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अनेकान्त 59/3-4
कल्पवृक्ष और उनका कार्य
जो युगलों को अपने-अपने मन से कल्पित वस्तुएँ प्रदान करते हैं, उन्हें कल्पवृक्ष कहते हैं। भोगभूमि में पानांग, तूर्यांग, भूषणांग, वस्त्रांग, भोजनांग, आलयांग, दीपांग, भाजनांग, मालांग और तेजांग नामक कल्पवृक्ष होते हैं। पानांग जाति के कल्पवृक्ष मधुर, सुस्वाद, षट्रसयुक्त, प्रशस्त, अतिशीतल, तुष्टि एवं पुष्टिकारक बत्तीस प्रकार के पेय प्रदान करते हैं। तूर्यांग जाति के कल्पवृक्ष उत्तम वीणा, पटु पटह, मृदंग, झालर, शंख, दुंदुभि, भंभा, भेरी और काहल आदि वादित्र प्रदान करते हैं। भूषणांग जाति के कल्पवृक्ष कंकण, कटिसूत्र, हार, केयूर, मंजीर, कटक, कुण्डल, किरीट ओर मुकुट आदि आभूषण प्रदान करते हैं। वस्त्रांग जाति के कल्पवृक्ष चीनपट, उत्तम क्षौम तथा मन एवं नेत्रों को आनन्ददायक नाना प्रकार के अन्य वस्त्र प्रदान करते हैं। भोजनांग जाति के कल्पवृक्ष सोलह प्रकार के आहार, सोलह प्रकार के व्यंजन, चौदह प्रकार के सूप, एक सौ आठ प्रकार के खाद्य पदार्थ, तीन सौ तिरेसठ प्रकार के स्वाद्य पदार्थ तथा तिरेसठ प्रकार के रस पृथक-पृथक प्रदान करते हैं। आलयांग जाति के कल्पवृक्ष स्वस्तिक एवं नन्द्यावर्त आदि सोलह प्रकार के रमणीय भवन प्रदान करते हैं। दीपांग जाति के कल्पवृक्ष प्रासादों में शाखा, प्रवाल, फल, फूल एवं अंकुर आदि के द्वारा जलते हुए दीपकों के सामान प्रकाश प्रदान करते हैं। भाजनांग जाति के कल्पवृक्ष स्वर्ण एवं विविध रत्नों से निर्मित थाल, झारी, कलश, गागर, चामर और आसन आदि प्रदान करते हैं। मालांग जाति के कल्पवृक्ष वल्ली ,तरु, गुच्छ, एवं लताओं से उत्पन्न सोलह हजार प्रकार के फूलों की विविध मालायें प्रदान करते हैं। तेजांग जाति के कल्पवृक्ष दोपहर के करोड़ों सूर्यो की किरणों के समान होकर नक्षत्र, चन्द्र एवं सूर्य आदि की कान्ति का सहरण करते हैं। ये कल्पवृक्ष न तो वनस्पतिकायिक हैं और न ही व्यन्तर देव हैं, अपितु पृथिवीकायिक है तथा जीवों को उनके पुण्य का फल प्रदान करते हैं। आदिपुराणकार आचार्य जिनसेन