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अनेकान्त 59 / 1-2
निर्ग्रन्थ गुरुओं के सच्चे स्वरूप का वर्णन प्रश्नोत्तर श्रावकाचार में बहुत विस्तार से है ( 2 / 222 / 132-146) । दो सारगर्भित श्लोक कहे हैं जो उल्लेखनीय है
'देशका ये तरंति स्वयं संसारे दुःख सागरे । तारयन्ति समर्थास्त परेषां भव्यदेहिनाम् । । बुधोत्तमाः ।
।।
गुरुन् संगविनिर्मुक्तान् ये भजन्ति नाकराज्यादिकं प्राप्य मुक्तिनाथा भवन्ति ये ।।
(2/223/143-144)
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अर्थात्- “जो अनेक दुखों से भरे हुए इस संसार सागर से स्वयं तरते हैं और भव्य जीवों को पार कर देने में समर्थ हैं ऐस परिग्रह रहित गुरुओं की जो बुद्धिमान् सेवा भक्ति करते हैं वे स्वर्गादिक के उत्तम साम्राज्य भोगकर अन्त में मोक्ष सुख के स्वामी होते हैं।' इसके अलावा इस श्रावकाचार में कुगुरु का स्वरूप बतलाकर उनका भी निषेध किया है । तथा कहा है कि सर्प, शत्रु और चोर आदि का समागम करना अच्छा परन्तु मिथ्यात्व मार्ग में लगे हुए इन कुगुरुओं का समागम अच्छा नहीं क्योंकि सर्प, शत्रु आदि के समागम से एक ही भव में दुःख होता है परन्तु इन कुगुरुओं के समागम से अनन्त भवों तक दुःख प्राप्त होता रहता है ।
वरं सर्पारिचौराणां संगस्तान्न परैः समम् । मिथ्यात्वपथसंलग्नैरनन्तभवदुःखदम् ।। (2/223/153)
धर्मोपदेशपीयूषवर्ष श्रावकाचार में भी जो रत्नत्रयधारी हो तथा स्वयं को एवं दूसरों को संसार से पार लगाये उन्हीं गुरु को पूजनीय माना है- •
सन्तु ते गुरवोनित्यं ये संसार सरित्पतौ । रत्नत्रयमहानावा स्वपरेषां च तारकाः ।। (2/462/3)
लाटीसंहिता में आचार्य, उपाध्याय और साधु इन तीन प्रकार के सच्चे गुरुओं का विस्तार से वर्णन हैं। गुरु के स्वरूप की बहुत सूक्ष्म