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अनेकान्त 59/1-2
अर्थात्-गुरु के प्रसाद से ही ज्ञान रूप नेत्र प्राप्त होता है, जिसके द्वारा सम्स्त विश्वगत पदार्थ हस्तरेखा के सामान स्पष्ट दिखाई देते हैं। इसलिए ज्ञानार्थी गृहस्थों को भक्तिपूर्वक गुरुजनों की वैयावृत्त्य और वन्दना आदि करना चाहिए। जो गुरुजनों का सम्मान नहीं करते हैं और न उनकी उपासना ही करते हैं, सूर्य के उदय होने पर भी उनके हृदय में अज्ञानरूप अन्धकार बना ही रहता है।' कुन्दकुन्द श्रावकाचार में गुरु-शिष्य दोनों का स्वरूप बतलाकर गुरुभक्ति किस प्रकार करनी चाहिए इसको बतलाते हुये कहते हैं कि सर्वप्रथम तो देव-पूजनादि के बाद हमें स्वयं चलकर गुरु के पास जाना चाहिए, यदि गुरु आयें तो भलीभॉति पर्युपासना करनी चाहिए, अपने आसन से उठना, सामने जाना, मस्तक पर जल धारण कर स्वयं उन्हें आसन देना, उनकी भक्तिपूर्वक नमस्कार करना और जब जायें तो कुछ दूर तक उन्हें भेजने जाना-यही गुरु की उपासना का क्रम है। (4/20/183-187) इस प्रकार श्रावकाचार संग्रह में संग्रहीत विभिन्न श्रावकाचारों में गुरु के महत्त्व तथा उनकी भक्ति का विशेष वर्णन है।
3. स्वाध्याय
'स्वाध्यायः परमं तपः'- कह कर आचार्यों ने स्वाध्याय को तप के भेदों में गिना है। यद्यपि 'तप' भी षडावश्यकों में है तथापि स्वाध्याय का महत्त्व इतना अधिक है कि उसे पृथक् स्थान देकर उसकी अनिवार्यता मानी है। स्वाध्याय स्व-पर का भेद ज्ञान करवाने में सबसे बड़ा निमित्त है। शेष आवश्यकों को सच्ची रीति पूर्वक करने के लिए भी स्वाध्याय बहुत आवश्यक है।
अमितगतिकृत श्रावकाचार में आचार्य ने स्वाध्याय तप का वर्णन करते हुए कहा है कि 'पंचम गति मुक्ति को चाहने वाले पुरुषों को वाचना, पृच्छना, आम्नाय, अनुप्रेक्षा और धर्मदेशनारूप पाँच प्रकार का स्वाध्याय करना चाहिए।'