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अनेकान्त 59 / 1-2
गोम्मटसार ( जीवकाण्ड) की जीवतत्वप्रदीपिका संस्कृत छाया निम्न प्रकार है- प्राणानां आवादः प्ररूपणमस्मिन्निति प्राणावायं द्वादशं पूर्वं, तच्च कायचिकित्साद्यष्टांगमायुर्वेदभूतिकर्मजांगुलिकप्रक्रमं इलापिंगलासुषुम्नादिबहुप्रकारप्राणापानविभागं दशप्राणानां उपकारकद्रव्याणि गत्याद्यनुसारेण वर्णयति । तत्र द्विलक्षगुणितपंचाशदुत्तरषट्छतानि पदानि त्रयोदशकोटय इत्यर्थः ।
अर्थात् प्राणों का आवाद - कथन जिसमें है वह 'प्राणावाद' नामक बारहवां पूर्व है । वह कायचिकित्सा आदि अष्टांग आयुर्वेद, जननकर्म, जांगुलि प्रक्रम, ईड़ा - पिंगला- सुषुम्ना आदि अनेक प्रकार के प्राण - अपान ( श्वासोच्छ्वास) के विभाग तथा दश प्राणों के उपकारक - अपकारक द्रव्य का गति आदि के अनुसार वर्णन करता है । उसमें दो लाख से गुणित छह सौ पचास अर्थात् तेरह करोड़पद हैं।
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इस प्रकार द्वादशांग में आयुर्वेद का प्रतिपादन होने से जैन धर्म में प्राणावाय के रूप में आयुर्वेद की प्रामाणिकता सुस्पष्ट है। जिन आचार्यों, मनीषियों एवं विद्वत्प्रवरों के द्वारा प्राणावाय को अधिकृत कर विशाल साहित्य के रूप में जो विपुल ग्रंथों की रचना की गई उनमें से वर्तमान में जो उपलब्ध साहित्य या ग्रंथ हैं । उनका अवलोकन करने से प्रतीत होता है कि प्राणावाय की अद्यावधिक विकास यात्रा में अनेक उतारचढ़ाव रूपात्मक परिवर्तन आए हैं। वर्तमान में हमारे समक्ष प्राणावाय परम्परा का एक मात्र प्रतिनिधि ग्रंथ 'कल्याण कारक' है जिसकी रचना आठवीं शताब्दी के अन्त में दिगम्बर आचार्य श्री उग्रादित्य ने की थी । यही एकमात्र ऐसा ग्रंथ है जिसमें प्राणावाय की प्राचीन परम्परा और उस परम्परा के अन्तर्गत कतिपय आचार्यों और उनके द्वारा लिखित ग्रंथों का उल्लेख मिलता है। इसके पूर्व या बाद का ऐसा कोई प्रामाणिक ग्रंथ उपलब्ध नहीं है जो प्राणावाय के समबन्ध में आधिकारिक रूप से प्रकाश डालता हो । अतः इससे यह स्पष्ट है कि प्राणवाय पूर्व ( जैनायुर्वेद) की प्राचीन परम्परा मध्य युग से पूर्व ही लुप्त हो चुकी थी ।