने लिखा है कि "गाय, भैंस, मणि और मोती आदि चेतन, अचेतन बाह्य उपधि का तथा रागादिरूप आभ्यन्तर उपधि का संरक्षण, अर्जन और संस्कार आदि रूप व्यापार ही मूर्छा है।' आचार्य पूज्यपाद की ही दृष्टि में “ममेदंबुद्धिलक्षणः परिग्रहः” अर्थात् यह वस्तु मेरी है; इस प्रकार का संकल्प रखना परिग्रह है। राजवार्तिक के अनुसारलोभकषाय के उदय से विषयों के संग को परिग्रह कहते हैं ।" "ममेदं वस्तु अहमस्य स्वामीत्यात्मीयाभिमानः संकल्पः परिग्रह इत्युच्यते" अर्थात् यह मेरा है, मैं इसका स्वामी हूँ इस प्रकार का ममत्व परिणाम परिग्रह है। 44 " धवला के अनुसार- परिगृह्यत इति परिग्रह बाह्यार्थः क्षेत्रादिः, परिगृह्यते अनेनेति च परिग्रहः बाह्यार्थ ग्रहणहेतुरत्र परिणामः । परिगृह्यते इति परिग्रहः” अर्थात् जो ग्रहण किया जाता है वह परिग्रह है; इस निरुक्ति के अनुसार क्षेत्रादि रूप बाह्य पदार्थ परिग्रह कहा जाता है तथा “परिगृह्यते अनेनेति परिग्रहः " जिसके द्वारा ग्रहण किया जाता है वह Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त 59 / 3-4 . परिग्रह है; इस निरुक्ति के अनुसार बाह्य पदार्थ के ग्रहण में कारण भूत परिणाम परिग्रह कहा जाता है । " 50 समयसार आत्मख्याति के अनुसार 'इच्छा परिग्रहः' अर्थात् इच्छा ही परिग्रह है। 19 परिग्रह के भेद परिग्रह के दो भेद हैं - १) बाह्य, २) अन्तरंग । बाह्य परिग्रह में भूमि, मकान, स्वर्ण, रजत, धन-धान्य आदि अचेतन तथा नौकर-चाकर, पशु स्त्री आदि सचेतन पदार्थ शामिल किये जाते है । १२ तथा अन्तरङ्ग परिग्रह में क्रोध, मान, माया, लोभ और हास्य, रति, अरति, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा, स्त्रीवेद और मिथ्यात्वादि भावनायें व्यक्ति के अन्तरंग परिग्रह है । १२ परिग्रह पाप है जैनागम में पाँच पाप माने गये हैं- हिंसा, झूठ, चोरी, कुशील और परिग्रह भी पाप है । परिग्रह बनाम मूर्च्छा पाँचों प्रकार के पापों का मूल स्रोत है । जो परिग्रही है तथा परिग्रह के अर्जन, सम्बर्द्धन एवं संरक्षण के प्रति सचेत है वह हिंसा, झूठ, चोरी व अब्रह्म से बच नहीं सकता । 'सर्वार्थ सिद्धि' के अनुसार- 'सब दोष परिग्रह मूलक हैं। 'यह मेरा है' इस प्रकार के संकल्प के होने पर संरक्षण आदि रूप भाव होते हैं और इसमें हिंसा अवश्यंभाविनी है। इसके लिए असत्य बोलता है, चोरी करता है, मैथुन कर्म में प्रवृत्त होता है, नरकादि में जितने दुःख हैं वे सब इससे उत्पन्न होते हैं । १४ आ. गुणभद्र की दृष्टि में - "सज्जनों की भी सम्पत्ति शुद्ध न्यायोपार्जित धन से नहीं बढ़ती। क्या कभी समुद्र को स्वच्छ जल से परिपूर्ण देखा जाता है?" Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त 59/3-4 ____51 शुद्धैधनैर्विवर्धन्ते सतामपि न सम्पदः। न हि स्वच्छाम्बुभिः पूर्णाः कदाचिदपि सिन्धवः ॥१५ आचार्य अमृतचन्द्र स्वामी के अनुसार परिग्रह में हिंसा होती हैहिंसा पर्यात्वसिद्धा हिंसान्तरंगसङ्गेषु। बहिरङ्गेषु तु नियतं प्रयातु मूळंव हिंसात्वम् ॥१६ अर्थात् हिंसा के पर्यायरूप होने के कारण अन्तरंग परिग्रह में हिंसा स्वयं सिद्ध है और बहिरंग परिग्रह में ममत्व परिणाम ही हिंसा भाव को निश्चय से प्राप्त होते हैं। परिग्रह त्याग की प्रेरणा जैनाचार्यों ने परिग्रह त्याग हेतु इसे अणुव्रत, प्रतिमा एवं महाव्रत के अन्तर्गत रखा है। अणुव्रत एवं प्रतिमा सद्गृहस्थ श्रावक एवं परिग्रह-त्याग-महाव्रत मुनि धारण करते हैं। परिग्रह परिमाणपरिग्रह दुःख मूलक होता है। ‘ज्ञानार्णव' में कहा गया है कि संगात्कामस्ततः क्रोधस्तस्माद्धिंसा तयाशुभम् । तेन श्वामी गतिस्तस्यां दुःखं वाचामगोचरम् ॥१७ अर्थात् परिग्रह से काम होता है, काम से क्रोध, क्रोध से हिंसा, हिंसा से पाप और पाप से नरकगति होती है। उस नरकगति में वचनों के अगोचर अति दुःख होता है। इस प्रकार दुःख का मूल परिग्रह है। दुःख रूप परिग्रह से बचने के लिए जैनाचार्यों ने परिग्रह के परिमाण (सीमित) करने को अणुव्रत के रूप में मान्यता दी है। 'सर्वार्थसिद्धि' के अनुसार- 'धनधान्यक्षेत्रादीनामिच्छावशात् कृत Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त 59 / 3-4 परिच्छेदो गृहीति पञ्चमणुव्रतम् १८ अर्थात् गृहस्थ, धन, धान्य और क्षेत्र आदि को स्वेच्छा से परिमाण कर लेता है इसलिए उसके पाँचवां परिग्रह परिमाण अणुव्रत होता है । 'कार्तिकेयानुप्रेक्षा' के अनुसार 52 जो लोहं णिहणित्ता संतोस रसायणेण संतुट्ठो । हिदि तिण्हादुट्ठा मण्णंतो विणस्सरं सव्वं ॥ जो परिमाणं कुव्वदि धण - धण्ण - खित्तमाईणं । उवयोगं जाणित्ता अणुव्वदं पंचमं तस्स ॥ २१ - अर्थात् जो लोभ कषाय को कम करके, सन्तोष रूपी रसायन से सन्तुष्ट होता हुआ, सबको विनश्वर जानकर धन, धान्य, सुवर्ण और क्षेत्र वगैरह का परिमाण करता है उसके पाँचवां (परिग्रह परिमाण) अणुव्रत है । 'रत्नकरण्ड श्रावणकाचार' में आचार्य समन्तभद्र देव ने कहा है किधनधान्यादि ग्रन्थं परिमाय ततोऽधिकेषु निःस्पृहता । परिमितपरिग्रहः स्यादिच्छापरिमाणनामापि ॥२० अर्थात् धन-धान्यादि दश प्रकार के परिग्रह को परिमित अर्थात् उसका परिमाण करके कि 'इतना रखेंगे' उससे अधिक में इच्छा नहीं रखना सो परिग्रह परिमाणव्रत है तथा यही इच्छा परिमाण वाला व्रत भी कहा जाता है । इस प्रकार संचित परिग्रह को निरन्तर कम-कम करते जाने का संकल्प तथा संकल्पानुसार कार्य परिग्रहपरिमाण कहा जाता है। परिग्रह परिमाण आवश्यक परिग्रह संचय एक मानवीय मानसिक विकृति है जिसके कारण व्यक्ति जीवन भर दुख उठाता है तथा पाँचों पापों के कार्यों में संलग्न होता है । यहाँ तक कि परिग्रही की धारणा ही बन जाती है कि Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त 59/3-4 राम की चिड़िया, राम का खेत। खा मेरी चिड़िया, भर ले पेट । संग्रह की प्रवृति समाज में उथल-पुथल मचा देती है जिसमें अभाव का रूप क्रान्ति का रूप धारण कर लेता है। यहाँ तक कि परिग्रही व्यक्ति विक्षिप्त जैसा हो जाता है, जिसे हर पल परिग्रही की ही धुन सवार रहती है। नीति भी कहती है कि कनक-कनक तैं सौ गुनी, मादकता अधिकाय। या खाये बौरात जग, बा पाये बौराय ॥ आचार्य उमास्वामी ने मनुष्यगति के आसव में अल्पआरम्भ और परिग्रह का भाव प्रमुख माना है- 'अल्पारम्भपरिग्रहत्वं मानुषस्य ।'२१ वहीं बहुत आरम्भ और बहुत परिग्रह वाले का भाव नरकायु का आस्रव है"बह्वारम्भपरिग्रहत्वं नारकस्यायुषः।"२२ अब यह हमें विचार करना है कि हम परिग्रह का परिमाण करके मनुष्य बनना चाहते हैं या बहुत अधिक परिग्रह का संचय करके नरकगति का दुःख भोगना चाहते हैं। कबीर ने इसीलिए कहा कि पानी बादै नाव में, घर में बाढ़े दाम। दोनों हाथ उलीचिये, यही सयानो काम ॥२३ कुछ लोग धर्म, दान, पूजा आदि के लिए धनादि परिग्रह संचय को उचित मानते हैं किन्तु 'क्राइस्ट' का कथन है कि “पैसा बटोरकर दान करना वैसा ही है जैसा कि कीचड़ लगाकर धोना।" संस्कृत में सूक्ति है कि- “प्रक्षालानाद्धि पङ्कस्य दूरादस्पर्शनं वरम्' अर्थात् कीचड़ लगने पर धोने से अच्छा है कि उसे दूर से ही त्याग दें। उसी प्रकार परिग्रह संचय कर दान करने की अपेक्षा परिग्रह त्याग ही उचित है। गृहस्थ को तो अपनी आवश्यकता के अनुरूप परिग्रह परिमाण ही करना चाहिये। परिग्रह संचय का ही यह दुष्परिणाम है कि एक ओर जहाँ लोग भूख से मर रहे हैं वहीं दूसरी ओर धनाढ्य वर्ग गरिष्ठ भोजन करके Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त 59/3-4 अपना स्वास्थ्य बिगाड़ रहे हैं। कुछ लोगों के 'लक्झरी' साधनों के लिए 'नेसेसरीज' वस्तुओं से भी लोग वंचित किये जा रहे हैं। तात्कालिक लाभ भले ही अनैतिक तरीकों से प्राप्त हो; उसे प्राप्त करने के लिए जी तोड़ मेहनत कर रहे हैं। ऐसे में यदि कोई समुचित मार्ग बचता है तो वह परिग्रहपरिमाण ही है। कुंवर बैचेन ने ठीक ही कहा है तुम्हारे दिल की चुभन भी जरूर कम होगी। किसी के पाँव से काँटा निकालकर देखो। एक बार महात्मा गांधी से किसी मारवाड़ी सेठ ने पूछा कि- गांधी जी, आप सबसे टोपी लगाने को कहते हैं; यहाँ तक की आपके अत्यन्त आग्रह के कारण टोपी के साथ आपका नाम जुड़कर ‘गांधी टोपी' हो गया है, लेकिन आप स्वयं टोपी क्यों नहीं लगाते? यह प्रश्न सुनकर गांधी जी ने उनसे पूछा कि 'आपने यह जो पगड़ी बाँध रखी है इसमें कितनी टोपियां बन सकती हैं, मारवाड़ी सेठ ने कहा की- “बीस" तब गांधी जी ने कहा कि “जब तुम्हारे जैसा एक आदमी बीस टोपियों का कपड़ा अपने सिर पर बाँध लेता है तो मुझ जैसे उन्नीस आदमियों को नंगे सिर रहना पड़ता है।" यह उत्तर सुनकर वह सेठ निरुत्तर हो गये। वास्तव में परिग्रह परिमाण ही गृहस्थ को सामाजिक बनाता है। परिग्रह की दीवारें हमारे प्रति घृणा एवं विद्वेष को जन्म देती हैं। अली अहमद जलीली का एक शेर है कि नफरतों ने हर तरफ से घेर रखा है हमें, जब ये दीवारें गिरेंगी रास्ता हो जायेगा। परिग्रह परिमाण के लिए समाजवाद की अवधारणा सामने आयी। समाजवाद की अवधारणा अगर अंश है तो परिग्रह परिमाण उस अंश Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त 59/3-4 को पाने की दिशा में उठाया गया महत्वपूर्ण कदम है जो क्रमशः परिमित होते हए जब अपरिग्रह की स्थिति में आता है तो पूर्ण एवं सफल लक्ष्य बन जाता है। यहाँ अर्थ की अनर्थता की नित्य भावना करने वाला प्राणी धन को स्वपरोपकार का निमित्त मात्र मानता है। सर्वप्रथम अपनी अभिलाषाओं को सन्तोष में बदलकर वह दानशीलता की ओर उन्मुख होता है। परिग्रह का परिमाण करता है। और आत्मविकास करता हुआ परिमाण किये परिग्रह में भी ममत्व छोड़कर पूर्ण अपरिग्रही बन जाता है।२४ __संसार में शान्ति परिग्रह परिमाण से ही संभव है। किन्तु स्वार्थ और संचय की प्रवृत्ति ने समाजवाद को स्थापित ही नहीं होने दिया। आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज ने स्वार्थ की इस प्रवृत्ति का इस रूप में उल्लेख किया है स्वागत मेरा हो मनमोहक विलासितायें मुझे मिलें अच्छी वस्तुएं ऐसी तामसता भरी धारणा है तुम्हारी फिल भला बता दो हमें आस्था कहाँ है समाजवाद में तुम्हारी? सबसे आगे मैं समाज बाद में। 125 परिग्रह परिमाण करके शेष सम्पदा के वितरण के विषय में आचार्य श्री की धारणा है कि "अब धनसंग्रह नहीं जन संग्रह करो और लोभ के वशीभूत हो Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त 59/3-4 समुचित वितरण करो अन्यथा धनहीनों में चोरी के भाव जागते हैं, जागे हैं चोरी मत कर, चोरी मत करो यह कहना केवल धर्म का नाटक है उपरिल सभ्यता उपचार चोर इतने पापी नहीं होते जितने कि चोरों को पैदा करने वाले तुम स्वयं चोर हो चोरों को पालते हो और चोरों के जनक भी।"२६ शेक्सपियर ने लिखा है कि- Gold is worse pain on the man in souls doing more murders in this world than any mortal drug. अर्थात् सोना (स्वण) मनुष्य की आत्मा को अत्यधिक रूप से दुखी करता है। किसी मरणदायक औषधि की अपेक्षा सोने के कारण संसार में अधिक हत्यायें हुई हैं। अपने यहाँ कहावत है कि 'बुभुक्षितः: किन्नु करोपि पापं । अर्थात् भूखा मनुष्य क्या पाप नहीं करता? मुट्ठी भर लोगों के हाथ में पूँजी व अन्य सामग्री संगृहीत होकर जनता को त्रस्त करती है, जिसका परिणाम बड़ा भयंकर होता है। भूखा व्यक्ति सत्य-असत्य और हिंसा-अहिसा के भेद को भूल जाता है। एक कवि ने लिखा है कि भूखे फकीर ने तड़पकर कहासत्य की परिभाषा बहत छोटी है केवल एक शब्द रोटी है। Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त 59 / 3-4 परिग्रह परिमाण अपने लिए ही नहीं बल्कि प्राणी मात्र के उपकार के लिए आवश्यक है। आज तो लोग परिग्रह संचय के लिए न्याय-अन्याय का भेद छोड़कर अन्य जनों के अधिकारों को दबाकर भी शोषण करते हैं। बिडम्बना तो यह भी है कि परिग्रह को पाप बताये जाने के बाद भी उसके संचयी को पुण्यात्मा कहकर अभिनन्दनीय बना दिया गया है। यहाँ तक की जिन भगवान ने सम्पूर्ण परिग्रह का त्याग कर दिया उन पर भी सोने-चांदी के छत्र चढ़ाये जाते हैं और उसे वैभव के रूप में महिमामंडित किया जाता है । 57 परिग्रह स्वयं में एक रोग है यह जिसे लग जाता है वह दिनरात इसी में लगा रहता है; किन्तु जो निष्परिग्रही होता है वह कभी बैचेन नहीं रहता। जिसके पास परिमित परिग्रह है वह चैन से रहता है, चैन से खाता है और चैन से सोता है तथा अणुव्रत रूप में पालन करे तो कर्मो की निर्जरा भी करता है अतः परिग्रह का परिग्रह का परिमाण कर सुखी होना ही इष्ट है, उपादेय है । सन्दर्भ 1. आचार्य ज्ञानसागरः वीरोदय महाकाव्य, 1/38-39, 2. आचार्य शुभचन्द्र : ज्ञानार्णव 3. वृहत् हिन्दी कोश, पृ. 650, 4. आ. उमास्वामी तत्त्वार्थसूत्र 7/17, 5. आ. पूज्यपाद : सर्वार्थसिद्धि 7/17/695, 6. वही, 6/15/638, 7. राजवार्तिक 4 / 21 / 3 / 236, 8. वही 6/15/3/525, 9. धवला 12/4, 2, 8, 6 / 282 / 9, 10. जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश, 3/24, 11. समयसार - आत्मख्याति / 210, 12. आ. अमृतचंद्रः पुरुषार्थ सिद्ध्युपाय, 117, 13. वही, 116, 14. सर्वार्थसिद्धि 7/17/685, 15. आ. गुणभद्र:, 16. पुरुषार्थसिद्धयुपाय, 119, 17. ज्ञानार्णव, 16/12/178, 18. सर्वार्थसिद्धि 7/20/701, 19. कार्तिकेयानुप्रेक्षा, मूल 331-340, 20. रत्नकरण्ड श्रावकाचार, 31, 21. तत्त्वार्थसूत्र 6 / 17, 22. वही, 6 / 14, 23. स्वयं का लेख - 'सामाजिक बनने की प्रथम शर्त अपरिग्रह भावना जैनगजट वर्ष 100, अंक - 30 में प्रकाशित।, 24. मूकमाटी, 467-468 सम्पादक- पार्श्वज्योति एल 65, न्यू इन्दिरा नगर बुरहानपुर (म. प्र. ) Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समाधिमरण में शुद्धि व विवेक विवेचन प्राचार्य (पं.) निहालचंद जैन. “सम्यक्प्रकारेणकायकषाय कृशीकरणं सल्लेखना” अर्थात् भली प्रकार विवेकपूर्वक काय और कषाय को कृश करने को सल्लेखना कहते सल्लेखनां करष्येिऽहं विधिना मारणान्तिकीम् । अवश्यमित्यदः शीलं सनिदध्यात्सदा हृदि ॥ सहगामि कृतं तेन धर्मसर्वस्वमात्मनः। समाधिमरणं येन भवविध्वंसि साधितम् ॥ 57-58 ॥ सागारधर्मामृत पृष्ठ-76 मरण समय में अर्थात् तद्भवमरण के अन्त में होने वाली सल्लेखना को मारणान्तिकी- सल्लेखना कहते हैं। मरण दो प्रकार का होता हैप्रतिक्षण मरण और तद्भवमरण। सल्लेखना में जो मरण होता है, वह तद्भवमरण होता है। गुणव्रतों और शिक्षाव्रतों की तरह सल्लेखना को भी शील माना गया है। जिसने संसार परिभ्रमण नाशक समाधिमरण साध लिया उसने अपने धर्म के सर्वस्व रत्नमय को परभव के लिए सहगामी बना लिया है। जो समाधिमरण को अंगीकार करता है वह क्षपक कहलाता है तथा जो आचार्य या मुनि समाधिकर्ता (समाधि कराने वाला) होता है वह निर्यापकाचार्य या निर्यापक मुनि कहलाता है। बारह व्रत पालन करने वाले श्रावक को अथवा मुनि को जीवन के अन्त में धीर वीर चित्तपूर्वक सल्लेखना को धारण करना चाहिए। महान् उपसर्ग आने पर, दुर्भिक्ष पड़ने पर ठीक न होने वाला भंयकर रोग से ग्रसित होने पर और बुढ़ापा आदि के आ जाने पर सन्त जनों को तल्लेखना धारण करना चाहिए। जो सज्जन पुरुष उत्तम प्रकार Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त 59/3-4 से सल्लेखना विधि को करते हैं उन्हें दान, पूजा, तप, और शील का फल प्राप्त होता है। श्री जिनेन्द्र देव के धर्म के जानकार सन्त जन, मन वचन, काय की शद्धि से सर्व परिग्रह को छोड़कर तथा रागन्द्वेषादि भावों को त्याग कर त्रियोग से क्षमापूर्वक अमृत वचनों को कहकर सभी को सन्तुष्ट करे तथा जीवन और मरण की सर्व चिन्ता को छोड़कर कर्म करने वाला विरक्त साधु सब सुख शीलता को मन वचन काय से त्याग कर जब भावों में आरोहण करता है तब वह इस प्रकार विचार करता सल्लेहणं करेंतो सव्वं सुहशीलयं पयहिदूण। भाव सिदि मारू हित्ता विहरेज्ज सरीर णिव्वण्णो ॥ 174 म. आ. अर्थात् इस सुलभ असार अपवित्र, कृतन भाररूप रोगों का घर और जन्म मरण से युक्त दुःखदायी शरीर से क्या लाभ है? इस प्रकार शरीर में निस्पृहभाव रखकर साधु समाधिमरण धारण करता है। वह बैठना सोना भोजन आदि सुख भावना को छोड़कर श्रद्धानादि परिणामों का आश्रय लेता है। जिस प्रकार योग्य शिक्षा को प्राप्त अश्व भ्रमण लंघन आदि के कष्ट सहने का अभ्यासी युद्धभूमि में सवारी ले जाने का कार्य करता है उसी प्रकार पूर्व में तप करने वाला, विषय-सुख से विमुख जीव मरते समय समाधि का इच्छुक हुआ निश्चय से परीषह को सहनेवाला होता है। पुव्वं कारिदजोगो, समाधिकामो तहा मरणकाले। होदि हु परीसहो, विसयसुह परम्मुहो जीवो॥ म.आ. 195 सल्लेखना दो प्रकार की होती है, (i) आभ्यन्तर (ii) बाह्य 1 बाह्य सल्लेखना शरीर के विषय में होती है। बल को बढ़ाने वाले सभी रौ को त्याग कर प्राप्त हुए आहार से कोई एक विशेष नियम लेकर शरीर को क्रम से कृश करता है। शरीर को कृश करने के लिए वह छह प्रकार के बाह्य तपों को करता है। अनशन अवमौदर्य रसों का Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त 59 / 3-4 I त्याग वृत्तिपरिसंख्यान कायक्लेश और विविक्तशय्यासन ये छह बाह्य तप है । 2 अनशन दो प्रकार का होता है- (i) अद्धानशन और (ii) सर्वानशन । ग्रहण और प्रतिसेवन काल में अद्धानशन होता है, जबकि मरण समय में सर्वानशन होता है। पेट भर खाने का त्याग तप में सहायक होने से यह अवमौदर्य तप कहा जाता है। मुनि पुरुष पेट भर 32 ग्रास प्रमाण और आर्यिका स्त्री के कुक्षि पूरक आहार का परिमाण 28 ग्रास होता है इससे कम ग्रास से लेकर एक ग्रास प्रमाण का आहार अवमौदर्य है । सल्लेखना के समय दूध, दही, घी, तेल, गुड़ लवण, पत्रशाक, सूप घृतपूर पुवे आदि सब का या एक एक का त्याग रस परित्याग होता है । शंख के आवर्ती के समान या पक्षियों की पंक्ति जैसे गोचरी भिक्षा के अनुसार भ्रमण करते हुए, भिक्षा मिली तो ग्रहण करूँगा ऐसा संकल्प करना वृत्तिपरिसंख्यान है । सुखासन पूर्वक आहार ग्रहण न करना और आहार के पश्चात् शयन हेतु लेटना नहीं तथा आहार के पश्चात् निषद्या परिषह पूर्वक तपती शिला या सर्दी में बाहर एकान्त में सामायिक में बैठना कालक्लेश है तथा जिस वसति में मनोज्ञ या अमनोज्ञ शब्द, रूप गंध स्पर्श के द्वारा अशुभ परिणाम न होते हों अथवा स्वाध्याय व ध्यान में व्याघात नहीं होता हो, वह विविक्त वसति है । इसके साथ ही उद्गम उत्पादन और एषणा दोषों से रहित, जीवों की उत्पत्ति से रहित, शय्या रहित, दुःप्रमार्जन आदि संस्कार से रहित वसति में निवास करना, शून्य घर पहाड़ की गुफा, वृक्ष का मूल आने वालों के लिए बनाया गया घर, देवकुल, शिक्षालय, आराम घर आदि विविक्त वसतियाँ होती है जिनमें समाधिमरण लेने वाला क्षपक अपनी साधना को सम्पन्न करता है । कायक्लेश के अन्तर्गत रात्रि में शयन नहीं करना, स्नान नहीं करना, दाँतों को वृक्ष की दातौन से सफाई नहीं करना, शीतकाल तथा गर्मी में आतपन योग करना आदि भी आता है। 