SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 208
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ मध्यलोक में भोगभूमियाँः एक अनुचिन्तन ___ - डॉ. जयकुमार जैन आकाश के जिस भाग में जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म और काल द्रव्य पाये जाते हैं, वह लोक है तथा शेष आकाश अलोक कहलाता है। जगश्रेणी के घन प्रमाण से यह लोक तीन भागों में विभक्त हैअधोलोक, ऊर्ध्वलोक और मध्यलोक। इनमें अधोलोक का आकार वेत्रासन के समान, मध्यलोक का आकार खड़े किये गये आधे मृदंग के ऊर्ध्व भाग के समान तथा ऊर्ध्वलोक का आकार खड़े किये हुए मृदंग के समान है। तीनों लोकों का समन्वित आकार उस मनुष्य सदृश है, जो अपने दोनों पैरों को फैलाकर एवं दोनों हाथों को कटि प्रदेश पर रखकर खड़ा हो। अधोलोक में नरक की सात भूमियाँ एवं उनके नीचे निगोदों की निवासभूत अष्टम भूमि है। ऊर्ध्वलोक सुमेरु पर्वत की चोटी से एक बाल मात्र अन्तर से प्रारंभ होकर लोकशिखर तक है। इनमें सर्वार्थसिद्धि तक स्वर्गलोक तथा सर्वार्थसिद्धि के ध्वजदण्ड से 29 योजन 425 धनुष ऊपर सिद्धलोक है। मध्यलोक का परिचय ___ लोकाकाश के ठीक बीच में एक राजू लम्बा, एक राजू चौड़ा एवं एक लाख चालीस योजन ऊँचा मध्य लोक है। यतः इसमें द्वीप एवं समुद्रों की रचना तिरछे रूप में पाई जाती है, अतः इसे तिर्यग्लोक भी कहा जाता है। इसमें जम्बूद्वीप एवं लवण समुद्र से लेकर एक दूसरे को आवेष्टित किये हुए असंख्यात द्वीप एवं समुद्र हैं। इन द्वीप एवं समुद्रों का विस्तार एक दूसरे से दूना-दूना है। जम्बूद्वीप में भरत, हैमवत, हरि, विदेह, रम्यक, हैरण्यवत और ऐरावत नामक सात क्षेत्र पाये जाते हैं। इनका विभाजन पूर्व से पश्चिम तक लम्बायमान हिमवन, महाहिमवन,
SR No.538059
Book TitleAnekant 2006 Book 59 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2006
Total Pages268
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy