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________________ अनेकान्त 59/3-4 वियोग, रोग जनित वेदना और आगामी भोगाकांक्षा रूप निदान। इनके निमित्त से जो संक्लेशतापूर्ण चिंतन दुख होता है वह आर्तध्यान कहलाता है। यह चारों आर्त-ध्यान कृष्ण, नील और कापोत लेश्या के विशेष बल से होते हैं। आर्तध्यान अज्ञान मूलक कटुफल देने वाला, आसाता वेदनीय कर्म का बन्धक और तिर्यंच गति में ले जाने वाला है। आर्तध्यान प्रथम गुणस्थान से छठवें गुण स्थान अर्थात् प्रमत्तगुण स्थान तक होता है। निदान आर्त ध्यान प्रमत्त संयत (छठवां) को नहीं होता रौद्र ध्यान : रुद्रः क्रमरस्तत्कर्म रौद्रम् अर्थात् रुलाने वाले को रुद्र या क्रूर कहते हैं रुद्रभावों से होने बाला ध्यान रौद्र ध्यान है। क्रूर आभिप्राय और परिणामों से होने वाले रौद्र ध्यान के चार भेद हैंहिंसानन्द, मृषानन्द, चौर्यानन्द और परिग्रहानंद रौद्रध्यान। हिंसा, झूठ चोरी कुशील और परिग्रह के भाव रौद्र ध्यान के निमित से होते हैं। अतः हिंसादि पाँच भाव रौद्रध्यान की उत्पत्ति का कारण है। इनका फल नरक गति है। अति संक्लेश परिणामों से सप्तम नरक गति का बंध पडता है। रौद्र ध्यान देशविरत पंचमगुणस्थान तक होता है। प्रमत संयत, छठवें गुण स्थानवर्ती मुनिराज को हो जावे तो मुनि पद भंग हो जाता है। अग्नि से तप्त लोहपिंड जिस प्रकार चारों ओर से जल अपनी ओर खींचता है उसी प्रकार आर्त रौद्र ध्यानी आत्मा चारों ओर से कर्म रूपी जल खींचकर निरंतर कार्मण वर्गणाओं को ग्रहण कर कर्म बंध करता है। इस कारण अप्रशस्त ध्यान संसार दुख का कारण है, अशभरूप है अतः इनसे निवृत्ति लेकर स्वाश्रित शुभ और शुद्ध में प्रवृत्ति इष्ट है। प्रशस्त ध्यान मोक्ष का कारण : भेद-विज्ञान से शुद्धत्मा को उपलब्धि होती है और शुद्धात्मा की
SR No.538059
Book TitleAnekant 2006 Book 59 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2006
Total Pages268
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size8 MB
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