60 बाह्यतप से सब सुख-शीलता छूट जाती है । सुखशीलता राग उत्पन्न करती है । राग, राग को बढ़ाता है जो कर्मबन्ध का कारण होने Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त 59/3-4 से दोषों को लाता है। शरीर दुःख का कारण है। उसको छोड़ने का उपाय है- इसको क्रम से कृश करना। बाह्य तप से शरीर कृश होता है। बाह्य तप से शरीर रस और सुख में अप्रतिबद्ध यानी अनासक्त होता है। बिना संक्लेश परिणामों के दुःख सहने से कर्मो की निर्जरा होती है और ध्यान में (एकाग्र) होता है। बाह्य तप से आत्मा, कुल, गण, शिष्य परम्परा शोभित होती है। आलस्य छूट जाता है शरीर में हल्कापन आता है। जिससे स्वाध्याय व ध्यान बिना कष्ट के हो जाते हैं। इस प्रकार उद्गम, उत्पादन और एषणा दोष से रहित भोजन और पान से तथा परिमित, लघु, रस रहित, रूक्ष भोजन पान से यतिगण बाह्य तप की साधना करते हैं। बाह्य तप से मरण काल में जो सर्व आहार का त्याग करना होता है, उसका अभ्यास हाता है। अनशन आदि तप से निद्रा जय होती है, ध्यान दृढ़ होता है, असंयम करने वाले मन का घात होता है जिससे स्वाध्याय तप में विघ्न नहीं होता है। अधिक भोजन करने वाला- स्वाध्याय कैसे कर सकता है? सुख में राग को त्यागना और भूख प्यास के कष्ट में संक्लेश न होने देना तथा क्रम से आहार को कम करते हुए शरीर को कृश करना तथा वृत्तिपरिसंख्यान के द्वारा आहार को संकुचित करते हुए सल्लेखना को आगे बढ़ाता है। तत्वार्थसूत्र के अनुसार- "मारणांतिकी सल्लेखना जोषिता। अर्थात् व्रती मुनि। या गृहस्थ मरण के समय होने वाली सल्लेखना को प्रीतिपूर्वक सेवन करता है। कषाय- आभ्यन्तर सल्लेखना है। और काय बाह्य सल्लेखना है। शरीर का साधन भोजन है जिसे क्रमशः घटाने से शरीर कृश होता है तथा कषाय के कारणों से बचने से कषाय घटती है। शरीर सुखा डाला और क्रोधादि कषायें नहीं घटी, तो शरीर का शोषण व्यर्थ है। सर्वार्थसिद्धि ग्रन्थ में एक प्रतीक उदाहरण दिया गया है- यदि व्यापारी के किसी कारण वश व्यापार केन्द्र में आग लग जाये तो पहिले उसे बुझाकर वह व्यापार केन्द्र के भवन की रक्षा करता है, किन्तु यदि उसका Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त 59 / 3-4 बचाना शक्य न हो तो उसमें भरे हुए माल को बचाने का प्रयत्न करता है । इसी प्रकार धर्म रक्षा के लिए धर्म का साधन शरीर है, उसे पहिले बचाना चाहिए । परन्तु यदि उसका बच पाना सम्भव नहीं दिखे तो धर्म की रक्षा का प्रयत्न किया जाना चाहिए । 62 जीवन में जन्म जितना सत्य है मृत्यु उतनी ही अपरिहार्य है । परन्तु जीवन मोह के कारण मनुष्य इस सत्य को भुला देता है । साधु या व्रती श्रावक को जीवन में हर्ष और मृत्यु में खेद नहीं करना चाहिए। जिसकी मृत्यु शानदार होती है उनका जीवन भी शानदार होता है । रोकर या विलाप करते हुए प्राणों का त्याग करना कायरता है । साहसपूर्वक मृत्यु का अलिंगन करते हुए इसे मंगल महोत्सव के रूप में अपनाना चाहिए। आगम में मरण पाँच प्रकार का कहा गया है 1. पण्डित पण्डित मरण- आयोग केवली या बारहवें गुणस्थानवर्ती क्षीण कषाय वले इस प्रकार का मरण करते है । 2. पण्डित मरण के 3 भेद होते है- (i) भक्त प्रतिज्ञा (ii) पादोपगमन मरण और (iii) इंगिनी मरण जो महाव्रत धारी साधु के होता है । 3. बाल पण्डित मरण- विरताविरत संयमी जीव का बाल पण्डित मरण होता है । 4. बाल मरण - अविरत सम्यक्दृष्टि जीव के बाल मरण होता है । 5. बाल बाल मरण- मिथ्यादृष्टि के यह मरण होता है। पायोपगमणमरणं भत्तपइण्णा य इंगिणी चेव । तिविहं पण्डितमरणं साहुस्स जहुत्तचारिस्स ॥ भ.आ. 28 पण्डित मरण के 3 भेदों में भक्तप्रतिज्ञा मरण में आचरण शील साधु स्वयं अपनी वैय्यावृत्य करता है और दूसरों से भी कराता है। इंगिणीमरण में वह अपनी वैय्यावृत्य स्वयं करता है, परन्तु दूसरों से नहीं कराता है तथा पादोपगमन (प्रायोपगमन) में न स्वयं अपनी सेवा करता Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त 59 / 3-4 63 है और न दूसरों से कराता है । उत्कृष्ट भक्त प्रत्याख्यान - सल्लेखना का काल पूर्ण बारह वर्ष होता है । नाना कायक्लेशों के साथ वह चार वर्ष बिताता है । फिर दूध आदि रसों को त्यागकर 4 वर्ष तक शरीर को सुखाता है । फिर आचाम्ल और निर्विकृति के द्वारा 2 वर्ष व्यतीत करता है । आचाम्ल के द्वारा एक वर्ष व्यतीत करता है । शरीर की सल्लेखना के उपायों में आचाम्ल को उत्कृष्ट माना जाता है इसमें 2 दिन या 3 दिन या 4 दिन या 5 दिन के उपवास के बाद अधिकतर परिमित और लघु आहार लेता है । शेष एक वर्ष को क्षेपक मध्यम तप के द्वारा 6 माह और उत्कृष्ट तप के द्वारा शेष 6 माह बिताता है । " 1 अभ्यन्तर सल्लेखना - कषायों से रहित होने पर ही परिणाम विशुद्धि होती है। अतः परिणाम विशुद्धि को कषाय सल्लेखना कहा है। जिस मुनि का चित्त क्रोधाग्नि से कलुषित है उसके परिणाम विशुद्ध नहीं होते अतः ऐसा मुनि कषाय - सल्लेखना वाला नहीं होता है, क्योंकि कषाय को कृश करना ही कषाय- सल्लेखना है । क्षपक को चाहिए कि यदि थोड़ी भी कषाय आग की भांति उठे तो बुझा दें । कषाय दूर होते ही राग द्वेष की उत्पत्ति शान्त हो जाती है। जितने भी परिग्रह रागद्वेष को उत्पन्न करते हैं उन परिग्रहों को छोड़ने वाला अपरिग्रही साधु राग व द्वेष को निश्चय से जीतता है। समाधिमरण में सहायक पाँच शुद्धियाँ व पाँच प्रकार के विवेक भगवती आराधना में समाधिमरण की सहायक पाँच प्रकार की शुद्धियाँ व पाँच प्रकार के विवेक का कथन किया गया है। उसे प्राप्त किये बिना क्षपक को समाधि प्राप्त नहीं होती है । परम समाधि को पाने के लिए प्रज्ञाशील क्षपक को इन शुद्धियों को निश्चित ही धारण करना चाहिए । Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त 59/3-4 पंचविहं जे सुद्धिं पत्ता णिखिलेण णिच्छिद मदीया। पंचविहं च विवेगं ते हु समाधि परमुमति ॥ आलोयणाए सेज्जासंथा रूवहीण भत्तपाणस्स। वेज्जावच्चकराण य सुद्धी खलु पंचहा होई ॥म.आ. 167-168॥ पाँच प्रकार की शुद्धियाँ इस प्रकार है- (1) आलोचना शुद्धि (2) शय्या शुद्धि (3) संस्तर और परिग्रह की शुद्धि (4) भक्तपान की शुद्धि तथा (5) वैयावृत्य करने वाले की शद्धि। माया और मृषा से रहित होना आलोचना शुद्धि है। मन में कुटिलता या कपट भाव होना माया है तथा असत्य भाषणको मृषा कहते है। माया कषाय है जोकि आभ्यन्तर परिग्रह है। मृषा भी आभ्यन्तर परिग्रह की श्रेणी में आता है क्योंकि असत्य भाषण के द्वारा कर्म का ग्रहण होता है, अतः यह उपधि हैं। __ उद्गम, उत्पादन और एषणा दोषों से रहित होना तथा 'यह मेरा है' ऐसा ममत्व भाव परिग्रह का भाव है। मूर्छा परिग्रहः ॥ तत्वार्थसूत्र॥ यह मूर्छाभाव नहीं होता वसति और संस्तर रूप परिग्रह की शुद्धि है। संस्तर और वसति का त्याग कर देने से वह उपधित्याग होता है। शिवार्य परिग्रह त्याग का क्रम बतलाते हैं कि सव्वत्य दव्व पज्जय ममत्तसंग विजडो पणिहिदप्पा। णिप्प णय पेम रागो उवेज्ज सव्वत्य समभावं ॥ भ.आ. 172 ॥ अर्थात् सर्व देश में प्रतिबद्ध आत्मा द्रव्य और पर्यायों से ममता रूपी परिग्रह से रहित होकर प्रणय, प्रेम और राग के नाना विकल्पों को त्याग कर समभाव को धारण करे। जो व्यक्ति वस्तु स्वरूप को जानने में अपने उपयोग को लगा लेता है तथा जो पुद्गल की वैभाविक पर्यायों में ममता नहीं करता तथा पुत्र, स्री, मित्रादि में भोग के साधनों में उनकी रूप रस गन्ध और स्पर्श पर्यायों मे प्रणय अर्थात प्रेम व राग के आसक्ति रूप परिणामों से रहित होता है, वही समभाव को प्राप्त हो सकता है। शय्या रहित होना शय्या शुद्धि है। Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त 59 / 3-4 बाह्य छह प्रकार के तप द्वारा वह भक्तपान की शुद्धि करता है । वैय्यावृति करने वाले को संयमी एवं वैयावृत्य के क्रम का ज्ञाता होना चाहिए । यही वैयावृत्य करने वाले की शुद्धि है । क्षपक संयमी व्यक्ति से ही वैयावृत्ति करवाता है अन्यथा उसको स्वीकार नहीं करता है । 65 अन्य पकार से पाँच प्रकार की शुद्धियाँ भगवती आराधना में इस प्रकार कही गयी हैं: अहवा दंसण णाण चरित्त सुद्धी य विणय सुद्धी य । आवास य सुद्धी विय पंच वियप्पा हवदि सुद्धी ॥ 169 | (1) दर्शन शुद्धि (2) ज्ञान शुद्धि (3) चरित्र शुद्धि (1) विनय शुद्धि (5) आवश्यक शुद्धि | (1) सम्यग्दर्शन के आठ अंगों (गुणों) को धारण करना दर्शन शुद्धि है । आठ गुण इस प्रकार है- निःशंकित गुण, निःकांक्षित गुण, निर्विचिकित्सा, अमूढदृष्टि, उपगूहन, स्थितिकरण, वात्सल्य, और प्रभावना । इन गुणों के धारण करने से अशुभ परिणाम रूप परिग्रहों का त्याग हो जाता है क्योंकि इनके विपरीत आठ दोष बताये हैं जो सम्यग्दर्शन को मलिन बना देते हैं ॥ अस्तु, दर्शन-शुद्धिअष्ट अंगों के सहित सम्यग्दर्शन को प्राप्त होना है। दर्शन शुद्धि के लिए सम्यक्त्व के पच्चीस गुण बताये गये हैं जिनसे युक्त होना चाहिए। तीन मूढता, आठ मद, छह अनायतन और शंकादि आठ दोषों इस प्रकार कुल पच्चीस दोषों को टालने से सम्यक्त्व के 25 गुण प्राप्त होते हैं जिनसे दर्शन में शुद्धि आती है । (i) यथायोग्य समय में पढ़ना- ज्ञान शुद्धि है। उसके होने पर अकाल पठन आदि क्रिया जो ज्ञानावरण के बन्ध का कारण है, उसका त्याग हो जाता है । Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त 59/3-4 (iii) पच्चीस भावनाएँ होना चारित्र शुद्धि है। उसके होने पर मन की चंचलता को न रोकना आदि अशुभ परिणाम आभ्यन्तर परिग्रह है, उनका त्याग हो जाता है। (iv) इष्ट फल की अपेक्षा न करके विनय करना विनय शुद्धि है। यह विनय भी चार प्रकार की कही गयी है- ज्ञान विनय, दर्शन विनय, चारित्र विनय और उपचार विनय। ___ (v) सावध योग का त्याग, जिनदेव को गुणों में अनुराग, नमस्कार करने योग्य श्रुत का पालन किये हुए अपराध की निन्दा मन से प्रत्याख्यान करना, शरीर असारता और उसके अनुपकारीपने का चिन्तन करना आदि आवश्यक शुद्धि है। उसके होने से अशुभ योग शरीर से ममता, अपराध के प्रति ग्लानि न होना आदि आभ्यन्तर परिग्रह का निरसन हो जाता है। पाँच प्रकार के विवेक का विवेचन इंदिय कसाय उवधीण, भत्तपाणस्स चावि देहस्स। एस विवेगो भणिदो, पंचविधो दव्वभावगदो॥ भ.आ. 170 ॥ (1) इन्द्रिय विवेक (2) कषाय विवेक (3) उपथि विवेक (4) भक्तपान विवेक और (5) देह विवेक। ये पाँचों द्रव्य और भाव रूप से दो-दो प्रकार से वर्गीकृत किये जा सकते है। (1) पंच इन्द्रिय के विषयों में राग पूर्वक प्रवृत्त न होना न ही इस प्रकार के वचनों का उच्चारण करना कि मैं अमुक रूप देखता हूँ मैं यह राग सुनता हूँ मैं घने बालों को देखता हूँ या ओष्ठ का रसपान करता हूँ अमुक सुगंधित पुष्प को सूंघता हूँ । यह सब द्रव्य इन्द्रिय विवेक है। रूपादि का ज्ञान होना। उस ज्ञान को भावेन्द्रिय कहते है। उस ज्ञान के होने पर भी रागद्वेष न करना और मानस ज्ञान का परिणत न होना भाव इन्द्रिय विवेक है। Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त 59 / 3-4 (2) द्रव्य कषाय विवेक के दो भेद हैं- (i) शरीर से और (ii) वचन से । 67 क्रोध के वशीभूत होकर आँखों का लाल होना, ओठ काटना शस्त्र उठाना आदि काय व्यापार न करना काय द्रव्य कषाय विवेक है। मान माया और लोभ के वशीभूत होकर काय - व्यापार न करना । वचनों से ऐसा नहीं बोलना कि मैं मारता हूँ, ताड़न करता हॅू इत्यादि वचन क्रोध कषाय विवेक है। दूसरे के द्वारा किये गये तिरस्कार अपमान या निंदा आदि के निमित्त से चित्त में मलिनता का न होना भाव से क्रोध विवेक है । मान कषाय विवेक काय की अपेक्षा सिर को ऊँचा करना, उच्चासन पर बिना कहे बैठना आदि है तथा वचन की अपेक्षा से ऐसा बोलना कि मुझ से बड़ा कौन शास्त्र का ज्ञाता है कौन तपस्वी या चारित्रवान है आदि वचन न बोलना वचन मान कषाय विवेक है। प्रकार इनसे मैं उत्कृष्ट हूँ ऐसा मन में अहंकार करना भाव-मान कषाय हैं और उसका नहीं होना भाव मान कषाय विवेक है । माया जन्य उपदेश का त्याग करना वचन माया विवेक है। लोभ कषाय विवेक भी दो प्रकार होता है। किसी वस्तु को लोभ वश चाहने हेतु हाथ पसारना सिर हिलाकर चाहने के लिए स्वीकृत करना आदि काय व्यापार न करना काय लोभ विवेक है । यह वस्तु या ग्राम इत्यादि का मैं स्वामी हूँ ऐसा वचन चच्चारण न करना अथवा ने मैं किसी का स्वामी हूँ न कुछ मेरा है ऐसा बोलना वचन लोभ विवेक है । यह मेरा है इस भाव रूप मोह जन्य परिणाम का न होना भाव लोभ विवेक है। प्रकारान्तर से पाँच प्रकार के विवेक इस प्रकार हैं अहवा सरीरसेज्जा संथारु वहीण भत्तपाणस्स । वेज्जावच्चकराण य होइ विवेगो तहा चेव ॥ भ.आ. 171 ॥ (1) शरीर या देह विवेक (2) वसति विवेक संस्तर विवेक (3) उपधि विवेक (4) भक्तपान विवेक तथा (5) वैयावृत्य करने वालों का विवेक Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त 59/3-4 द्रव्य और भाव रूप होता है। उक्त में शरीर विवेक, उपधि विवेक और भक्तपान विवेक उभयनिष्ठ हैं। (1) शरीर विवेक- अपने शरीर में होने वाले उपद्रवों का दूर न करना शरीर विवेक है। शरीर पर उपद्रव करने वाले मनुष्य तिर्यच आदि को हाथ से नहीं रोकना । डांस, मच्छर, विच्छू, कुत्ते आदि को हाथ से या पिच्छी आदि उपकरण या दण्ड से दूर नहीं करता यह काय से शरीर विवेक है। मेरे शरीर को पीड़ा मत दो अथवा मेरी रक्षा करो ऐसा न बोलना अथवा चैतन्य से और सुख दुःख के सम्वेदन से रहित यह शरीर है ऐसा बोलना वचन से शरीर विवेक है। (2) उपकरणों का त्याग करना काय से उपधि विवेक है तथा उपकरणों का त्याग करता हूँ। ऐसा बोलना वचन से उपधि विवेक है। (3) भोजन एवं रस जल आदि को न खाना न पीना काय से भक्तपान विवेक है तथा इस प्रकार क भोजन या पान को में ग्रहण नहीं करता हूँ ऐसा कहना वचन भक्तपान विवेक है। (4) जिसमें पहिले रहे हैं, उस वसति में न रहना काय से वसति विवेक है। इसी प्रकार पूर्व के संस्तर पर न सोना न बैठना काय से संस्तर विवेक है। मैं वसति या संस्तर को त्यागता हूँ यह कहना वचन वसति या वचन संस्तर विवेक है। (5) वैयावृत्य करने वाले शिष्यों आदि के साथ वास न करना काय से वैयावृत्य करने वालों का विवेक है तथा वचन से ऐसा बोलना कि वैय्यावृत्य मत करो मैंने तुम्हारा त्याग किया वचन से विवेक है। सर्वत्र शरीर में वसति या संस्तर में, भक्तपान आदि में अनुराग भाव से 'यह मेरा है' इस प्रकार का भाव मन में न करना भाव विवेक है। उक्त पाँच प्रकार की शुद्धियों का पालन करने तथा पाँच प्रकार के विवेक को मन वचन एंव काय से संरक्षित करने वाले क्षपक का समाधिमरण समता, निस्पृह और शान्त भावों से सम्पन्न होता है। Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त 59/3-4 सल्लेखना पूर्वक मरण होना बड़े सौभाग्य की दात है। आचार्य कहते हैं गुरुमूले यतिनिचिते चैत्यसिद्धान्तवार्धि सद्घोषे। मम भवतु जन्म जन्मनि संन्यसनसमन्वितं मरणं ॥ अर्थात् जहाँ मुनि समुदाय विराजमान हो, जिन प्रतिमा के समीप अथवा सिद्धान्त समुद्र का गम्भीर घोष हो रहा हो उनके चरणमल में मेरा जन्म जन्म में संन्यास सहित समाधि मरण हो। क्षपक को सल्लेखना के समय परिणामों की विशुद्धता पर पूर्ण सावधानी रखना चाहिए। किसी प्रकार की लोकवासना कषाय परिणति तपोभंग विकार विचारणाएँ उस समय नहीं आना चाहिए। क्षेपक या समाधिगृहीता को ऐसा चिन्तन करना चाहिए कि मेरी मृत्यु नहीं हो सकती फिरभय कैसा? मुझे कोई रोग नहीं फिर पीड़ा कैसी? न मैं बालक हूँ न वृद्ध न युवा। यह सब पुद्गलकी पर्यायें हैं। इस प्रकार जन्म, मरण, सुख दुख लाभ-अलाभ संयोग वियोग सभी स्थितियों में समता धारण कर समाधि-मरण होना चाहिए।' हे ज्ञान आत्मन्! मृत्यु महोत्सव के उपरिस्थत होने पर तुम किस बात का भय करते हो? यह आत्मा अपने स्वरूप में स्थित रहता हुआ एक देह से दूसरे देह में जाता है इसमें भय क्या? वह विचार करता है कि कर्म रिपु ने आत्मा को देह पिंजरे में बंदी बना रखा है। जिस समय से गर्भ में आया, उसी क्षण से क्षुधा, तृषा, रोग, वियोग, आदि दुखों ने घेर रखा है। इस बन्धनग्रस्त आत्मा को सिवा मृत्यु राजा के और कौन मुक्त कर सकता है?12 जिन जीवों का चित्त संसार में आसक्तिमान है वे अपने रूप को नहीं जानते अतः उन्हें मृत्यु भयप्रद होती है, किन्तु जो महान आत्माएं आत्मस्वरूप को जानती हैं और वैराग्यधर हैं उनके लिए समाधिमरण आनन्द प्रद है। तप का ताप भोगना व्रत का पालन करना और श्रुत का पठन करना इन सबका फल समाधिमरण प्राप्त करना है। अस्तु उत्साहपूर्वक इस समाधिमरण में प्रवृत्त होना चाहिए। Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त 59/3-4 सन्दर्भ 1 सल्लहणा य दुविहा अब्भतरिया य बाहिरा चेव। अब्धेतरा कसायेसु बाहिरा होदि दु सरीरे ॥ भ.आ. गाथा न. 208 ।। 2 सव्वे रसे पणीद णिज्जूहित्ता दु पत्तलुक्खेण। अण्णदरेणुवधाणेण सल्लिहइ य अप्पयं कमसो॥ भ.आ 209 ॥ अणसण अवमोयरियं चाओ य रसाण वृत्तिपरिसरवा। कायकिलेखसेज्जा य विवित्त वाहिर तवो सो ॥ भ.आ. 210॥ बाहिरवेण होदि हु सव्वा सुह सीलदा परिच्चत्ता। सल्लिहिंद च सरीर ठविदों अप्पा य संवेगे। भ.आ. 239 || 4. दुक्खं च भाविदं होदि अप्पडिबद्धो य देह रस सुक्खे। मुसमूरिया कषाया विसएसु अणायरो होदि ॥ अभा. 241 ॥ 5 अणु पुयेणाहारं सवट्टतो य सल्लिहइ देहं। दिवसुग्गहिएण तवेण चावि सल्लेहणं कुणइ।। विविहाहिं एसणाहि य अवग्गहेहिं विविहेहि उग्गेहि। संजममविरहितो जहाबल सल्लिहइ देहं ॥ अ.भा. 250 ॥ 6. गाथा न. 256 भ. आराधना विजयोदयाटीका शिवार्य, 7. गाथा न. 265, 8. गाथा न. 166, 9. पिच्छी कमडलु कृति- आचार्य विद्यानन्द प्रकाशक राजस्थान जैन सभा जयपुर पेज 185 से साभार। 10. न मे मृत्यु. कुतो भीतिर्न मे व्याधिः कुतो व्यथा । नाहं बालो न वृद्धोऽहं न युवैतानि पुद्गले। वही - पेज 185॥ 11. जी विय मरणे लाहालाहे संजोग विप्पजोगे य। बंधुरि सुह दुक्खादो समदा समायियं णाम॥ वही - पेज1851 12. आगमादि दुःख सन्तप्तः प्रक्षिप्तो देह पंजरे। नात्मा विमुच्यतेऽन्येन मृत्युभूमिपतिं बिना॥ श्लोक- 5 समाधि सप्तदशी शासकीय उच्चतर माध्यमिक शाला क्र. 3 के सामने, बीना (म.प्र.) Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मध्यलोक में भोगभूमियाँः एक अनुचिन्तन ___ - डॉ. जयकुमार जैन आकाश के जिस भाग में जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म और काल द्रव्य पाये जाते हैं, वह लोक है तथा शेष आकाश अलोक कहलाता है। जगश्रेणी के घन प्रमाण से यह लोक तीन भागों में विभक्त हैअधोलोक, ऊर्ध्वलोक और मध्यलोक। इनमें अधोलोक का आकार वेत्रासन के समान, मध्यलोक का आकार खड़े किये गये आधे मृदंग के ऊर्ध्व भाग के समान तथा ऊर्ध्वलोक का आकार खड़े किये हुए मृदंग के समान है। तीनों लोकों का समन्वित आकार उस मनुष्य सदृश है, जो अपने दोनों पैरों को फैलाकर एवं दोनों हाथों को कटि प्रदेश पर रखकर खड़ा हो। अधोलोक में नरक की सात भूमियाँ एवं उनके नीचे निगोदों की निवासभूत अष्टम भूमि है। ऊर्ध्वलोक सुमेरु पर्वत की चोटी से एक बाल मात्र अन्तर से प्रारंभ होकर लोकशिखर तक है। इनमें सर्वार्थसिद्धि तक स्वर्गलोक तथा सर्वार्थसिद्धि के ध्वजदण्ड से 29 योजन 425 धनुष ऊपर सिद्धलोक है। मध्यलोक का परिचय ___ लोकाकाश के ठीक बीच में एक राजू लम्बा, एक राजू चौड़ा एवं एक लाख चालीस योजन ऊँचा मध्य लोक है। यतः इसमें द्वीप एवं समुद्रों की रचना तिरछे रूप में पाई जाती है, अतः इसे तिर्यग्लोक भी कहा जाता है। इसमें जम्बूद्वीप एवं लवण समुद्र से लेकर एक दूसरे को आवेष्टित किये हुए असंख्यात द्वीप एवं समुद्र हैं। इन द्वीप एवं समुद्रों का विस्तार एक दूसरे से दूना-दूना है। जम्बूद्वीप में भरत, हैमवत, हरि, विदेह, रम्यक, हैरण्यवत और ऐरावत नामक सात क्षेत्र पाये जाते हैं। इनका विभाजन पूर्व से पश्चिम तक लम्बायमान हिमवन, महाहिमवन, Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त 59/3-4 निषध, नील, रुक्मि एवं शिखरी नामक छ: कुलाचल करते हैं।' आगमवर्णित सप्त क्षेत्रों के नाम अनादि-निधन एवं शाश्वत हैं। भूमि का अर्थ ___ लोक में जीवों के निवास स्थान को भूमि कहा जाता है। मध्यलोक में कर्मभूमि एवं भोगभूमि नामक दो प्रकार की भूमियाँ हैं, जिनमें मनुष्य और तिर्यच निवास करते हैं। जहाँ के निवासी स्वयं कृषि आदि षट्कर्म करके जीवनयापन करते हैं, उसे कर्मभूमि कहा जाता है तथा जहाँ ऐसी व्यवस्था नहीं है, अपितु कल्पवृक्षजन्य भोगों की प्रधानता है, उसे भोगभूमि कहा जाता है। यद्यपि भोगभूमि पुण्यफल मानी जाती है, तथापि भोगभूमि से मोक्ष पुरुषार्थ की साधना नही होती है। भोगभूमि का अर्थ ___ आचार्य पूज्यपाद स्वामी ने भोगभूमि का निरुक्त्यर्थ करते हुए कहा है-'दशविधकल्पवृक्षकल्पितभोगानुभवनविषयत्वाद् भोगभूमय इति व्यपदिश्यन्ते' अर्थात् दस प्रकार के कल्पवृक्षों से प्राप्त हुए भोगों के उपभोग की मुख्यता होने से भोगभूमियाँ कही जाती हैं। भगवती आराधना की विजयोदया टीका में श्री अपराजितसूरि ने भोगभूमिज मनुष्यों का वर्णन करते हुए लिखा है कि जहाँ मनुष्य मद्य, तूर्य, वस्त्र, आहार, पात्र, आभरण, माला, घर, दीप ओर ज्योति प्रदान करने वाले दस प्रकार के कल्पवृक्षों से जीवनयापन करते हैं, जहाँ पुर, ग्राम आदि नही होते हैं, न राजा होते हैं न कुल, न कर्म एवं न शिल्प होता है। न वर्णव्यवस्था, न आश्रमव्यवस्था होती है। जहाँ स्त्री-पुरुष नीरोग रहकर पति-पत्नी के रूप में रमण करते हुए पूर्व जन्म के पुण्य का फल भोगते हैं और स्वभावतः भद्र होने के कारण मरकर भी स्वर्ग में जाते हैं, वे भोगभूमियाँ कही गई हैं। इनमें जन्म लेने वाले मनुष्य भोगभूमिज कहलाते हैं। Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त 59/3-4 कल्पवृक्ष और उनका कार्य जो युगलों को अपने-अपने मन से कल्पित वस्तुएँ प्रदान करते हैं, उन्हें कल्पवृक्ष कहते हैं। भोगभूमि में पानांग, तूर्यांग, भूषणांग, वस्त्रांग, भोजनांग, आलयांग, दीपांग, भाजनांग, मालांग और तेजांग नामक कल्पवृक्ष होते हैं। पानांग जाति के कल्पवृक्ष मधुर, सुस्वाद, षट्रसयुक्त, प्रशस्त, अतिशीतल, तुष्टि एवं पुष्टिकारक बत्तीस प्रकार के पेय प्रदान करते हैं। तूर्यांग जाति के कल्पवृक्ष उत्तम वीणा, पटु पटह, मृदंग, झालर, शंख, दुंदुभि, भंभा, भेरी और काहल आदि वादित्र प्रदान करते हैं। भूषणांग जाति के कल्पवृक्ष कंकण, कटिसूत्र, हार, केयूर, मंजीर, कटक, कुण्डल, किरीट ओर मुकुट आदि आभूषण प्रदान करते हैं। वस्त्रांग जाति के कल्पवृक्ष चीनपट, उत्तम क्षौम तथा मन एवं नेत्रों को आनन्ददायक नाना प्रकार के अन्य वस्त्र प्रदान करते हैं। भोजनांग जाति के कल्पवृक्ष सोलह प्रकार के आहार, सोलह प्रकार के व्यंजन, चौदह प्रकार के सूप, एक सौ आठ प्रकार के खाद्य पदार्थ, तीन सौ तिरेसठ प्रकार के स्वाद्य पदार्थ तथा तिरेसठ प्रकार के रस पृथक-पृथक प्रदान करते हैं। आलयांग जाति के कल्पवृक्ष स्वस्तिक एवं नन्द्यावर्त आदि सोलह प्रकार के रमणीय भवन प्रदान करते हैं। दीपांग जाति के कल्पवृक्ष प्रासादों में शाखा, प्रवाल, फल, फूल एवं अंकुर आदि के द्वारा जलते हुए दीपकों के सामान प्रकाश प्रदान करते हैं। भाजनांग जाति के कल्पवृक्ष स्वर्ण एवं विविध रत्नों से निर्मित थाल, झारी, कलश, गागर, चामर और आसन आदि प्रदान करते हैं। मालांग जाति के कल्पवृक्ष वल्ली ,तरु, गुच्छ, एवं लताओं से उत्पन्न सोलह हजार प्रकार के फूलों की विविध मालायें प्रदान करते हैं। तेजांग जाति के कल्पवृक्ष दोपहर के करोड़ों सूर्यो की किरणों के समान होकर नक्षत्र, चन्द्र एवं सूर्य आदि की कान्ति का सहरण करते हैं। ये कल्पवृक्ष न तो वनस्पतिकायिक हैं और न ही व्यन्तर देव हैं, अपितु पृथिवीकायिक है तथा जीवों को उनके पुण्य का फल प्रदान करते हैं। आदिपुराणकार आचार्य जिनसेन Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त 59 / 3-4 ने पानांग के स्थान पर मद्यांग कल्पवृक्ष का उल्लेख किया है । उनके अनुसार मद्यांग कल्पवृक्ष सुगन्धित एवं अमृत सदृश मधुर मैरेय, सीधु, अरिष्ट और आसव आदि मद्य प्रदान करते हैं । वास्तव में ये वृक्षों के एक प्रकार के रस हैं, जिन्हें भोगभूमिज मनुष्य सेवन करते हैं । मद्यपायी लोग जिस मद्य का पान करते हैं, वह मद का कारक है तथा अन्तःकरण को मोहित करने वाला है; अतः आर्यजनों द्वारा सर्वथा त्याज्य है । " 74 मध्यलोक में भोगभूमियाँ 1 मध्यलोक के सात क्षेत्रों में हैमवत और हैरण्यवत दो क्षेत्रों में सदैव दुःषमासुषमा काल रहता है, अतः वहाँ पर जधन्य भोगभूमि रहती है हरि और रम्यक इन दो क्षेत्रों पर में सदैव सुषमा काल रहता है, अतः वहाँ पर मध्यम भोगभूमि रहती है । निषध एवं नील पर्वतों के अन्तराल में स्थित विदेह क्षेत्र के बहुमध्य भाग में एक सुमेरु और चार गजदन्त पर्वत हैं। इनसे रोका गया भूखण्ड देवकुरु और उत्तरकुरु कहलाता है । देवकुरु एवं उत्तरकुरु रूप विदेह क्षेत्र में सदा उत्तम भोगभूमि रहती है । शेष विदेह क्षेत्र में कर्मभूमि है भरत एवं ऐरावत क्षेत्र कर्मभूमियाँ हैं, किन्तु यहाँ पर उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी के रूप में छः समयों की अपेक्षा वृद्धि और ह्रास होता रहता है । उत्सर्पिणी काल में भरत एवं ऐरावत क्षेत्र में रहने वाले मनुष्यों में भोग, उपभोग, अनुभव, सम्पदा, आयु, परिमाण, शरीर की ऊँचाई, विभूति आदि में क्रमशः वृद्धि तथा अवसर्पिणी काल में ह्रास होता जाता है । उत्सर्पिणी काल में दुषमा-दुषमा, दुषमा, दुषमा- सुषमा, सुषमा - दुषमा, सुषमा एवं सुषमा- सुषमा ये षट्काल होते हैं तथा अवसर्पिणी में इसके विपरीत सुषमा- सुषमा, सुषमा, सुषमा - दुषमा, दुषमा- सुषमा, दुषमा और दुषमा-दुषमा ये छः काल होते हैं । सुषमा- सुषमा नामक उत्सर्पिणी के छठे तथा अवसर्पिणीके पहले काल में उत्तम भोगभूमि की व्यवस्था पाई जाती है। सुषमा नामक उत्सर्पिणी के Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त 59/3-4 पाँचवे तथा अवर्सिणी के दूसरे काल में मध्यम भोगभूमि की व्यवस्था पाई जाती है। सुषमा-दुषमा नामक उत्सर्पिणी के चौथे तथा अवसर्पिणी के तीसरे काल में जघन्य भोगभूमि की व्यवस्था पाई जाती है। शेष कालों में कर्मभूमि रहती है। उत्सर्पिणी एवं अवसर्पिणी रूप से कालचक्र का घुमाव भरत एवं ऐरावत क्षेत्र के आर्यखण्डों में ही पाया जाता है, अन्यत्र नहीं। विदेह क्षेत्र में देवकुरु एवं उत्तरकुरु में सुषमा-सुषमा काल तथा क्षेत्र में दुषमा-सुषमा काल पाया जाता है। उत्तम भोग भूमि की अवस्थिति उत्तम भोगभूमि (सुषमा-सुषमा काल) में भूमि रज, धूम, दाह एवं हिम से रहित, साफ-सुथरी, ओलावृष्टि एवं बिच्छू आदि कीड़ों के उपसर्ग से रहित, निर्मल दर्पण के समान, निंद्य पदार्थो से रहित, तन-मन एवं नयनों को सुखदायक होती है। उस पर चतुरंगल ऊँचे तृण, विचित्र वर्ण वाले वृक्ष, कमलादि से पूर्ण किन्तु मकरादि से रहित पुष्करिणी और वापिकायें होती है। उत्तम भोगभूमि में विकलेन्द्रिय जीव नहीं होते हैं, असंज्ञी पंचेन्द्रिय जीव भी नहीं होते हैं। स्त्री-पुरुषों में किसी भी प्रकार की वेदना नहीं होती है। वे चौथे दिन बेर के बराबर आहार ग्रहण करते हैं। स्त्री-पुरुषों के शरीर की ऊँचाई छःहजार धनुष, आयु तीन पल्य होती है। प्रत्येक स्त्री-पुरुष के पृष्ठ भाग में 256 हड्डियाँ होती हैं। नर-नारी के अतिरिक्त अन्य कोई परिवार नहीं होता है। एक व्यक्ति में नौ हजार हाथियों के बराबर बल होता है। इनका भोग चक्रवर्ती के भोग से अनन्तगुणा होता है। इनका संहनन वज्रवृषभनाराच और संस्थान समचतुरस्र होता है। स्त्री का मरण जम्हाई से तथा पुरुष का मरण छींक से हो जाता है। इनका कदलीघात मरण नहीं होता है। उत्तम भोगभूमि में वे जीव उत्पन्न होते हैं जो मिथ्यात्वसहित होने पर भी मन्दकषायी, जिनपूजक, संयमी एवं आहारदान आदि गुणों के धारक होते हैं। पूर्व में Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त 59/3-4 मनुष्यायु बाँधकर तीर्थकर के पादमूल में क्षायिक सम्यक्त्व प्राप्त सम्यग्दृष्टि भी उत्तम भोगभूमि में उत्पन्न हो जाते हैं। पात्र को दान देकर या दानी की अनुमोदना करने वाले तिर्यच भी भोगभूमि में उत्पन्न होते हैं। कुलिंगसेवी या कुलिंगी भोगभूमि में तिर्यच होते हैं। भोगभूमि के मनुष्य एवं तिर्यचों में नौ माह आयु शेष रहने पर ही गर्भधारण होता है। गर्भ से युगल पैदा होते ही तत्काल नर-नारी का मरण हो जाता है। भोगभूमिज मिथ्यावादी मनुष्य एवं तिर्यच भवनत्रिक में तथा सम्यग्दृष्टि मनुष्य एवं तिर्यच सौधर्म-ऐशान स्वर्ग पर्यन्त उत्पन्न होते हैं। भोगभूमि में उत्पन्न बालक शय्या पर अंगूठा चूसने, बैठने, अस्थिर गमन, स्थिर गमन, गुणप्राप्ति, तारुण्यप्राप्ति एवं सम्यक्त्वग्रहण की योग्यता में कमशः तीन-तीन दिन लगाते हैं। भोगभूमिज नर-नारी का शरीर धातुमय होता है, फिर भी छिन्न-भिन्न नहीं हो सकता है। उनके शरीर में मल-मूत्र का आम्रव नही होता है। भोगभूमि में व्याघ्रादिक भी कल्पवृक्षों के मधुर फल ही भोगते हैं। मध्यम भोगभूमि की अवस्थिति मध्यम भोगभूमि (सुषमा काल) में मनुष्यों के शरीर की ऊँचाई चार सौ धनुष, आयु दो पल्य होती है। इनके पृष्ठभाग में एक सौ अट्ठाईस हड्डियाँ होती हैं। वे तीसरे दिन बहेड़ा फल बराबर अमृतमय आहार करते हैं। उत्पन्न हुए बालक को शय्या पर अँगूठा चूसने, बैठने, अस्थिर गमन, गुणप्राप्ति, तारुण्यप्राप्ति एवं सम्यक्त्व ग्रहण की योग्यता में क्रमशः पाँच-पाँच दिन लग जाते हैं। शेष सब स्थिति उत्तम भोगभूमि की ही तरह होती हैं। जघन्य भोगभूमि की अवस्थिति जघन्य भोगभूमि की अवस्थिति (सुषमा दुषमा काल) में मनुष्यों की ऊँचाई दो हजार धनुष, आयु एक पल्य होती है। यहाँ के स्त्री-पुरूषों Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त 59/3-4 के पृष्ठ भाग में चौसठ हड्डियाँ होती हैं। समचतुरस्रसंस्थानधारी ये एक दिन के अन्तराल से ऑवले बराबर अमृतमय आहार लेते हैं। उत्पन्न हुए बालक को शय्या पर अंगूठा चूसने, बैठने, अस्थिर गमन, स्थिर गमन, गुणप्राप्ति, तारुण्यप्राप्ति एवं सम्यक्त्व ग्रहण की योग्यता में क्रमशः सात-सात दिन लग जाते हैं। शेष कथन उत्तम एवं मध्यम भोगभूमि की तरह ही है।'' भोगभूमि में मरण होने पर मनुष्य का शरीर कर्पूरवत् उड़ जाता हैं। भोगभूमि में गुणस्थान आदि भोगभूमिज जीवों में अपर्याप्त अवस्था में मिथ्यात्व एवं सासादन दो गुणस्थान, पर्याप्त अवस्था में मिथ्यात्व, सासादन, मिश्र एवं अविरतसम्यग्दृष्टि- चार गुणस्थान होते हैं। उनके पर्याप्त अवस्था में दस प्राण - पॉच इन्द्रियाँ, मन वचन, काय, श्वासोच्छ्वास एवं आयु तथा पर्याप्त अवस्था में मन, वचन एवं श्वासोच्छ्वास को छोड़कर शेष सात प्राण होते हैं। भोगभूमिज जीव आहार, भय, मैथुन और परिग्रह इन चार संज्ञाओं से; मनुष्य एवं तिर्यंच गति से; पंचोन्द्रिय जाति से त्रस काय से; ग्यारह योगों- 4 मनोयोग, 4 वचनयोग, औदारिक, औदारिकमिश्र एवं कार्मण काययोग से पुरुषवेद एवं स्त्रीवेद से, सम्पूर्ण कषायों से; मति-श्रुत-अवधि-मत्यज्ञान-श्रुताज्ञान-विभंगावधि इन छः ज्ञानों से; सर्व असंयम से; चक्षु-अचक्षु एवं अवधि इन तीन दर्शनों से संयुक्त होते हैं। ये अपर्याप्तक अवस्था में दोनों गुणस्थानों में कृष्ण, नील एवं कापोत लेश्याओं से तथा पर्याप्त अवस्था में चारों गुणस्थानों में तीनों शुभ - पीत, पद्म एवं शुक्ल लेश्याओं से युक्त होते हैं। ये भव्यत्व एवं अभव्यत्व से; औपशमिक, क्षायिक, वेदक, मिश्र, सासादन और मिथ्यात्व से संयुक्त होते हैं। ये संज्ञी; आहारक एवं अनाहारक तथा साकार एवं निराकार उपयोग वाले होते हैं। भोगभूमिज तिर्यच और मनुष्य Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त 59/3-4 मन्दकषायी, पुण्यप्रकृतियों के उदय वाले तथा विविध विनोदों में आसक्त होते हैं। 12 78 कुभोगभूमि कुमानुष जहाँ जन्म लेते हैं, वे जहाँ रहते हैं, उस स्थान को कुभोगभूमि या कुमानुषद्वीप कहते हैं। कुभोगभूमि में उत्पन्न मनुष्य गुफा एवं वृक्षतल में रहते हैं तथा फल-फूलों को खाकर जीवनयापन करते हैं । यहाॅ के मनुष्य पाप कर्मों के फलस्वरूप कुत्सित रूप को धारण करने वाले होते हैं । लवण समुद्र के आभ्यन्तर भाग में 24, बाह्य भाग में 24 इसी प्रकार कालोदधि समुद्र के आभ्यन्तर भाग में 24 एवं बाह्य भाग में 24 कुल 96 द्वीपों में कुभोगभूमि है । इन द्वीपों में रमणीय उपवन, तडाग एवं फलपुष्पसमन्वित वृक्ष पाये जाते हैं। कुभोगभूमियों में एक जंघा, एक कर्ण, पशुमुख, मत्स्यमुख, गोमुख, मेघमुख, विद्युन्मुख, हस्तिमुख आदि कुत्सित आकृति वाले मनुष्यों होते हैं। एक जंघा वाले पूर्व दिशागत कुमानुष मीठी मिट्टी खाकर, शेष फल-फूल खाकर जीवनयापन करते हैं । ये सभी मन्दकषायी होते हैं, इनकी आयु एक पल्य है । इनका जन्म-मरण अन्य भोगभूमिज के समान ही होता है। इन मनुष्यों का मृत शरीर भी भोगभूमिज के मनुष्यों के समान कपूर की तरह उड़ जाता है । इनका अग्निसंस्कार आदि नही होता है । कुमानुष द्वीपों में तिर्यंच नही पाये जाते हैं, वहाँ मनुष्य गति नाम कर्म के उदय वाले मनुष्य ही उत्पन्न होते हैं। कुभोगभूमि की सम्पूर्ण व्यवस्था जधन्यभोगभूमिवत् कही गई है। 3 तीस भोगभूमियों एवं छ्यानवे कुभोगभूमियों में केवल सुख ही होता है, जबकि कर्मभूमि में सुख-दुख दोनों होते हैं। 14 I भोगभूमि में चरित्र का अभाव भोगभूमिजों में उत्कृष्ट रूप से चार गुणस्थान ही रहते हैं । धवला Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त 59 / 3-4 में स्पष्ट रूप से कहा गया है कि भोगभूमिज में उत्पन्न हुए जीवों के अणुव्रतों का ग्रहण नहीं बन सकता है । चारित्र ग्रहण न कर जाने का उल्लेख करते हुए श्री यतिवृषभाचार्य ने लिखा है 'ते सव्वे वरजुगला अण्णोष्णुप्पण्णवेमसंगूढा । जम्हा तम्हा तेसुं सावयवद संजमो णत्थि || 16 79 अर्थात् वे सब भोगभूमिज उत्तम युगल पारस्परिक प्रेम में अत्यन्त मुग्ध रहते हैं । अत एव उनके श्रावक के व्रत और संयम नही होता है । भट्ट अकलंक देव का भी कथन है कि भोगभूमियों में यद्यपि ज्ञान एवं दर्शन तो होता है, परन्तु भोगपरिणामी होने से उनके चारित्र नही होता है।" यहाॅ यह विशेष ध्यातव्य है कि यद्यपि भोगभूमियों में संयतासंयत एवं संयत तिर्यच या मनुष्य नही होते हैं, तथापि पूर्व बैर के कारण देवों द्वारा वहाँ ले जाकर डाले गये ऐसे तिर्यंच या मनुष्य संभव हैं । 18 भोगभूमियों की संख्या देवकुरु, उत्तरकुरू, हैमवत, हरि, रम्यक और हैरण्यवत ये छ: भोगभूमियाँ हैं । पाँच मेरु सम्बन्धी होने से इनकी संख्या तीस (5X6 30) हो जाती है F = अन्तद्वीपज कुभोगभूमियों की संख्या छ्यानवे है । लवण समुन्द्र के अन्दर एवं बाहर तथा कालोदधि समुद्र के अन्दर एवं बाहर भाग में 24-24 (24×4 96) कुभोगभूमियाँ हैं । = सन्दर्भ : (1) तिलोयपण्पत्ती, 1 / 136-138 (2) 'भरत हैमवतहरिविदेहरम्यकहैरण्यवतैरावतवर्षाः क्षेत्राणि । तद्विभाजिनः पूर्वापरायता Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 80 अनेकान्त 59/3-4 हिमवन्महाहिमवन्निषधनीलरुक्मिशिखरिणो वर्षधरपर्वताः।' (3) सर्वार्थसिद्धि, 3/37 -तत्त्वार्थसूत्र, 3/10-11 (4) भगवती आराधना, 780 की विजयोदया टीका (5) तिलोयपण्णत्ती, 4/345-358 (6) महापुराण, 9/37-39 (7) भरतैरावतविदेहाः कर्मभूमयोऽन्यत्र देवकुरूत्तरकुरुम्यः।' -तत्त्वार्थसूत्र, 3/27 (8) 'भरतैरावतयोवृद्धिह्रासौ षट्समयाभ्यामुत्सर्पिण्यवसर्पिणीभ्याम्। -वही, 3/27. (9) द्र.- तिलोयपण्णती, 4/324-396. (10) द्र.- वही, 4/400-405. (11) द्र.- वही, 4/407-413. (12) द्र.- वही, 4/416–427. (13) रत्नत्रय त्रिलोक रत्नाकर, पृष्ठ 338-342. (गणिनी आर्थिका विशुद्धमती) (14) 'छब्बीसदुरेसकसय पमाणभोगक्खिदीण सुहमेक्कं । कम्मखिदीसु पराणं हवेदि सोक्खं च दुक्खं च ॥ - तिलोयपण्णत्ती, 4/2999. (15) 'भोगभूमावुत्पन्नानां तदुपादानानुपत्ते । धवला, I. I. I (16) तिलोयपण्णत्ती, 4/386 (17) 'भोगभूमिषु यद्यपि मनुष्याणां ज्ञानदर्शने स्तः, चारित्र तु नास्ति, अविरतभोगपरिणामित्वात्।' -तत्त्वार्थराजवार्तिक, 3/37 (18) जैनेन्द्रसिद्धान्तकोष, 2/236 पृ. -उपाचार्य एवं अध्यक्ष-संस्कृत विभाग एस.डी. (पी.जी.) कालेज, मुजफ्फरनगर (उ.प्र.) Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्मक्षय में ध्यान तप का महत्व और स्वरूप डॉ. राजेन्द्र कुमार बंसल - जैन धर्म के अनुसार प्रत्येक जीवात्मा स्वतंत्र और स्वाधीन है । कोई किसी का कर्त्ता - भोक्ता - हर्त्ता नहीं है। सभी अपने अपने भावों के अनुसार पुण्य-पाप का अर्जन कर उनके उदय अनुसार सुख-दुख भोगते हैं । इस प्रकार जीव का जीवन-मरण सुख-दुख हानि-लाभ आदि कर्मोदय जन्य परिस्थितियों पर निर्भर करता है। जैन दर्शन में कर्म का तात्पर्य पुद्गल द्रव्य की अशुभ-शुभ रूप उन सूक्ष्म कार्मण वर्गणाओं से हैं जो जीव विशेष के अशुभ-शुभ भावों (परिणामों) के निमित्त से आत्म प्रदेशों के साथ एकक्षेत्रावगाह सम्बंध स्थापित करते हैं और स्थिति पूर्ण होने पर उदय में आकर दुख-सुख की सामग्री एवं मनोविकारों में उत्पत्ति हेतु निमित्त बनते हैं। यह ध्यातव्य है कि आत्मा और कर्म के मध्य कर्ता-कर्म सम्बन्ध न हो कर मात्र निमित्त - नैमित्तिक सम्बन्ध होता है । इन मनोविकार रूप क्रोधादि भावों को भाव कर्म कहते हैं । भाव कर्म से आत्मा का ज्ञाता - दृष्टा स्वरूप शांत स्वभाव बाधित होता है । कर्मों को द्रव्य कर्म कहते हैं। आनदि काल से द्रव्य कर्म से भाव कर्म और भाव कर्म से द्रव्य कर्म बंध का अज्ञान रूप क्रम चालू है जो दुखमय और दुख स्वरूप है। इससे निवृत्ति का उपाय है आत्मदर्शन, आत्मज्ञान और स्वरूप में रमणता । इसे ही सम्यग्दर्शन, ज्ञान और चारित्र रूप एकता को मोक्ष मार्ग कहा है। यह आत्म-विज्ञान का विषय है जीवन में धर्म का प्रारम्भ कर्मों के संवर से होता है । संवर अर्थात् कर्मो के आगमन का रुकना और फिर कर्मो की निर्जरा होना । सम्पूर्ण कर्म क्षय से मोक्ष होता है। इस अवस्था में आत्मा अपने द्रव्य गुण स्वरूप को पर्याय में व्यक्त कर परम सुखी और अनंत ज्ञान दर्शन - सुख और वीर्य का धारी होता है। इसे ही शुद्धात्मा की पूर्ण व्यक्तता कहते Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त 59/3-4 हैं। शुद्धात्मा की प्राप्ति संयोग और संयोगी भावों से आत्म स्वरूप के ज्ञायक भाव के भेदविज्ञान से होती है। इस प्रकार शुद्धात्मा के ज्ञान एक अनुभव से कर्मों का संवर होता है। इसके पश्चात् शुद्धोपयोग रूप शुद्धात्मा में स्थिरता एवं इच्छा निरोध से कर्मों की निर्जरारूप कर्म क्षय होता है। यह तप से ही होता है। कर्मों का आनव-संवर तत्वार्थसूत्रकार आचार्य अमास्वामी ने कर्मो के आसव- बंध आदि की स्थिति को निरूपित करते हुए कहा है कि 'कायवाड्मनःकर्म योगः' (तत्वा. 6/1)1 काय, वचन और मन के परिस्पन्द को योग कहते हैं। 'स आस्रवः' (6/2) वह योग ही आसव है। 'शुभः पुण्यस्याऽशुभः पापस्य (6/3) शुभ योग पुण्य और अशुभ योग पापानव का कारण है। योग से आत्म-प्रदेशों का स्पंदन होता है, जिससे शुभ-अशुभ कर्मपरमाणु आत्म प्रदेश में प्रवेश करते है। शुभ योग से पुण्य और अशुभ योग से पाप का बंध होता है। योग से प्रकृति और प्रदेश रूप कर्म का बंध होता है। कषाय से स्थिति और अनुभाग बंध होता है- ऋजूसूत्र नय की दृष्टि से। योग संसार अवस्था में होता है। अयोग केवली और सिद्ध भगवान योग रहित हैं। इस प्रकार जैन-दर्शन में योग शब्द का प्रयोग मन-वचन काय की क्रिया रूप में किया जाता है जबकि अन्य दर्शनों में समाष्टि T-ध्यान के अर्थ में इसका प्रयोग किया जाता है। सूत्रकार के अनुसार 'मिथ्यादर्शनाविरतिप्रमादकषाययोगाः बन्ध हेतवः'- मिथ्यादर्शन, अविरति, प्रमाद, कषाय और योग ये बन्ध के कारण हैं। (8/1) जीव सकषाय होने से कर्म योग्य पुद्गलों को ग्रहण करता है, यही बन्ध है (8/2)। यह बंध प्रकृति, स्थिति, अनुभव (अनुभाग) और प्रदेश के. भेद से बंध चार प्रकार का है (8/3) ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, वेदनीय, मोहनीय, आयु, नाम, गोत्र और अन्तराय, ये मूल प्रकृति बन्ध के आठ भेद हैं(8/4)। . Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त 59 / 3-4 ( 9 / 1 ) । 'स 'आस्रवनिरोधः संवरः ' - आनव का निरोध संवर है गुप्तिसमितिधर्मानुप्रेक्षापरीषहजयचारित्र :- गुप्ति समिति, धर्म अनुप्रेक्षा, परीषहजय और चारित्र से संवर होता है ( 9 / 2 ) । 'तपसा निर्जरा च'- तप के द्वारा निर्जरा और संवर होता है ( 9 / 13 ) । 83 तप का स्वरूप और भेद 'कर्मक्षयार्थ तप्यत इति तपः' कर्मो का क्षय करने के लिये तपा जाता है वह तप कहा जाता है- तत्वार्थराजवार्तिक ( 9 / 6 / 17 ) । त्रिरत्न को प्राप्त करने हेतु इच्छा निरोध को तप कहते हैं (धवला 13/5-4-26/54-12) समस्त रागादि पर भावों की इच्छा के त्याग द्वारा स्वस्वरूप में प्रतपन करना - विजयन करना तप है ( प्रवचन सार गा. 14 टीका) । जो आत्मा को आत्मा में आत्मा से धारण कर रखता है वह अध्यात्म से तप है । इस प्रकार इच्छाओं के निरोध रूप शुद्धोपयोगीरूपी वीतराग भाव ही सच्चा तप है । तप के दो भेद हैं- बाह्य तप और आभ्यंतर तप । बाह्य तप भी छह प्रकार का है- (1) अनशन (2) अवमौदर्य ( 3 ) वृत्ति परिसंख्यान ( 4 ) रस परित्याग ( 5 ) विविक्त शय्यासन और (6) काय क्लेश इसी प्रकार आभ्यंतर तप भी छह प्रकार का है(1) प्रायश्चित्त (2) विनय ( 3 ) वैयावृत्य (4) स्वाध्याय (5) व्युत्सर्ग-त्याग और ( 6 ) ध्यान । इस प्रकार तप बारह प्रकार के होते हैं । तप आत्म दर्शन रूप सम्यक्त्व सहित होते हैं। सम्यक्त्व बिना करोड़ों वर्ष तक उग्र तप तपने पर भी बोधि की प्रप्ति नहीं होती है। ( दर्शनपाहुड़ 5 मू. आ. 100) ! इसमें बाह्य तप साधन हैं और आभ्यंतर तप साध्य है । - बाह्य तप लौकिक सुख एवं मंत्रसाधनादि दृष्ट फल की अपेक्षा बिना संयम की सिद्धि इन्द्रिय विषय सम्बन्धी राग के उच्छेद, ध्यान की सिद्धि और Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त 59/3-4 आगम ज्ञान की प्राप्ति हेतु चारों प्रकार के आहार का त्याग करना उपवास (अनशन) कहलाता है ( तत्वार्थरा. 9/19/1)! संयम को जागृत करने के लिये, दोषों को शांत करने, सन्तोष, स्वाध्याय एवं सुख की सिद्धि के लिये अवमौदर्य होता है। तृप्ति के लिये पर्याप्त भोजन में से चतुर्थाश या दो चार ग्रास कम खाना अवमोदर है और उसका भाव अवमौदर्य कहलाता है (9/19/3)! एकघर, सातघर, एकगली, अर्द्धग्राम आदि के विषय में भोज्य पदार्थ आदि का नियम कर लेना वृत्ति परिसंख्यान तप है ताकि आशा तृष्णा की निवृति को (1/19/4)! जितेंद्रियत्व, तेजोवृद्धि एवं संयम में बाधा की निवृत्ति हेतु घी, दूध, दही, गुड़, नमक तेल आदि रसों का परित्याग करना रसपरित्याग तप कहलाता है (9/19/5) जन्तु बाधा का परिहार, ब्रह्मचर्य, स्वाध्याय और ध्यान आदि की सिद्धि हेतु निर्जन शून्यागार, गिरिगुफा आदि एकान्त स्थानों में सोना-बैठना विविक्त (एकान्त) शय्यासन तप कहलाता है (9/19/12)! और देह को कष्ट देने की इच्छा विषयसुख की अनासक्ति और जिनधर्म की प्रभावना हेतु अनेक प्रकार के प्रतिमायोग धारण करना, मौन रखना, आतापन, वृक्षमूल, सर्दी में नदी तट पर ध्यान करना आदि कायक्लेश तप है. (9/19/13)! ये तप दूसरों के द्वारा प्रत्यक्ष ज्ञेय है। जिन्हें मुनिराज गृहस्थ एवं सम्यग्यदृष्टि मिथ्यादृष्टि सभी करते हैं, अतः बाह्य तप कहते हैं। आभ्यंतर (अंतरंग) तप __ प्रायः का अर्थ है साधुजन; चित्त, मन, जिसमें साधुजनों का चित्त लीन हो वह प्रायश्चित्त है। अतः मन की शुद्धि करने वाले कर्म को प्रयाश्चित्त कहते है। प्रमाद अथवा अज्ञान से लगे दोषों की शुद्धि करना प्रायश्चित्त है (9/22/1)! ज्ञान लाभ, आचारशुद्धि और सम्यग् आराधना आदि की सिद्धि विनय तप से होती है। वह है- ज्ञान विनय, दर्शन विनय, चारित्र विनय और उपचार विनय (9/26/1 एवं 8)। आचार्य, Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त 59/3-4 उपाध्याय आदि पर व्याधि परीषह आदि का, उपद्रव होने पर उन उपद्रवों का ‘प्रासुक औषधि, आहारपान, आश्रय, चौकी, फलक, घास की चटाई आदि धर्मोपकरण के द्वारा प्रतीकार करना तथा मिथ्यात्व की ओर जाते हुए को सम्यक्त्व मार्ग में दृढ़ करना वैय्यावृत्य तप हे (9/24/15)! जैन धर्म में स्वाध्याय को परम तप कहा है स्वाध्यायःपरमं तपः स्व+आधि+अय-स्वाध्याय अर्थात् निज का ज्ञान प्राप्त होना ही स्वाध्याय है। वाचना, पृच्छना (पूछना) अनुप्रेक्षा आम्नाय(पाठ) और धर्मोपदेश, ये स्वाध्याय के पॉच भेद हैं ।(9/25)! त्याग को व्युत्सर्ग कहते हैं। बाह्य और आभ्यंतर उपधि का त्याग व्युत्सर्ग तप हैं (9/26)! ध्यान का स्वरूप चित्त को अन्य विकल्पों से हटाकार एक ही अर्थ में लगाने को ध्यान कहते है, यह ध्यान उत्तम संहनन वाले के अन्तर्मुहूर्त तक हो सकता है (9/27)। यह प्रथम तीन संहनन वालों को ही होता है। एकाग्रचिंतानिरोधो ध्यानम' में एक शब्द संख्यापद है, अग्र मुख्य वा लक्ष्य यह एकार्थवाची है। चिंता अंतःकरण का व्यापार है। इस प्रकार ‘एक अग्रं' एक द्रव्य-परमाणु या भाव परमाणु या अन्य किसी अर्थ में चिन्ता को (चित्तवृति को) नियमित करना केन्द्रित करना, स्थिर करना, एकाग्रचिंता निरोध है। जो आत्मा के द्वारा ध्याया जाता है, वह ध्यान है। और ध्याति मात्र ध्यान है भाव साधन है। ___ अंगति जानाति जो जानता है वह 'अग्र' आत्मा है। इस दृष्टि से आत्मा में चिन्ता का निरोध करना ध्यान सर्वोत्कृष्ट तप है। शेष सब तप ध्यान की अवस्था में ही होता हैं ध्यान की अवस्था में सर्वज्ञता की प्राप्ति होती है। शेष सब तप ध्यान की सिद्धि के लिये हैं। आचार्य अमितगति के अनुसार ध्यानं विनिर्मलं ज्ञानं पुसां संपद्यते स्थिरम (योगसार प्राभृत 9/12) अर्थात् जब निर्मलज्ञान स्थिर हो जाता Page #223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त 59 / 3-4 I हो तब वह ध्यान हो जाता है। एक पदार्थ को जानते हुए चिंतवन रूक जाना (ज्ञान में ठहर जाना) ही ध्यान है । आचार्य रामसिंह के अनुसार स्थिर मन और स्थिर तात्विक श्रुत ज्ञान का नाम भी ध्यान है ( तत्वानुशासन, 68 ) जिस प्रकार नमक जल में विलीन हो जाता है उसी प्रकार चित्त शुद्धात्मा में विलीन हो जावे तब जीव समरसरूप समाधिमय हो जा जाता है (दोहा पा. 207 ) ! 86 ध्यान के भेद ध्यान के चार भेद हैं- आर्त्त ध्यान, रौद्र ध्यान, धर्म्य ध्यान और शुक्ल ध्यान । आर्त और रौद्र ध्यान अप्रशस्त ध्यान हैं । पाप के कारण भूत हैं और धर्म ध्यान और शुक्लध्यान कर्म दहन करने की सामर्थ्य से युक्त होने के कारण प्रशस्त कहलाते हैं ये मोक्ष के कारण हैं । ध्यान भाव या परिणामों का अनुगमन करता है और उसी अनुसार तन्मयता होती है । इस दृष्टि से परिणाम तीन प्रकार के होते हैं शुद्ध विशुद्ध और संक्लेश परिणाम । आचार्य कुदकुन्द के अनुसार वीतराग चारित्र रूप धर्म से परिणत आत्मा स्वयं धर्मरूप होता है। जब वह जीव शुभ अथवा अशुभ परिणामों रूप परिणमता है तब स्वयं शुभ और अशुभ और होता है और जब शुद्ध रूप परिणमन करता है तब स्वयं शुद्ध होता है ( प्रवचनसार गा. 8-9 ) ! उक्त चार ध्यानों में आर्त और रौद्र ध्यान संक्लेश परिणामों से होता है धर्म्य और शुक्ल ध्यान क्रमशः विशुद्ध परिणामों से होता है । इस प्रकार ध्यान का आधार परिणाम है । अप्रशस्त ध्यान : संसार भ्रमण का कारण आर्त्तध्यान : ऋतमर्दनमार्तिर्वातत्र भवमार्त्तम् अर्थात् ऋत, दुख और अर्दन को आर्ति कहते हैं। अर्ति से होने वाला ध्यान आर्त्त ध्यान है । यह चार प्रकार का है- अनिष्ट पदार्थों का संयोग, इष्ट पदार्थो का Page #224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त 59/3-4 वियोग, रोग जनित वेदना और आगामी भोगाकांक्षा रूप निदान। इनके निमित्त से जो संक्लेशतापूर्ण चिंतन दुख होता है वह आर्तध्यान कहलाता है। यह चारों आर्त-ध्यान कृष्ण, नील और कापोत लेश्या के विशेष बल से होते हैं। आर्तध्यान अज्ञान मूलक कटुफल देने वाला, आसाता वेदनीय कर्म का बन्धक और तिर्यंच गति में ले जाने वाला है। आर्तध्यान प्रथम गुणस्थान से छठवें गुण स्थान अर्थात् प्रमत्तगुण स्थान तक होता है। निदान आर्त ध्यान प्रमत्त संयत (छठवां) को नहीं होता रौद्र ध्यान : रुद्रः क्रमरस्तत्कर्म रौद्रम् अर्थात् रुलाने वाले को रुद्र या क्रूर कहते हैं रुद्रभावों से होने बाला ध्यान रौद्र ध्यान है। क्रूर आभिप्राय और परिणामों से होने वाले रौद्र ध्यान के चार भेद हैंहिंसानन्द, मृषानन्द, चौर्यानन्द और परिग्रहानंद रौद्रध्यान। हिंसा, झूठ चोरी कुशील और परिग्रह के भाव रौद्र ध्यान के निमित से होते हैं। अतः हिंसादि पाँच भाव रौद्रध्यान की उत्पत्ति का कारण है। इनका फल नरक गति है। अति संक्लेश परिणामों से सप्तम नरक गति का बंध पडता है। रौद्र ध्यान देशविरत पंचमगुणस्थान तक होता है। प्रमत संयत, छठवें गुण स्थानवर्ती मुनिराज को हो जावे तो मुनि पद भंग हो जाता है। अग्नि से तप्त लोहपिंड जिस प्रकार चारों ओर से जल अपनी ओर खींचता है उसी प्रकार आर्त रौद्र ध्यानी आत्मा चारों ओर से कर्म रूपी जल खींचकर निरंतर कार्मण वर्गणाओं को ग्रहण कर कर्म बंध करता है। इस कारण अप्रशस्त ध्यान संसार दुख का कारण है, अशभरूप है अतः इनसे निवृत्ति लेकर स्वाश्रित शुभ और शुद्ध में प्रवृत्ति इष्ट है। प्रशस्त ध्यान मोक्ष का कारण : भेद-विज्ञान से शुद्धत्मा को उपलब्धि होती है और शुद्धात्मा की Page #225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त 59 / 3-4 उपलब्धि से कर्मो का आगमन रुकता संवर होता है शुद्धोपयोग रूप r आत्म ध्यान से कमो की निर्जरा होती है। आगमिक दृष्टि से कर्मो का संवर और निर्जरा होती है । यही मोक्ष का कारण है। प्रशस्तध्यान दो प्रकार का है- धर्म्यध्यान और शुक्लध्यान । सूत्रकार के अनुसार गुप्ति समिति, धर्म अनुपेक्षा परिषहजय और चारित्र से संवर होता है ( तत्वा. 9 / 2 ) ! तप के द्वारा निर्जरा और संवर होता है ( तत्वा. 9 / 3 ) यह सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक् चरित्र की एकता पूर्वक ही होता है । 88 परम्परामोक्ष का कारण धर्म ध्यान 'धर्मादनपेतं धर्म्यम्' अर्थात धर्म से युक्त ध्यान धर्म्य ध्यान है । 'वत्थु सहावो धम्मो' के अनुसार वस्तु का स्वभाव ही धर्म है और उसका ध्यान धर्म्य ध्यान हे। इस दृष्टि से वस्तु स्वरूप से युक्त जो ज्ञान है, उसे धर्म ध्यान कहते है । त्रिरत्न को धर्म कहते हैं अतः उस धर्म से युक्त जो चिंतन है वह धर्म्य ध्यान है । मोह एवं क्षोभ से रहित जो आत्मा का परिणाम है, वह धर्म है। इस धर्म से उत्पन्न जो ध्यान हे वह धर्म्य ध्यान है उत्तम क्षमादि दश प्रकार का धर्म कहा है, उससे सम्पन्न होने वाला जो ध्यान हे वह धर्म्य ध्यान है । धर्म्य ध्यान चार प्रकार का है- 1. आज्ञाविचय- वीतराग भगवान द्वारा कहे आगम के अभ्यास से पदार्थो का निश्चय करना 2. अपाय विचय मिथ्यात्वादि / कुदेवादिक के सेन से बचने के उपाय का चिंतन करना 3. विपाक विचय- कर्मोदय जन्म शुभ अशुभ भावों से भिन्न ज्ञायक आत्मा का चिंतन करना तथा 4. संस्थान विचय छह द्रव्यों एवं तीन लोक का चिंतन करना । विषय की दृष्टि से धर्म ध्यान पिण्डस्थ, परस्थ, रूपस्थ और रूपातीत के रूप में भी वर्गीकृत किया गया हैं जिसका वर्णन ज्ञानार्णव में किया है। समस्त परिग्रह के त्याग, कषायों के दमन, व्रतों के धारण तथा मन और इन्द्रियों की विजय पूर्वक ध्यान होने से, यह सब ध्यान की सामग्री Page #226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त 59 / 3-4 कही गयी है । (तत्वानुशासन श्लोक 95 ) । इन्द्रियों को जीतने में मन समर्थ है, अतः मन को ही ज्ञान-वैराग्य भावपूर्वक अपने वश में करना चाहिये । मनोयोग पूर्वक नमस्कार मंत्र एवं स्वाध्याय से ध्यान का अभ्यास होता है और ध्यान से स्वाध्याय में शुद्धि होती है जिससे परमात्मा प्रकाशित होता है । ( तत्वा. 80-81 ) 89 धर्म्य ध्यान के दो भेद हैं - निश्चय धर्म ध्यान और व्यवहार धर्म ध्यान । अनंतानुबंधी प्रत्याख्यानावरण, प्रत्याख्यानावरण कषाय और प्रमाद के अभाव में निश्चय धर्म्य ध्यान क्रमशः चौथे से सातवें गुणस्थान तक के भव्य जीवों को होता है । व्यवहार धर्म ध्यान अभव्य मिथ्यादृष्टि भी करता है । इस प्रकार धर्मध्यान के प्रमुख अधिकारी अप्रमत संयत ( 9वॉ गुणस्थान) और गौण रूप से प्रमत्त संयत (छठवाँ गुण स्थान ) के भव्य जीव हैं । यह असंयत सम्यग्दृष्टि और संयतासंयत गुणस्थानों के जीवों को भी दर्शन पूर्वक होता है। ध्याता की दृष्टि से यह तीन प्रकार का है- जघन्य, मध्यम और उत्कृष्ट । ध्यान के फल की सिद्धि लेश्या ( आत्म परिणामों) की विशुद्धि के अनुसार कही गयी है। शुभोपयोग रूप धर्म्य ध्यान स्वर्ग सुख और परम्परा से मोक्ष का कारण है । आचार्य कुन्दकुद के अनुसार भरतक्षेत्र में पंचम काल में आत्म ध्यान में स्थित मुनियों को धर्म ध्यान होता है (मोक्ष पा. 76 ) अस्तु मुनिराजों को शक्ति अनुसार यथाख्यात चारित्र से अतिरिक्त चारित्रों का आचरण करना चाहिये ( तत्वानुशासन, 86 ) । वृक्ष, कोटर, जीर्ण उद्यान, श्मशान, गुफा, सिद्धकूट, जिनालय, कोलाहल रहित स्थल गृह आदि में ध्यान करना चाहिये। सिद्धक्षेत्र महातीर्थ आदि में ध्यान की सिद्धि होती है। काष्ठफलक, शिला या भूमिपर पर्यक अर्द्धपर्यंक, वज्रासन, वीरासन, सुखासन, कमलासन अथवा कायोत्सर्ग से स्थित होकर पूर्व या उत्तर दिशा में भावपूर्वक ध्यान करना चाहिये । राग द्वेष मोह विहीन समता भाव से किया गया धर्म ध्यान श्रेष्ठ होता है । Page #227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त 59/3-4 ____ 2. साक्षात् कर्म क्षय का हेतु शुक्लध्यान :- 'शुचि गुणयोगाच्छुक्लम्' अर्थात् शुचि गुण के योग से शुक्ल होता हैं। ___- कर्म क्षय एवं अतीन्द्रिय सुख की प्राप्ति हेतु योगी मुनिराज धर्म ध्यान को छोड़कर आत्यन्तिक शुद्धि का आश्रय लेकर अतिशय निर्मल शुक्ल ध्यान को प्रारम्भ करते है। यह बज्रवृर्षभनाराच संहनन युक्त होता है। जो चित्त क्रिया से रहित, इन्द्रियों से अतीत और ध्यान-धारण से विहीन होकर अन्तर्मुखी हो जाता है- समस्त संकल्प-विकल्पों से रहित होकर आत्मस्वरूप में लीन हो जाता है- उसे शुक्ल ध्यान कहते हैं। यह ध्यान निर्मलता तथा कषायों के क्षय या उपशम हो जाने के कारण वैडूर्यमणि के समान अतिशय निर्मल व स्थिर होने के कारण शुक्ल ध्यान कहा गया है, जो सातवें गुणस्थान से ऊपर के गुणस्थानों में होता है और शुद्धोपयोग रूप है। शुक्ल ध्यान भी चार प्रकार का होता है 1. पृथक्त्व अवितर्क सविचार (पृथक्त्ववितक) 2. एकत्व अवितर्क अविचार (एकत्ववितक) 3. सूक्ष्म क्रिया प्रतिपाती और 4. व्युपरत क्रिया निवर्ति। प्रथम दो शुक्ल ध्यान छद्म योगियों अर्थात् क्रमशः उपशांत मोही और क्षीण मोही के तथा अंत के दो शुक्ल ध्यान अठारह दोष रहित केवलज्ञानियों के होते हैं। इन चार शुक्ल ध्यानों में प्रथम ध्यान मन, वचन और काय इन तीन योग वालों के दूसरा तीन योगों में से किसी एक योगवाले के तीसरा काय योग वालों के चौथा योग से रहित केवलियों के होता है। पूर्व के दो शुक्लध्यान श्रुत ज्ञान के, विषय के सम्बन्ध से श्रुत के आश्रय से होते हैं। वितर्क श्रुतज्ञान रूप है। और वीचार अर्थ व्यजन और योगों की संक्राँति-परिर्वन का सूचक है। अंत के दो ध्यान जिनेन्द्र देव के सब प्रकार के आलम्बन से रहित होते हैं। पृथक्त्व वितर्क शुक्लध्यान में योगी एकाग्र चित्त हो कर एक अर्थ से दूसरे अर्थ का एक वचन से दूसरे वचन का, एक योग से दूसरे योग का तथा एक पर्याय से दूसरी पर्याय का आलंबन लेता हुआ एक द्रव्य Page #228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त 59/3-4 परमाणु से अन्य द्रव्य परमाणु का चिन्तन करता हआ महाकर्म का उपशम या क्षय करता है। इस प्रकार मोह क्षीण एंव कषायें शांत होने पर निर्मल मन युक्त योगी एकत्व वितर्क ध्यान योग्य हो जाता है। जिस शुक्ल ध्यान में योगी बिना खेद के एक द्रव्य, एक परमाणु और एक पर्याय का एक ही योग के द्वारा चिन्तन करना है, वह एकत्व वितर्क शुक्ल ध्यान कहलाता है। इस अतिशय निर्मल ध्यान रूप अग्नि के वृद्धिंगत होने पर योगी के घातिया कर्म क्षण भर में भस्म हो जाते हैं और योगी तेरहवें गुण स्थान सयोग केवली हो जाता हैं। उसका केवल ज्ञान सूर्य उदित होकर लोकालोक को प्रकाशित करने लगता है। इस प्रकार शुद्धोपयोग रूप परम आत्म ध्यान से चार घातिया कर्मों की सर्व सेंतालीस आयुकर्म की तीन एवं नाम कर्म की तेरह, कुल तिरेसठ कर्म प्रकृतियों का क्षय कर तीर्थकर /केवली के रूप में त्रिलोक पूज्य हो जाते सर्वज्ञ प्रभु अंतर्मुहूर्त आयु शेष रहने पर तृतीय- सूक्ष्मक्रिया प्रतिपाती शुक्ल ध्यान के योग्य होते हैं और वे वेदनीय नाम और गोत्र की स्थिति भी अंतरमुहूर्त रहने पर सूक्ष्य काय योग का अवलम्बन लेकर सूक्ष्मक्रिया प्रतिपाती ध्यान प्रारम्भ करते हैं। इससे चार अधातिया कर्मों की स्थिति समान हो जाती है। इससे अयोग कवली दुर्जय बहत्तर कर्म प्रकृतियाँ क्षय को प्राप्त होती है। फिर उसी क्षण व्युपरत क्रिया निवृत्ति नामक शुक्ल ध्यान प्रकट होता हैं जिससे वीतरागी प्रभु की अवशेष तेरह कर्म प्रकृतियाँ शीघ्र ही क्षय को प्राप्त हो जाती हैं और अयोग प्रभु आत्मा स्वरूप की सिद्धि को प्राप्त कर चौदहवें गुण स्थान में पाँच (अ इ उ ऋ ल) ह्रस्व अक्षरों के उच्चारण काल प्रमाण स्थित रहकर कर्म बधं से मुक्त हो सिद्धालय हेतु स्वभावतः ऊर्ध्वगमन करते हैं। प्रशस्त ध्यान की महत्ता उक्त विवेचन से यह स्पष्ट है कि यद्यपि आभ्यंतर और बाह्य तप Page #229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त 59/3-4 छह छह प्रकार के है; किन्तु कर्मक्षय अंततः आत्मध्यान एवं शुक्ल ध्यान से ही होता है। आचार्य कुंदकुंद के अनुसार जो कर्म अज्ञानी लक्ष कोटि भवों में खपाता है वह कर्म ज्ञानी तीन प्रकार से गुप्त (त्रिगुप्ति) होने से उच्छ्वास मात्र में खपा देता है (प्र.