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अनेकान्त 59/1-2
___इस प्रकार उमास्वामि श्रावकाचार में पूजा विधि का विस्तृत वर्णन उपलब्ध है तथा सचित्त वस्तुओं से पूजन करने व पञ्चामृत-अभिषेक का प्रबल समर्थन किया गया है। (देखें-भाग-3, पृष्ठ-160 से 167 तक) उमास्वामि ने (1) आवाहन (2) संस्थापन (3) सन्निधिकरण (4) पूजन (5) विसर्जन इन पंचोपचारी पूजा का विधान किया है (3/165/47, 48)। वामदेव ने संस्कृत भावसंग्रह में पूजा को शिक्षाव्रत के अन्तर्गत सामायिक में ठीक उसी प्रकार ग्रहण किया है जिस प्रकार यशस्तिलकचम्पू में किया गया है (3/466/23)। वामदेव ने पूज्य और पूजक का लक्षण करते हुये कहा है कि शतइन्द्रों से जिनके चरणपूजे जाते हैं ऐसे निर्दोष केवली जिनेन्द्र देव पूज्य हैं। भव्यात्मा शान्त भावों का धारक है, सप्त व्यसनों का त्यागी है, ऐसा ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य तथा उत्तम शीलवान् शूद्र पूजक है
कः पूज्यः पूजकस्तत्र पूजा च कीदृशी मता। पूज्यः शतेन्द्रवन्याहिर्निदोषः केवली जिनः।। भव्यात्मा पूजकः शान्तो वेश्यादिव्यसनोज्झितः। ब्राह्मणः क्षेत्रियो वैश्यः स शूद्रो वा सुशीलवान् ।।
(श्लोक-24, 25 पृ.-466) संस्कृत भाव संग्रह में पूजन के वे ही नित्यमहादि भेद हैं जो आचार्य जिनसेन ने किये हैं। कुन्दकुन्द श्रावकाचार में जिनेन्द्र का उपदेश देकर प्रतिमा के सम्बन्ध में एक महत्त्वपूर्ण बात कही जो कि विचारणीय है वह यह कि जो प्रतिमा विगत सौ वर्ष से पूजित चली
आ रही हो और जिसे उत्तम पुरुषों ने स्थापित किया हो, तो वह व्यंगित होने पर भी पूज्य है। वह मूर्ति निष्फल नहीं है
अतीताब्दशतं यत्स्याधच्च स्थापितमुत्तमैः। व्यङ्गमपि पूज्यं स्याद्विम्बं तन्निष्फलं त यत् ।। (4/14/133) जिन पूजा करने की विधि, उसका उपदेश, उसका माहात्म्य सभी श्रावकाचारों में कुछ अलग कुछ समान रूप से प्राप्त होता है। जहाँ जिन