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अनेकान्त 59/1-2
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वाले महाव्रतों को धारण करे। 12 यदि चारित्र मोहनीय कर्म का उदय रहने से वह दीक्षा ग्रहण नहीं कर सकता तो मरण समय उपस्थित होने पर संस्तर श्रमण हो जाना चाहिये । यदि यह भी शक्य न हो तो सल्लेखना का अनुष्ठान करते हुये क्रम से आहार आदि का त्याग करना चाहिये । 13 धनवान और धन रहित श्रावकों को भी ग्रन्थों में अन्त समय के लिये मार्ग प्रशस्त किया गया है |
तत्कर्तुं गुरुणा दत्तं प्रायश्चित्तं तपोऽक्षमा । धनिनो ये जिनागारे स्वयं सर्वत्र शुद्धये ।। दद्युर्धनं स्व शक्त्या ते परे दोषादिहानये । प्रायश्चित्तं तु कुर्वन्तु तपांस्यनशनादिभिः । । 14 अर्थात्-समाधिमरण के लिये उद्यत धनी गृहस्थ गुरु के द्वारा दिये गये प्रायश्चित्त तप को धारण करने में असमर्थ हो तो वे स्वयं शुद्धि के लिये जिनालय में धन का दान करें तथा दूसरे लोग अपनी शुद्धि के लिये शक्ति अनुसार अनशन, ऊनोदर आदि के द्वारा अपने पापों की शुद्धि करें । धन के प्रति आसक्ति कम करने के लिए धन दान करने का निर्देश दिया गया है। श्रावकों को अन्त समय में महाव्रत अवश्य धारण करना चाहिये तभी श्रावक धर्म की सफलता मानी जाती है । शरीर के अन्तिम संस्कार के समय तीर्थकरों, गणधर देवों, सामान्य केविलयों एवं महाव्रनियों के शरीर के अन्तिम संस्कार का ही वर्णन शास्त्रों में मिलता है । अतः प्रतिफलित होता है कि श्रावकों को अन्त समय में महाव्रती अवश्य होना चाहिये । समाधि मरण करने वाला प्रीति, बैर, ममत्व और परिग्रह को छोड़कर स्वच्छ हृदय होता हुआ मधुर वचनों से क्षमा करता और कराता है; शरीर को भार स्वरूप समझता है। किसी प्रकार का शोक नहीं करता है, भूख प्यास की बाधा सहन होगी कि नहीं यह सोच समाप्त हो जाती है और क्रम-क्रम से आहार का त्याग करता है । एक साथ पूर्ण आहार त्याग देने से क्षपक को आकुलता हो सकती है, अतः सल्लेखना विधि कराने वाले निर्यापकाचार्य क्षपक की शक्ति को देखकर क्रम से आहार का त्याग कराते हैं । प्रथम कवनाहार (दाल, चावल रोटी आदि) का त्याग कराकर