सार गा.238) आचार्य यति वृषभ के अनुसार जिस प्रकार चिर संचित ईधन को पवन युक्त अग्नि जला देती है, वैसे ही ध्यान रूपी अग्नि बहुत भारी कर्म ईधन को क्षण मात्र में जला देती है (तिलोय पण्णति 22)। रागादि परिग्रह से रहित मुनि शुक्ल ध्यान द्वारा अनेक भवों के संचित कर्मो को शीघ्र जला देता है (तिलोय. 64) जो दर्शन मोह और चारित्र मोह को नष्ट कर विषयों से विरक्त होता हुआ मन को रोककर आत्म स्वभाव में स्थित होता है, वह कर्म बंध तोडकर मोक्ष सुख पाता है (तिलोय. 23/48)। इस दृष्टि से आत्म ध्यान एवं शुद्धोपयोग रूप शुक्ल ध्यान कर्मक्षय की अचूक ओषधि है जिसमें धर्म ध्यान शुभोपयोग रूप साधक का कार्य करता है। ऐसी पवित्र ध्यान आत्मध्यान सभी को इष्ट हो यही कामना है। समग्र रूप से विश्व की सभी जीवात्मायें अपना ज्ञातादृष्टा अकर्ता-अभोत्ता निर्ममत्व स्वरूप समझ कर स्व-स्वरूप में अपनत्व स्थापित कर तथा स्व-स्वरूप के शुद्ध-ध्यान (शुद्धोपयोग रूप) में स्थित-लीन होकर स्वयं अपने ही पुरुषार्थ से बिना किसी पर की अपेक्षा किये हुये, विकार, विभावों एवं जड़ कर्मबन्धनों से मुक्त होकर सिद्ध परमात्मा हो सकती है। यह सब आत्म-ध्यान का ही फल है। बी 369, ओ.पी.एम. कालोनी अमंलाई पेपरमिल अमलाई शहडोल (म.प्र.) Page #230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन साहित्य और पुरातत्त्व के परिप्रेक्ष्य में सप्तम तीर्थङ्कर सुपार्श्वनाथ का जीवन चरित एवं पञ्च कल्याणक भूमियाँ डॉ. कमलेश कुमार जैन यस्तीर्थं स्वार्थसम्पन्नः परार्थमुदपादयत् । सप्तमं तु नमस्तस्मै सुपाशर्वाय कृतात्मने ।। वर्तमान अवसर्पिणी काल के चौबीस तीर्थङ्करोंमें सातवें तीर्थङ्कर भगवान् सुपार्श्वनाथ का जन्म काशी जनपद में हुआ था । तदनन्तर क्रमशः आठवें तीर्थङ्कर भगवान् चन्द्रप्रभ, ग्यारहवें तीर्थङ्कर श्रेयांसनाथ और तेइसवें तीर्थङ्कर भगवान् पार्श्वनाथ का जन्म भी इसी काशी जनपद में हुआ । उपर्युक्त चार तीर्थङ्करों में से भगवान् सुपार्श्वनाथ और भगवान् पार्श्वनाथ के नाम में एकदेश साम्य है । किन्तु भगवान् सुपार्श्वनाथ का चिह्न नन्द्यावर्त स्वस्तिक है और भगवान् पार्श्वनाथ का चिह्न सर्प (नाग) है । अतः दोनों तीर्थङ्कर पृथक्-पृथक् हैं, एक नहीं ! काल की अपेक्षा तीर्थङ्कर पार्श्वनाथ परवर्ती हैं और जन-जन की श्रद्धा से जुड़े हैं तथा तीर्थङ्कर सुपार्श्वनाथ पूर्ववर्ती हैं और उपकारक होने से यद्यपि वे जन-जीवन से जुड़े हैं तथापि काल की अपेक्षा पर्याप्त पूर्ववर्ती होने से दोनों के मध्य एक लम्बा अन्तराल है। इन सबके बावजूद नामसाम्य के कारण सामान्य लोगों में दोनों तीर्थङ्कर इतने घुलमिल गये कि तीर्थङ्कर पार्श्वनाथ का जन-जीवन से निकट का सम्बन्ध होने के कारण उनका चिह्न सर्प (नाग) तीर्थङ्कर सुपार्श्वनाथ के साथ भी जुड़ गया । फलस्वरूप तीर्थङ्कर पार्श्वनाथ के ऊपर कमठकृत उपसर्ग का निवारण करते हुये पद्मावती और धरणेन्द्र में से ऊपर फणावली के माध्यम से तीर्थङ्कर पार्श्वनाथ की रक्षा करने वाले धरणेन्द्र की फणावली Page #231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त 59/3-4 तीर्थङ्कर सुपार्श्वनाथ से भी जुड़ गई और तीर्थङ्कर पार्श्वनाथ की मूर्तियों की प्रतीक फणावली तीर्थकर सुपार्श्वनाथ की मूर्तियों का भी एक अङ्ग बन गई। अतः तीर्थङ्कर सुपार्श्वनाथ की अनेक मूर्तियों पर आज भी यह फणावली देखी जा सकती है। प्रायः ऐसा माना जाता है कि तीर्थङ्कर पार्श्वनाथ की मूर्तियों पर सप्तफणों से युक्त फणावली होती है और तीर्थङ्कर सुपार्श्वनाथ की मूर्तियों पर पञ्चफणों से युक्त फणावली। किन्तु तथ्य कुछ और ही है। क्योंकि तीर्थङ्कर पार्श्वनाथ की मूर्तियों पर सप्त-फणावली से लेकर सहस्र-फणावली तक पाई जाती है, जबकि तीर्थङ्कर सुपार्श्वनाथ की मूर्तियों पर पञ्च और सप्त-फणों से युक्त फणावली श्रवणबेलगोलस्थ चन्द्रगिरि पर विराजमान तीर्थङ्कर सुपार्श्वनाथ की मूर्ति पर सप्त-फणावली सुशोभित है। इस फणावली की साम्यता के बावजूद काल की अपेक्षा तीर्थङ्कर सुपार्श्वनाथ पूर्ववर्ती अर्थात् बड़े हैं और तीर्थङ्कर पार्श्वनाथ परवर्ती अर्थात् छोटे हैं। इसीलिये काशी और उसके आसपास के क्षेत्रों में आज भी ये क्रमशः बड़े गुरु और छोटे गुरु के प्रतीक हैं। वैदिक परम्परा में नाग का सम्बन्ध योगिराज श्रीकृष्ण से जुड़ा है, क्योंकि उन्होंने यमुना नदी वासी कालिया नाग का मान मर्दन किया था। वैदिक संस्कृति से जुड़े योगिराज श्रीकृष्ण के जन्म काल जन्माष्टमी एवं वैदिक संस्कृति में ही नाग पञ्चमी के दिन नाग पूजा होने के कारण भी वैदिक संस्कृति से नाग का निकट का सम्बन्ध है। इस प्रकार श्रमण और वैदिक- दोनों संस्कृतियों से नाग का गहरा सम्बन्ध है। अतः नागपञ्चमी और योगिराज श्रीकृष्ण के जन्मकाल जन्माष्टमी के अवसर पर काशी और उसके आसपास के क्षेत्रों की गलियों में आज भी बच्चे नाग का चित्र बेचने के लिये जोर-जोर से आवाज लगाते हैं कि बड़े गरु का नाग लो भाई बड़े गुरु का नाग लो। छोटे गुरु का नाग लो भाई छोटे गुरु का नाग लो। इस प्रकार लोक-जीवन में नाग के चित्रों को बेचने की जो प्रक्रिया Page #232 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त 59/3-4 है उसका मूल सम्बन्ध बड़े गुरु तीर्थङ्कर सुपार्श्वनाथ और छोटे गुरु तीर्थङ्कर पार्श्वनाथ की परम्परा से जुड़ा है और जैन संस्कृति में प्रतीक रूप में आज भी विद्यमान है। इस प्रकार लोक जीवन पर व्यापक प्रभाव डालने वाले तीर्थङ्कर सुपार्श्वनाथ के पूर्वभव के सम्बन्ध में शास्त्रों में उल्लेख मिलता है कि धातकी खण्ड के पूर्व विदेह क्षेत्र में में सीता नदी के उत्तर तट पर सुकच्छ नाम का एक देश है। उसके क्षेमपुर नामक नगर में नन्दिषेण नाम का एक राजा राज्य करता था। वह अन्यन्त चतुर और पराक्रमी था। उसने अपने बन्धुओं, मित्रों तथा सेवकों के साथ बहुत समय तक राज्य सुख का अनुभव किया, किन्तु उसे वैराग्य हो गया। अतः उसने धनपति नामक अपने पुत्र को राज्य का भार सौंप दिया और अन्य अनेक राजाओं के साथ मुनिश्री अर्हन्नन्दन के पास जैनेश्वरी दीक्षा ग्रहण कर ली। पुनः षोडश कारण भावनाओं को भाते हुये उस राजा ने तीर्थङ्कर नामकर्म का बन्ध किया। आयुष्यकर्म के समाप्त होने पर संन्यास पूर्वक मरण करने के कारण उसने मध्यम ग्रैवेयक के सुभद्र नामक मध्यम विमान में अहभिन्द्र के रूप में जन्म लिया। वहाँ वह शुक्ल लेश्या का धारक था। उसकी ऊँचाई दो हाथ और आयु सत्ताइस सागर थी। इस अवधि में स्वर्ग के समस्त सुख भोगकर अन्त में जब पृथ्वी तल पर अवतीर्ण होने का समय आया तो वे वाराणसी के अधिपति इक्ष्वाकुकुलशिरोमणि महाराजा सुप्रतिष्ठित की महारानी माता पृथिवी सेना की कुक्षि (गभ) में भाद्रपद शुक्ला षष्ठी को आये और ज्येष्ठ शुक्ला द्वादशी के दिन विशाखा नक्षत्र में षष्ठ तीर्थङ्कर भगगवान् पद्मप्रभ के जन्म के दस लाख पूर्व सहित नौ हजार करोड़ सागरोपम के व्यतीत हो जाने पर उनका जन्म हुआ। नील वर्ण से सुशोभित तीर्थङ्कर सुपार्श्वनाथ की आयु चौरासी लाख पूर्व और ऊँचाई दो सौ धनुष थी। उनका -राज्यकाल बीस पूर्वाङ्ग सहित चौदह लाख पूर्व प्रमाण था। उन्हें जब वन लक्ष्मी का विनाश देखकर Page #233 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त 59 / 3-4 वैराग्य उत्पन्न हुआ तो वे ज्येष्ठ शुक्ला द्वादशी के दिन पूर्वाह्न में विशाखा नक्षत्र में मनोमति नाम की पालकी में आरूढ होकर सहेतुक वन गये और तृतीय उपवास के साथ काशी में जैनेश्वरी दीक्षा ग्रहण कर ली। आपके साथ एक हजार राजकुमारों ने भी दीक्षा ग्रहण की थी । दीक्षित होने के पश्चात् वे चर्या के लिये सर्वप्रथम सामखेट नामक नगर गये । वे छद्मस्थ अवस्था में नौ वर्ष तक मौन रहे। कुछ समय पश्चात् फाल्गुन कृष्णा षष्ठी को उन्हें केवल ज्ञान की प्राप्ति हुई । 96 केवली अवस्था में वे बल आदि पच्चानवे गणधरों से घिरे रहते थे तथा दो हजार तीस पूर्वधारियों के अधिपति थे। दो लाख चबालीस हजार नौ सौ बीस शिक्षक उनके साथ रहते थे। नौ हजार अवधिज्ञानी उनकी सेवा करते थे । ग्यारह हजार केवलज्ञानी उनके सहगामी थे । पन्द्रह हजार तीन सौ विक्रियाऋद्धि के धारक उनकी पूजा करते थे। नौ हजार एक सौ पचास मन:पर्ययज्ञानी उनके साथ रहते थे । और आठ हजार छह सौ वादी उनकी वन्दना करते थे इस प्रकार सब मिलाकर वे तीन लाख मुनियों के स्वामी थे । मीनार्या आदि तीन लाख श्रावक और पाँच लाख श्राविकाएँ उनकी पूजा करती थीं। इस प्रकार वे विहार करते हुये उन्होंने एक लाख पूर्व 20 पूर्वाङ्ग 9 वर्ष तक धर्मतीर्थ का प्रवर्तन किया ।" जब आयु एक माह शेष रह गया तब तीर्थङ्कर सुपार्श्वनाथ श्रीविहार बन्दकर सम्मेद शिखर पहुॅचे। वहाँ एक हजार मुनियों के साथ प्रतिमा योग धारण किया और फाल्गुन कृष्णा सप्तमी के दिन विशाखा नक्षत्र में सूर्योदय के समय प्रभास कूट से मुक्ति प्राप्त की । तत्पश्चात् पुण्यवान् कल्पवासी उत्तम देवों ने तीर्थङ्कर सुपार्श्वनाथ का मोक्ष कल्याणक मनाया ।' मोक्षगमन के पश्चात् तीर्थङ्कर सुपार्श्वनाथ की निर्वाण स्थली प्रभास कूट से 49 कोड़ाकोड़ी, 84 करोड़, 72 लाख 7 हजार 742 मुनिराजों ने क्षपकश्रेणी का अवलम्बन लेकर घातिया कर्मों का भी क्षय कर प्रभास कूट से निर्वाण प्राप्त किया । Page #234 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त 59 / 3-4 प्रभास कूट की वन्दना करने से भव्य जीवों को 32 करोड़ प्रोषधोपवास से प्राप्त होने वाले फल की प्राप्ति होती है । " 97 तीर्थङ्कर पार्श्वनाथ से एक हजार करोड़ सागरोपम में से 41943 हजार और साढ़े आठ माह कम कर देने पर जितना समय शेष रहता है उतने समय पूर्व तीर्थकर सुपार्श्वनाथ का निर्वाण हुआ था | 10 तीर्थङ्कर सुपार्श्व विषयक साहित्य : भगवान् सुपार्श्वनाथ के सन्दर्भ में सम्प्रति तीन प्रकार का साहित्य उपलब्ध हैं- काव्य साहित्य, 2. स्तुति साहित्य और पूजा साहित्य । प्रथम काव्य साहित्य भगवान् के पूर्वभव सहित सम्पूर्ण जीवन-चरित पर प्रकाश डालता है। द्वितीय स्तुति - साहित्य में भगवान् सुपार्श्वनाथ की स्तुति की गई है और तृतीय पूजा साहित्य में भगवान् सुपार्श्वनाथ के कतिपय गुणों का विवेचन किया गया है। इसके अतिरिक्त कुछ स्फुट रचनाएँ भी है, जिनमें चौबीस तीर्थङ्करों को नमस्कार करने के क्रम में सप्तम तीर्थङ्कर भगवान् सुपार्श्वनाथ को भी नमस्कार किया गया है। विस्तृत विवेचन इस प्रकार है काव्य साहित्य : जिनरत्न कोश में सुपार्श्व चरित के नाम से सम्बद्ध तीन चरित - काव्यों का उल्लेख किया गया है । " सुपासनाहचरिय- विक्रम की बारहवीं शती के अन्त ( वि.सं. 1199 ) में हर्षपुरीय गच्छ के श्री हेमचन्द्रसूरि के शिष्य श्री लक्ष्मणगणि द्वारा प्राकृत भाषा में निबद्ध सुपासनाहचरिय एक अत्यन्त महत्त्वपूर्ण एवं उच्चकोटि की रचना है। इसमें लगभग आठ हजार गाथाओं में सप्तम तीर्थङ्कर भगवान् सुपार्श्वनाथ का चरित विस्तार से दिया गया है। यह ग्रन्थ तीन प्रस्तावों में विभक्त है। इसके प्रथम प्रस्ताव में सुपार्श्वनाथ के पूर्वभवों का वर्णन है और Page #235 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त 59/3-4 शेष भाग में उनके वर्तमान कालीन भव का। प्रथम प्रस्ताव में सुपार्श्वनाथ के मनुष्य एव देवभवों का विस्तृत विवेचन है, जिसमें लक्ष्मरागणि ने बतलाया है कि किस प्रकार अनेक भवों में सम्यक्त्व एवं संयम के प्रभाव से अपने व्यक्तित्व का विकास किया या और अन्त में तीर्थङ्कर प्रकृति का बन्धकर सप्तम तीर्थङ्कर का पद प्राप्त किया था। द्वितीय प्रस्ताव में तीर्थङ्कर सुपार्श्वनाथ के जन्म, विवाह और निष्क्रमण आदि का वर्णन है। इस प्रकार इसमें विविध धर्मोपदेशों और कथाओं के माध्यम से भगवान् सुपार्श्वनाथ का चरित्र-चित्रण किया गया है। साथ ही सम्यग्दर्शन का माहात्म्य, श्रावक के बारह व्रत और उनके अतिचार तथा अन्य धार्मिक विषयों को भी विविध कथाओं के माध्यम से प्रस्तुत किया है। इन कथाओं में तत्कालीन बुद्धि-वैभव, कला-कौशल, आचार-व्यवहार, सामाजिक रीति-रिवाजों, राजकीय परिस्थितियों एवं नैतिक-जीवन को उन्नत बनाने वाले विविध प्रसंगों पर प्रकाश डाला है।12 अन्य सुपार्श्वनाथ चरित्र- उपर्युक्त के अतिरिक्त जालिहर गच्छ के सर्वानन्द के प्रशिष्य एवं धर्मघोषसूरि के शिष्य तथा पट्टधर श्री देवसूरि (विक्रम की तेरहवी शताब्दी) के द्वारा भी प्राकृत भाषा में रचित एक सुपार्श्वनाथचरित का उल्लेख मिलता है। इसी क्रम में विबुधाचार्य द्वारा प्राकृत भाषा में रचित एक सुपार्श्वचरित्र का उल्लेख है। इनके अतिरिक्त एक अज्ञातकर्तृक सुपार्श्वनाथचरित्र तथा संस्कृत भाषा में निबद्ध एक अन्य सुपार्श्वनाथचरित्र का भी उल्लेख है। स्तोत्र-साहित्य : स्वयंभू स्तोत्र- यह आचार्य समन्तभद्र की रचना है। इसमें उन्होंने ऋषभादि से लेकर महावीर पर्यन्त कुल चौबीस तीर्थङ्करों की स्तुति की है। सातवें क्रम में भगवान् सुपार्श्वनाथ की कुल पाँच पद्यों में स्तुति की Page #236 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त 59/3-4 है, जिनमें कहा गया है कि-अविनाशी स्वरूप में लीन होना जीव का प्रयोजन है, क्षणभंगुर भोगों में नही। भोगाकांक्षा से ताप की शान्ति नहीं होती है। जिस प्रकार गतिशील मनुष्य के द्वारा चलाया जाने वाला यन्त्र गति रहित होता है, उसी प्रकार जीव के द्वारा धारण किया गया शरीर गति रहित है। यह शरीर दुर्गन्ध युक्त एवं विनाशशील है, अतः इससे अनुराग करना उचित नहीं है। अशुभ कर्मों के फलस्वरूप भवितव्यता को कोई टाल नहीं सकता है। अहङ्कार के वशीभूत संसारी प्राणी अनेक कारणों को मिलाकर भी सुख-दुःखादि कार्यों को करने में असमर्थ है। जीव मृत्यु से डरता है, किन्तु उससे छुटकारा नहीं है। व्यक्ति मोक्ष चाहता है, किन्तु उसकी प्राप्ति नहीं होती है। फिर भी भय और काम के वशीभूत हुआ अज्ञानी जीव व्यर्थ दुःखी होता है। हे सुपार्श्वनाथ भगवान आप सभी तत्त्वों के ज्ञाता हैं और माता की तरह अज्ञानियों के हितसाधक हैं। सम्यग्दर्शनादि गुणों के अन्वेषक जनों के आप नेता हैं। अतः आज मैं भी भक्तिपूर्वक आपकी वन्दना करता हूँ। स्तुतिविद्या- इसका अपरनाम जिनशतक भी है। यह आचार्य समन्तभद्र की कृति है। इसमें उन्होंने ऋषभादि चौबीस तीर्थङ्करों की स्तुति अलंकृत भाषा में की है। सातवें क्रम में तीर्थङ्कर सुपार्श्वनाथ की मात्र एक पद्य में स्तुति की है। इसमें वे कहते हैं कि हे सुपार्श्वनाथ भगवन्! आप स्तुति करने वाले और निन्दा करने वाले के विषय में समान हैं। सबको पवित्र करने वाले हैं। आप अकेले होते हुये भी नेता की तरह सबके द्वारा सेवनीय हैं स्तुवाने कोपने चैव समानो पन्न पावकः। भवानेकोपि नेतेव त्वमाश्रेयः सुपार्श्वकः।। लघुतत्त्वस्फोट- इसका अपर नाम शक्तिमणित कोश भी है। यह आचार्य अमृतचन्द्रसूरि द्वारा लिखित एक स्तुतिपरक ग्रन्थ है। इसमें आचार्यश्री ने विविध पच्चीस विषयों का पच्चीस-पच्चीस पद्यों में विवेचन किया है। प्रथम पञ्चविंशतिका में समुच्चय रूप से चौबीस तीर्थङ्कर की स्तुति की गई है। पुनः आचार्य अमृतचन्द्रसूरि ने तीर्थङ्करों Page #237 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1000 अनेकान्त 59/3-4 को लक्ष्य में रखकर स्तुति के बहाने अध्यात्मरस की वर्षा करते हुये दार्शनिक विषयों का विवेचन दिया है। ये सभी स्तुतियाँ सामान्य हैं किसी तीर्थङ्कर विशेष से सम्बद्ध न होकर मात्र ज्ञानज्योति से सम्बद्ध इस ग्रन्थ में आठवीं स्तुति उपजाति छन्द में है। इसमें आपने स्पष्ट किया है कि कषाय बन्ध का कारण है। इसलिए आपने कषाय-क्षय को ही मुक्ति का कारण माना है। आगे वे कहते हैं कि- हे भगवन् ! आपने अपनी शक्ति का उत्तरोत्तर विकास करते हुये कषायों के ऊपर ऐसा प्रहार किया है कि सभी कषायें स्वतः नष्ट हो गई और केवलज्ञान प्रकट हो गया। ज्ञानपुञ्ज होने के पश्चात् आयुष्य कर्म के शेष रहने के कारण आप उसे भोगने के लिये विवश हो गये, अतः आपने धर्मतीर्थ का प्रवर्तन किया। ___ आचार्य अमृतचन्द्र आगे कहते हैं कि तीर्थ से तीर्थङ्कर और तीर्थङ्कर से तीर्थ का प्रवर्तन होने के कारण आप बीजाङ्कर न्याय से कार्यकारण भाव रूप हैं। सर्वज्ञ होकर भी शब्दों की अशक्ति के कारण आपने समस्त पदार्थो का अनन्तवाँ भाग ही कहा है। आपके शब्द स्याद्वादरूप मुद्रा से युक्त हैं। सापेक्ष दृष्टि से विश्व एकरूप भी है और अनेक रूप भी है। जिस प्रकार पयोरसज्ञ बिलाव अग्नि से तप्त दुग्ध को पीते हुये महादुःख के भार को सुख रूप समझता है, उसी प्रकार समतारूप रस के ज्ञाता मुनियों को महादःखरूप भार सुखरूप ही प्रतीत होता है। शब्दरूप ब्रह्म आपके केवल ज्ञान रूप मण्डप के एक कोने का चुम्बन करता हुआ प्रतीत होता है, अतः लोक में आप ही एक परम ब्रह्म हैं। श्री चतुर्विंशति सन्धान महाकाव्य- यह कृति महाकवि पण्डित जगन्नाथ (वि.