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अनेकान्त 59/1-2
यत्र संक्लिश्यते कायस्तत्तपो बहिरुच्यते।
इच्छानिरोधनं यत्र तदाभ्यन्तरमीरितम् ।। (2/226/165) प्रश्नोत्तर श्रावकाचार में तप की बहुत महिमा गायी गयी है। (2/360/43 से 64 श्लोक तक) मोक्ष हेतु तप को अनिवार्य मानते हुये कहा गया है कि 'जो बुद्धिमान पहले मोक्ष जा चुके हैं, अब जा रहे हैं, अथवा आगे जायेंगे वे केवल तपश्चरण से ही गये हैं, तपश्चरण से ही जा रहे हैं और तपश्चरण से ही जायेंगे। तपश्चरण के सिवाय अन्य किसी भी कारण से मोक्ष प्राप्त नहीं हो सकता (2/361/53)। इसी प्रकार तपश्चरण नहीं करने वालो को दुष्फल भी गिनाये हैं।
लाटीसंहिता (3/49-50/64, 65), उपस्वामि श्रावकाचार (3/170/220-222), व्रतोद्योतन श्रावकाचार (3/236-37/282–292), कुन्दकुन्द श्रावकाचार (4/120/25, 26) में भी उपरोक्त बारह तपों का ही वर्णन है। कुन्दकुन्द श्रावकाचार में मिथ्या तप का भी फल बताया है। वे कहते हैं कि जो अल्पबुद्धि पुरुष लोकपूजा, अर्थ, लाभ और अपनी प्रसिद्धि के लिए तप तपता है, वह अपने शरीर का शोषण ही करता है, उसे उसके तप का कुछ भी फल नहीं मिलता है
'पूजालाभप्रसिद्धयर्थ तपस्तप्येत योऽल्पधीः।
शोष एव शरीरस्य न तस्य तपसः फलम् ।।' (4/120/28) पदमकृत श्रावकाचार में भी अन्तरंग और बहिरंग के भेद से बारह तपों का उल्लेख है-'बाह्य तप षट् भेद तो, अभ्यन्तर षट् भेद भण्यां ए।' (5/97/1)
यहाँ इन्होंने अनशन तप के अन्तर्गत नन्दीश्वरपूजन, रोहिणी, मुकुट सप्तमी आदि के उपवासों का वर्णन किया है। दौलतरामकृत क्रियाकोष में भी बारह तपों का बहुत विस्तार से वर्णन है। (5/341-350/ 1335
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