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अनेकान्त 59/1-2 के साथ-साथ बौद्ध, आजीविक आदि संप्रदाय भी गर्भित होते हैं।
जैनधर्म और बौद्धधर्म में साम्य अवश्य है, पर उक्त बातों में नहीं। वह साम्य दूसरी ही बातों में है। आत्मा और निर्वाण-संबंधी बातों में तो विषमता ही है। उदाहरण के लिये कर्म सिद्धांत जैन और बौद्ध का मिलता जुलता है। दोनों महापुरुष गुणकर्म से ही मनुष्य को छोटा बड़ा मानते थे। दोनों ही महात्माओं ने सर्व साधारण भाषा में अपना उपदेश दिया था। दोनों अहिंसा के ऊपर जोर देते थे और पश-वधका घोर विरोध करते थे। दोनों ब्राह्मणों के वेद को न मानते थे। दोनों का धर्म निवृत्ति प्रधान था। दोनों श्रमण-संस्कृति के अंग होने से एक दूसरे के बहुत पास थे। किन्तु दोनों का सिद्धांत एक न था। महावीर आत्मवादी थे, बुद्ध अनात्मवादी, महावीर कमो “का क्षय होने से अनंत चतुष्टय रूप मोक्ष मानते थे, बुद्ध शून्यरूप-अभावरूप। महावीर का शासन तप-प्रधान था, बुद्ध का ज्ञानप्रधान।
हमारी समझ में बिना सोचे समझे ऐसे साहित्य का सर्जन करना, साहित्य की हत्या करना है। और एक आश्चर्य और है कि ऐसा साहित्य जैन समाज में खप भी बहुत जल्दी जाता है। अभी तक किसी महानुभाव ने उक्त पुस्तक के विरोध में कुछ लिखा हो, यह सुनने में नहीं आया। अभी सुना है कि ब्रह्मचारी जी ने जैनधर्म और अरिस्टोटल (अरस्तू) के विषय में कुछ लिखा है, और शायद अरिस्टोटल को भी जैन बनाने का प्रयत्न किया गया है। आशा है इस लेख के पढ़ने से पाठकों में जैनधर्म और बौद्धधर्म के तुलनात्मक अभ्यास करने की कुछ अभिरुचि जागृत होगी।