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अनेकान्त 59/1-2
समान हैं, ऐसे अन्य साधर्मी बन्धु के लिए और संसार तारक उत्तमगृहस्थ के लिए, सुवर्ण आदि देना समदत्ति है तथा मध्यमपात्र को समान सम्मान की भावना से जो श्रद्धापूर्वक दान दिया जाता है, वह भी समानदत्ति हैं (1/32/38-39) ___4. अन्वयदत्ति (सकलदत्ति)- अपने वंश को स्थिर रखने के लिए पुत्र को कुलधर्म और धन के साथ जो कुटुम्ब रक्षा का भार पूर्ण रूप से समर्पण किया जाता है उसे सकलदत्ति कहते हैं- (1/32/40)
आत्मान्वयप्रतिष्ठार्थ सूनवे यदशेषतः। समं समयवित्ताभ्यां स्ववर्गस्यातिसर्जनम् ।। सैषा सकलदत्तिः.. आचार्य अमितगति कहते हैं कि जिसे फल की इच्छा है उसे दान देते समय सदा ही पात्र, कुपात्र और अपात्र को जानकर ही दान देना चाहिए। उत्तम, मध्यम और जघन्य के भेद से पात्र तीन प्रकार के होते
हैं
'पात्रकुपात्राण्यवबुध्य फलार्थिना सदादेयम् ।' (1/253/1)
'पात्रं तत्वपटिष्ठेरुत्तममध्यमजघन्यभेदेन।' (1/353/2) उनमें तपस्वी साधु उत्तमपात्र हैं, विरताविरत श्रावक मध्यम पात्र हैं और सम्यग्दर्शन से भूषित व्रत रहित जीव जघन्य पात्र हैं
तत्रोत्तमं तपस्वी विरताविरतश्च मध्यमं ज्ञेयम् ।
सम्यग्दर्शनभूषः प्राणी पात्रं जघन्यं स्यात् ।। (1/353/4) इसके बाद आचार्य अमितगति ने उत्तम पात्रों के स्वरूप का भी वर्णन किया है- (1/353-356/5-35)। अपात्र का स्वरूप बताते हुये कहते हैं कि जो निर्दय अनेक अवैध मार्ग से धन हरण करता हो, कामबाण से पीड़ित होकर स्त्री सेवन करता हो, अनेक दोषों का विधायक परिग्रह रखता हो, जो मद्य को पीता हो, अनियन्त्रित चित्त हो, जो मांस और उदुम्बर फल खाता हो, पाप कर्म विशारद हो, कुटुम्ब और