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अनेकान्त 59/1-2
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'जो ण हवदि अण्णवसो तस्स दु कम भणति आवासं। कम्मविणासणजोगो णिव्बुदिमग्गो ति णिज्जुत्तो॥ . अर्थात् जो अन्य के वश नहीं वह अवश है, उस अवश का कार्य आवश्य है जो कर्मो का विनाश करने योग्य एवं निर्वाण का मार्ग है। भगवती आराधना (वि.टी. 116) के अनुसार-आवासयन्ति रत्नत्रयमपि इति आवश्यकाः' अर्थात्-जो क्रियायें आत्मा में रत्नत्रय का आवास कराती हैं वे आवश्यक हैं।
ये आवश्यक मुनियों, आर्यिकाओं, श्रावक, श्राविकाओं सभी को करणीय हैं। मुनिराज इन आवश्यकों को पूर्ण रूप से पालते हैं तथा श्रावक यथाशक्ति इनका एक देश पालन करते हैं।
श्रावकों के षडावश्यक
श्रावकों को प्रतिदिन करणीय छह आवश्यक बतलाये गये हैं। इन आवश्यकों में कालान्तर में परिवर्तन भी आये। षटावश्यकों/ कर्मों का संख्या सहित कई आचार्यों ने उल्लेख किया है। महापुराण में आचार्य जिनसेन (वि. 9 शती) ने श्रावक के करने योग्य षट्-आवश्यक क्रियाओं का वर्णन किया है
इज्यां वार्ता च दत्तिं च स्वाध्यायं संयमं तपः। श्रुतोपासकसूत्रत्वात् स तेभ्यः समुपादिशत् ।। कुलधर्मोऽयमित्येषामहत्पूजादिवर्णनम् । तदा भरतराजर्षिरन्ववोचदनुक्रमात्।।
(1/30, 31/24,25)* अर्थात्- 'भरतराज ने उपासकाध्ययन नामक अंग से उन व्रती लोगों के लिए इज्या (पूज्या), वार्ता, दत्ति (दान), स्वाध्याय, संयम और तप का उपदेश दिया। पूजादि षट्कर्म गृहस्थों का कुलधर्म है, ऐसा विचार कर * कोष्ठक संख्या-(श्रावकाचार संग्रह भाग संख्या पृष्ठ संख्या/श्लोक संख्या)