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अनेकान्त 59/1-2
भरतराजर्षि ने पूजादि षट्कर्मों का उपदेश दिया।' यहाँ विधिविधानपूर्वक जिनेन्द्र देव की आराधना को इज्या तथा कृषि आदि आजीविका के अनुष्ठान को वार्ता कहा है“वार्ता विशुद्धवृत्या स्यात् कृष्यादीनामनुष्ठितिः।' (1/31/35)
आचार्य अमृतचन्द्र (वि. 10 शती) ने पुरुषार्थसिद्धि-उपाय में मुनियों के षड्ावश्यकों को ही यथाशक्ति गृहस्थों के लिए करणीय माना हैजिनपुङ्गवप्रवचनै मुनीश्वराणां यदुक्तमाचरणम् । सुनिरूप्य निजां पदवीं शक्तिं च निषेव्यमेतदपि।। (1/119/200)
वे षट् आवश्यक हैं-सामायिक, स्तवन, वन्दना, प्रतिक्रमण, प्रत्याख्यान और कायोत्सर्ग
इदमावश्यकषट्कं समतास्तववन्दनाप्रतिक्रमणम् ।
प्रत्याख्यानं वपुषो व्युतसर्गश्चेति कर्तव्यम् ।। यशस्तिलकचम्पू में श्री सोमदेव सूरि (वि. 11 शती) ने षटावश्यकों में 'वार्ता' को न रखकर 'गुरु की उपासना' को महत्त्व दिया। शेष आवश्यक आचार्य जिनसेन जैसे ही हैं। चारित्रसार (वि. 10 शती) में पूरे छह आवश्यक आचार्य जिनसेन की ही तरह हैं'गृहस्थस्येज्या वार्ता दत्तिः स्वाध्यायः संयमः तप इत्यार्य षट् कर्माणि भवन्ति। (1/258)
किन्तु एक नयी बात चारित्रसार (1/259) में देखने को मिली वह यह कि इन षटावश्यकों को पालने वाला गृहस्थ दो प्रकार के होते हैंजातिक्षत्रिय और तीर्थक्षत्रिय। जातिक्षत्रिय-क्षत्रिय, ब्राह्मण, वैश्य और शूद्र के भेद से चार प्रकार के हैं। तीर्थक्षत्रिय अपनी आजीविका के भेद से अनेक प्रकार के हैं।
अमितगतिश्रावकाचार (वि.11 शती) में ज्ञान के बिना आवश्यक को सम्यक् प्रकार से पाना असंभव बतलाया है