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अनेकान्त 59/1-2
विकथाक्षकषायाणां निद्रायाः प्रणयस्य च।
अभ्यासाभिरतो जन्तुः प्रमत्तः परिकीर्तितः।।" अर्थात् प्रमाद के योग से प्राणियों के प्राणों का घात करना हिंसा और उनकी रक्षा करना अहिंसा है। जो जीव चार विकथा, पाँच इन्द्रियों, चार कषाय, निद्रा और मोह के वशीभूत है, वह प्रमत्त कहलाता है।
मांसनिषेध, जीवन निर्वाह के लिए मांस अनिवार्य नहींउपासकाध्ययन में कहा गया है कि मांस स्वभाव से ही अपवित्र है, दुर्गन्ध से भरा है, दूसरों से प्राण लेने पर ही तैयार होता है, दुःस्थान से प्राप्त होता है तथा विपाक में दुर्गति को देने वाला है। ऐसे मांस को सज्जन कैसे खा सकते हैं? जिस पशु को मांस के लिए हम मारते हैं? वह जन्मात्तर में हमें न मारे या मांस के बिना जीवन ही न चलता हो तो प्राणी अकरणीय पशुहत्या भले ही कर ले, किन्तु ऐसी बात नहीं है।' अर्थात जिस पशु की हम हत्या करते हैं, जन्मान्तर में वह हमारी वह हत्या करता है तथा मांस के बिना भी मनुष्यों का जीवन चलता ही है।
हिंसक भी सुखी देखा जा सकता है, किन्तु परिणाम दुःखद हीकुछ लोगों का कहना हो सकता है कि हम कुछ ऐसे लोगों को सुख भोगते हुए देखते हैं, जो दूसरों का घात करते हैं। इसका समाधान करते हुए श्री सोमदेव सूरि का कहना है कि जो प्राणी दूसरों के घात के द्वारा सुख भोगने में तत्पर रहता है, वह वर्तमान में सुख भोगता दिखाई देने पर भी अन्य जन्म में दुःख भोगता है, किन्तु जो तात्कालिक सुखों में अनासक्त होकर धर्म करता है, वह परलोक में दुःख नहीं उठाता है। इस समय का सुख पूर्व धर्म का फल है। जो धर्म का फल भोगता हुआ भी धर्माचरण करने में आलस्य करता है, वह मूर्ख है, जड है, अज्ञानी है और पशु से भी गया-गुजरा है। जो अपना हित चाहते हैं और अहित से बचते हैं, वे दूसरों के मांस से अपने मांस की वृद्धि कैसे कर सकते हैं? जैसे दूसरों को दिया हुआ धन कालान्तर में ब्याज सहित अधिक मिलता है, वैसे ही मनुष्य दूसरों को जो सुख-दुःख देता है, वह कालान्तर में अधिक होकर मिलता है।'