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अनेकान्त 59/1-2
गृहस्थ जीवन में देव-पूजा की अनिवार्यता को बतलाते हुये आचार्य कड़े शब्दों में कहते हैं कि जो गृहस्थ होते हुए भी देव-पूजा किये बिना तथा मुनियों की सेवा किये बिना भोजन करता है वह महापाप को खाता है
देवपूजामनिर्माय मुनीननुपचर्य च। यो भुञ्जीत गृहस्थः सन् स भुञ्जीत परं तमः।। (1/185/532) इसलिए आचार्य ने गृहस्थों के लिए देव पूजा में पहिले अभिषेक, फिर पूजन, फिर भगवान् के गुणों का स्तवन, फिर पञ्च नमस्कार मन्त्र का जाप, फिर ध्यान और फिर जिनवाणी का स्तवन। इस प्रकार क्रम से छह क्रियायें आवश्यक मानी हैं।
स्नपनं पूजनं स्तोत्रं जपो ध्यानं श्रुतस्तवः।
षोढा क्रियोदिता सद्भिर्देवसेवासु गेहिनाम् ।। (1/229/880) चारित्रसार में भी पूजा के चतुर्मुख-मह आदि प्रकारों का वर्णन ठीक उसी प्रकार है जिस प्रकार यशस्तिलकचम्पू में है। (भाग-1 पृष्ठ.285) अमितगति कृत श्रावकाचार में जिन पूजा के महात्म्य का, उसके विविध लौकिक तथा पारमार्थिक फलों का विवेचन है। लौकिक फलों में अन्य उपलब्धियों के अलावा जहाँ एक तरफ यह बताया कि जिनेन्द्र देव की पूजन करने वालों को कामसेवन के लिए उत्सुक, मधुर वचन वाली, सघन-स्तन-मण्डलों की धारक और रमणीय शरीर वाली ऐसी रमणियाँ रमाती हैं
सकामा मन्यथालापा निबिडस्तनमण्डलाः।
रमणी रमणीयाङ्गा रमयन्ति जिनार्चिनः।। (1/375/38) वहीं दूसरी तरफ पारमार्थिक उपलब्धियों में सिद्ध पद की प्राप्ति जिन पूजन से होती है ऐसा भी बतलाया है। (1/375/39)
आचार्य वसुनन्दि कहते हैं कि अर्हन्त जिनेन्द्र, सिद्ध भगवान्