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अनेकान्त 59/3-4
निषध, नील, रुक्मि एवं शिखरी नामक छ: कुलाचल करते हैं।' आगमवर्णित सप्त क्षेत्रों के नाम अनादि-निधन एवं शाश्वत हैं।
भूमि का अर्थ ___ लोक में जीवों के निवास स्थान को भूमि कहा जाता है। मध्यलोक में कर्मभूमि एवं भोगभूमि नामक दो प्रकार की भूमियाँ हैं, जिनमें मनुष्य
और तिर्यच निवास करते हैं। जहाँ के निवासी स्वयं कृषि आदि षट्कर्म करके जीवनयापन करते हैं, उसे कर्मभूमि कहा जाता है तथा जहाँ ऐसी व्यवस्था नहीं है, अपितु कल्पवृक्षजन्य भोगों की प्रधानता है, उसे भोगभूमि कहा जाता है। यद्यपि भोगभूमि पुण्यफल मानी जाती है, तथापि भोगभूमि से मोक्ष पुरुषार्थ की साधना नही होती है।
भोगभूमि का अर्थ ___ आचार्य पूज्यपाद स्वामी ने भोगभूमि का निरुक्त्यर्थ करते हुए कहा है-'दशविधकल्पवृक्षकल्पितभोगानुभवनविषयत्वाद् भोगभूमय इति व्यपदिश्यन्ते' अर्थात् दस प्रकार के कल्पवृक्षों से प्राप्त हुए भोगों के उपभोग की मुख्यता होने से भोगभूमियाँ कही जाती हैं। भगवती आराधना की विजयोदया टीका में श्री अपराजितसूरि ने भोगभूमिज मनुष्यों का वर्णन करते हुए लिखा है कि जहाँ मनुष्य मद्य, तूर्य, वस्त्र, आहार, पात्र, आभरण, माला, घर, दीप ओर ज्योति प्रदान करने वाले दस प्रकार के कल्पवृक्षों से जीवनयापन करते हैं, जहाँ पुर, ग्राम आदि नही होते हैं, न राजा होते हैं न कुल, न कर्म एवं न शिल्प होता है। न वर्णव्यवस्था, न आश्रमव्यवस्था होती है। जहाँ स्त्री-पुरुष नीरोग रहकर पति-पत्नी के रूप में रमण करते हुए पूर्व जन्म के पुण्य का फल भोगते हैं और स्वभावतः भद्र होने के कारण मरकर भी स्वर्ग में जाते हैं, वे भोगभूमियाँ कही गई हैं। इनमें जन्म लेने वाले मनुष्य भोगभूमिज कहलाते हैं।