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अनेकान्त 59/1-2 अस्तित्व नहीं है, उसी तरह रूप, वेदना, विज्ञान, संज्ञा और संस्कार इन पाच स्कधो को छोड़कर नागसेन कोई अलग वस्तु नहीं हैं।"
'विसुद्धिमग्ग' में भी निम्न श्लोक द्वारा उक्त भाव ही व्यक्त किया गया है.
दुक्खमव हि न कोचि दुक्खितो। कारको न किरिया व विज्जति। अत्थि निव्वुत्ति न निव्वुत्तो पुमा।
मग्गमत्यि गमको न विज्जति। क्या कोई जेनधर्म का अभ्यासी उक्त मान्यता को जैनधर्म की मान्यता सिद्ध करने का दावा कर सकता है? यदि कोई कहे कि उक्त मान्यता बुद्ध की मान्यता नहीं; बुद्ध ने तो आत्मा को 'अव्याकत' कहा है, या उसके विषय में तृण्णीभाव रक्खा है तो इसके उत्तर में हम कहेंगे कि फिर भी बुद्ध की मान्यता को हम जैन मान्यता कभी नहीं कह सक्त। महावीर ने आत्मा की कभी उपेक्षा नहीं की। बल्कि उन्होंने तो डके की चोट से घोषणा की कि “जे एगं जाणइ से सव्वं जाणइ" अर्थात् जा एक (आत्मा) को जानता है, वह सब कुछ भी नहीं जानता। जिस तरह जैन शास्त्रों में 'अणु-गुरु-देह प्रमाण' आदि लक्षणों के साथ आत्मा का विशद और विस्तृत वर्णन देखने में आता है क्या उस तरह का वर्णन ब्रह्मचारी जी ने किसी बौद्ध ग्रन्थ में देखा है? यदि नहीं, तो उनका दोनो धर्मो को समान बताना आत्मवंचन है, धर्म-व्यामोह है, विडंबना है और साथ ही जैन आचार्यो की अवमानना है।
जैन और बौद्ध धर्म में दूसरी बड़ी भारी विषमता यह है कि बौद्ध धर्म में मांस भक्षण का प्रतिपादन है जबकि जैन ग्रंथों में कहीं इस बात का नाम-निशान भी नहीं। यह हो सकता है कि बुद्ध ने अमुक प्राणियों के मास भक्षण करने की आज्ञा न दी हो, जैसे यहूदी आदि धर्मो में भी पाया जाता है, पर मांसाहार का उन्होंने सर्वथा निषेध नहीं किया।