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________________ अनेकान्त 59/1-2 मज्झिमनिकाय के जीवकसुत्त में जीवक ने बुद्ध से प्रश्न किया, है कि भगवान् ! लोग कहते है कि बुद्ध उद्दिष्ट भोजन स्वीकार करते हैं वे उद्दिष्ट मांस का आहार लेते हैं, क्या ऐसा कहने वाले मनुष्य आपकी और आपके धर्म की निन्दा नहीं करते, अवहेलना नहीं करते? इसके उत्तर में बुद्ध कहते हैं “न मे ते कुत्तवादिनो अब्माचिक्खंति च पन में ते असाता अभूतेन । तीहि खो अहं जीवक ठाने हि मंसं अपरिभोगं ति वदामिःदिटुं, सुतं, परिसंकितं । इमेहि खो अहं जीवक तीहि ठानेहिमंसं अपरिभोगं ति वदामि। तीहि खो अहं जीवक ठाने हि मंसं परिभोगं ति वदामिः-अदिटुं, असुतं, अपरिसंकितं। इमेहि खो अहं जीवक तीहि ठानेहि मंसं परिभोगं ति वदामि।" यह कहने वाले मनुष्य असत्यवादी नही, वे धर्म की अवहेलना करने वाले नहीं हैं; क्योंकि मैंने तीन प्रकार के मांस को भक्ष्य कहा है जो देखा न हो (अदिट्ठ) सुना न हो (असुत), और जिसमें शंका न हो (अपरिसंकित)। बड़ा आश्चर्य है कि बुद्ध का मांस-संबंधी उक्त स्पष्ट वचन होने पर भी ब्रह्मचारी जी उक्त वचन के विषय में शंका करते हुए लिखते हैं “यह वचन कहाँ तक ठीक है, यह विचारने योग्य है।" भले ही उक्त कथन ब्रह्मचारी जी के विचार में न बैठता हो, पर कथन तो अत्यंत स्पष्ट हैं। पर ब्रह्मचारी जी तो किसी भी तरह जैन और बौद्धधर्म को एक सिद्ध करने की धुन में हैं। ब्रह्मचारी जी ने आगे चलकर 'लंकावतार' सूत्र से ढेर के ढेर मांस-निषेध के उद्धरण पेश किये हैं। किन्तु शायद उन्हें यह ज्ञान नहीं कि लंकावतार सूत्र महायान बौद्ध सम्प्रदायका ग्रंथ है, और वह संस्कृत में है; जबकि बुद्ध के मूल उपदेश पाली में है और ‘मज्झिमनिकाय' पाली-विचार की जैन धर्म के आचार से तुलना करना, यह लोगों की आँखों में धूल झोंकना है। वस्तुतः बात तो यह है कि बुद्ध अपने धर्म को सार्वभौमधर्म बनाना चाहते थे, और
SR No.538059
Book TitleAnekant 2006 Book 59 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2006
Total Pages268
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size8 MB
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