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अनेकान्त 59/1-2
मरण कहते हैं। अपने आयुष्य को शीघ्र क्षीण होता जानकर शीघ्र ही मन में अहँत व सिद्ध परमेष्ठी को धारण करके उनसे अपने दोषों की आलोचना करे तथा सर्व शल्य रहित ममत्व रहित होकर मोक्ष प्राप्ति के लिये दो प्रकार का संन्यास धारण करने का निर्देश प्राप्त होता है।
अस्मिन् देशेऽवधौ काले यदि मे प्राणमोचनम्। तदास्तु जन्मपर्यन्तं प्रत्याख्यानं चतुर्विधम् ।। जीविष्यामि क्वाचिद्वाहं पुण्येनोपद्रोपशमात् ।।
करिष्ये पारणं नूनं धर्मचारित्रसिद्धये ।। पहला सन्यास इस प्रकार धारण करना चाहिए कि इस देश में इतने काल तक यदि मेरे प्राण निकल जायें तो मेरे जन्म पर्यन्त चारों प्रकार के आहार का त्याग है। दूसरे सन्यास को इस प्रकार धारण करना चाहिये कि यदि में अपने पुण्य से इस घोर उपद्रव से कदाचित बच जाऊँगा तो मैं धर्म और चारित्र की सिद्धि के लिये इतने काल के बाद पारणा करूंगा। इस प्रकार सहसा मरण काल आने पर अपने मन को विशुद्ध बनाता हुआ आहारादिक का त्याग स्वयं भी कर सकता है, क्योंकि मरण काल में भावों की विशुद्धि का ही विशेष महत्व होता है। श्रावकों को मरण काल में महाव्रत ग्रहण कर लेना चाहिये, जिससे परिणाम विशुद्ध बनते हैं। इसके लिये भी क्रम से त्याग करना चाहिये।
धरिऊण वत्थमेत्तं परिग्गहं छंडिऊण अवसेसं ।।
सगिहे जिणालय वा तिविहा हारस्स वोसरणं ।। वस्त्र मात्र परिग्रह को रख कर और अवशिष्ट समस्त परिग्रह को छोड़कर अपने ही घर में अथवा जिनालय में रहकर श्रावक गुरु के पास में मन, वचन और काय से अपनी भली प्रकार आलोचना करता है और पानी के सिवाय शेष तीन प्रकार के आहार का त्याग करता है। श्रावक अन्त समय में स्नेह, बैर और परिग्रह को छोड़कर शुद्ध होता हुआ, प्रिय वचनों से अपने कुटुम्बियों और नौकरों से क्षमा कराते हुये आप भी सब को क्षमा करे। समस्त पापों की आलोचना करे और मरण पर्यन्त रहने