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अनेकान्त 59/1-2
वाचनापृच्छनाम्नायाऽनुप्रेक्षा धर्मदेशना।
स्वाध्यायः पञ्चधा कृत्याः पञ्चमी गतिमिच्छता ।। (1/391/81) आशाधरकृत सागारधर्मामृत में आचार्य ने स्वाध्यायशाला की महत्ता पर प्रकाश डालते हुए कहा है कि “शिष्यों की तरह गुरुओं की बुद्धि भी स्वाध्यायशाला के बिना ऊहापोह रहित होती हुई परिचित या अभ्यस्त शास्त्र के विषय में भी या मोक्षमार्ग में अंधे के समान आचरण करती है अर्थात् यथार्थज्ञानविहीन रहती है। अतः जहाँ स्वाध्यायशाला नहीं है, वहाँ शिष्यों के समान उपाध्यायों की भी बुद्धि तत्त्वों के ऊहापोह का मार्ग नहीं रहने से परामर्शशीलता के साधन के अभाव में अभ्यस्त शास्त्र भी अन्धी सी हो जाती है, परिमार्जित नहीं रहती है। इसलिए स्थान-स्थान पर स्वाध्यायशाला भी स्थापित कराना चाहिए।"
विनेयवद्विनेतृणामपि स्वाध्यायशाला।
विना विमर्शशून्या धी-दृष्टेऽत्यन्धायतेऽध्वनि ।। (2/12/39 आशाधरकृत सागारधर्मामृत में आचार्य ने महाश्रावक को परिभाषित करते हुए कहा है कि "महाश्रावक विधि के अनुसार स्वाध्याय को कं
और विपत्ति से पीड़ित दीन प्राणियों को विपत्ति से दूर करे क्योंकि विशेषज्ञानी और दयालु व्यक्ति के ही सब गुण इच्छापूर्तिकारक होते हैं
स्वाध्यायं विधिवत्कुर्यादुद्वरेच्च विपद्धतान् । पक्वज्ञानदयस्यैव गुणाः सर्वेऽपि सिद्धिदाः।। (2/64/13) धर्मसंग्रह श्रावकाचार ग्रंथ में आचार्य ने ज्ञान की वृद्धि करने के उपाय बताते हुए कहा है कि “ज्ञान की दिनों-दिन वृद्धि के लिए भव्य पुरुषों को-वाचना, पृच्छना, आम्नाय, अनुप्रेक्षा, धर्मोपदेश-ये पाँच प्रकार के स्वाध्याय करना चाहिए। (2/170/210) आगे आचार्य स्वाध्यायतप की परिभाषा और महत्ता बताते हुए कहते हैं कि “जैन शास्त्रों के अनुसार अपने लिए अध्यययन करने को स्वाध्याय कहते हैं और यही स्वाध्याय अज्ञान का नाश करने वाला है,