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________________ अनेकान्त 59/1-2 101 स्निग्ध पेय दूध आदि देते हैं। इसके बाद छाछ देकर इसका भी त्याग कराके मात्र गर्म जल देते हैं। शक्ति के अनुसार उपवास करते हुये पंच परमेष्ठी का स्मरण कर शरीर का त्याग किया जाता है। इस पूरी प्रक्रिया में सल्लेखना कराने वाले आचार्य (निर्यापकाचाय) की महत्वपूर्ण भूमिका रहती है। क्योंकि रोग की वेदना, तीव्र राग का उदय, विषयों की लिप्तता आदि के समय मन विचलित होने लगता है तब निर्यापकाचार्य अपने संबोधन से क्षपक के विचारों में स्थिरता प्रदान करते हैं। अतः श्रेष्ठ निर्यापकाचार्य होना आवश्यक है। निर्यापकाचार्य के आठ गुण कहे गये हैं। आचारी सूरिराधारी व्यवहारी प्रकारकः । आयापाय दृगुउत्पीडी सुखकार्यपरिस्रवः।। __ आचारवान, आधारवान, व्यवहारवान प्रकारक (का), आयापाय, दृग, उतपीड़क और परिस्रावी इन आठ गुणों से सहित निर्यापकाचार्य होना चाहिये। क्योंकि बिना आचार्य के उपदेश के मन की शुद्धि, स्थिरता नहीं होती है। शरीर के रिष्टों से स्थिति समझकर सल्लेखना ग्रहण की जाती है। काल की अपेक्षा सल्लेखना उत्तम, मध्यम और जघन्य के भेद से तीन प्रकार की होती है। उत्कृष्ट बारह वर्ष, मध्यम काल के असंख्यात भेद है। जघन्य काल अन्तर्मुइर्त है। उत्कृष्ट बारह वर्ष की सल्लेखना में आहारादि के त्याग का क्रम निम्नानुसार है जोगेहिं विचित्तेहिं दुखवेइ संवच्छ राणी चत्तारि। वियडीणि य जूहित्ता चत्तारि पुणो वि सोसेई ।। आयं विलणि व्वियडी हिंदोण्णि आयं विलेण एक्कं च । अद्धंणा दि विगट्टे हिंतदो अद्धं विगढे हिं।।16 विचित्र प्रकार के काय क्लेशादि योग से चार वर्ष पूर्ण करें पश्चात् चार वर्ष रस रहित भोजन से शरीर कृश करे। आचाम्ल (अल्पाहार) तथा नीरस भोजन से दो वर्ष पूर्ण करे पश्चात् अल्पाहार से एक वर्ष पूर्ण
SR No.538059
Book TitleAnekant 2006 Book 59 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2006
Total Pages268
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size8 MB
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