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________________ अनेकान्त 59 / 1-2 . निश्चय नय से वे केवली भगवान् अपनी आत्मा को जानते देखते हैं । इसका अर्थ यह नहीं है कि वे अपनी आत्मा को जानने के कारण शेष जगत् से अनभिज्ञ या अनजान रहते हैं, इसी तथ्य को स्पष्ट करते हुए आ. योगेन्दु देव ने लिखा है जोइय अप्पे जाणिएण जगु जाणियउ हवेउ । अप्पहं करेइ भावडइ बिंबिउ जेण वसेई ।। -परमात्म प्रकाश, 99 अपने आत्मा के जानने से यह तीन लोक जाना जाता है, क्योंकि आत्मा के भाव रूप केवलज्ञान में यह लोक प्रतिबिम्बित हुआ बस रहा है । 79 केवलज्ञानी अपनी आत्मा के साथ समस्त जगत् को भी जानते हैं : यदि हम ऐसा मानते हैं कि "केवली भगवान केवलज्ञान के द्वारा केवल अपनी आत्मा के स्वरूप को देखते हैं, लोक- अलोक को नहीं जानते" तब इस मान्यता से केवलज्ञान में कोई विशेषता नहीं रह जाती । परन्तु स्वयं कुन्दकुन्दाचार्य ने लिखा है - जदि पच्चक्खमजादं पज्जायं पलयिदं च णाणस्स । ण हवदि वा तं गाणं दिव्वं ति हि के परूवेंति ।। प्रवचनसार, 39 यदि अनुत्पन्न व नष्ट पर्यायें ज्ञान के प्रत्यक्ष न हों तो उस ज्ञान को दिव्य कौन कहेगा ? आशय यह है कि केवलज्ञान की दिव्यता एवं विशिष्टता इसी कारण है कि वह समस्त चराचर जगत् को एक साथ जनता है। इसलिए उक्त निश्चय नय एवं व्यवहार नय इन दोनों नयों की दृष्टि से कथन में भिन्नता हो सकती है पर केवलज्ञान के वैशिष्ट्य पर इसका कोई प्रभाव नहीं पड़ता | नियमसार में लिखा है मुत्तममुत्तं दव्वं चेयणमियरं सगं च सव्वं च । पेच्छं तस्स दु णाणं पच्चक्खमणिदियं होई ।। 167 ।।
SR No.538059
Book TitleAnekant 2006 Book 59 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2006
Total Pages268
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size8 MB
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