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अनेकान्त 59/1-2
पूजन के फल, माहात्म्य तथा उनकी विधियों के लम्बे चौड़े वर्णन हैं उनको हमने विस्तार भय से यहाँ नहीं लिया है। जिन पूजा के फल में मेढक के भव की कथा अधिकांश आचार्य कहते हैं। पद्मकृत श्रावकाचार में भी उसका सुन्दर वर्णन है। उसमें जिनपूजा माहात्म्य का वर्णन एक झलक के रूप में प्रस्तुत है
जिनपूजा करो जिनपूजा करो, भविजन भावे करी। जिनपूजा कल्पतरु सभी, चिन्तामणि कामधेनु पूजा निर्भर। मन वांछित फलदाय इन्द्र जिनेन्द्र पद देई जे मनोहर ।।
__(4/78/वस्तुछन्द) किशनसिंह कृत क्रियाकोष में मन्त्र जाप और पूजा का त्रिकाल विधान किया गया है। किस दिशा में मुख कर पूजन की तैयारी तथा पूजन करना चाहिए इसका विधान किशनसिंह ने ठीक वैसे ही किया है जिस प्रकार उमास्वामि श्रावकाचार में किया गया हैं इसके अलावा किशनसिंह जी ने मुख पर कपड़ा लगा कर पूजन करने को कहा है
जो भविजन जिन पूजा रचै, प्रतिमा परसि पखालहिं सचे। मौन सहित मुख कपड़ों करै, विनय विवेक हर्ष चित घरै।।
(5/205/48) वर्तमान में मुख पर कपड़ा लगा कर पूजन करने की परम्परा मूर्तिपूजक श्वेताम्बर भाईयों में प्रसिद्ध है। दिगम्बर परम्परा में मुख की बजाय सिर को कपड़े से ढक कर पूजन अभिषेक करने की परम्परा है। इस प्रकार हम देखते हैं कि जैन परम्परा में पूजा के कितने प्रकार बतलाये है। इन सभी विधानों में जहाँ कहीं भी अन्तर दिखायी दे रहे हैं वो देश, काल, परिस्थिति या परम्परा विशेष के प्रभाव के कारण हुये प्रतीत होते हैं।
2. गुरु-भक्ति
गुरुभक्ति भारतीय संस्कृति में प्राचीन काल से ही प्रसिद्ध है। परम्परा