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________________ अनेकान्त 59/1-2 हिंसा क्यों अकरणीय है?-बौद्ध धर्म के सुप्रसिद्ध धर्म ग्रन्थ धम्मपद में कहा गया है 'सबे तसंति दण्डस्स सब्बे भायंति मच्चुनो। अत्तानं उपमं कत्वा न हनेय्य न घातये।। सब्बे तसंति दण्डस्स सब्बेसं जीवितं पियं । अत्तानं उपमं कत्वा न हनेय्य न घातये ।।8 दण्ड से सभी डरते हैं, मृत्यु से सभी भय खाते हैं। अतः अपने समान जानकर न किसी को मारे और न मारने की प्रेरणा करे। सभी दण्ड से डरते हैं, अपना जीवन सबको प्रिय है। अतः इसरों को अपने समान जानकर न किसी को मारे और न मारने की प्रेरणा करे। __ श्री सामदेवसूरि हिंसा की त्याज्यता तथा 'आत्मवत् परभूतानि' दर्शन का उपदेश देते हुए लिखते हैं 'अल्पात्क्लेशात्सुखं सुष्ठु, सुधीश्चेत्स्वस्य वाञ्छति। आत्मनः प्रतिकूलानि, परेषां न समाचरेत् ।। स्वकीयं जीवितं यद्वत् सर्वस्य प्राणिनः प्रियम्। तद्वदेतत्परस्यापि ततो हिंसां परित्यजेत् ।।'' अर्थात् जो बुद्धिमान् पुरुप थोड़े से कष्ट से अच्छा सुख प्राप्त करना चाहता है तो जो काम उसे स्वयं बुरे लगें, उन कामों को दूसरों के प्रति भी उसे नहीं करना चाहिए। जिस प्रकार सभी प्राणियों को अपना जीवन प्रिय है, उसी तरह दूसरों को भी अपना जीवन प्रिय है, इसलिए हिंसा को छोड़ देना चाहिए। मांसभक्षण के पक्ष में कुतर्क और उनके सयुक्तिक समाधान 1. कुछ लोगों का कहना है कि मूग-उदड़ आदि में और ऊंट-मेढ़ा आदि मे कोई अन्तर नही है; क्योकि जैसे ऊंट-मेढा आदि मे जीव रहता है, वैसे ही मूंग-उड़द आदि में भी जीव रहता है। अत: जीव का शरीर होने से मूंग- उडद वगैरह भी मांस ही हैं।
SR No.538059
Book TitleAnekant 2006 Book 59 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2006
Total Pages268
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size8 MB
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