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अनेकान्त 59 / 1-2
पुव्वत्त्सयलदव्व णाणागुण पज्जएण संजुत्तं ।
जो ण य पेच्छइ सम्मं परोक्खदिट्ठी हवे तस्स ।। 168 ।।
वास्तव में मूर्तिक- अमूर्तिक, चेतन-अचेतन द्रव्यों को; अपने को तथा अन्य समस्त को देखने वाले का ही ज्ञान अतीन्द्रिय प्रत्यक्ष होता है । नाना गुण पर्यायों से युक्त पूर्वोक्त समस्त द्रव्यों को जो सम्यक् प्रकार से नहीं देखता उसका दर्शन परोक्ष ही रहेगा।
इसी संशय के निवारणार्थ प्रवचनसार में लिखा है
जो ण विजानदि जुगवं अत्थे तिक्कालिगे तिहुवणत्थे । णादुं तस्स ण सक्कं सपज्जयं सपज्जयं दव्वमेगं वा ।। 48 ।।
दव्वं अनंत पज्जयमेगमणंताणि दव्वजादाणि ।
ण विजाणदि जदि जुगवं किध सो सव्वाणि जाणादि । 149 ।। जो एक ही साथ त्रैकालिक त्रिभुवनस्थ पदार्थो को नहीं जानता, उसे पर्याय सहित एक ( आत्म) द्रव्य भी जानना शक्य नहीं है। यदि अनन्त पर्याय वाले, एक द्रव्य को तथा अनन्त द्रव्य समूह को एक ही साथ नहीं जानता तो वह सबको कैसे जान सकेगा ?
केवलज्ञानी की समस्त क्रियायें इच्छा रहित हैं :
केवलज्ञान के विषय में जानकर सामान्यतः लोगों के मन में यह प्रश्न उठता है कि यदि केवलज्ञानी समस्त जगत् के प्राणियों के सुख-दु:ख को जानते-देखते हैं तब क्या उनके भीतर राग-द्वेष नहीं होता। इसी समाधान में आचार्य शिवकोटि भगवती आराधना में लिखते हैं
पस्सदि जाणदि य तहा तिण्णि वि काले सपज्जए सव्वे । तह वा लोगमसेस पस्सदि भयवं विगदमोहा । 1214
अर्थ - केवली सम्पूर्ण द्रव्यो व उनकी पर्यायो से भरे हुए सम्पूर्ण जगत् को तीनो कालों में जानते हैं । तो भी वे मोहरहित ही रहते हैं ।