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अनेकान्त 59/1-2
को अपना अनुयायी बना लेते हैं, अतः आप उपालि को वहाँ जाने की अनुमति न दें। परन्तु दीर्घतपस्वी के कथन का कोई प्रभाव नहीं हुआ, और उपालि बुद्ध से शास्त्रार्थ करने चल दिये। उपालि बुद्ध से प्रश्नोत्तर करते हैं, और बुद्ध के अनुयायी हो जाते है। अब उन्होंने अपने द्वारपाल से कह दिया कि आज से निग्रंथ और निग्रंथिणियों के लिये मेरा द्वार बन्द है, और अब यह द्वार मैंने बौद्धभिक्षु और भिक्षुणियों के लिये खोल दिया है। (अज्जतग्गे सम्म दोवारिक, आवरामि द्वारं निगण्ठानं, निगण्ठीनं; अनावटं द्वारं भगवतो भिक्खूनं भिक्खुणीनं, उपसकानां, उपासिकान)। इतना ही नहीं, उपालि ने द्वारपाल से कह दिया कि यदि कोई निग्रंथ साधु आये तो उसे अन्दर आने के लिय रोकना, और कहना कि उपालि आज से बुद्ध का अनुयायी हो गया है। तथा यदि वह साधु भिक्षा मांगे तो कहना कि यहीं ठहरो, तुम्हें यही आहार मिलेगा। महावीर ने यह सब सुना और वे स्वयं एक दिन उपालि के घर आये। द्वारपाल ने उन्हें रोक दिया। द्वारपाल ने अन्दर जाकर कहा कि निगंठ नातपुत्त अपने शिष्यों को लेकर आये हैं, आपसे मिलना चाहते हैं। उपालि ने उन्हें आने दिया। परन्तु उपालि ने आसन पर बैठे-बैठे महावीर से कहा 'आसन विद्यमान है, चाहें तो बैठिये।' दोनों में प्रश्नोत्तर हुआ और उपालि ने बुद्ध शासन को ही उत्कृष्ट बताया। __ इस प्रकार के पाली साहित्य के उल्लेखों को पढ़कर अत्यंत स्पष्ट है कि बुद्ध और महावीर का सिद्धांत एक न था, तथा उन दोनों में केवल चर्या का ही अंतर न था।
रात्रिभोजन-त्याग आदि दो-चार बातों का साम्य देख लेने मात्र से ही हम जैन और बौद्ध धर्म को एक नहीं कह सकते। ऐसे तो महाभारत आदि में भी 'वस्त्रपूतं जल पिबेतु'- आदि उल्लेख मिलते हैं। उपनिषद्-साहित्य तो ज्ञान और तप के अनुष्ठानों से भरा पड़ा है। शतपथ ब्राह्मण आदि ग्रंथों में जगह-जगह वर्षा ऋतु में एक जगह रहना, आहार कम करना आदि साधुचर्या का विस्तार से वर्णन है। परन्तु इसका अर्थ यह नहीं कि यह सब जैनधर्म हैं। हम इतना ही कह सकते हैं कि यह सब श्रमण-संस्कृति के चिह्न हैं। पर श्रमण-संस्कृति में जैन