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अनेकान्त 59/1-2
निष्कमण, ज्ञान, और निर्वाण कल्याणक हुये उस दिन विधिविधान से पूजा करना काल पूजा है। (1/471/453)
6. भावपूजा- परमभक्ति के साथ जिनेन्द्र देव के अनन्त चतुष्टय आदि गुणों का कीर्तन करके जो त्रिकाल वंदना की जाती है उसे निश्चय से भाव पूजा कहते हैं। (1/471/456)
इस प्रकार आचार्य वसुनन्दि ने पूजा के छह प्रकार बतलाकर उसका विस्तृत वर्णन किया है। __ सागारधर्मामृत में नित्यमह आदि उन्हीं पूजनों का विधान है जिनका विधान आचार्य जिनसेन ने किया है (2/10/26, 27, 28)। पूजा के लिए अष्ट-द्रव्य तथा शुद्ध स्नानादि का उपदेश देकर जिनभक्ति का महाफल बतलाकर उसमें संलग्न रहने का उपदेश दिया है। धर्मसंग्रह श्रावकाचार में पूजन के नाम, स्थापनादि छह प्रकारों का वर्णन उसी प्रकार का है जिस प्रकार आचार्य वसुनन्दि ने किया है (2/159/85)। उमास्वामि श्रावकाचार में किन दिशाओं से पूजन करनी चाहिए इसका उल्लेख है। वे कहते हैं कि पूजन करने से पहले पूर्व दिशा की तरफ मुख करके स्नान करना चाहिए, पश्चिम दिशा की तरफ दातन, उत्तर दिश की तरफ होकर श्वेतवस्त्र धारण करना चाहिए और जिनेन्द्र देव की पूजा उत्तर या पूर्व की तरफ मुख करके करना चाहिए। (3/160/97) __चूंकि सभी मनुष्यों के द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव समान नहीं होते अतः उमास्वामि श्रावकाचार में पूजा के इक्कीस प्रकार बताये और कहा है कि जिसे जो पूजा प्रिय हो, वह उससे भावपूर्वक पूजन करे। पूजा के इक्कीस प्रकार निम्नवत् हैं- (1) स्नानपूजा (2) विलेपनपूजा (3) आभूषणपूजा (4) पुष्पपूजा (5) सुगन्धपूजा (6) धूमपूजा (7) प्रदीपपूजा (8) फलपूजा (9) तन्दुलपूजा (10) पत्रपूजा (11) पुंगीफलपूजा (12) नैवेद्यपूजा (13) जलपूजा (14) वसनपूजा (15) चमरपूजा (16) छत्रपूजा (17) वादित्रपूजा (18) गीत पूजा (19) नृत्यपूजा (20) स्वस्तिक पूजा (21) कोशपूजा (भण्डार में द्रव्य देना) (3/164/136, 137)