सं. 1729 के आसपास) की है। इसमें संस्कृत भाषा में निबद्ध एक मात्र पद्य है। जो पच्चीस बार लिखा गया है। इसमें चौबीस तीर्थङ्करों की स्तुति की गई है। इसकी विशेषता यह है कि इस एक पद्य के ही भिन्न-भिन्न अर्थ करने पर कुल पच्चीस अर्थ निकलते हैं। प्रथम अर्थ में समुच्चय रूप से चौबीस तीर्थङ्करों की स्तुति रूप अर्थ निकलता Page #238 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त 59/3-4 __101 है। तदनन्तर ऋषभादि से लेकर महावीर पर्यन्त क्रमशः प्रत्येक तीर्थङ्कर का स्तुति परक अर्थ निकलता है। सातवें क्रम में उसी एक पद्य का अर्थ महाकवि जगन्नाथ ने अपनी स्वोपज्ञ टीका में भगवान् सुपार्श्वनाथ का स्तुतिपरक अर्थ निकाला है। स्रग्धरा छन्द में लिखा गया वह पद्य इस प्रकार हैश्रेयान् श्रीवासुपूज्यो, वृषभजिनपतिः श्रीदुमावोयधर्मों। हर्यतःपुष्पदन्तो, मुनिसुव्रतजिनोऽनन्तवाक श्रीसुपावः। शान्ति पद्मप्रभोरो, विमलविभुरसौ वर्धमानोऽप्यजातो, मल्लिर्नेमिनमिमा सुमतिरवतु सच्छीजगन्नाथधीरम्॥7॥16क सुपार्श्वनाथ स्तोत्र- जिनरतनकोश में संस्कृत भाषा में रचित एक सुपार्श्वनाथ स्तोत्र का उल्लेख है।6ख चौबीसी- तेरापंथ के चतुर्थ आचार्य श्रीमज्जयाचार्य ने वि.स. 1900 में राजस्थानी भाषा में एक चौबीसी की रचना की थी। यह रचना अत्यन्त भावपूर्ण है। इममें उन्होंने ऋषभादि चौबीस तीर्थङ्करों की स्तुति की है। 17 पद्यों की प्रस्तावना के साथ प्रत्येक तीर्थङ्कर की स्तुति सात-सात पद्यों में है। सातवें क्रम में श्रीमज्जयाचार्य भगवान सुपार्श्वनाथ की स्तुति करते हुये कहते हैं कि- प्रतिदिन सुपार्श्व स्वामी का भजन करे। देव और मनुष्य अपकी सेवा करते हैं। आपके प्रतिबोधन से लोग उदासीन हो जाते हैं। चक्रवर्ती की खीर और क्षीर समुद्र का नीर - दोनों अत्यधिक मधुर होते हैं, किन्तु आपकी वाणी में उससे भी अधिक मिठास है। हे प्रभो। तुम दीन दयाल हो और अशरणों के शरण हो। मैं तुम्हारा दास हूँ। तुम मेरी अभिलाषा पूर्ण करो।" पूजा सहित्य : पूजा के माध्यम से व्यक्ति अपनी भावनाओं को वैसे ही व्यक्त करता है जैसे स्तोत्र अथवा स्तुति के माध्यम से करता है। अन्तर मात्र इतना है कि पूजा के साथ द्रव्य भी समर्पण किया जाता है। और Page #239 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त 59 / 3-4 कभी-कभी नृत्य एवं सङ्गीत का भी समायोजन किया जाता है। पूजा एकाकी भी की जाती है और सामूहिक रूप में भी । 1 102 भगवान् सुपार्श्वनाथ पूजा की रचना भी इसी उद्देश्य की पूर्ति करती है । सम्प्रति कविवर बख्तावर, कविवर वृन्दावन एवं श्री राजमल पवैया ने पूजा के माध्यम से भगवान् सुपार्श्वनाथ का गुणगान करते हुये अपनी श्रद्धा-भक्ति प्रदर्शित की है । 18 गुरु ग्रह की शान्ति के लिये जिन तीर्थङ्करों की जाप्य का विधान है उनमें तीर्थङ्कर सुपार्श्वनाथ के जाप्य करने का भी उल्लेख है । 19 पुरातत्व में सुपार्श्वनाथ : तीर्थकर सुपार्श्वनाथ के सम्बन्ध में जो पुरातात्विक साक्ष्य मिले हैं, उनमें मथुरा के सम्बन्ध का कङ्काली टीला प्रमुख है और प्रायः इसी को आधार बनाकर अनेक विद्वानों ने अपने अपने ग्रन्थों में इसका उल्लेख किया है। इसी को आधार बनाकर पं. बलभद्र जैन ने लिखा है कि" मथुरा के कङ्काली टीले पर एक स्तूप के ध्वंसावशेष प्राप्त हुये हैं । आचार्य जिनप्रभस्रि ने इस स्तूप के सम्बन्ध में विविधतीर्थकल्प में लिखा है की इस स्तूप को कुबेरादेवी ने सुपार्श्वनाथ के काल में सोने का बनाया था और उस पर सुपार्श्वनाथ की मूर्ति स्थापित की थी । फिर पार्श्वनाथ के काल में उसे ईटों से ढक दिया। आठवीं शताब्दी में भट्ट ने इसका जीर्णोद्धार किया था, किन्तु सोमदेव सूरि ने यशस्तिलक चम्पू (6/17 - 18 ) में एवं हरिषेण कथाकोश में वज्रकुमार की कथा के अन्तर्गत इस स्तूप को वज्रकुमार के निमित्त विद्याधरों द्वारा निर्मित बताया है। आचार्य सोमदेव ने तो उस स्तूप के दर्शन भी किये थे और उसे देवनिर्मित लिखा है। इस स्तूप का जीर्णोद्धार साहू टोडर ने भी किया था, इस प्रकार की सूचना कवि राजमल्ल ने जम्बूस्वामी चरित्र में दी है। उन्होंने भी इस स्तूप के दर्शन किये थे। उस समय वहाँ 514 स्तूप थे । "20 Page #240 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त 59/3-4 100 आगे उन्होंने लिखा है कि- “कुषाणकाल का एक आयागपट्ट मिला है, उसमें भी इस स्तूप को देवनिर्मित लिखा है। पं. बलभद्र जैन के उपर्युक्त कथन का समर्थन अमलानन्द घोष ने भी किया है। ___ प्रो. रमेशचन्द्र शर्मा ने एक मान्यता के आधार पर लिखा है कि सर्वप्रथम एक ही मूल स्तूप था, कालान्तर में उनकी सख्या 5 हुई तदनन्तर छोटे-छोटे 527 स्तूप बन गये, जिनकी पूजा 17वीं शताब्दी तक होती रही। 1583 ई. में साह टोडर द्वारा 514 स्तूपों की प्रतिष्ठा की गई।23 ___ भगवान् सुपार्श्वनाथ के सेवक यक्ष का नाम परनन्दी और यक्षिणी का नाम काली है।24 सुपार्श्वनाथ की प्राचीन मूर्तियाँ : ____ श्री गोकुलचन्द दिगम्बर जैन मन्दिर ग्वालियर (म.प्र.) में भगवान् सुपार्श्वनाथ की एक मूर्ति विराजमान है, जिसकी प्रतिष्ठा वि.स. 1125 में हुई भी।25 इसी प्रकार बदनावर से प्राप्त भगवान सुपार्श्वनाथ की एक प्रतिमा जयसिंहपुरा पुरातत्त्व संग्रहालय उज्जैन में मूर्ति क्रमाङ्क 165 में उपलब्ध है। इसकी प्रतिष्ठा वि.स. 1222 में हुई थी।25 सुपार्श्वनाथ की जन्मभूमि काशी : भगवान् सुपार्श्वनाथ की जन्मभूमि काशी के एक मुहल्ले भदैनी में है। भदैनी भद्रावनि अथवा भद्रवन का भ्रष्ट रूप है। भदैनी में भगवान् सुपाश्वर्वनाथ के कुल तीन मन्दिर हैं, जिनमें एक श्वेताम्बर मन्दिर है और शेष दो दिगम्बर मन्दिर। दोनों दिगम्बर मन्दिरों में से एक मन्दिर छेदीलाल के मन्दिर के नाम से प्रसिद्ध है और दूसरा मन्दिर बाबू सुबोधकुमार जैन आरा (बिहार) के पूर्वजों द्वारा निर्मित है। यहीं पूज्य क्षुल्लक गणेश प्रसाद वर्णी द्वारा स्थापित श्री स्याद्वाद महाविद्यालय है, जहाँ से सैकड़ों जैन विद्वान तैयार हुये हैं। यह विद्यालय अपने स्थापना Page #241 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 104 अनेकान्त 59/3-4 काल के सौ वर्ष पूर्ण कर चुका है उपर्युक्त तीनों मन्दिर पास-पास स्थित हैं तथा तीनों ही भगवान् सुपार्श्वनाथ के गर्भ, जन्म, तप और ज्ञान-इन चार कल्याणकों के लिये प्रसिद्ध हैं किन्तु बाबू सुबोधकुमार जैन के पूर्वजों द्वारा निर्मित एवं श्री स्याद्वाद महाविद्यालय से सटे हुये मन्दिर में छतरी है और प्राचीन चरण भी, अतः जनसामान्य की दृष्टि में यही दिगम्बर जैन मन्दिर भगवान सुपार्श्वनाथ की जन्मभूमि के रूप में प्रसिद्ध है। सुपार्श्वनाथ की निर्वाणभूमि सम्मेद शिखर : __ श्री सम्मेद शिखर चौबीस तीर्थङ्करों में से बीस तीर्थङ्करों एवं अन्य करोडो मनिराजों की निर्वाणभूमि है। यह 'पार्श्वनाथ हिल' के नाम से भी विख्यात है। क्योंकि तैइसवें तीर्थङ्कर भगवान पार्श्वनाथ की निर्वाण स्थली टोंक/चोटी सबसे ऊँची है। इसकी उपत्यका (तलहटी) में बसा हुआ कस्बा मधुवन कहलाता है। जहाँ पहाड़ के ऊपर विविध तीर्थङ्करों के चरण चिह्न हैं, वहीं मधुवन में अनेक मन्दिर हैं जो गगनचुम्बी शिखरों से युक्त हैं। यहाँ अनेक संस्थाओं के विशाल भवन भी हैं। यह स्थान पारसनाथ स्टेशन अथवा ईसरी से लगभग बीस किलोमीटर दूर है मघुवन जाने का रास्ता एवं पर्वतराज का दृश्य बड़ा ही मनोहर है। इस पर्वत की सबसे ऊँची चोटी सम्मेद शिखर कहलाती है। यह शब्द सम्भेद शिखर का रूपान्तर प्रतीत होता है। इसकी निष्पत्ति सम् मद अर्थ में क अथवा अच् प्रत्यय करने पर हर्ष या हर्षयुक्त होगा। कुछ लोगों का अनुमान है कि जैन श्रमण इस पर्वत पर तपस्यायें किया करते थे, इसलिए इस पर्वत की ऊँची चोटी का नाम समण शिखर से सम्मेद शिखर हो गया। इस पर्वत से अन्य उन्नीस तीर्थङ्करों एवं करोड़ों मुनिराजों के अलावा प्रभासकूट से तीर्थङ्कर सुपार्श्वनाथ ने निर्वाण प्राप्त किया है, अतः यह भूमि धन्य है। प्रणम्य है। भाव सहित इस क्षेत्र के दर्शन-पूजन करने से 49 भव में नियम से Page #242 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त 59/3-4 106 निर्वाण प्राप्त होता है तथा नरक और तिर्यञ्च गति का बन्ध नहीं होता है।28 अन्त में मात्र इतना ही कहना है कि - जो पहले भव में क्षेमपुर नगर के स्वामी तथा सबके द्वारा स्तुति करने योग्य नन्दिषेण राजा हुये। फिर तप कर नव ग्रैवेयकों में से मध्य के ग्रैवेयक में अहमिन्द्र हुये, तदनन्तर बनारस नगरी में शत्रुओं को जीतने वाले और इक्ष्वाकु कुल के तिलक महाराजा सुपार्श्व हुये वे सप्तम तीर्थङ्कर आप सबकी रक्षा करें। सन्दर्भ: 1. जैनधर्म का प्रचीन इतिहास, प्रथम भाग, पृष्ठ 129, 2. (क) जैनधर्म का प्राचीन इतिहास प्रथम भाग, पृष्ठ 128, 3 (ख) भगवान् महावीर और उनका तत्त्व दर्शन, पृष्ठ 215-218, 4. वही, पृष्ठ 216, 5. वही, पृष्ठ 217, 6. वही, पृष्ठ 217, 7. वही, पृष्ठ 217, 8. ग्रन्थराज ध्यानतीर्थ श्री सम्भेद शिखर जी, पृष्ठ 137, 9. वही, पृष्ठ 137, 10. श्री बनारस पार्श्वप्रभु प्रतिष्ठा महोत्सव स्मारिका-2000, पृष्ठ 21, 11. जिनरत्नकोश, पृष्ठ 445, 12. जैन साहित्य का बृहद् इतिहास, भाग 6, पृष्ठ 81-82, 13. जिनरत्नकोश, पृष्ठ 445, 14. जिनरत्नकोश, पृष्ठ 445, 15. स्तुतिविद्या, पद्य 29, 16. (क) श्री चतुर्विंशति सन्धान महाकाव्य, पद्य 7, 16. (ख) जिनरलकोश, पृष्ठ 445, 17. जैन भारती (वीतराग वन्दना विशेषाङ्क), वर्ष 42 अङ्क 9-10 सित.-अक्टू. 94 पृष्ठ 7, 18. (क) जैन पूजा-काव्य . एक चिन्तन, पृष्ठ 381, (ख) जिनेन्द्र पूजाञ्जलि, पृ.112, 19. जैन पूजा काव्य : एक अनुचिन्तन, पृष्ठ. 252, 20. जैनधर्म का प्राचीन इतिहास, प्रथम भाग, पृष्ठ 129, 21. जैनधर्म का प्राचीन इतिहास, प्रथम भाग, पृष्ठ 129, 22. जैन कला एवं स्थापत्य, पृष्ठ 52, 23. मथुरा का सांस्कृतिक जैन पुरा वैभव, पृष्ठ 23, 24. जैनधर्म का प्राचीन इतिहास, प्रथम भाग, पृष्ठ 129, 25. भारतीय दिगम्बर जैन अभिलेख, पृष्ठ 54, 26. भारतीय दिगम्बर जैन अभिलेख, पृष्ठ 191, 27. भगवान् महावीर और उनका तत्त्वदर्शन, पृष्ठ 516, 28. भगवान् महावीर और उनका तत्त्वदर्शन, पृष्ठ 517, 29. भगवान् महावीर और उनका तत्त्वदर्शन, पृष्ठ 218 प्रोफसर-जैनदर्शन संस्कृत विद्या एवं धर्म विज्ञान संकाय काशी हिन्दू विश्वविद्यालय वाराणसी Page #243 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ब्रह्मचर्यदर्शन और उसकी सामाजिक उपयोगिता - डॉ. अशोककुमार जैन व्यक्ति को निराकुल और शुद्ध बनाने के लिए भगवान महावीर ने अहिंसा, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह पर बहुत बल दिया और बताया कि जब तक मनुष्य प्राणिमात्र के साथ आत्मतुल्यता की भावना नहीं बनाता, सब प्राणियों को अपने ही समान जीने का अधिकार नहीं मानता तब तक उसके मन में सर्वोदयी अहिंसा का विकास नहीं हो सकता। वासनाओं पर विजय पाना ही सच्ची शुद्धि है और उसकी कसौटी है ब्रह्मचर्य की पूर्णता। भगवती आराधना में लिखा है जीवो बंभा जीवम्मि चेव चरिया हविज्ज जा जदिणो। तं जाण बंमचेरं विमुक्कपरदेहतित्तिस्स। -गाथा 878 ब्रह्म में रमण करना ब्रह्मचर्य है। ब्रह्म शब्द का अर्थ जीव है अर्थात ज्ञान-दर्शन रूप से जो वृद्धि को प्राप्त हो वह ब्रह्म है। जीव ही इन गुणों से वर्धमान होता है इसलिए यह जीव-आत्मा ही ब्रह्मस्वरूप है। ब्रह्म का अर्थ व्यापी भी होता है। समुद्घातावस्था में जीव-आत्मा ही तीन लोक में व्याप्त होता है अतः आत्मा ही ब्रह्म है। चर्य-चरण रमण करना अर्थात् अपने ही स्वभाव-ज्ञान दर्शनरूप आत्मा में रमण करना। मूलाचार में लिखा है मादुसुदामगिणीय दणित्यित्तिय च पडिरूवं। . इत्थिकहादिणियत्ती तिलोयपुज्ज हवे बमं ।। गाथा 8 तीन प्रकार की स्त्रियों को और उनके प्रतिरूप (चित्र) को माता, पुत्री और बहिन के समान देखकर जो स्त्रीकथा आदि से निवृत्ति है वह तीन लोक में पूज्य ब्रह्मचर्य व्रत कहलाता है। पद्मनन्दि पञ्चविंशतिका में भी बताया है आत्मा ब्रह्म विविक्तबोधनिलयो यत्तत्र चर्या परं। स्वाङ्गसंगविवर्जितैकमनसस्तद् ब्रह्मचर्य मुनेः।। Page #244 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त 59 / 3-4 107 एवं सत्यबला स्वमातृभगिनी पुत्रीसमाः प्रेक्षते । वृद्धाद्या विजितेन्द्रियो यदि तदा स ब्रह्मचारी भवेत् । ।12/2 ब्रह्म शब्द का अर्थ निर्मल ज्ञानस्वरूप आत्मा है, उस आत्मा में लीन होने का नाम ब्रह्मचर्य है । जिस मुनि का मन अपने शरीर के भी सम्बन्ध में निर्ममत्व हो चुका है उसी के वह होता है। ऐसा होने पर यदि इन्द्रियविजयी होकर वृद्धा, युवती, बाला आदि स्त्रियों को क्रमशः अपनी माता, बहिन और पुत्री के समान समझता है वह ब्रह्मचारी होता है । व्यवहार और निश्चय की अपेक्षा ब्रह्मचर्य के दो भेद है । इनमे मैथुन क्रिया के त्याग को व्यवहार ब्रह्मचर्य कहा जाता है वह भी अणुव्रत और महाव्रत के भेद से दो प्रकार का है। अपनी पत्नी को छोड़कर शेष सब स्त्रियों को यथायोग्य माता, बहिन और पुत्री के समान मानकर उनमें रागपूर्ण व्यवहार न करना, इसे ब्रह्मचर्याणुव्रत अथवा स्वदारसन्तोष भी कहा जाता है तथा शेष स्त्रियों के समान अपनी पत्नी के विषय में भी अनुरागबुद्धि न रखना, यह ब्रह्मचर्य महाव्रत कहलाता है, जो मुनि के होता है। अपने विशुद्ध आत्मस्वरूप में ही रमण करने का नाम निश्चय ब्रह्मचर्य है । यह उन महामुनियों के होता है जो अन्य बाह्य पदार्थों के विषय में तो क्या, किन्तु अपने शरीर के भी विषय में निस्पृह हो चुके है । आचारांग में लिखा है एतेसु चैव बभचेरं ति बेमि ।। 5/35 अर्थात् परिग्रह का संयम करने वालों में ही ब्रह्मचर्य होता है, ऐसा मैं कहता हूँ । ब्रह्मचर्य के तीन अर्थ हैं- आत्मरमण, उपस्थसंयम - मैथुनविरति तथा गुरुकुलवास । पदार्थों के प्रति आसक्त व्यक्ति आत्म रमण नहीं कर सकता । जिस व्यक्ति का पदार्थ के प्रति आकर्षण होता है, उसके लिए ब्रह्मचर्य का पालन कर नहीं होता है। जो व्यक्ति पदार्थ के प्रति असंयत होता है, उसका गुरुकुल में रहना सुशक्य नहीं होता। इसका तात्पर्य है कि अपरिग्रही पुरुष ही ब्रह्मचर्य की साधना में समर्थ होता है । दशवैकालिक में कहा है अभयरियं धोरं, पमायं दुरहि ट्ठियं । नायरति मुणी लोए, भेयाययणवज्जिणो ।। अ. 6/15 Page #245 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 108 अनेकान्त 59/3-4 अब्रह्मचर्य लोक में प्रमाद जनक और दुर्बल व्यक्तियों द्वारा आसेवित है। चारित्र-भंग के स्थान से बचने वाले मुनि उनका आसेवन नहीं करते। आगे और भी लिखा है मूलमेय महम्भस्स, महादोससमस्सयं। तम्हा मेहुणसंसग्गिं, निग्गथा बज्जयत्ति णं ।।अ. 6/16 यह अब्रह्मचर्य अधर्म का मूल और महान दोषों की राशि है, इसलिए निर्ग्रन्थ मैथुन संसर्ग का वर्जन कहते है। पॉच पापों में एक अब्रह्म भी है। तत्त्वार्थसूत्र में लिखा है- 'मैथुनमब्रह्म' अर्थात मैथुन अब्रह्म है। स्त्री और पुरुष का जोड़ा मिथुन कहलाता है और राग परिणाम से युक्त होकर इनके द्वारा की गई स्पर्शन आदि क्रिया मैथुन है। यह मैथुन ही अब्रह्म है। यद्यपि यहां मिथुन शब्द से स्त्री और पुरुष का युगल लिया गया है तथापि वे सभी सजातीय और विजातीय जोड़े जो कामसेवन के लिए एकत्र होते हैं मिथुन शब्द से अभिप्रेत हैं। अब्रह्म के भेदों को निरूपित करते हुए ‘भगवती आराधना' में लिखा इच्छिविसयाभिलासो वच्छिविमोक्खो य पणिदरससेवा। संसत्तदव्वसेवा तदिदियालोयणं चेव।। सक्कारो संकारी अदीदसुमरणागदभिलासे। इष्ठविसय सेवा विय अव्वंम दसविहं एदं ।। 1. स्त्री सम्बन्धी जो इन्द्रिय विषय उनकी अभिलाषा करना अर्थात् उनका सौन्दर्य, अधर रस, मुख का गंध, मनोहर गायन, मधुर हास्य, भाषण, शरीर का मृदु स्पर्श, उनका सहवास, सह गमन और सुन्दर अङ्गावलोकन ये अब्रह्म हैं। 2. अपने इन्द्रिय लिङ्ग में विकार होना-स्थिर व दृढ़ होना वत्यि विमोक्ख 3. स्त्रियों की शय्यादि पदार्थों का सेवन करना, उनका उपभोग करना। जिस प्रकार स्त्री का संभोग कामियों को प्रीतिकर होता है उसी प्रकार उनकी Page #246 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त 59/3-4 09 शय्यादि भी उन्हें हर्षोत्पादक होती है। यह संसक्त द्रव्य सेवा है। 4. स्त्रियों के सुन्दर अंगों का अवलोकन तदिन्द्रियावलोकन है। 5. शरीर में बल-वीर्य वर्द्धक, पुष्टिकारक, गरिष्ठ आहार और रसों का सेवन करना वृष्य रस सेवा है। 6. स्त्रियों का सत्कार करना, उनके शरीर पर प्रेमासक्त हो उन्हें पुष्पहार, वस्त्रादि देकर प्रसन्न करना, उनका सम्मान करना, अलङ्कारादि प्रदान करना। 7. अतीत काल में भुक्त स्त्री सम्भोग रतिक्रीडा का स्मरण करना। 8. भविष्य में उनके साथ ऐसी-ऐसी क्रीडायें करूँगा इस प्रकार की अभिलाषा रखना 9. इष्ट विषय सेवा अर्थात् मनोभिलाषा सौध, उद्यान आदि का उपयोग करना। 10. जिसके रागभाव प्रबल है, ऐसे पुरुषों की संगति करना, उनके द्रव्यों का सेवन करना। उपर्युक्त 10 अब्रह्म के भेद हैं। इसके विपरीत ज्ञान, श्रद्धान और वीतरागता वर्द्धक गुणों में प्रवृत्ति करना ब्रह्मचर्य है। ब्रह्मचर्य किसी प्रकार का बाहरी दबाव का बन्धन नहीं, अपितु मन का संयम है। इस संयम को महत्त्व देते हुए जैन परम्परा में असीम कामनाओं को सीमित करने हेतु विवाह को स्वीकार किया है। विवाह संयम की ओर अग्रसर होने का महत्त्वपूर्ण चरण है और पाशविक जीवन से निकल कर नीतिपूर्ण मर्यादित मानव जीवन को अंगीकार करने का साधन है किन्तु इसमें वेश्यागमन एवं परदार सेवन के लिए कोई स्थान नहीं है बल्कि मैथुन सेवन को अधर्म का मूल और बड़े बड़े दोषों को बढाने वाला कहा है। अणुव्रतों के अन्तर्गत ब्रह्मचर्याणुव्रत के सम्बन्ध में आचार्य समन्तभद्र ने लिखा है न तु परदारान् गच्छति न परान् गमयति च पापभीतेर्यत। सा परदारनिवृतिः स्ववदारसन्तोषनामापि।। Page #247 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त 59 / 3-4 रत्नकरण्ड श्रावकाचार 3/13 अर्थात् जो पाप के भय से परस्त्रियों के प्रति स्वयं गमन करता है और न दूसरों को गमन कराता है वह परस्त्रीत्याग अथवा स्वदारसन्तोष अणुव्रत है। 