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अनेकान्त 59 / 1-2
हैं । यद्यपि आहार त्याग उपरोक्त दोनों मरणों में भी होता है, तो भी इस लक्षण का प्रयोग रूढ़ि वश मरण विशेष में
ही कहा गया है ।
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भक्तप्रत्याख्यान मरण सविचार और अविचार के भेद से दो प्रकार का है - नाना प्रकार के चारित्र का पालना, चारित्र में विहार करना विचार है । इस विचार के साथ जो वर्तता है वह सविचार है। जो गृहस्थ अथवा मुनि उत्साह या बलयुक्त हैं और जिसका मरण काल सहसा उपस्थित नहीं हुआ है । अर्थात् जिसका मरण दीर्घकाल के बाद होगा, ऐसे साधु के मरण को सविचार भक्तप्रतयाख्यान मरण कहते हैं। इसमें आचार्य पद त्याग, पर गण गमन, सबसे क्षमा, आलोचना पूर्वक प्रायश्चित ग्रहण विशेष भावनाओं का चिन्तन, क्रम पूर्वक आहार का त्याग आदि कार्य व्यवस्थित रहते हैं। जिनकी सामर्थ्य नहीं है, जिसका मरण काल सहसा उत्पन्न हुआ है, ऐसे पराक्रम रहित साधु के मरण को अविचार भक्तप्रत्याख्यान मरण कहते हैं । यह तीन प्रकार का है । ( 1 ) निरुद्ध (2) निरुद्धतर (3) परम निद्ध । रोगों से पीड़ित होने के कारण जिनका जंघा बल क्षीण हो गया हो, जिससे पर गण में जाने से असमर्थ हो वे उन मुनि के निरुद्ध विचार भक्तप्रत्याख्यान मरण करते हैं। इसके प्रकाश और अप्रकाश दो भेद हैं। क्षपक के मनोबल अर्थात् धैर्य, क्षेत्रकाल उनके बान्धव आदि का विचार करके अनुकूल कारणों के होने पर उस मरण को प्रकट किया जाता है वह प्रकाश है। प्रकट न करना अप्रकाश
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है । सर्प, अग्नि, व्याघ्र, भैंसा, हाथी, रीछ, शत्रु, चोर म्लेक्ष, मूर्छा, तीव्रशूल रोग आदि से तत्काल मरण का प्रसंग होने पर जब तक काय बल शेष रहता है, और जब तक तीव्र वेदना से चित्त आकुलित नहीं होता और प्रतिक्षण आयु का क्षीण होना जानकर अपने गण के आचार्य के पास अपने पूर्व दोषों की आलोचना कर जो मरण करता है वह निरुद्धतर आविचार भक्त प्रत्याख्यान मरण है ।
सर्प अग्नि आदि कारणों से पीड़ित साधु के शरीर का बल और वचन का बल यदि क्षीण हो जाये तो परम निरुद्ध अविचार भक्तप्रत्याख्यान