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अनेकान्त 59/1-2
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को प्रतिदिन करने वाले को गृहस्थ माना है । (2/154/26) व्रतोद्योतन श्रावकाचार (वि. 16 शती) में यद्यपि सभी आवश्यकों का वर्णन है किन्तु एक स्थान पर श्रावकों के लिए दो ही कार्यो को मुख्य माना है, दान देना और पूजा-पाठ करना -
" श्रावकाणामुभौ मार्गी दानपूजाप्रवर्तिनी ।" (3 / 2256/184)
कुन्दकुन्द श्रावकाचार में सबसे हटकर संख्या निर्धारित की और श्रावकों के दस गृहस्थ धर्म बतलाये हैं
दया दानं दमो देव- पूजा भक्तिर्गुरौ क्षमा ।
सत्यं शौचस्तपोऽस्तेयं धर्मोऽयं गृहमेधिनाम् ।। (4/33/5)
अर्थात् दया, दान, इन्द्रिय- दमन, देव-पूजन, गुरुभक्ति, क्षमा, सत्य, शौच, तप, अचौर्य यह गृहस्थों का धर्म कहा गया है । यद्यपि इन्हें यहाँ आवश्यक शब्द से नहीं कहा गया तथापि कहीं भी पडावश्यकों का पृथक् उल्लेख न होने से हम इन्हीं को दशावश्यक मान लेते हैं ।
1. देव- पूजा
देवदर्शन सम्यग्दर्शन का निमित्त है, फिर देव पूजा का क्या कहना ? शायद यही कारण है कि कालान्तर में देव पूजा को श्रावकों को प्रतिदिन करने वाले आवश्यकों में रखकर अनिवार्य माना गया । आचार्यों ने देव पूजा के बारे में एक स्वर में समर्थन दिया । देव पूजा की विधियों में यद्यपि कुछ अन्तर दिखायी देते हैं किन्तु वे सभी श्रावक को धर्म से जोड़े रखने हेतु आवश्यक जान पड़े इसलिए उनका समावेश किया गया। देव पूजा गृहस्थों का आवश्यक कर्त्तव्य है। आचार्य समन्तभद्र -गृहस्थ को आदरपूर्वक, नित्य सर्वकामनाओं के पूर्ण करने वाले और का विकार को जलाने वाले देवाधिदेव जिनेन्द्र भगवान् की पूजाअर्चना जरू करनी चाहिए । ( 1 / 14/119)
कहते
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महापुराण में आचार्य जिनसेन ने, अर्हन्त देव की पूजा के लिए पाँच प्रकार बतलाये हं वे पाँच प्रकार हैं