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________________ अनेकान्त 59/1-2 1. अन्तरंग तप - विनय, वैयावृत्त्य, प्रायश्चित, उत्सर्ग, स्वाध्याय और ध्यान। 2. बहिरंग तप- अनशन, अवमौदर्य, वृत्तिपरिसंख्यान, रसपरित्याग विविक्तशय्यासन और कायक्लेश। यशस्तिलकचम्पू में तप का लक्षण करते हय कहा गया है कि अपनी शक्ति को न छिपा कर जो शारीरिक कष्ट उठाया जाता है उसे तप कहते हैं। किन्तु वह तप जैनागम के अविरुद्ध यानी अनुकूल होने से ही लाभदायक हो सकता है। तप की एक और परिभाषा करते हुए वे कहते हैं-'अन्तरग और बाह्य मल के संताप से आत्मा को शुद्ध करने के लिए जो शारीरिक और मानसिक कर्म किये जाते हैं उसे तपस्वीजन तप कहते हैं अनिगूहितवीर्यस्य कायक्लेशस्तपः स्मृतम्। तच्च मार्गाविरोधेन गुणाय गदितं जिनैः।। अन्तर्बहिर्मलप्लोषादात्मनः शुद्धिकारणम् । शारीरं मानसं कर्म तपः प्राहुस्तपोधनाः ।। (1/230/390-891) चारित्रसार में भी अनशनादि बारह प्रकार के तप स्वीकृत किये गये हैं'तपोऽनशनादिद्वादशविधानुष्ठानम्' (1/259)। सागारधर्मामृत में 'तपश्चर्य च शक्तितः' (2/14/48) कहकर शक्ति अनुसार तप करने की प्रेरणा दी गयी धर्मसंग्रह श्रावकाचार में अन्तरंग और वहिरंग तप ये दो भेद वतलाते हुये उनका लक्षण भी किया गया है 1. बाह्य तप- जिस तप में शरीरादि को क्लेश होता है उसे बाह्य तप कहते हैं। ____2. अन्तरंग तप- जिस तप के करने में इच्छा का निरोध होता है उसे आभ्यन्तर तप कहते हैं
SR No.538059
Book TitleAnekant 2006 Book 59 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2006
Total Pages268
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size8 MB
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