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अनेकान्त 59/1-2
आचार्य, उपाध्याय और साधुओं की तथा शास्त्र की जो वैभव से नाना प्रकार पूजी की जाती है, उसे पूजा विधान जानना चाहिए। नाम, स्थापना, द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव की अपेक्षा से उह प्रकार की पूजा होती है। (1/463-64/380-81) _1. नाम पूजा- अरहन्त आदि का नाम उच्चारण करके विशुद्ध प्रदेश में जो पुप्प-क्षेपण किये जाते हैं, वह नाम पूजा है। (1/464/382)
2. स्थापना पूजा- सद्भावना और असद्भावना, यह दो प्रकार के स्थापना पूजा है। आकारवान् वस्तु में अरहन्त की स्थापना करके पूजा करना सद्भावना पूजा है। और अक्षर, वराटक (कौड़ी या कमलगट्टा) में अपनी बुद्धि से यह अमुक देवता है-ऐसा संकल्प करके उच्चारण करना यह असद्भावस्थापना पूजा है। आचार्य वसुनन्दि ने यहाँ हुंडावसर्पिणी पंचम काल में दूसरी असद्भावस्थापना पूजा का निषेध किया है क्योंकि कलिंग-मतियों से मोहित इस लोक में सन्देह हो सकता है। (1/464/383-385)
3. द्रव्यपूजा- जलादि द्रव्य से प्रतिमादि द्रव्य की जो पूजा की जाती है, उसे द्रव्य पूजा जानना चाहिए। वह द्रव्य से अर्थात् जल-गंध आदि पदार्थ समूह (पूजन सामग्री) से करनी चाहिए। यह द्रव्य पूजा सचित्त, अचित्त और मिश्र के भेद से तीन प्रकार की है। इसमें प्रत्यक्ष उपस्थित जिनेन्द्र देव तथा गुरु आदि की यथायोग्य पूजन करना सचित्त पूजा है। और उनके शरीर की तथा शास्त्र की पूजा अचित्त पूजा है।
और दोनों को मिलाकर पूजन करना मिश्र है। (1/470/448-450) ___4. क्षेत्रपूजा- जिन भगवान् की जनमकल्याणक भूमि, निष्क्रमणकल्याणक भूमि, केवलज्ञानोत्पत्तिस्थान, तीर्थचिह्नस्थान और निपीधिका अर्थात् निर्वाणभूमियों में विधिविधान से उनकी पूजा करना क्षेत्र पूजा कहलाती है। (1/471/452)
5. कालपूजा- जिस दिन तीर्थङ्करों के गर्भावतार, जन्माभिषेक,