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अनेकान्त 59/1-2
'न सम्यक्करणं तस्य जायते ज्ञानतो विना।
शास्त्रतो न विना ज्ञानं शास्त्रं तेनाभिधीयते।' (1/334/7) अमितगति आचार्य ने षट् आवश्यक पालन करने वाले के लक्षण बताते हुये कहा है कि जिसे उत्तम धर्म कथा सुनने में आनन्द आता हो, जो दूसरों की निन्दा को सुनने का त्यागी हो, लोभ-रहित हो, आलस्यरहित हो, निन्दा कर्म न करता हो, कालक्रम का उल्लंघन करने वाला न हो, उपशान्त चित्त हो और मार्दव गुण का धारक हो, ये षटावश्यक करने वालों के चिह्न जानना चाहिए। (1/336/27-28) - आचार्य अमृतचन्द्र की तरह आचार्य अमितगति ने भी यहाँ जो षट् आवश्यक स्वीकृत किये हैं वे वे ही हैं जो मुनियों के होते हैं-(मूलाचार 1/22 तथा 7/15)
सामायिकं स्तवः प्राज्ञैर्वन्दना सप्रतिक्रिया।
प्रत्याख्यानं तनूत्सर्गः षोढावश्यकमीरितम् ।। (1/336/29) अर्थात्-सामायिक, स्तवन, वन्दना, प्रतिक्रमण, प्रत्याख्यान और कायोत्सर्ग ये छह आवश्यक अवश्य करने चाहिए। पद्मनन्दिपञ्चविंशतिका (वि.12 शती) में भी देव पूजा, गुरु उपासना, स्वाध्याय, संयम, तप तथा दान ये छह कर्म ही बतलाये हैं। (3/427/7)
सागारधर्मामृत (वि.13 शती उत्तराद्ध) में श्रावकों के पूजा, दान, स्वाध्याय, तप एवं संयम ये पांच कर्म माने हैं। (2/4,5/18) यहाँ पं. आशाधर जी ने वार्ता तथा गुरु उपासना इन दोनों में से किसी एक को भी नहीं लिया। यहाँ संख्या का भी भेद दिखायी पड़ रहा है। प्रश्नोत्तर श्रावकाचार (वि.15 शती) में यत्नपूर्वक, मृत्यु की कीमत पर भी षडावश्यक करणीय माने हैं। इन्होंने समता, वन्दना, दान, कायोत्सर्ग संयम, और ध्यान को अलग-अलग श्लोकों में षडावश्यक माना है। (2/430/100-113)
धर्मसंग्रह (वि.16 शती उत्तराद्ध) श्रावकाचार में आचार्य जिनसेन के ही समान इज्या, वार्ता, तप, दान, स्वाध्याय तथा संयम इन छह कर्मों