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आयुर्वेद के ग्रंथों की रचना प्रक्रिया में जैन मनीषियों का योगदान
-आयुर्वेदाचार्य राजकुमार जैन जिनागम परम्परा में आयुर्वेद को लौकिक विद्या के रूप में स्वीकार किया गया है और उसे 'प्राणावाय' संज्ञा से व्यवहृत किया गया है।
जैन धर्मानुसार सम्पूर्ण जिनागम द्वादशांग रूप अथवा द्वादशांग में विभक्त है। सर्वज्ञ जिनेन्द्र देव (परमेष्ठी) के मुखारविन्द से मुखरित दिव्य ध्वनि को सम्पूर्ण श्रुतज्ञान के धारक गणधर द्वारा जब धारण किया गया तो ज्ञान रूप वह दिव्य ध्वनि बारह भेदों में विभक्त हुई जिसे आचारांग आदि के रूप में निरूपित किया गया। इस प्रकार गणधर द्वारा निरूपित ज्ञान रूप आगम के बारह भेदों को द्वादशांग की संज्ञा दी गई। उन द्वादशांगों में प्रथम ‘आचारांग' है और बारहवां 'दृष्टिवादांग' है। उस बारहवें दृष्टिवादांग के पांच भेद हैं जिनमें से एक भेद है 'पूर्व' या 'पूर्वगत'। उस 'पूर्व' (पूर्वगत) के चतुर्दश भेद हैं जिनमें एक (बारहवा) प्राणावाय नाम का भेद है। द्वादशांग के इसी 'प्राणावाय' नामक अंग में सम्पूर्ण अष्टांग आयुर्वेद का कथन किया गया है। राजवार्तिक में 'प्राणावाय' का स्वरूप निम्न प्रकार से वर्णित है"कायचिकित्साद्यष्टांगमायुर्वेदः भूतिकर्मजांगुलिप्रक्रमः प्राणापानविभागोऽपि यत्र विस्तरेण वर्णितस्तत्प्राणावायम्।"
अर्थात् जिस शास्त्र में काय, तद्गत दोष और चिकित्सा आदि अष्टांग आयुर्वेद का वर्णन विस्तार पूर्वक किया गया हो, पृथ्वी आदि महाभूतों की क्रिया, विषैले प्राणियों और उनके विष की चिकित्सा आदि तथा प्राण-अपान का विभाग जिसमें विस्तार पूर्वक वर्णित हो वह 'प्राणावाय' है।