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अनेकान्त 59/1-2
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मेरूतुंग द्वारा 1386 ई. में 'रसाध्याय' पर टीका लिखे जाने का संकेत मिलता है जिससे रसाध्याय की रचना उससे पूर्व किया जाना स्पष्ट है। अतः इसका सम्भावित समय 13वीं शताब्दी होना असंदिग्ध है।
अमृतनन्दी (13वीं शताब्दी)
ये दक्षिण भारत (कर्नाटक) की दिगम्बर परम्परा के जैनाचार्य थे। इन्होंने अत्यंत विस्तृत एक निघण्टु कोश की रचना की थी जिसमें जैन दृष्टि से वनस्पतियों के नामों के पारिभाषिक अर्थ बतलाए गए हैं। इसमें लगभग 22000 शब्द हैं। श्री वर्धमान पार्श्वनाथ शास्त्री ने कल्याणकारक ग्रंथ की प्रस्तावना में इसे 'अकारादि निघण्टु' में नाम से उद्धृत किया है। इसकी रचना मन्व राजा के आग्रह से की गई थी। मन्व भूपति का काल 1299 ई. (सं. 1355) के लगभग माना जाता है। अतः अमृतनन्दी का समय 13 शताब्दी से 14वीं शताब्दी (पूर्वाध) मानने में कोई आपत्ति नहीं है।
कवि मंगराज (1360 ई.)
ये चौदहवीं शताब्दी के कानड़ी जैन विद्वान हैं। इन्होंने विजय नगर के हिन्दू साम्राज्य के आरम्भिक काल में राजा हरिहर राय की शासनावधि में वि.सं. 1416(1360 ई) में 'खगेन्द्रमणि दर्पण' नामक विष चिकित्सा सम्बन्धी अति उत्तम वैद्यक ग्रंथ की रचना की थी। कन्नड़ भाषा में रचित यह एक सुविस्तृत एवं सुव्यवस्थित ग्रंथ है जिसके लगभग 300 मुद्रित पृष्ठ हैं। यह ग्रंथ मद्रास विश्व विद्यालय द्वारा कन्नड़ सीरीज के अन्तर्गत सन् 1940 में प्रकाशित किया गया था जो वर्तमान में उपलध नहीं है। इस ग्रंथ के विषय में कवि मंराज ने स्वयं लिखा है कि जनता के निवेदन पर उन्होंने सर्वजनोपयोगी इस वैद्यक ग्रंथ की रचना की है। ___इनकी कृति का अध्ययन करने से ज्ञात होता है कि कन्नड़ और संस्कृत भाषा में साधिकार लिखने की अद्भुत क्षमता इनमें थी। इन्होंने