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________________ श्रावकाचार संग्रह में आवश्यकों का स्वरूप -डॉ. अनेकान्त कुमार जैन भगवान् महावीर के शासन में श्रावक, श्राविका जो गृहस्थ हैं उन्हें प्रतिदिन किन कर्त्तव्यों को करते हुये अपना जीवन यापन करना चाहिए? इस विषय पर प्राचीन काल से ही चिन्तन चला आ रहा है। आरम्भ से ही एक सामान्य श्रावक की न्यूनतम आचारसंहिता और आवश्यक कर्त्तव्यों को निर्धारित करने हेतु विचार चला आ रहा है । यद्यपि श्रुतपरम्परा से प्राप्त श्रावकों के आवश्यक कर्त्तव्य सभी आचार्यों ने लगभग एक जैसे और एक उद्देश्य को लेकर गिनाये हैं । तथापि प्रत्येक काल में जैनाचार्यो ने युगानुकूल नयी व्याख्यायें, उनके मूल स्वरूप को सुरक्षित रखते हुये उनमें कुछ परिष्कार, तथा जहाँ आवश्यकता पड़ी वहाँ पर सार्थक हस्तक्षेप किये हैं । आवश्यक की परिभाषा : नित्य के अवश्य करणीय क्रियानुष्ठान रूप कर्त्तव्यों को 'आवस्सय' या आवश्यक कहते हैं। सामान्यतः 'अवश' का अर्थ (पाइसद्दमहण्णवो. पृ.83) अकाम अनिच्छु, स्वाधीन, स्वतन्त्र, रागद्वेष से रहित तथा इन्द्रियों की आधीनता से रहित होता है, तथा इन गुणों से युक्त अर्थात् जितेन्द्रिय व्यक्ति की अवश्यकरणीय क्रियाओं को आवश्यक कहते हैं। मूलाचार में आचार्य वट्टकेर ने कहा है 'ण वसो अवसो अवस्स कम्ममावासगं त्ति बोधव्वा' । ( 7 / 11 ) अर्थात् जो रागद्वेषादि के वश में नहीं होता वह अवश है तथा उस ( अवश) का आचरण या कर्त्तव्य आवश्यक कहलाता है । आचार्य कुन्दकुन्द (नियमसार - 141 ) आवश्यक का लक्षण करते हुये कहते हैं कि
SR No.538059
Book TitleAnekant 2006 Book 59 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2006
Total Pages268
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size8 MB
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