110 आचार्य अमृतचन्द्र ने भी लिखा है ये निजकलत्रपात्र परिहर्तु शक्नुवन्ति न हि मोहात् । निःशेषशेषयोषिन्निषेवणं तैरपि न कार्यम् । पुरुषार्थ सिध्युपाय || अर्थात् जो जीव मोह के कारण अपनी विवाहिता स्त्रीमात्र को छोड़ने को निश्चय में समर्थ नहीं है उन्हें अवशेष स्त्रियों का सेवन तो अवश्य ही नहीं करना चाहिए । धर्मामृत (सागार) में वर्णन है सोऽस्ति स्वदारसन्तोषी योऽन्यस्त्रीप्रकटस्त्रियौ । न गच्छत्यंहसो भीत्या नान्यैर्गमयति भिया । । जो गृहस्थ पाप के भय से परस्त्री और वेश्या को मन, वचन, काय और कृत, कारित, अनुमोदन से न तो स्वयं सेवन करता है और न दूसरे पुरुषों से सेवन कराता है वह स्वदारसन्तोषी है । आत्मा के विकास में विषय-भोग प्रबल रूप से बाधक है। आचार्य गुणभद्र स्वामी कहते है शरीरमपि पुष्णन्ति सेवन्ते विषयानपि । नास्त्यहो दुष्करं नृणां विषाद्वाञ्छति जीवितम् । । आत्मानुशासन 169 मनुष्य सदा ही शरीर को पोषते हैं तथा विषय भोगों को भोगते रहते हैं। इससे बढ़कर और खोटा कृत्य क्या होगा वे विष पीकर जीवन चाहते हैं । Page #248 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त 59/3-4 111 आचार्य सोमदेवसूरि लिखते हैंविषवद्विषयाः पुसामापाते मधुरागमाः। अन्ते विपत्तिफलदास्तत्सतामिह को ग्रहः। देहद्रविणसंस्कारसमुपार्जनवृत्तयः। जितकाये वृथा सस्तित्कामः सर्वदोषभाक् ।। - उपासकाध्ययन 410, 415 विष के समान विषय प्रारम्भ में मीठे लगते है किन्तु अन्त में विपत्ति में डालते है अतः विषयों में सज्जनों का आग्रह कैसा। जिसने काम को जीत लिया उसका शरीर संस्कार, धनोपार्जन आदि व्यर्थ है- क्योंकि इन सबकी जड़ स्त्री संभोग दुःख का कारण है- योग शास्त्र में वर्णन है स्त्री संभोगेन यः कामज्वरं प्रतिचिकीर्षति। स हुताशं धृताहुत्या विध्यापयितुमिच्छति।। 2/81 जो स्त्री-संभोग के द्वारा कामज्वर को रोकना चाहता है वह घी की आहुति से अग्नि को शान्त करना चाहता है। पंडित आशाधर जी ने भी कहा है सन्तापरूपो मोहाङ्गसादतृष्णानुबन्धकृत् । स्त्रीसम्भोगस्तथाप्येष सुखे चेत्का ज्वरेऽक्षमा।। - सागार धर्मामृत 53 स्त्री संभोग और ज्वर दोनों समान हैं। स्त्री संभोग से पित्त कुपित हो जाता है वह सन्ताप पैदा करता है और ज्वर तो सन्तापकारी होता ही है। उसमें समस्त शरीर तपता है। हित, अहित का ज्ञान न रहने को मोह कहते है कामी को जब काम सताता है तो उसे हित अहित की बात समझमें नहीं आती। ज्वर में भी ऐसी दशा होती है। संभोग भी शरीर की सहनशीलता को नष्ट करता है और ज्वर भी। स्त्री सम्भोग से तष्णा बढती है। और ज्वर से भी तृष्णा अर्थात् प्यास बढती है। आयुर्वेद मे कहा है स्त्रीसम्भोग से पित्त प्रकपित हो जाता है। जिनसेन आचार्य ने लिखा है Page #249 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 112 अनेकान्त 59 / 3-4 क्षारमम्बु तथा पीत्वा तृष्यत्यतितरां नरः । तथा विषयसंभोगैः पर संतर्षमृच्छति ।। महापुराण 11 / 165 जैसे चित्त को मोहित करने से शरीर को शिथिल बनाने से, तृष्णा (प्यास) को बढाने से और सन्तापकारक होने से ज्वर सुख रूप नहीं है वैसे ही स्त्री-संभोग भी सुखरूप नहीं है तथा जैसे खारे जल को पीने से मनुष्य की प्यास बढती है वैसे ही विषय सम्भोग से परम तृष्णा सताती है । महर्षि पतञ्जलि ने 'योगदर्शन' में ब्रह्मचर्य के महत्व का प्रतिपादन करते हुए बताया है ब्रह्मचर्यप्रतिष्ठायां वीर्यलाभः । ब्रह्मचर्य की पूर्ण साधना करने पर अपूर्व मानसिक शक्ति और बल प्राप्त होता है । बौद्ध परम्परा में ब्रह्मचर्य का महत्व स्वीकार किया गया है धम्मपद में लिखा है चन्दनं तगरं वापि उप्पलं अथ वस्सिको । एतेसं गंधजातानं सीलगंधो अनुत्तरो ।। 4/12 अगरु और चन्दन की सुगंध फैलती है, वह सुगन्ध तो बहुत ही अल्प मात्रा में होती है पर ब्रह्मचर्य ( शील) की ऐसी सुगन्ध है जो देवताओ के दिल को भी लुभा देती है । वह सुगन्ध इतनी व्यापक होती है कि मानव लोक में तो क्या देवलोक में भी व्याप्त हो जाती है । विशुद्धिमग्ग में लिखा है सीलगंधसमो गंधो कुतो नाम भविस्सति यां समं अनुवातं च परिवाते च वायति ।। सम्माराहण सोपानं अं सील समंकुतो । द्वारं वा पन निव्वान नगस्स पवेसने । । परिच्छेद । शील की गंध के समान दूसरी गंध कहां होगी ? दूसरी गंध तो जिधर हवा का रुख होता है उधर ही बहती है पर शील की गंध ऐसी गंध है जो विपरीत हवा में भी उसी तरह से बहती है जैसी प्रवाह में बहती है । उसमें यह भी कहा है कि यदि किसी को स्वर्ग के उच्च स्थल पर पहुचना Page #250 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त 59/3-4 113 है तो ब्रह्मचर्य के समान उस स्थल पर पहुंचने के लिए अन्य कोई सीढी नहीं। बौद्ध त्रिपिटक साहित्य के अनुशीलन से यह भी परिज्ञात है कि यहां पर 'ब्रह्मचर्य' तीन अर्थो में व्यवहृत हुआ है। दीघ निकाय पोट्ठपाद में उसका अर्थ बौद्ध धर्म में निवास है जिससे निर्वाण की प्राप्ति होती है। ब्रह्मचर्य का तीसरा अर्थ मैथुन विरमण है। ब्रह्मचर्य की रक्षा के उपायों को आगम साहित्य में 'गुप्तियाँ' और 'समाधि और स्थान' भी कहा गया है। उत्तराध्ययन सूत्र में उनके नौ भेद बताये है जो इस प्रकार हैं1. विविक्त शयनासन- ब्रह्मचारी ऐसे स्थान पर शयन आसन करे जो स्त्री, पुरुष, नपुंसक से संयुक्त न हो। 2. स्त्री कथा परिहार- स्त्रियों की सौन्दर्य वार्ता, कथा वार्ता आदि की चर्चा न करे। 3. निषद्यानुपसेवन- स्त्री के साथ एकासन पर न बैठे । उसके उठ जाने पर भी एक मुहूर्त तक उस स्थान पर न बैठे। 4. स्त्री अंगोपांग अदर्शन- स्त्रियों के मनोहर अंग-उपांग न देखे, यदि कदाचित् उस पर दृष्टि चली जाय तो पुनः हटा ले फिर उसका ध्यान न करे। 5. कुडयान्तर शब्द श्रवणादिवर्जन- दीवार आदि की आड़ से स्त्रियों के शब्द गीत रूप आदि न सुने, न देखे। 6. पूर्व भोग स्मरण वर्जन- पहले भोगे हुए भोगों का स्मरण न करे। 7. प्रणीत भोजन-त्याग- विकारोत्पादक गरिष्ठ भोजन न करे। 8. अतिपमात्र भोजन त्याग- रूखा-सूखा भोजन भी अधिक मात्रा में न किया जाये। 9. विभूषण विवर्जन- शरीर की सजावट न करे। Page #251 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 114 अनेकान्त 59/3-4 पण्डित प्रवर आशाधर ने ब्रह्मचर्य के दस नियमों का उल्लेख किया 1. रूप, रस, गंध, स्पर्श, और शब्द के रस का पान करने की लालसा ब्रह्मचारी में नहीं हो। 2. वह इस प्रकार के कार्य न करे जिससे लिंग में विकार होने की संभावना हो। 3. ब्रह्मचारी कामोद्दीपक आहार न ग्रहण करे। 4. महिलाओं द्वारा उपभोग किये हुए शयन, आसन आदि का उपयोग न करे। 5. स्त्री के गुप्ताङ्ग पर दृष्टि न डाले। 6. अनुरागवश स्त्री का सत्कार न करे। 7. शरीर का संस्कार न करे। 8. पूर्व सेवित रति का स्मरण न करे। 9. आगामी भोग की इच्छा न करे। 10. इष्ट रूपादि में मन को संयुक्त न करे। भर्तृहरि लिखते हैंमत्तेभकुम्मदलने भुवि सन्ति शूराः केचित्प्रचण्डमृगराजवधेऽपि दक्षाः। किन्तु ब्रमीमि बलिनां पुरतः प्रसह्य कन्दर्पदपलने विरला मनुष्याः॥ - श्रृंगारशतक 58 इस पृथ्वी पर मदोन्मत्त गजराज का कुम्भस्थल दलन करने वाले बहुत से शूरवीर विद्यमान है और ऐसे ही प्रचण्ड मृगराज सिंह का बध करने वाले मनुष्य भी बहुत मिल सकते है, परन्तु बलवानों के समक्ष हम वह बात जोर देकर कह सकते है कि कामदेव का गर्वभंजन करने वाले बिरले ही मनुष्य होंगे। प्रशमरति प्रकरण में लिखा है Page #252 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त 59/3-4 115 सम्यग्दृष्टिज्ञानी विरतितपोध्यानभावनायोगैः। शीलाङ्गसहस्त्राष्टाशकमयत्नेन साधयति॥ 245 धर्म, पृथ्वीकाय बगैरह, इन्द्रियां, संज्ञा, कृत, कारित, अनुमोदना और मन, वचन, काय के मेल से शील के अठारह हजार अंगों की उत्पत्ति होती ब्रह्मचर्य से मानव का जीवन तेजयुक्त एवं प्रभावी बनता है नैतिक समाज की स्थापना में इस व्रत की महत्वपूर्ण भूमिका है। ब्रह्मचर्य की साधना करने वाला साधक शारीरिक और मानसिक दोनों प्रकार की शक्तियों को सुरक्षित रखता है। भाव पाहुड़ में दसविध अब्रह्म का त्याग कर नवविध ब्रह्मचर्य पालन के सम्बन्ध में लिखा है णवविहबंमं पयडहि अबमं दसविहं पमोत्तूण। मेहुणसण्णसत्तो ममिओसि भवण्णवे भीमे॥ भावपाहुड़ 96 हे आत्मन् ! दस प्रकार के अब्रह्म का त्याग कर नवविध ब्रह्मचर्य भाव को प्रकट कर । क्यों कि तू मैथुनभाव में आसक्त होकर भयकारक संसार समुद्र में भ्रमण कर रहा है। जैसे खेत में स्थित धान्य की रक्षा के लिए बाड़ लगाई जाती है उसी प्रकार ब्रह्मचर्य व्रत की रक्षा के लिए शील की नौ बाड़ है वे इस प्रकार है1. स्त्री विषयक अभिलाषा न करना- क्योंकि अभिलाषा के बाद ही कुकार्य की परिणति होती है। अतः कुभावना की जड़ का नाश करने के लिए स्त्री विषय सम्बन्धी अभिलाषा का त्याग करना आवश्यक है। 2. अंग विमोक्ष- काम के साधनभूत अंगो को उत्तेजित न करना। 3. गरिष्ठ कामोत्पादक रसों के सेवन का त्याग- जिह्वा इन्द्रिय के स्वच्छन्द होने पर सारी इन्द्रियां स्वच्छन्द होती है। 4. संमक्तद्रव्य सेवात्याग- स्त्रियों के द्वारा सेवित सम्बन्धित वस्त्र, चटाई, __ चौकी आदि का अपने लिए प्रयोग नहीं करना। Page #253 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 116 अनेकान्त 59/3-4 5. स्त्रीअवलोकन त्याग- स्त्रियों के अंगोपांग को राग भाव से नहीं देखना। शरीर अशुचि है, अपवित्र है ऐसा विचार करना। 6. पूजनीय स्त्री सत्कार पुरस्कार त्याग- रागभाव पूर्वक स्त्रियों का सत्कार पुरस्कार नही करना माता, बहिन, धार्मिक भेषधारी आर्यिका, क्षुल्लिका आदि का विनय करने का त्याग नहीं है। क्योंकि काम, राग, रस, से युक्त होकर सत्कार पुरस्कार करना निषेध है। 7. अतीत भोग स्मरण त्याग- पूर्व समय में भोगे हुए भोगों का स्मरण नहीं करना क्यों कि अतीत काल के भोगों का स्मरण करने से परिणाम मलिन होकर ब्रह्मचर्य व्रत के घात का अवसर आ सकता है। 8. अनागत विषयाभिलाषा त्याग- भविष्यत् काल सरबन्धी भोगों की अभिलाषा नहीं करना। 9. पंचेन्द्रिय विषय सम्बन्धी इष्ट विषय सेवन का त्याग- पंचेन्द्रिय विषय सम्बन्धी इष्ट पदाथों का सेवन करने से इन्द्रियां और मन स्वच्छन्द हो जाते हैं। भाव पाहुड़ में मुनि को अठारह हजार शील और चौरासी लाख उत्तर गुणों के पालन करने हेतु लिखते हैं सीलसहस्सद्वारस चउरासी गुणगणाण लक्खाई। भावहि अणुदिणु णिहिलं असप्पलावेण किं बहुणा। हे मुने! (हे आत्मन्) अधिक प्रलाप करने से क्या लाभ है? तू प्रतिदिन सम्पूर्ण अठारह हजार शील और चौरासी लाख उत्तर गुणों की निरन्तर भावना कर, रातदिन उनका चिन्तन, स्मरण एवं पालन कर। दुर्भावनाओं का विनाश करके सद्भावनाओं का चिन्तन शील कहलाता है। इन शील का वर्णन दो प्रकार से है। एक अहिंसात्मक परिणति दूसरी ब्रह्मचर्य व्रत का पालन। इन दोनों का परस्पर सामंजस्य है क्योंकि अहिंसात्मक परिणति से ही ब्रह्मचर्य व्रत का पालन होता है और ब्रह्मचर्य व्रत के पालन से अहिंसा की सिद्धि होती है। ब्रह्मचर्य व्रत का Page #254 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त 59/3-4 117 घात होने में मन, वचन, काम की दुर्भावना, संज्ञाओं का प्रादुर्भाव, दसधर्म का घात, एकेन्द्रिय आदि जीवों की विराधना और पंचेन्द्रिय विषयों में प्रवृति होती है। अतः इन दोनों प्रकार के शीलों के भेदों का परस्पर सम्बन्ध है। अथवा शील का अर्थ स्वभाव, उस उस स्वभाव की घातक मन, वचन कायिक क्रिया का नाम है कुशील, उन क्रियाओं के त्याग को कहते हैं शील। मुख्यतया अभेदरूप से स्वभाव में रमण करना ही शील है। उसको विशेष रूप से समझाने के लिए 18000 भेद किये हैं। 18000 शीलों का अहिंसात्मक परिणाम की अपेक्षा भेद इस प्रकार हैं अशुभ मन, वचन, काय योग को शुभ मन, वचन और काय से नष्ट करने से शील के नौ भेद हैं। इन नौ भेदों को आहार, भय, मैथुन और परिग्रह संज्ञा इन चार से गुणा करने पर शील के 36 भेद होते है क्योंकि संज्ञा भी आत्मस्वभाव की घातक है। इन 36 प्रकार के शील के भेदों को स्पर्शन, रसना, घ्राण, चक्षु और कर्ण इन्द्रिय विजय के द्वारा गुणा करने पर 180 शील के भेद होते है अर्थात् भावेन्द्रिय आत्मा का उपयोग(ज्ञान) है वह उपयोग अपने जानने देखने स्वभाव को छोड़कर बाह्य पदार्थों में लीन हो गया है, इन्द्रिय द्वार से चार संज्ञाओं में जा रहा है, उसको रोककर अपने स्वभाव में लाने की चेष्टा करना शील कहलाता है। - पृथ्वीकाय, जलकाय, अग्निकाय, वायुकाय, वनस्पतिकाय, दो इन्द्रिय त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय, सैनी, असैनी पंचेन्द्रिय इन दस प्रकार के जीवों पर अनुकम्पा करना, यह शील है। इसलिए 180 भेदों को दस प्रकार के जीवों के दया भाव से गुणा करने पर शील के 18000 भेद होते हैं। क्रोध, मान, माया, लोभ, असत्य, असंयम, अतप, अत्याग, परिग्रह में प्रवृत्ति और अब्रह्म ये आत्मस्वभाव के घातक हैं। अतः उत्तम क्षमादि दसधर्म के लक्षण के द्वारा क्रोधित विभाव भावों का विनाश कर अपने स्वरूप को उपयोग में स्थिर करना शील है। मुनि इन 18000 शीलों का स्मरण चिंतन, मनन करके अपने स्वभाव में स्थिर होने का प्रयत्न करे। ब्रह्मचर्य की मुख्यता से शील के भेद- सत्रह हजार दो सो Page #255 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 118 अनेकान्त 59/3-4 अस्सी (17280) भेद चैतन्य स्त्री सम्बन्धी है तथा सात सौ बीस(720) अचैतन्य स्त्री सम्बन्धी भेद हैं। दोनो को मिलाने से 18000 शील के भेद होते हैं वे इस प्रकार है___ अचेतन स्त्री तीन प्रकार की है- काठ की बनी हुई, पाषाण (पत्थर) की मूर्ति और लेप, रंग आदि से लिखित स्त्री। इन तीनों अचेतन स्त्रियों का स्पर्श और मानसिक अनुराग रूप काय, मन, से गुणा करने पर कुशील के छह भेद होते है। इन अचेतन स्त्रियों के साथ वाचनिक प्रवृत्ति नहीं होती। इन छह विकारों को कृत, कारित, अनुमोदना से करने पर 18 भेद होते है। इन 18 दुर्भावनाओं को स्पर्शन आदि पांच इन्द्रियों से करने पर 90 भेद होते है। इन 90 भेदों को द्रव्य और भाव से गुणा करने पर 180 भेद हुए। इन 180 भेद रूप कुशील का सेवन क्रोध, मान, माया, और लोभरूप चार कषाय के वशीभूत होकर किये है अतः अचेतन स्त्री सम्बन्धी कुशील के 720 भेद होते है। चैतन्य सम्बन्धी कुशील के भेद इस प्रकार हैं- चैतन्य स्त्री तीन प्रकार की हैं देवी, मानुषी और तिर्यञ्चनी। नरक में स्त्री नहीं होती। इन तीन प्रकार की चेतन स्त्री सम्बन्धी दर्भावना करना, कराना और करने वालों की अनुमोदना करने की अपेक्षा नौ भेद हैं- और इन नौ भेदों को मन, वचन, काय, से गुणा करने पर 27 भेद होते है। इन 27 प्रकार के विकार भाव, पंचेन्द्रिय से सम्बन्धित है। स्पर्श आदि की भावनाओं के कारण इनका आहारादि चार संज्ञाओं से गुणा करने पर 1080 भेद होते है। इन एक हजार अस्सी कुशीलों में प्रवृत्ति कषाओं के कारण होती है और कषाय 16 है 1080 भेदों को कषायों से गुणा करने पर कुशील के 17 280 भेद होते हैं। ये चेतन स्त्री सम्बन्धी विकारों के भेद हैं। इनमें अचेतन स्त्री सम्बन्धी 720 भेद मिला देने पर कुशील के 18000 भेद होते हैं। इन 18000 कुशील का (विभाव भावों का) त्याग कर अपने स्वरूप में रमण काल 18000 शील के भेद हैं। ब्रह्मचर्य व्रत का सामाजिक महत्व - ब्रह्मचर्य भावना आत्मा की आन्तरिक शक्ति है और इसके द्वारा सामाजिक क्षमताओं की वृद्धि की Page #256 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त 59/3-4 119 जाती है। वास्तव में ब्रह्मचर्य की साधना वैयक्तिक और सामाजिक दोनों ही जीवनों के लिए एक उपयोगी कला है। यह आचार-विचार और व्यवहार को बदलने की साधना है। आचरण का पतन जीवन का पतन है और आचरण की उच्चता जीवन की उच्चता है। यदि रूढिवश किसी व्यक्ति का जन्म नीचकुल में मान भी लिया जाये, तो इतने मात्र से वह अपवित्र नहीं माना जा सकता। पतित वह है जिसका आचार-विचार निकृष्ट है और जो दिन-रात भोग-वासना में डूबा रहता है। जो कृत्रिम विलासिता के साधनों का उपयोग कर अपने सौन्दर्य की कृत्रिमरूप में वृद्धि करना चाहते हैं उनके जीवन में विलासिता तो बढती ही है, कामविकार भी उद्दीप्त होते है, जिसके फलस्वरूप समाज भीतर ही भीतर खोखला होता जाता हैं। ब्रह्मचर्य-साधना के दो रूप सम्भव हैं। वासनाओं पर पूर्ण नियन्त्रण और वासनाओं का केन्द्रीकरण 1 समाज के बीच गाहस्थिक जीवन व्यतीत करते हुए वासनाओं पर पूर्ण नियन्त्रण तो सबके लिए सम्भव नहीं पर उनका केन्द्रीकरण सभी सदस्यों के लिए आवश्यक है। केन्द्रीकरण का अर्थ विवाहित जीवन व्यतीत करते हुए समाज की अन्य स्त्रियों को माता, बहिन, और पुत्री के समान समझकर विश्वव्यापी प्रेम का रूप प्रस्तत करना। यहां यह विशेष रूप से विचारणीय है कि अपनी पत्नी को भी अनियन्त्रित कामाचार का केन्द्र बनाना व्रत से च्युत होना है। एकपत्नीव्रत का आदर्श इसीलिए प्रस्तुत किया गया है कि जो आध्यात्मिक सन्तोष द्वारा अपनी वासना को नहीं जीत सकते वे स्वपत्नी के ही साथ नियन्त्रितरूप से कामरोग को शान्त करें। आध्यात्मिक और शारीरिक स्वास्थ्य की वृद्धि के लिए इच्छाओं पर नियन्त्रण रखना आवश्यक है। सामाजिक और आत्मिक विकास की दृष्टि से ब्रह्मचर्य शब्द का अर्थ ही आत्मा का आचरण है। अतः केवल जननेन्द्रिय सम्बन्धी विषय विकारों का रोकना पूर्ण ब्रह्मचर्य नहीं है। जो अन्य इन्द्रियों के विषयों के अधीन होकर केवल जननेन्द्रिय सम्बन्धी विषयों को रोकने का प्रयत्न करता है, उसका वह प्रयत्न वायु की भांति होता है। कान से विकार की बातें सुनना, नेत्रों Page #257 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 10 अनेकान्त 59/3-4 से विकार उत्पन्न करने वाली वस्तुयें देखना, जिह्वा से विकारोत्तेजक पदार्थो का आस्वादन करना और घ्राण से विकार उत्पन्न करने वाले पदार्थो को सूंघना ब्रह्मचर्य के लिए तो बाधक है ही पर समाज हित की दृष्टि से भी हानिकर है। मिथ्या आहार विहार से समाज में विकृति उत्पन्न होती है, जिससे समाज अव्यवस्थित हो जाता है। सामाजिक अशान्ति का एक बहुत बड़ा कारण इन्द्रिय सम्बन्धी अनुचित आवश्यकताओं की वृद्धि है। अभक्ष्य भक्षण भी इन्द्रिय की चपलता के कारण व्यक्ति करता है। वस्तुतः सामाजिक दृष्टि से ब्रह्मचर्य भावना का रहस्य अधिकार और कर्तव्य के प्रति आदर भावना जागृत करना है। नैतिकता और बल प्रयोग ये दोनों विरोधी हैं। ब्रह्मचर्य की भावना स्वनिरीक्षण पर जोर देती है, जिसके द्वारा नैतिक जीवन का आरम्भ होता है। सामाजिक और राष्ट्रीय जीवन में संगठन शक्ति की जागति भी इसी के द्वारा होती है। संयम के अभाव में समाज की व्यवस्था सुचारू रूप से नहीं की जा सकती। यतः सामाजिक जीवन का आधार नैतिकता है। प्रायः देखा जाता है कि संसार में छीना झपटी की दो ही वस्तुयें है। 