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________________ अनेकान्त 59/1-2 इस प्रकार हम पाते हैं कि जैन परम्परा में श्रावकों के लिए भी तप कितना महत्त्वपूर्ण आवश्यक है। 'तप' का नाम सुनते ही आम जन इसको साधु के लिए ही करणीय मानते हैं किन्तु जैन शास्त्रों में श्रावकों के लिए तप का जितना सुन्दर व्यवस्थित चित्रण प्राप्त होता है उतना अन्यत्र प्राप्त नहीं होता है। 6. दान भारतीय संस्कृति में 'दान' बहुत प्रसिद्ध है किन्तु यह दान क्यों , किसको व कैसे देना चाहिए यह विचारणीय है। जैनाचार्यों ने दान के भेद किये, दाता तथा पात्र-कुपात्र का लक्षण भी बताया क्योंकि सही दान जितना पुण्य कारक होता है, गलत दान उतना ही पाप कारक भी हो जाता है। महापुराण में आचार्य जिनसेन ने दान के चार भेद करते हुये उसे श्रावकों के लिए आवश्यक माना है। दान के चार भेद हैं (1/31/35) 1. दयादत्ति 2. पात्रदत्ति 3. समदत्ति 4. अन्वयदत्ति 1. दयादत्ति- अनुग्रह करने के योग्य दया के पात्र दीन प्राणिसमुदाय पर मन-वचन-कार्य की निर्मलता के साथ अनुकम्पा पूर्वक उनके भय दूर करने को विद्वान् लोगों ने दयादत्ति कहा है- (1/32/36) सानुकम्पमनुग्राह्ये प्राणिवृन्दऽभयप्रदा। त्रिशुद्धनुगता सेयं दयादत्तिर्मता बुधैः ।। 2. पात्रदत्ति- महान तपस्वी साधुजनों के प्रतिग्रह (पडिगाहन) आदि नवधा भक्तिपूर्वक आहार, औषध आदि का देना पात्रदत्ति कहा जाता है। (1/32/37) महातपोधनायार्चा-प्रतिग्रहपुरः सरम्। प्रदानमशनादीनां पात्रदानं तदिष्यते।। 3. सम-समानदत्ति- क्रिया, मन्त्र और व्रत आदि से जो अपने
SR No.538059
Book TitleAnekant 2006 Book 59 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2006
Total Pages268
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size8 MB
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