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अनेकान्त 59/1-2
व्याख्या वहाँ की गयी है। सर्वप्रथम तो आत्मा का जो शुद्धभाव निर्जरादि का कारण है वही परमपूज्य है और उससे युक्त आत्मा ही परमगुरु है। गुरुपने का कारण केवल दोषों का नाश हो जाना ही है। जो निर्दोष है वही जगत् का साक्षी है और वही मोक्षमार्ग का नेता है अन्य नहीं
निर्जरादिनिदानं यः शुद्धोभावश्चिदात्मकः । परमार्हः स एवास्ति तद्वानात्मा परं गुरु।। न्यायाद्गुरुत्वहेतुः स्यात्केवलं दोषसंक्षयः। निर्दोषो जगतः साक्षी नेतामार्गस्य नेतरः।।
(3/168/193–194) उपास्वामि श्रावकाचार में कहा है कि गुरु के बिना भव्यजीवों को भव से पार उतारने वाला और कोई भी नहीं है, और न ही गुरु के बिना अन्य कोई मोक्षमार्ग का प्रणेता ही हो सकता है अतः सज्जनों को गुरु की सेवा करनी चाहिए
गुरुं विना न कोऽप्यस्ति भव्यानां भवतारकः। मोक्षमार्गप्रणेता च सेव्योऽतः श्रीगुरुः सताम् ।। गुरुणां गुणयुक्तानां विधेयो विनयो महान्। मनोवचनकायैश्च कृतकारितसम्मतैः।।
(3/168/193-194) अर्थात्- ‘गुणों से संयुक्त गुरुओं की मन-वचन-काय से और कृत कारित अनुमोदना से महान् विनय करनी चाहिए। पद्मनन्दिपञ्चविंशतिकागत श्रावकाचार में गुरु की उपासना का सुफल तथा नहीं करने पर दुष्फल इन दोनों का ही वर्णन है- .
गुरोरेव प्रसादेन लभ्यते ज्ञानलोचनम्। समस्तं दृश्यते येन हस्तरेखेव निस्तुषम् ।। ये गुरुं नैव मन्यन्ते तदुपास्तिं न कुर्वते । अन्धकारो भवेत्तेषामुदितेऽपि दिवाकरे।।
(3/428-29/18, 19)