________________
अनेकान्त 59 / 3-4
ने पानांग के स्थान पर मद्यांग कल्पवृक्ष का उल्लेख किया है । उनके अनुसार मद्यांग कल्पवृक्ष सुगन्धित एवं अमृत सदृश मधुर मैरेय, सीधु, अरिष्ट और आसव आदि मद्य प्रदान करते हैं । वास्तव में ये वृक्षों के एक प्रकार के रस हैं, जिन्हें भोगभूमिज मनुष्य सेवन करते हैं । मद्यपायी लोग जिस मद्य का पान करते हैं, वह मद का कारक है तथा अन्तःकरण को मोहित करने वाला है; अतः आर्यजनों द्वारा सर्वथा त्याज्य है । "
74
मध्यलोक में भोगभूमियाँ
1
मध्यलोक के सात क्षेत्रों में हैमवत और हैरण्यवत दो क्षेत्रों में सदैव दुःषमासुषमा काल रहता है, अतः वहाँ पर जधन्य भोगभूमि रहती है हरि और रम्यक इन दो क्षेत्रों पर में सदैव सुषमा काल रहता है, अतः वहाँ पर मध्यम भोगभूमि रहती है । निषध एवं नील पर्वतों के अन्तराल में स्थित विदेह क्षेत्र के बहुमध्य भाग में एक सुमेरु और चार गजदन्त पर्वत हैं। इनसे रोका गया भूखण्ड देवकुरु और उत्तरकुरु कहलाता है । देवकुरु एवं उत्तरकुरु रूप विदेह क्षेत्र में सदा उत्तम भोगभूमि रहती है । शेष विदेह क्षेत्र में कर्मभूमि है
भरत एवं ऐरावत क्षेत्र कर्मभूमियाँ हैं, किन्तु यहाँ पर उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी के रूप में छः समयों की अपेक्षा वृद्धि और ह्रास होता रहता है । उत्सर्पिणी काल में भरत एवं ऐरावत क्षेत्र में रहने वाले मनुष्यों में भोग, उपभोग, अनुभव, सम्पदा, आयु, परिमाण, शरीर की ऊँचाई, विभूति आदि में क्रमशः वृद्धि तथा अवसर्पिणी काल में ह्रास होता जाता है । उत्सर्पिणी काल में दुषमा-दुषमा, दुषमा, दुषमा- सुषमा, सुषमा - दुषमा, सुषमा एवं सुषमा- सुषमा ये षट्काल होते हैं तथा अवसर्पिणी में इसके विपरीत सुषमा- सुषमा, सुषमा, सुषमा - दुषमा, दुषमा- सुषमा, दुषमा और दुषमा-दुषमा ये छः काल होते हैं । सुषमा- सुषमा नामक उत्सर्पिणी के छठे तथा अवसर्पिणीके पहले काल में उत्तम भोगभूमि की व्यवस्था पाई जाती है। सुषमा नामक उत्सर्पिणी के