________________
12
अनेकान्त 59/1-2
पाण्डित्य पूर्ण काव्य वैभव का ज्ञान सहज रूपेण हो जाता है। धार्मिक आदि विषयों के ग्रंथ की रचना के साथ साथ्थ आचार्य वाग्भट द्वारा लिखित आयर्वेद के ग्रंथ 'अष्टांगहृदय' पर इनके द्वारा लिचिात 'अष्टांगहृदयोधोतिनी' ‘टीका' संस्कृत में लिखी जाने का उल्लेख विभिन्न विद्वानों ने किया है। वर्तमान में यह टीका उपलब्ध नहीं है।
हरिपाल (13वीं शताब्दी)
इन्होंने प्राकृत भाषा में 'वैद्यशास्त्र' नामक ग्रंथ की रचना की थी जिसका रचना काल वि.सं. 1341 (1284 ई.) है। इसका संक्षिप्त विवरण
जैन ग्रंथ प्रशस्ति संग्रह, भाग-1 एवं जैन धर्म का प्राचीन इतिहास, द्वितीय भाग में प्राप्त होता है। इस ग्रंथ की एक हस्तलिखित प्रति श्री पं. कुन्दनलाल जैन को प्राप्त हुई है। उनके द्वारा प्रदत्त जानकारी के अनुसार प्रस्तुत रचना 'प्राकृत वैद्यक' के लिपिकार ने 'पराकत वैद्यक' लिखा है जो पत्र संख्या 402 पर उल्लिखित वाक्य 'इति प्राकृत वैद्यक समाप्तम्' से सूचित होता है। साथ ही ‘णमिऊण वीयरागं' लिखकर 'योग निशानद्ध के लिपिकार ने 'पराकृत वैद्यक और योग निधान नाम की दो भिन्न कृतियाँ है। उनके अनुसार प्राकृत वैद्यक 275 और योग निधान 108 गाथाओं में निबद्ध है। एतद्विषयक श्री कुन्दनलाल जी का एक लेख श्रमण (जनवरी-मार्च, 1997) में प्रकाशित हुआ है जिसमें विस्तार पूर्वक ग्रंथ और लेखक के विषय में चर्चा की गई हैं।
चम्पक (13वीं शताब्दी)
ये रस विद्या में निपुण जैन विद्वान थे। ये अंचल गच्छीय नायक महेन्द्रप्रभ सूरि के शिष्य थे। ये उज्जवल कीर्तिवान, यशस्वी एवं नित्य परोपकार में तल्लीन रहने वाले थे-ऐसा इनके द्वारा रचित 'रसाध्याय' नामक ग्रंथ में उल्लिखित प्रशस्ति से ज्ञात होता है। इस ग्रंथ का कुछ भग खण्डत होने से इस ग्रंथ का रचना काल ज्ञात नहीं हो सका, तथापि