1 कामिनी और 2 कञ्चन। जब तक इन दोनों के प्रति आन्तरिक संयम की भावना उत्पन्न नहीं होगी, तब तक समाज में शान्ति स्थापित नहीं होगी। अभिप्राय यह है कि जीवन निर्वाह शारीरिक आवश्यकताओं की पूर्ति के हेतु अपने उचित हिस्से से अधिक ऐन्द्रियक सामग्री का उपयोग न करना सामाजिक ब्रह्मभावना हैं। __महान् दार्शनिक पाइथागोरस ब्रह्मचर्य की महिमा बताते हुए लिखते ____ “जो व्यक्ति अपने आप पर नियन्त्रण नहीं कर सकता वह स्वतंत्र (स्वाधीन) नहीं हो सकता। अपने आप पर शासन और अनुशासन की शक्ति-सामर्थ्य 'ब्रह्मचर्य' के बिना संभव नहीं है। रीडर-जैन दर्शन संस्कृत विद्या एवं धर्मविज्ञान संकाय काशी हिन्दू विश्वविद्यालय Page #258 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य उमास्वामी की दृष्टि में अकालमरण - डॉ. श्रेयांसकुमार जैन संसार में जीव का जन्म-मरण शाश्वत सत्य है। जो जन्म लेता हैं उसका मरण होना भी निश्चित है। आचार्य उमास्वामी ने तत्वार्थसूत्र के द्वितीय अध्याप के अन्तिम सूत्र “औपपादिकचरमोत्तम देहाऽसंख्येय वर्षायुषोऽनपवायुषः” द्वारा स्पष्ट किया है कि उपपाद जन्मवाले देव और नारकी चरमोत्तम देहधारी और असंख्यात वर्ष की आयुवाले जीव अनपवर्त्य (परिपूर्ण) आयुवाले होते हैं। यह विधिपक्ष है इसका निषेध पक्ष होगा कि इनसे अवशिष्ट जीव अपवर्त्य (अपूर्ण) आयुवाले होते हैं अर्थात् इनसे अवशिष्ट कर्मभूमिया मनुष्य और निर्यञ्च हैं, जिनका अकाल मरण भी होता है। यह पूर्ण सत्य है क्योंकि आचार्य शिवार्य का कहना है पढम असतवयणं समुदत्यस्स होदि पडिसेहो। णत्थि णरस्स अकाले मच्चुत्ति जघेव भादीय म.अ. 830 जो विद्यमान पदार्थ का प्रतिषेध करना सो प्रथम असत्य है। जैसे कर्मभूमि के मनुष्य के अकाल में मृत्यु का निषेध करना प्रथम असत्य इसका तात्पर्य है कि कर्मभूमिया जीवों की अकाल मृत्यु होती है, जिसके अन्य शास्त्रों में भी अनेक प्रमाण मिलते हैं, उसकी प्रस्तुति की जा रही हैआचार्य कुन्दकुन्द स्वामी ने अकालमरण के निम्नकारण दर्शाये हैं। विसवेयणरत्तक्रवयमयसत्यग्गह संकिलेसाणं। आहारुस्सासाणं णिरोहणा खिज्जदे आऊ॥25॥ Page #259 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 122 अनेकान्त 59/3-4 हिम अणलसलिल गुरूवर पव्वतस्रूहण पडयणमंगेहिं। रसविज्जोयधराणं अणयपसंयेहि विविहेहिं ॥26॥ भावपाहुड अर्थात्- विषभक्षण से, वेदना की पीड़ा के निमित्त से रुधिर के क्षय हो जाने से, भय से शस्त्राघात से, संक्लेश परिणाम से आहार तथा श्वास के निरोध से आयु का क्षय हो जाता है। हिमपात से अग्नि से जलने के कारण, जल में डूबने बड़े पर्वत पर चढ़कर गिरने से शरीर का भंग होने से, पारा आदि रस के संयोग (भक्षण) से आयु का व्युच्छेद हो जाता है। __इन कारणों के होने से ही असमय में जीव की मौत होती है यह सत्य है कि यदि सोपक्रमायुष्क अर्थात् संख्यातवर्षायुष्क मनुष्य व तिर्यञ्च को उपर्युक्त कारणों में से एक या अधिक कारण मिल जायेगे तो अकालमरण होगा और उक्त कारणों में कोई भी कारण नहीं जुड़ता है तो अकालमरण नहीं होता है। कारण का कर्म के साथ अन्वय व्यतिरेक अवश्य पाया जाता है। कारण कार्य सम्बन्ध को बताते हए आचार्य कहते हैं- यस्मिन् सत्येव भवतिअसति तु न भवति तत्तस्य कारण मिति न्यायात्" (ध.पु. 12 पृ. 289) जो जिसके होने पर ही होता है और जिसके न होने पर नहीं होता, वह उसका कारण होता है ऐसा न्याय है। आचार्य विद्यानन्दि ने शस्त्र प्रहार आदि बहिरंग कारणों का अपमृत्यु के साथ अन्वय-व्यतिरेक बताया है। इससे सिद्ध है कि खङ्ग प्रहार आदि से जो मरण होगा वह अकालमरण होगा और इन शस्त्र आदि के अभाव में कदलीघात मरण नहीं होगा। भास्करनन्दि आचार्य भी अपनी सुखवोधनाम्नी टीका में लिखते हैं- "विषशस्त्रवेदनादि बाह्यविशेषनिमित्तविशेषणावर्त्य ते स्वीक्रियते इत्यपवर्त्यः" अर्थात विष शस्त्र वेदनादि बाह्य विशेष निमित्तों से आयु का ह्रस्व (कम) करना अपवर्त्य है अर्थात् बाह्य निमित्तों से भुज्यमान आयु की स्थिति कम हो जाती है। इसी सन्दर्भ में आचार्य विद्यानन्दि कहते हैं "नह्यप्राप्तकालस्य मरणाभावः खड्गप्रहारादिमिः मरणस्य दर्शनात् " अप्राप्तकाल अर्थात् जिसका मरण काल नहीं आया ऐसे जीव का भी मरण होता है क्योंकि Page #260 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त 59 / 3-4 खड्ग प्रहार आदि से मरण देखा जाता है। श्री श्रुतसागरसूरि ने तत्वार्थवृत्ति में अकालमरण की मान्यता की पुष्टि में कहा है “अन्यथादयाधर्मोपदेशचिकित्साशास्त्र च व्यर्थं स्यात्" अकालमरण को न मानने से दयाधर्म का उपदेश और चिकित्सा शास्त्र व्यर्थ हो जायेगे भट्टाकलंकदेवने कहा है “बाह्य कारणों के कारण आयु का ह्रास होता है, वह अववर्त है। अववर्त आयु जिनके है, वे अपवर्त आयु वाले हैं और जिनकी आयु का अपवर्त नहीं होता वे अनपवर्त आयु वाले देव नारकी चरम शरीरी और भोग भूमिया जीव हैं, बाह्य कारणों से इनकी आयु का अपवर्त नहीं होता है । शस्त्रादि के बिना संक्लेश परिणामों या परिश्रम आदि के द्वारा भी आयु का ह्रास हो सकता है और वह भी कदलीघात मरण है जैसे किसी की आयु 80 वर्ष है वह 40 वर्ष का हो चुका परिश्रम या संक्लेश के कारण उसकी आयु कर्म के निषेक 75 वर्ष की स्थिति वाले रह गये, वह 75 वर्ष में मरण को प्राप्त होता है । तो वह भी अकालमरण ही कहा जायेगा यदि एक अन्तर्मुहूर्त भी भुज्यमान आयु कम होती है तो वह अकालमरण ही कहलाता हैं । यह निश्चित है कि कोई भी जीव आत्मघात करता है, तो वह भी अकालमरण को प्राप्त होता है किन्तु सभी अपवर्त को प्राप्त होने वाले जान बूझकर अपवर्तन नहीं करते है जैसे आहार निमित्तों से रागादिकरूप स्वयं परिणमन कर जाता है उसी अपवर्तन के सम्बन्ध जानना चाहिए । 123 आगम में यह भी उल्लेख है कि आगामी भव की आयु का बन्ध हो जाने के बाद अकालमरण नहीं होता है। अगले भव की आयु का बन्ध हो जाने के बाद भुज्यमान आयु जिनती शेष रह गई है, उस आयुस्थिति के पूर्ण हो जाने पर ही जीव का मरण होगा उससे पूर्व नहीं होगा । आचार्य वीरसेन इसी बात को कहते हैं- “परभविआइए बद्धे पच्छा भुंजमाणऽअस्स कदलीघादो णत्थिजहासरूवेण चेव वेदेदित्ति" ( धवल पृ. 10 पृ. 237 ) अर्थात् परभवसंबंधी आयु के बंधने पश्चात् भुज्यमान आयु का कदलीघात नहीं होता किन्तु जीव की जितनी आयु थी उतनी का ही वेदन करता है । यह नियम सभी जीवों के साथ लागू होता है किन्तु शास्त्रों में कदलीघात मरण वाले और कदलीघात मरण Page #261 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 124 अनेकान्त 59/3-4 को प्राप्त न होने वाले जीवों के आयु बन्ध के नियम में अन्तर है। जिन जीवों की आयु का कदली घात नहीं होता अर्थात् जो निरुपक्रमायुष्क जीव हैं, वे अपनी भुज्यभान आयु में छह माह शेष रहने पर आयुबन्ध के अन्तिम छहमास के अतिरिक्त शेष भुज्यमान आयु परभविक आयुबन्ध के बिना बीत जाती है। एक समय अधिक पूर्वकोटि आदि रूप आगे की सब आयु असंख्यात वर्ष आयु वाले मनुष्य व तिर्यञ्च भोगभूमिया होते हैं। असंख्यात वर्ष की आयुवाले जीवों का कदलीघात मरण नहीं होता क्योकि वे अनपवर्त्य निरुपक्रम आयु वाले होते है। देव नारकी, चरमशरीरी और अंसख्यातवर्षायुष्क (योग-भूमिया) जीवों की आय विषशस्त्र आदि विशेष बाह्य कारणों से ह्रास (कम) नहीं होता इसलिए वे अनपवर्त्य हैं। इनका कारण जन्म से ही व्यवस्थित है किन्तु कर्मभूमिया जीवों का मरण व्यवस्थित नहीं है। क्योंकि जिस कर्म भूमिया मनुष्य या तिर्यंच ने अगले भव की आयु का बन्ध नहीं किया है उसकी आयु का क्षय बाह्य निमित्त से हो सकता है। अकाल मरण में भी आयुकर्म के निषेक अपना फल असमय में देकर झड़ते हैं, बिना फल दिए नहीं जाते हैं। आचार्य अकलंक देव तत्वार्थ सूत्र के द्वितीय अध्याय के 53वें सूत्र की व्याख्या करते हुए कहा है- “आयु उदीरणा में भी कर्म अपना फल देकर ही झड़ते हैं, अतः कृतनाश की आशंका उचित नहीं है। जैसे गीला कपड़ा फैला देने पर जल्दी सूख जाता है। और वही यदि इक्ट्ठा रखा रहे तो सूखने में बहुत समय लगाता है, उसी प्रकार बाह्य निमित्तों से समय से पूर्व आयु के निषेक झड़ जाते हैं यही अकाल मृत्यु है। पण्डित श्री वंशीधर व्याकरणाचार्य इस विषय में कुछ पृथक् कथन करते हैं, उनका कहना है की बध्यमान आयु में उत्कर्षण अपकर्षण होते ही हैं किन्तु भुज्यमान सम्पूर्ण आयुओं में भी उत्कर्षण अपकर्षण करण हो सकते हैं। इसका कारण है कि भुज्यमान तिर्यञ्चायु और मनुष्यायु की उदीरणा सर्वसम्मत है। भुज्यमान देवायु और नरकायु की उदीरणा भी सिद्धान्त ग्रन्थों में Page #262 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त 59/3-4 बतलायी है- “संकमणा करणूणा णवकरणा होंति सव्व आऊणं" (गो. कर्मकाण्ड गा. 441) अर्थात् एक संक्रमण करण को छोड़कर बाकी के बन्ध, उत्कर्षक, अपकर्षण, उदीरणा, सत्व, उदय, उपशान्त निधत्ति और निकाचना ये नव करण सम्पूर्ण आयुओं में होते हैं। किसी भी कर्म की उदीरणा उसके उदयकाल में ही होती है। कारण उदीरणा का लक्षण "अण्णत्थठियस्सुदये संयुहणमुदीरणा हुँ अत्यि तं" (गो. कर्मका गा न. 439 )उदयावलिबाह्यस्थितस्थितिद्रव्यस्यापकर्षणवशादुदयावल्यां निक्षेपणमुदीरणा खलु। उदयावली के द्रव्य से अधिक स्थिति वाले द्रव्य को अपकर्षण के द्वारा उदयावली में डाल देना उदीरणा है। उदयगतकर्म के वर्तमान समय से लेकर आवली पर्यन्त जितने समय हों उन सबके समूह को उदयावली कहा है। इससे यह निर्णय हुआ कि कर्म की उदीरणा उसके उदयकाल में ही हो सकती है। लब्धिसार में लिखा है। कि “उदयाणमावलिह्मिन च उभयाणं बाहिरम्मि खिवणटुं। गा. 68 अर्थात् उदयावली में उदय गत प्रकृतियों का ही क्षेपण होता है। उदयावली के बाहर उदयगत और अनुदयगत दोनों तरह की प्रकृतियों का क्षेपण होता इससे भी यही सिद्ध होता है कि जिस कर्म का उदय होता हैं उसी का उदयावली बाह्यद्रव्य उदयावली में दिया जा सकता है। इसलिए देवायु और नरकायु की उदीरणा क्रम से देवगति और नरकगति में होगी अन्यत्र नहीं इससे स्पष्ट है कि भुज्यमान देवायु और नरकायु की भी उदीरणा हो सकती है। ऊपर के निषेकों का द्रव्य उदयावली विषं देना देवायु और नरकायु के सम्बन्ध में उदीरणा है न कि बाह्य निमित्त से मरण का नाम उदीरणा है। सर्वज्ञ के उपदेश द्वारा अकालमरण सिद्ध हो जाता हैआयुर्यस्यापि देवः परिनाते हितान्तके। तस्यापि क्षीयते सद्यो निमित्तान्तरयोगतः ॥670 - सार समुच्चय Page #263 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त 59 / 3-4 भविष्य के भाग्य - ज्ञाता द्वारा किसी ( कर्मभूमिज) की आयु का हितान्त अर्थात् - अमुक समय पर मरण होगा, ऐसा जान भी लिया जावे तो भी विपरीत निमित्तों के मिलने पर उसकी आयु का शीघ्र क्षय हो जाता है। 126 जैनाचार्यो ने सोपक्रमायुष्क (अपमृत्यु) जीवों का विस्तृत विचार आचार्य श्री उमास्वामी द्वारा लिखित "औपपादिकचरमोत्तम देहाऽसंख्येयवर्ष्यायुषोऽनपवर्त्यायुषः " सूत्र के आधार पर किया है क्योंकि इस सूत्र में अपवर्त्य (निरुपक्रमायुष्क) जीवों का कथन होने से उनसे प्रतिपक्षीय जीवों का प्रतिपादन क्रम प्राप्त है । आचार्य पूज्यपाद ने उक्त सूत्र की व्याख्या में लिखा है की औपपदिक आदि जीवों की आयु बाह्य निमित्त से नहीं घटती यह नियम है तथा इनके अतिरिक्त शेष जीवों का ऐसा कोई नियम नहीं है । यदि कारण मिलेंगे तो आयु घटेगी और कारण न मिलेगे तो आयु नहीं घटेगी। भास्करनन्दि भी इसी बात की पुष्टि करते हैं कि औपपदिक से जो अन्य संसारी जीव है, उनकी अकालमृत्यु भी होती है" इसी क्रम भट्टाकलंकदेव, आचार्य विद्यानन्दि, कलिकाल सर्वज्ञ वीरसेन आदि सभी आचार्यो ने उमास्वामी द्वारा प्रति पादित सिद्धान्त का समर्थन किया है । आचार्य उमास्वामी के परवर्ती आचार्यों को अकालमरण के सन्दर्भ में विशेष दृष्टि मिली। उनसे प्राप्त तद्विषय सम्बन्धी बीज को पाकर विस्तार के साथ स्पष्ट किया । इस विषय में आचार्य उमास्वामी के अवदान को निश्चित रूप से सराहा गया है। तभी तो परवर्ती आचार्यो ने इस विषय को विशेष रूप से प्रतिपादित किया है। जैनागम की स्वतन्त्र देन नय पद्धति के आश्रय से भी उक्त विषय की सिद्धि की गई है । अनेक पौराणिक कथनों पर भी भुज्यमान के अपकर्षण करण का स्पष्टीकरण हो जाता है । लौकिक उदाहरणों से भी इसे समझा जा सकता है। जैसे किसी व्यक्ति ने एक लालटेन किसी दुकानदार से रातभर जलाने हेतु किराये Page #264 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त 59/3-4 17 पर ली। दुकानकार ने उसमें रात भर जलती रहेगी इतना पर्याप्त तेल भर दिया और ग्राहक को कह दिया की यह लालटेन रात्रि भर जलेगी किन्तु ग्राहक के घर रात्रि 12 बजे बुझ गई, उसका मेंटल नहीं टूटा और नहीं व भभकी किन्तु समय से पूर्व बुझ गई। दुकानदार से ग्राहक शिकायत करता है। दुकानदार परेशान होता है उसे असमय में बुझने का कारण नहीं पता चलता। जब वह सावधानी से देखता तो लालटेन के नीचे छोटा बारीक सुराक पाता है और वह असयम में बझने के कारण को जान जाता है ऐसा ही आयुकर्म के सम्बन्ध में हैं और कर्मभूमिया मनुष्य तिर्यञ्च अपमृत्यु को प्राप्त हो जाता है। सभी प्रमाणों से यह स्पष्ट हो जाता है कि बध्यमान आय की स्थिति और अनुभाग में जिस प्रकार अपवर्तन होता है। उसी प्रकार भुज्यमान आयु की स्थिति और अनुभाग में भी अपवर्तन होता है। किन्तु बध्यमान आयु की उदीरणा नहीं होती और भुज्यमान आयु की उदीरणा होती है, जिससे अकालमरण (अपवर्तन) भी होता है। इसमें कोई संशय/सन्देह को अवकाश नहीं है। वर्तमान में चिन्तनीय है कि शास्त्रों में स्वकालमरण और अकालमरण दोनों व्याख्यान पढने के बाद भी कुछ लोग अकालमरण का निषेध क्यों करते हैं। उनका इसमें क्या उद्देश्य है। मुझे तो सर्वमान्य शास्त्रीय विषय के निषेध में कोई विशेष प्रयोजन प्रतीत होता है। वह यह है कि लोग संसार शरीर भोगों से भयभीत न हों, और संयम व्रत चरित्र से दूर रहें। उन जैसे भोग विलासिता में लिप्त रहते हुए, अपने को धर्मात्मा कहला सकें या मानते रहें। पुरुषार्थ हीन रहते हुए स्वयं भोगी रहें और दूसरों को भी अपने जैसा बनाये रखें जिससे स्वार्थ सिद्धि में बाधा न रहे। सन्दर्भः 1. बाह्य प्रत्ययवशादायुषो हासोऽपर्वतः। बाह्यस्योपघातनिमित्तस्यविषशस्त्रादेः सति सन्निधाने ह्रसोऽपवर्त इत्युच्यते एते औपपादिकादय उक्ता अनपवायुषाः न हि Page #265 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 128 अनेकान्त 59/3-4 तेषामायुषो बाह्यनिमित्तवशादपवर्तो ऽस्ति। तत्त्वार्थवार्तिक, भाग-1, पृ. 426 2. अकाल मृत्यु के अभाव में चिकित्सा आदि का प्रयोग किस प्रकार किया जायेगा क्योंकि दुःख के प्रतिकार के समान ही अकाल मृत्यु के प्रतिकार के लिए चिकित्सा आदि का प्रयोग किया जाता है। श्लोकवार्तिक पृ. 343 3. णिरुवक्कमाउआ पुण छम्मासावसेसे आउअबंध पाओग्गा होती। धवल पु.10 पृ. 234 जो निरुपक्रमायुष्क जीव हैं वे अपनी भुज्यमान आयुछह मास शेष रहने पर आयुबन्ध के योग्य होते हैं। 4. दत्वैव फलं निवत्तेः नाकृतस्य कर्मणः फलमुपभुज्यते, न च कृतकर्मफलविनाशः अनिर्मोक्षप्रसंगात् दानादिक्रियारम्भाभावप्रसंगाच्च किन्तु कृतंकर्म कर्ते फलं दत्त्वैव निवर्तते विततार्द्रपटशोषवत् अयथाकाल निर्वृतः पाक इत्ययं विशेषः ॥ तत्वार्थ वार्तिक 2/53 संस्कृत टीका 5. इतरेषामनियमः । सर्वार्थसिद्धि 2/53 की टीका 6. तेभ्योऽन्ये तु संसारिणः सामर्थ्यादपवायुषोऽपि भवन्तिति गम्यते। 7. कालनयेन निदादिवासनुसारि पच्यमान सहकारफलवत्समया यत्र सिद्धिः अकालनयेन कृत्रिभोष्मपच्यमानसहकारफलवत्समयानायत्र सिद्धि॥ प्र. सार रीडर-संस्कृत विभाग दिगम्बर जैन कालेज बड़ौत (उ.प्र.) Page #266 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समीक्षा - 'निष्कम दीप शिखा' लेखक- प. श्री पद्मचन्द शास्त्री, एम.ए. जैनदर्शनशास्त्री, वेद-व्याकरण तीर्थ, सम्पादक 'अनेकान्त' वीर सेवा मंदिर, दरियागंज, दिल्ली सम्पादक - डा. श्री प्रेमचन्द जैन 'आशा- निलय', नजीबाबाद (उ.प्र.) संस्करण - प्रथम - 2006, मूल्य 20/-, पृष्ठ संख्या-396 प्रकाशक- वीर सेवा मंदिर, 21, दरियागंज, नई दिल्ली-110002 ज्ञानवृद्ध, वयोवृद्ध, अनुपम श्रुताराधक, जैनगम मर्मझ, प्राकृत- संस्कृत- अपभ्रंश प्राच्य भाषाओ के ज्ञाता, अद्भुत मनीषी पुरानी पीढ़ी के प्रकाण्ड पंडित श्री पद्मचन्द जी शास्त्री, दिल्ली, द्वारा जैनागम के आलोक मे लिखित 33 सुलेखों का सुव्यस्थित संकलन इस कृति में है । विविध विषयो पर लिखित में आलेख विभिन्न पत्रो मे पूर्व मे प्रकाशित हुए हैं, जिन्हे सुयोग्य सम्पादक मनीषी विद्वान डॉ. श्री प्रेमचन्द्र जी ने सुव्यवस्थित रीति एवं क्रम से नियोजित कर इस कृति को आकार दिया है। पंडित जी द्वारा लिखित प्रस्तुत आगम सम्मत विविध विषय जिज्ञासु प्रबुद्ध पाठको के लिए एकत्र सुलभ हो गये है। यह पुस्तकाकार रूप सकलन डॉ. श्री प्रेमचन्द जी के अथक प्रयास का ही सुफल है। ये आलेख गवेषणात्मक व ज्ञानवर्द्धक है, तथा प्रामाणिक उद्धरणों के साथ परिश्रमपूर्वक लिखे गये है। प्राय. सभी आलेख अपने आप में पूर्ण हैं। किसी एक विषय को पूर्णत: स्पष्ट विश्लेषित / प्रकाशित करते हैं। आगमानुकूल है, दिशाबोधक और प्रेरक हैं। जैन जैनेतर सभी वर्गो के जिज्ञासुओ को जैन एवं जैनत्व के भिन्न-भिन्न सत्य तथ्यों की प्रामाणिक जानकारी देते है । ये जिज्ञासुओं की जिज्ञासाओं का शमन करने में सक्षम, सभी के द्वारा पठनीय, प्रबुद्ध वर्ग द्वारा समादरणीय जीवन्त ऐतिहासिक दस्तावेज हैं। देश-विदेश के प्रत्येक पुस्तकालय, वाचनालय, शास्त्र-भंडार और जिनालयों में आगामी पीढ़ी को मार्गदर्शन एव ज्ञानवर्धन हेतु सरक्षणीय है। कार्ययोजक श्री रूपचन्द जी कटारिया, प्रकाशक - वीर सेवा मन्दिर दिल्ली, के महासचिव श्री सुभाषचन्द जी, सम्पादक डॉ. श्री प्रेमचन्द जी एवं अन्य सभी सहयोगी जन इस पुस्तकाकार कृति के प्रकाशन हेतु धन्यवादार्ह है। आदरणीय पंडित जी सा. तो अद्भुत पांडित्य के धनी हैं ही। उनके प्रति हम श्रद्धावनत हैं। अभय कुमार जैन ( पूर्व प्राचार्य) कानूनी वार्ड, बीना 470113 म. प्र.. - Page #267 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - वीर सेवा मंदिर 21, दरियागंज, नई दिल्ली-2 Page #268 -------------------------------------------------------------------------- _