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________________ 106 अनेकान्त 59/1-2 ___यद्यपि मध्य युग से पूर्व के दो मनीषी आचार्यों श्री समन्तभद्र स्वामी (द्वितीय शताब्दी) और श्री पूज्यपाद स्वामी (चतुर्थ शताब्दी) के द्वारा आयुर्वेद के ग्रन्थों की रचना किए जाने का उल्लेख और कुछ अपूर्ण जानकारी मिलती है जिसकी चर्चा आगे इन आचार्यों सम्बन्धी प्रकरण में की जायेगी, किन्तु वर्तमान में इन दोनों आचार्यों द्वारा लिखित कोई भी ग्रंथ अभी तक प्रकाश में नहीं आया है। अतः यह कह पाना सम्भव नहीं है कि द्वितीय-चतुर्थ शताब्दी में प्राणावाय की परम्परा विद्यमान रही है। किन्तु इतना अवश्य है कि श्री समन्तभद्र स्वामी द्वारा विरचित आयुर्वेद के अष्टांगों से युक्त कोई ग्रंथ (सम्भववतः अष्टांग संग्रह) श्री उग्रादित्याचार्य (आठवीं शताब्दी) के समय में अवश्य ही विद्यमान रहा होगा जिसके आधार पर कल्याणकारक ग्रंथ की रचना किए जाने का स्पष्ट उल्लेख श्री उग्रादित्याचार्य ने किया है जो निम्न प्रकार है - अष्टांगमप्यखिलत्र समन्तभद्रैः प्रोक्तं सविस्तरवचो विभवैर्विशेषात् । संक्षेपतो निगदितं तदिहात्मशक्त्या कल्याणकारकमशेषपदार्थयुक्तम् ।। ____ अर्थात् श्री समन्तभद्रस्वामी द्वारा वाणी वैभव की विशेषता से विस्तारपूर्वक अष्टांग से युक्त सम्पूर्ण आयुर्वेद शास्त्र का कथन किया गया था। उसे ही अपनी शक्ति के अनुसार समस्त पदार्थों (विषयों) से युक्त यह कल्याण कारक ग्रंथ संक्षेप रूप से मेरे द्वारा कहा गया। ___ मध्ययुग में भी कल्याणकारक ग्रंथ की रचना के अतिरिक्त किसी अन्य सर्वांगपूर्ण ग्रंथ की रचना का संकेत नहीं मिलने से यह स्पष्ट है कि मध्य युग में प्राणावाय परम्परा का ह्रास होता गया और कालान्तर में उसका लोप भी हो गया। यद्यपि इस परम्परा के लुप्त होने के अनेक कारण हो सकते हैं, तथापि मुख्य कारण अज्ञात है। सम्भावित कारणों में जैसे वैद्यक विद्या (चिकित्सा शास्त्र) को जैन धर्म में एक लौकिक विद्या को सीखना और उसका अभ्यास करना निष्प्रयोजन होने से ग्रंथ रचना करना सम्भव नहीं था, क्योंकि वे सतत भ्रमण शील रहते थे। एक स्थान पर ठहर कर रहना उनके लिए सम्भव नहीं था, वे एक स्थान
SR No.538059
Book TitleAnekant 2006 Book 59 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2006
Total Pages268
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size8 MB
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