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अनेकान्त 59/1-2
में 'पानी पीओ छान के और गुरु मानो जान के' जैसी प्रसिद्ध लोकोक्तियों से ही ज्ञात होता है कि सच्चे गुरु का कितना महत्त्व माना गया है। सभी जैनाचार्यों ने गुरुभक्ति को श्रावकों का आवश्यक कर्तव्य माना है।
रत्नकरण्ड श्रावकाचार ग्रन्थ में आचार्य समन्तभद्र ने सत्यार्थ गुरु का लक्षण किया है वे कहते हैं कि जो पंचेन्द्रियों की आशा के वश से रहित हो, खेती-पशु-पालन आदि आरम्भ से रहित हो, ज्ञानाभ्यास, ध्यान समाधि और तपश्चरण में निरत हो, ऐसे तपस्वी निर्ग्रन्थ गुरु प्रशंसनीय होते हैं। (1/2/10)
सागार धर्मामृत में गुरु की उपासना को आवश्यक बतलाया गया है। पण्डित आशाधर जी कहते हैं
उपास्या गुरवो नित्यमप्रमत्तैः शिवार्थिभिः । तत्पक्षताय-पक्षान्तश्चराविघ्नोरगोत्तरा।। निर्व्याजया मनोवृत्त्या सानुवृत्त्या गुर्मिनः । प्रविश्य राजवच्छश्वद् विनयेनानुरञ्जयेत् ।।
(2/13/46, 47) अर्थात्-'प्रमाद रहित मोक्ष के इच्छुक व्यक्तियों के द्वारा गुरुजन सदा ही पूजे जाना चाहिए, क्योंकि उन गुरुओं के अधीन होकर उसी प्रकार सारे विघ्न दूर हो जाते हैं जैसे गरुड़ पक्षी के पंखों को ओढ़ कर चलने वालों के पास सर्प नहीं फटक सकते। 'धर्मसंग्रह श्रावकाचार में कहा है कि दर्शनाचार, ज्ञानाचार आदि पंच प्रकार के आचार से युक्त सूरि (आचाय) द्वादशांगशास्त्र को जानने वाले उपाध्याय, तथा अपनी आत्मा की प्राप्ति के लिये प्रयत्न करने वाले साधु (मुनि) ये सब पूजने योग्य हैं (2/155/43)। प्रश्नोत्तर श्रावकाचार में निर्ग्रन्थ अर्थात् परिग्रह रहित को ही गुरु मानने को कहा है अन्य को नहीं
“निग्रन्थश्च गुरुनान्य एतत्सम्यक्त्वमुच्यते।” (2/211/2)